Kale kos, andheri raate - 3 - last part in Hindi Moral Stories by Kavita Sonsi books and stories PDF | काले कोस, अंधेरी रातें - 3 - अंतिम भाग

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काले कोस, अंधेरी रातें - 3 - अंतिम भाग

काले कोस, अंधेरी रातें

(3)

छोट उम्र से ही सबका सपोर्ट थी ...सबका खयाल रखती थी ...देहरादून से भी जब आती तो मेरे लिए कुछ- न –कुछ जरूर लेकर आती, दो डिब्बा चूड़ी, नेलपालिस चाहे फिर घर का ही कोई छोटा –मोटा सामान ।

सितंबर में पढ़ाई खतम हो जाना था, अब तक तो आ आ गई होती यहाँ । देहरादून थी तो जब मन होता चली आती थी ...छुट्टी नहीं भी होता तोस रात को बस में बैठती, सुबह यहाँ पहुंचती, फिर रात को लौट जाती ...

वे अभया की तस्वीर की तरफ निर्विकार भाव से देखे जा रही हैं, देखते –देखते ही कहती हैं ...कुछ भी भूलता नहीं, चेहरा नजर से हटता ही कहाँ है की भूले चाहे याद करें ...

वह, एतबार का दिन था ...हमारी जिंदगी का ऊ सबसे खराब संडे था। सबसे खराब दिन वो छुट्टी में आई हुई थी, संडे सब संडे जैसा ही था ...ठंढ का मौसम सो हम चाय के साथ उसके लिए उसके पसंद का उरद का पकौड़ी बना दिये थे ...दोपहर को कुछ लोग आए तो वो उनके लिए चाय बनाई और पकौड़ी भी तलकर लाई...

दरअसल वो सुबहे से कहीं जाना चाहती थी ...फिर क्या मन में आया की मन बदल लिया फिर फोन आया दोपहर के बाद तो बोली की- जल्दी आ जाऊँगी माँ, और तैयार होने लगी ...जाड़ा बहुत था सो ड्रेस के ऊपर एक लंबा कोट पहन ली थी ....

तब कहाँ जानती थी की इसी कोट के जलने से बचे हुए टुकड़े को देखकर शिनाख्त करनी होगी... उसकी …

वे कुछ देर रुक कर फिर अपनी लड़खड़ाती आवाज को भरसक सहेज कर कहती हैं-‘ इतवार के दिन कितने दिनों तक घर में खाना नहीं बना...अब तो बनाती हूँ, छोटे-छोटे बच्चे हैं घर में, पर फिर भी कोई मन से खाना नहीं खाता, मुर्दनी सी छाई रहती है पूरे घर में ...दरअसल इतवार को ही तो आती थी वहपी, ईतवार उसके आने से ही तो स्पेसल हो जाता था, अड़ोसी –पड़ोसी सब आते मिलने को, उसके संगी –साथी आते...

और आगे कुछ कहते –कहते वे ठहर जाती हैं, शायद मेरे जर्द चेहरे को देखकर...

पता नहीं क्या बूझती है वो कि कहती है नंदिनी से -‘चलो न जाना भैया के साथ, पर उस के साथ बैठकर यहीं पर खेल तो सकती हो... खेलने में तो साथ कोई दिक्कत नहीं है न?...आशा देवी ने मेरी बेटी को खेलने के लिए डोलची भर खिलौने दिये हैं, कुछ टूटे, तो कुछ साबुत ..

वे कहती हैं, ये अभया के खिलौने हैं ....मैं सिहर जाती हूँ पर कहती कुछ नहीं...वे नंदिनी से कहती है अब खेलो इनसे और बेटे से यह कि पासवाली गुमटी से बऊआ के लिए बिस्कुट ले आओ ...और मेरे मना करने पर भी मानती नहीं...

नंदिनी अब मगन है, ...वो भूल चुकी है कि वह किसी अंजान जगह पर है ...बस खेल - खिलौने, गुड्डा-गुड़िया.....

.कितनी भोली उम्र होती है यह, दुनिया के सारे गमों से बेखबर उम्र...बच्चे इतने ही बड़े क्यों नहीं रह जाते हमेशा ?मेरे मुँह से हठात निकाल जाता है यह वाक्य......मेरे मनोभावों कि नदी जैसे बहकर उनके भीतर कि नदी से मिली है-

‘हाँ, सचमुच ...काश कि इतनी ही बड़ी रह जाती वह...काश कि कुछ भी नहीं बदलता हमारी ज़िंदगी में ......ऐसे ही तो खेलती रहती थी वो, इसी जगह बैठकर ...और फिर खेल-खुलकर सब समेटकर रख देती इसी डोलची में ..

