Anjane lakshy ki yatra pe - 16 in Hindi Adventure Stories by Mirza Hafiz Baig books and stories PDF | अनजाने लक्ष्य की यात्रा पे - 16

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अनजाने लक्ष्य की यात्रा पे - 16

अब तक आपने पढ़ा...

सहसा प्रकाश की एक किरण नज़र आई। एक लपलपाती हुई अग्नि... फिर उसे धारण किये हुये एक हाथ। एक परछाई ऊपर छत की ओर बढ़ी आरही थी जिसने एक मशाल थाम रखी थी फिर कुछ और मशालें फिर कुछ और लोग। अब मशालों की लपलपाती रौशनी में उन्हें मैं पहचान सकता था। इसमें कुछ सैनिक मत्स्मानव थे, और गेरिक था मेरा मित्र, हमारे जलयान के अभियान सहायक थे और सेनापति...

और था उस संकट का प्रमुख कर्ताधर्ता, सेनापति का वह गुप्तचर... मशाल थामें सबसे आगे...

अनजाने लक्ष्य की राह पे

भाग-16

कथा का आगे बढ़ना

भोजन के समय व्यापारी के हाथ खोल दिये गये। वह शेरू को अपने आप से सटाये बैठा अपने भोजन में से शेरू को भी भोजन खिलाता जाता था और यह देख नवागंतुक डाकु मुस्कुराता जाता था।

“एक बात बताओ,” व्यापारी ने कहा, “ढलान से उतरते समय हम लोग किसी न किसी पेड़ अथवा पत्थर का सहारा लेकर ही नीचे उतर पाते तब भी तुम अधिकतर समय धनुष बाण हाथों में थामें छलांग लगाते हुये नीचे उतरते रहे। इतना संतुलन कैसे बनाये रखते हो?...”

जवाब में वह सिर्फ मुस्कुरा दिया।

“तुम इसे नहीं जानते। हमारा भाई तो दौड़ते हुये घोड़े पर खड़े रहकर बाण चलाता है और उस स्थिति में भी एक भी निशाना नहीं चूकता।” एक डाकू ने बड़े गर्व के साथ कहा। व्यापारी ने उसकी ओर देखा। वह अब भी मुस्कुरा रहा था। स्वीकृति सूचक मुस्कान।

यह मुस्कान कहीं देखी हुई लगती है। व्यापारी सोंचने लगा, बहुत जानी पहचानी सी मुस्कान है। उसने मस्तिष्क पर बहुत ज़ोर डाला पर उसे कुछ याद नहीं आया।

“यह कैसे कर लेते हो तुम?” व्यापारी ने पूछा।

“अपनी अपनी प्रतिभा है। हर व्यक्ति में अपनी कोई न कोई प्रतिभा होगी। जब व्यक्ति उसे पहचान लेता है तो उसे निखारता है...” उसने कहा।

“हर व्यक्ति में?”

“हाँ, हर व्यक्ति में अपनी एक मौलिक प्रतिभा होती है। सब में होती है जो लोग निर्पेक्ष और निष्पक्ष भाव से अपना आंकलन करते रहते हैं वे ज़रूर अपनी प्रतिभा को पहचान लेते हैं; बहुत से लोग नहीं पहचान कर पाते।”

“तो इन दोनो मूर्खों को भी सिखाओ अपनी प्रतिभा को पहचानना, इनमें भी ज़रूर होगी कोई न कोई प्रतिभा...” व्यापारी ने व्यंग किया।

“ज़रूर होगी...” उस नवागंतुक ने जवाब दिया।

“और जैसे, तुम तो खूब पहचानते हो अपनी प्रतिभा को।” एक डाकु ने चिढ़कर कहा।

“हाँ, क्या तुम पहचानते हो अपनी प्रतिभा को?” नवागंतुक डाकू ने पूछा।

“इसमें तो बस, बातें करने की प्रतिभा है...” कहकर दोनो डाकू हँसने लगे। वे उपहास कर रहे थे, व्यापारी का। व्यापारी शांत था।

किंतु नवागंतुक की गम्भीरता में कोई परिवर्तन नहीं आया। वह उसी लय में बोलने लगा, “बात करने की प्रतिभा... यह तो दुनियाँ में सबसे बड़ी प्रतिभा है...” व्यापारी आश्चर्य से उसकी ओर देखने लगा, “दुनियाँ की सबसे उपयोगी और सबसे शक्तिशाली प्रतिभा। बातों से आप अपनी भावनाओं को दूसरों तक सम्प्रेषित करते हो। बातों से ही आप अपने विचारों को दूसरे के मस्तिष्क में स्थापित करते हो। बातों से तो आप लोगों के विचारों को संक्रमित करते हो। इतिहास साक्षी है बात करने की प्रतिभा से कई बार एक अकेला व्यक्ति करोड़ों दूसरे व्यक्तियों को उद्वेलित करके सत्ता को उखाड़ फेंकता है। अपनी इसी प्रतिभा के दम पर कई बार एक अकेले व्यक्ति ने पूरे विश्व को बदल कर रख दिया है...”