.बच्चों जैसी बच्ची कभी नहीं रही वह.....उम्र से ज्यादा होशियार, समझदार......मन होता था कि सब बच्चों कि तरह कभी कुछ मांगे, जिद करे...पर कभी नहीं ...सब समझती थी छोटे से...

और बड़ी होकर भी...डाक्टरी लाईन में जाने का मन था, एक बार में क्लीयर नहीं हुआ तो फिजियो थेरेपी में ले ली ...वह जानती थी कि एम ।बी ।बी . एस में बहुत पैसा लगता है जो कि है नहीं हमारे पास ...

कुछ सोचती –सोचती वे फिर कहती हैं –‘10 मई को उसका जन्मदिन पड़ता था, कुछ पैसा –वैसा दे देते थे, मना लेती थी उन्हीं बच्चों के साथ, जिनको ट्यूशन पढ़ाती थी ......पिछले चार साल से नहीं आ पाती थी जन्मदिन पर । जन्मदिन के समय उसका पेपर जो पड़ जाता था...जब पेपर देकर आती तो हम उसे कुछ दिला देते...जींस पैंट, दूसरा कपड़ा चाहे जरूरत का कुछ भी। जन्मदिन के नाम पर...

भाई सब भी जन्मदिन और राखी पर उसके लिए जरूर कुछ –न-कुछ लेता था । बड़ावाला ट्यूसन पढ़ाता है न, हम कहें तो भले न दे एक पैसा, पर उसके लिए किताब –उताब ला देता था ॥

हँसती है वे थोड़ा, थोड़ा सा हिचकती भी हैं, कहते हुए ‘–बच्चे हमसे थोड़ा डरते हैं, ...पैसा –वैसा लेना हो तो पापा से ही कहते हैं ... भाईयों के लिए भी सिफ़ारिश वही करती थी, पापा से... कौन समझाये उन्हें कि मैं जो थोड़ी सख्ती दिखलाती हूँ, सो उनके भले के लिए ही ....

....क्षण भर के लिए उनके चेहरे पर आई मुस्कान अब उदासियों के बदली बीच जा छिपी है कहीं। धूप –छांव का यह खेल सिर्फ मौसम नहीं खेल रहा, उनके मन के आँगन में भी इनकी आवाजही बदस्तूर कायम है..

और मैं ? मैं तो कबसे कोई कोई सवाल नहीं कर रही, बस उन मौसमों को खेलते देख रही हूँ लगातार, उनकी आहटें पढ़ रही हूँ..

.सोचो अब तो लगता है जैसे उसे पता था, वह नहीं बचेगी ....हम उससे छिपाते थे अपनी हालत...

और वह हमसे ......पीती रही सारा दुख भीतर –ही- भीतर जैसे की हम उसका दुख जानेंगे तो

..हमें देखती तो आँखों मे आँसू आ जाता, पर बाहर आने से रोकती उन्हें ...[वे रूककर एक गहरी सिसकी लेती हैं ॥]मुझे देखती तो हाथों के ईशारे से कहती -ठीक हूँ, चिंता मत करो, , , [आँखों को पल्ले से पोछती हैं वे]

कभी एकाध बार जब बात हुई तो हम कहते- बेटा ठीक हो जाइए जल्दी हम कैसे रहेंगे तुम्हारे बिना ...तो वो कुछ नहीं बोलती ...बातें ज्यादा कहां होती थी, जितना समय मिलता उसके पास बैठे रहते पाईपें लगी रहती थी न, चारों तरफ ...

...वह सांस लेने को रुकती हैं की मैं पूछती हूँ’ –आखिरी बार जब उसकी नजरें आपसे मिली तो कुछ कहना चाहती थी वो...?

उनकी उदास आँखें अन्तरिक्ष में न जाने क्या तलाश रही हैं –

वे कुछ सोचती हुई बताती हैं –वह बोल नहीं पा रही थी पर ईशारे से उसने कहा था –‘भूख लगी है ...या कि कुछ खाने का मन हो रहा है ...

हमने डॉक्टर से पूछा तो उसने कहा कि देखिये हम इसे खाने को नहीं दे सकते ।, इसे समझाइए कि ये जो नलियाँ लगी हुई हैं, इससे वही चीजे इसके भीतर जा रही है। जरूरत भर पोषण इन्हें नलियों से ही दिया जाना है ...

तमाम उम्र मेरा मन रोता रहेगा कि आखिरी पलों में मेरी बेटी ने मुझसे कुछ निवाले मांगे थे, वह भी उसकी यह बदनसीब माँ उसे न दे सकी ...काश, मैंने डॉक्टर कि बात न मानी होती... पर तब तो यहीं उचित जान पड़ा था, सो दिल कड़ा करके ...

बड़े भयानक थे वे दिन, …कितने काले कोस चले हम, ... न जाने कितनी घनेरी -अंधेरी रातें ...जो अब तक पीछे-पीछे घूमती है हमारी ... उनकी आँखें फिर गुमशुदा हैं...