वे दोनो डाकू आश्चर्य से मुंह खोले उसकी बात सुन रहे थे और व्यापारी सोंच रहा था, इस डाकु में इतना ज्ञान कहाँ से और कैसे? कोई तो रहस्य है...

बोलते बोलते अचानक वह चौंका। वह सम्हला और व्यापारी से बोला, “हाँ, तुममें तो बातों की प्रतिभा है न!! इसी के दम पर तो तुम लोगों को ठगते हो?”

इतना कहकर वह चुप हो गया। एकदम चुप्। जैसे कोई रहस्य छुपाना चाहता हो। अब हर ओर मौन का साम्राज्य था। सभी मौन थे। जंगल भी मौन था। कहीं कोई आवाज़ नहीं। हवा भी मौन थी। चारों चुपचाप अपना भोजन करने लगे। शेरु भी बिल्कुल ही मौन था और चुपचाप बारी बारी चारों की ओर देखता हुआ इस मौन का कारण समझने का प्रयास कर रहा था।

भोजन समाप्त हो चुका था। भोजन के बाद वे सुस्ता रहे थे। किंतु यात्रा की थकान भी शरीर को शिथिल कर रही थी; जबकि वे जानते थे अभी इससे दुगुनी से ज़्यादा यात्रा बची हुई है और उसे जितना हो सके उतने शीघ्र ही पूर्ण करना है। सामने थोड़ी दूर सपाट भूमि और उसके बाद चढ़ाई है। यदि आधी चढ़ाई भी पार कर लेते हैं तो फिर विश्राम लिया जा सकता है। कम से कम आज के लिये तो निरापद हुआ जा सकता है।

अतः विश्रांति की अवस्था में पड़े थे और मौन सर्वत्र व्याप्त था। अचानक एक डाकु ज़ोर से हँसने लगा। सभी की तंद्रा भंग हो गई। सब उसकी ओर देखने लगे।

“तुम तो सदैव ही मुसीबत में फँसते रहते हो, फिर अभी तक जीवित कैसे हो???” हँसने वाला डाकु बोलने लगा, “सोंचो तो, प्यार किया तो भी मुसीबत बुला ली।”

“यह कोई अनहोनी बात तो है नहीं...” व्यापारी ने कहा, “प्रेम तो सदैव ही कष्ट का कारण बनता आया है।”

“तुम और प्रेम? मुझे तो इस कल्पना पर भी हंसी आती है।” कहकर दूसरा डाकु भी हँसने लगा।

“अच्छा! तुम्हारी भी प्रेमकथा है?” नवागंतुक डाकु ने पूछा।

“कल रात वह यही कथा सुना रहा था... प्रेम करते ही मुसीबत में फंस गया... हा हा हा...” हँसते हुये दूसरा डाकु बोला।

“अच्छा! मुझे भी तो सुनाओ ... तुम्हारी कथा सुनते सुनते चलते रहेंगे तो रास्ता भी आसानी से कट जायेगा।” नवागंतुक डाकु ने कहा और सबको यात्रा शुरु करने का आदेश दिया।

अब वे धीरे-धीरे चलते जा रहे थे और व्यापारी केंद्र में था। इस बार व्यापारी को बांधा भी नहीं गया था।

व्यापारी ने रात जिस जगह से कथा अधूरी छोड़ी थी वहीं से सुनाना आरम्भ किया…

“तो सेनापति के उस गुप्तचर को मुझपर संदेह हो गया था। यह नहीं होना चाहिये था क्योंकि हम पहले से संदिग्ध थे और विश्वास जीतने के लिये ही हम इस यात्रा पर थे।

मैं आने वाले संकट की कल्पना करके दुखी था। बात कुछ नहीं थी लेकिन वह गुप्तचर अपने स्वामी के समक्ष अपने आप को सतर्क और चतुर सुजान साबित करने के लिये पता नहीं क्या क्या आरोप लगाने वाला है। मैं क्या जवाब दूंगा? कैसे कहूंगा कि मैं एक मत्सकन्या के प्रेम में पड़ गया हूँ। और वे पूछेंगे कि वह कौन है तो कैसे बताऊंगा? और अपनी बात साबित कैसे करूंगा?

मेरे कारण मेरे मित्र गेरिक के भी प्राण संकट में आ जायेंगे। यह प्रेम तो है ही बुरी वस्तु। यह हमेंशा संकट साथ लाता है। मेरी ही मति मारी गई थी। मैंने प्रेम किया ही क्यों?