उस भयानक हादसे की खबर मिलने के बाद जब हम अस्पताल पहुँचे तो खबर मिली की कई ऑपरेशन हो चुके हैं, मैंने देखा उनकी सिलाई तक ठीक से नहीं हुई थी तब तक ...हर दूसरे- तीसरे दिन सफाई होती थी ।

हर तरफ नलियाँ-ही नलियाँ ;यहाँ से वहाँ तक, [वे शरीर के अलग –अलग अंगों की तरफ ईशारा करती हैं, ....

सच पूछिए तो बचने की उम्मीद कम ही दिखती थी, पर मेरा मन; एक माँ का मन सोचता था कोई चमत्कार हो जाये गर ....जो लड़की इतना सब झेल के जिंदा रही...शायद अब भी बच जायेगी...

सिसकियाँ टूट –टूटकर निकाल रही है उनकी, शब्द कम ;जैसे मुंह-मुंदे जल का अंदरूनी बहाव...या फिर बिना मुँह का फोड़ा कहीं बाल भर जगह से धीरे-धीरे रिसना शुरू हुआ हो रुक –रुककर ...

जाने क्यों, मैं अब भी उनके आंसुओं से कतरा रही हूँ..

.मैं नंदिनी को तलाश करने के बहाने से उठ रही हूँ ॥

वे कहती हैं -वो आँगन में खेल रही है शायद, आवाज तो आ रही है बच्चों की...

मैं उठकर देखती हूँ –‘आँगन में ढेर सारे बच्चे हैं, खेल रही है वह भी उनके बीच मगन-मन । नंदिनी को इतना खुश बहुत कम देखा है, अपने साथ खेलते हुए भी कभी ऐसे नहीं पाया ...मैं सोचती हूँ, दिल्ली लाकर मैंने उसके साथ कोई नाइंसाफी की ?वहाँ होती तो खेलने को ढेर सारे साथी होते .. इतना अकेला तो नहीं पाती वह खुद को... मैं अपने खयालो को बरजती हूँ अब, यह सब सोचने का मतलब .....?

वे भी आई हैं मेरे पीछे –पीछे और देखकर खुश हुई हैं- ‘आपकी बच्ची से खेलने को आ गए होंगे ....अब कहाँ आते हैं बच्चे इस आँगन, जब वह थी, या की फिर आती थी देहरादून से तो बच्चे उसके पीछे लगे रहते-दीदी ये...दीदी वो...

और वो बच्चों के साथ खेलती भी, उन्हें खिलाती भी ...पर्स में हमेशा चौकलेट होता इन बच्चों के लिए...सच पूछो तो इनकी मायेँ भी नहीं चाहती, मना करती है इन्हें यहाँ आने से ...

हम लौट आए हैं कमरे मे...और अगला सिरा भी मैंने यहीं से थामा है, उनकी ही बातों के छोर को पकड़कर...

-‘चूंकि मैं भी बिहार की ही हूँ, वहाँ के एक छोटे से कस्बे से आई हूँ, सो जानती हूँ, समझती हूँ छोटी जगहों का माहौल ...और जिन गलियों से पहुंची हूँ, उन्हें देखकर बिलकुल भी नहीं लगता कि आसपास के लोगों से आपको कोई मानसिक सपोर्ट मिलता होगा?

वे निर्विकार भाव से मुझे देख रही हैं...फिर कुछ सोचते हुए कहती हैं-देखिये हमारे मुँह पर कोई कुछ नहीं कहता ...पर सबका रवैया तो एक जैसा नहीं हो सकता है न, कोई के मन में सच्ची तकलीफ है, तो कुछ को यह भी लगता है कि बेटी चाहे मर गई पर पैसा तो मिला, ...

बेटा का ऐडमिशन हो गया ...घर मिला ।

हम किसी से कुछ मांगने तो नहीं गए थे ...हमारे लिए तो सुख क दिन तब आता जब हमारी बेटी पढ़-लिखकर बड़ा आदमी बनती, खुद कमाती ...हमें अपनी बेटी चाहिए थी और अब एक ही चीज चाहिए वह है इंसाफ ...

.रामसिंह ने जब फांसी लगाई हम खुश हुए, उसे उसके करमों कि सजा मिली हमारे कलेजे की आग को थोड़ी सी ठंढ़क ...औरों को भी देर सबेर सजा मिल जाएगी ...

पर सबसे ज्यादा तकलीफदेह है कि जो सबसे गलत था, वह आज भी सबसे ज्यादा निर्भीक है । अदालत में सबसे कम डर उसी की आँख में दिखता है ;हम तो बच जाएँगे वाला गुस्ताख़ भाव ...अरे जो जैसा गुनाह किया है सजा भी वैसी ही न होगी ...कि उम्र देखकसर सजा देंगे ...?

नहीं देंगे तो और लड़कियां शिकार होती रहेंगी ...और मुजरिम बचते रहेंगे-‘ कि नाबालिग हैं ‘।

...सब शिक्षा, सब अंकुश खाली लड़की को ...

18 साल से पाँच महिना कम का था तब ...अब तो कम का नहीं है...?

मेरे चेहरे पर प्रतिरोध की लकीरें उगी हैं बेहिसाब ...मैं जानती हूँ दिल से उनकी बातों से सहमत होने के बबजूद तर्क और मेरा कम मुझे ऐसी बातों से सहमत होने की इजाजत नहीं देता...

...और सबसे बड़ा जानवर भी तो वही था ...वह रौड भी तो ......

मेरे चेहरे पर उगे प्रश्नों को पढ़ लेती हैं वे –‘जानती हूँ फैसला कुछ भी हो, हमने जो खो दिया वो वापस नहीं मिलेगा ...किसी के फांसी से भी नहीं ...पर सजा मिलेगी कुछ लोगों को तो शायद ऐसी घटनाएँ कमे ...खत्म तो पता नहीं कभी हो भी कि या नहीं ...

मन भी नहीं मानता इस सबके लिए न....वह गई कहाँ है कहीं हम सबके दिल में है ...उसके लिए लड़नेवालों कि आत्मा में है....

मैंने तस्वीर पर उसके माला नहीं चढ़ाया, न कभी कोईऊ फूल ही ...उसकीन असली श्र्द्धांजली न्याय के सिवा और कुछ नहीं,

कहते –कहते वे थमती हैं…चौंक उठती हैं ... अभया कि तस्वीर के आगे कुछ उजले फूल रखे हुए हैं...तस्वीर कि उसकी मुस्कान जितने ही पाक, निर्दोष। वे सवालिया नज़रों से अपने बेटे को देखती हैं ....गुड्डू कहता है-बाबू लायी है आँगन से तोड़कर ....और रख दिया ....हम मना नहीं कर पाये मम्मी ...उसके निगाहों कि कातरता कह रही है, जैसे कुछ गलत हो गया है ... कुछ बहुत गंभीर…

आशा देवी फिर कुछ कहती नहीं…बस नंदिनी को उठाकर गले से लगती है, एक नहीं कई –कई बार ....

और विहवलता में अपने रूआँसे चुंबनों से उसका चेहरा भर देती हैं ....

हद यह कि नंदिनी रोती नहीं फिर भी...खिलखिला रही है....

-हौले से वे कहती है उससे-‘बिटिया बहादुर बनना...डरना मत कभी...’

नंदिनी न जाने क्या सोच-सोचकर ‘ हाँ ‘में अपनी मुंडी हिलाती है...

आते वक़्त वे नंदिनी को अभया कि एक गुड़िया थमाती हैं ..

.नंदिनी पसोपेश में मुझे देख रही है...मैं अपने उलझनॉ को बरजते हुए ‘हाँ’ में मुंडी हिलाती हूँ।नंदिनी किलक पड़ती है...

उनके घर से निकलते हुए मैं देखती हूँ-दोपहर शाम में तब्दील हो चुकी है...और शाम भी धीरे –धीरे रात कि स्याह चूनर ओढ़ रही है ...

पर मैं आज आम दिनों कि तरह डरती नहीं, बिलकुल भी नहीं ....

बाहर रोशनियों कि जगमगाहट सुबह का सा आभास दे रही हैं..

.वह डर अब मेरी आत्मा में कहीं है ही नहीं, जो पिछले तमाम रात मुझसे साये कि तरह लिपटा रहा था..

.मैं नंदिनी से कहती हूँ पहली बार ‘-बेटा उँगलियाँ छोड़कर चलो...संभालकर भी ...

और हो सके तो मुझसे आगे ...

.............

फिर धीरे –धीरे सबकुछ संभलने लागा था....जड़े जमते-जमते जमने लगी थी हौले -हौले ...और पांखे भी उगने लगी थी नई-नई ...बूता बस वही कलम था, जो कभी शौक था, खुशी थी, अब रोजी –रोटी हो चुका था ...नींद आने लगी थी बेटी को गले से लगाकर ...मैं खुद इतमीनान करने लगी थी...और माँ को इतमीनान देने कि मेरा निर्णय गलत नहीं था माँ ...कि तभी घटी थी वह घटना ...कि हिल उठी थी मैं जड़ों से, और माँ तो आपदमस्तक –‘चली आ बिटिया, अपना घर आखिर अपना घर होता है ...और अपने, अपने ।

मैं चौंक पड़ी थी कौन सा घर और कहाँ ........

समाप्त