मैं इसी प्रकार विचारों में मग्न था कि अपने जलयान के समीप ही अंधेरे में मुझे छपाक की आवाज़ सुनाई दी। मैं भाग कर उस ओर गया जिधर से आवाज़ आई थी। उस जगह छत के किनारे से नीचे झांक कर देखा। अंधेरे में कुछ भी दिखाई नहीं दिया। आंखों पर बहुत अधिक ज़ोर डालने पर सिर्फ सागर की लहरों का आभास हुआ।

मैं वापस मुड़ा तभी एक बार फिर वही छपाक की आवाज़ सुनकर मैं पुनः सागर की ओर मुड़ा वहाँ कुछ न था। सागर की गर्जना थी और रात का अंधेरा था। मैंने आंखों पर दबाव डालकर दूर दूर तक देखने की कोशिश की किंतु अंधकार के सिवा कुछ नज़र नहीं आया।

हे ईश्वर ! यह क्या है?

मैंने ऊपर आकाश की ओर देखा। अंधेरे काले आकाश पर टिमटिमाते सितारों की भरमार थी। ऐसा लगता था वे बहुत नीचे तक लटक आये हैं। लगा जैसे वे अपने बोझ से टूटकर अभी मेरे सिर पर गिर पड़ेंगे। मैंने डर कर सिर झुका लिया और एक नज़र पोत के छत पर और चारों ओर डाली और पानी में जो दो बार छपाक की आवाज़ सुनी थी उसपर ध्यान केंद्रित करने की कोशिश की।

समुद्री रहस्यों के बहुत से किस्से जो किसी समय कई नाविकों और व्यापारियों के मुख से सुन रखे थे, एक एक कर याद आने लगे। समुद्री दैत्य और समुद्री पिशाच, समुद्री भूत-प्रेत जैसे कल्पना में जिवित हो उठे। और सब उस छपाक की आवाज़ से जुड़ गये। मैं घबरा गया। मेरे रोंगटे खड़े हो गये। मेरे पैर थरथराने लगे और पसीने की बूंदें उभर आईं। हवा का एक तेज़ झोंका आया और लगा जैसे सारे शरीर में सैकड़ों बर्छियाँ चुभो गया।

इस जलपोत की छत पर मैं बिल्कुल अकेला था... भयभीत करने वाली अपनी कल्पनाओं के साथ। नीचे से पदचाप की आवाज़ें आ रही थीं। वे आ रहे होंगे। वे आ रहे हैं। यह आने वाले संकट की आहट है। इस संकट से मुक्ति का एक ही रास्ता मुझे सुझाई दिया, मैं यहाँ से कूद जाऊँ। सागर की गहराई और रात के अंधेरे में कहीं गुम हो जाऊँ कि किसी को मेरे अस्तित्व पर ही विश्वास न रहे...

किंतु क्या यह आत्महत्या होगी? मात्र आत्महत्या?

गेरिक का क्या होगा? मेरे मित्र का जिसके बिना मेरा जीवन संघर्ष ही सम्भव न था। क्या वह संदेह के घेरे में न आ जायेगा? फिर वे लोग उसके साथ क्या करेंगे?...

पदचाप दोनो ओर की सीढ़ियों तक पहुंच चुकी थी और मुझे अपनी आंखों के सामने अंधेरा नाचता हुआ नज़र आ रहा था... सिर्फ अंधेरा...

सहसा प्रकाश की एक किरण नज़र आई। एक लपलपाती हुई अग्नि... फिर उसे धारण किये हुये एक हाथ। एक परछाई ऊपर छत की ओर बढ़ी आरही थी जिसने एक मशाल थाम रखी थी फिर कुछ और मशालें फिर कुछ और लोग। अब मशालों की लपलपाती रौशनी में उन्हें मैं पहचान सकता था। इसमें कुछ सैनिक मत्स्मानव थे, और गेरिक था मेरा मित्र, हमारे जलयान के अभियान सहायक थे और सेनापति...

और था उस संकट का प्रमुख कर्ताधर्ता, सेनापति का वह गुप्तचर... मशाल थामें सबसे आगे...

( आगे भाग-17 में...)

“नहीं!” सेनापति ने बड़ी निर्दयता से मेरे मित्र गेरिक के कथन का खंडन कर दिया, “वे मेरे गुप्तचर हैं, जो जल के भीतर तैरते हुये हमारे पोत को अपनी सुरक्षा के घेरे में रखते हैं...”

“इतनी दूर तक?” गेरिक ने हैरानी जताई।

मिर्ज़ा हफीज़ बेग की कृति...