Vah Chehra - 3 - last part in Hindi Love Stories by Roop Singh Chandel books and stories PDF | वह चेहरा - 3 - अंतिम भाग

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वह चेहरा - 3 - अंतिम भाग

वह चेहरा

(3)

उनके पिता पारंपरिक सोच के थे और अपनी बढ़ती उम्र से चिन्तित. एक दिन वह दिल्ली आ पहुंचे और उन्हें धमकाने के अंदाज में बोले,''तपिश,मैं उस रिश्ते को तोड़ने जा रहा हूं.... हद ही हो गयी. तय हुए डेढ़ साल से ऊपर हो चुका है.... उनके बहानों का अंत ही नहीं.... मुझे तो दाल में कुछ काला नजर आ रहा है .''

''क्या ?'' धीमे स्वर में उन्होंने पूछा था .

''यही कि वे लोग किसी आई.ए.एस. -पी.सी.एस. के चक्कर में हैं. वहां से उन्हें स्पष्ट उत्तर नहीं मिल रहा होगा.... और तुम्हें उन्होंने स्थानापन्न के रूप में रखा हुआ है.''

''मैं भी जल्दी में नहीं हूँ.'' उन्होंने उत्तर दिया था.

''तुम्हें जल्दी क्यो होगी? तुम्हारी छोटी बहन छब्बीस की हो रही है... तुम्हें यह पता नहीं होगा....? लेकिन मुझे उसकी चिन्ता भी करनी है.''

''डैडी...आप विपाशा की शादी की चिन्ता करें.... मैं फिलहाल शोध की चिन्ता करूंगा....''

'' शोध-वोध...शादी के बाद भी होता रहेगा.''

''रजिस्ट्रेशन होने तक मेरे मामले को स्थगित कर देंगे तो मेरे हित में होगा.'' उनके स्वर की निरीहता ने शायद पिता को सोचने के लिए विवश किया था. हथियार डालते हुए वह मरे-से स्वर में बोले थे ,''तपिश,शादी की भी एक उम्र होती है... उसके बाद फिर समझौते ही होते हैं .''

वह चुप रहे थे.

पिता गए तो वह शोध के लिए नये विषय के पंजीकरण की तैयारी में लग गए थे .

****

तीसरी बार शोध निर्णायक मंडल की बैठक छ: माह बाद हुई. उस बार उनका विषय पंजीकरण के लिए स्वीकृत हो गया था. जिस दिन यह बताने के लिए दफ्तर में उनके गाइड का फोन आया उसी दिन शाम घर पहुंचने पर डाक से आया उन्हें एक निमंत्रण पत्र मिला,जिसपर नजर पड़ते ही वह चौंके थे. उस पर 'मानसी और मनीष के नाम लिखे थे. कार्ड खोलने का मन न होते हुए भी उन्होंने उसे खोला....पढ़ा और एक ओर खिसका दिया. उसके दसवें दिन उन दोनों का विवाह होना था. देर तक वह किंकर्तव्यविमूढ़-सा सोफे पर अधलेटे से बैठे रहे थे. पिछली मुलाकात के दृश्य तेजी से उनकी आंखों के सामने घूमते रहे थे.

'मानसी ने उन्हें केवल मनीष से मिलवाने के लिए बुलाया था....वह शायद इस विषय में बताना चाहती थी...फिर कहा कयों नहीं...' वह सोच रहे थे - 'कहना आवश्यक था? यदि तुममें समझने की क्षमता ही नहीं तब कहकर भी क्या समझ लेते? उसके परिवार वालों को भी इस बारे में जानकारी रही होगी. वे मनीष और उसके प्रेम संबधों के कारण उलझन में रहे होंगे. लेकिन मानसी ने उचित ही किया. यदि अपने परिवार के दबाव में वह उनसे विवाह कर भी लेती तो भी क्या वह मनीष को भूल जाती! तब क्या स्थिति बनती....नहीं उसने उचित कदम उठाया....' मुझे उसे बधाई देनी चाहिए.

और अगले दिन उन्होंने मानसी को बधाई का टेलीग्राम भेज दिया था .

*****

उसके बाद जीवन कुछ यूं बदला कि उन्हें पता ही नहीं चला. वह निरंतर सफलताओं के सोपान चढ़ते रहे... पी-एच.डी. सम्पन्न होने से पहले ही उस कॉलेज में प्राध्यापक नियुक्त हुए....और आज वह उस कॉलेज में ही प्राचार्य थे. उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा....वक्त भी नहीं था देखने का...वक्त शादी करने के लिए भी नहीं निकाल सके....काम-शोध...और उसी दौरान दो वर्षों के लिए वह हिमाचल विश्वविद्यालय के वी.सी. भी रहे.... केवल दो वर्षों के लिए... दो वर्षों बाद पुन: अपने पद पर वापस लौटे. उन्हें कभी किसी की कमी खटकी भी नहीं. अपने अधीनस्थों और विद्यार्थियों को अपना परिवार समझा और सभी के लिए दरवाजे खुले रखे. आज वह दिल्ली के सर्वाधिक प्रतिष्ठित प्राचार्य के रूप में जाने जाते हैं.

लेकिन मानसी उन्हें कभी याद नहीं आयी ऐसा नहीं था. काम के बीच कभी अचानक खाली होते तो सोच लेते....मानसी उनके जीवन में आयी पहली और अंतिम लड़की थी.... भले ही उसके पिता ने उसे खोजा था और बाकायदा उनकी 'रिंग' सेरेमनी हुई थी. उसके बाद वह उससे दो बार ही मिले थे.... कुछ पत्राचार हुआ था.... तब वह उसके विषय में ही सोचते रहते थे.... सपने बुनते रहते थे. अकेले रहते थे... दफ्तर के बाद मानसी उनके साथ हाती थी... लेकिन जब सब समाप्त हुआ उन्होंने अपने को इतना समेटा कि मानसी भूले-भटके कभी उनके मानस पटल पर विचरण कर जाती और तब वह - ''आपने उचित निर्णय लिया था मानसी'' अपने को उसकी स्मृति से मुक्त कर लेते,'लेकिन उसके जाते-जाते यह भी कहते, ''यदि आपने वह निर्णय न किया हेता मानसी तो मैं आज जो कुछ हूं वह नहीं होता .''

****

साक्षात्कार प्रारंभ होने से पूर्व उन्होंने अभ्यर्थियों के नामों पर दृष्टि डाली और अभीप्सा तिवारी,लखनऊ पर अटक गए. सब कुछ उलटता-पलटता नजर आया. 'हर अभ्यर्थी को जानकारी होती है कि जिस कॉलेज में वह साक्षात्कार के लिए जा रहा है वहां का प्राचार्य,विभागाध्यक्ष और विश्वविद्यालय का विभागाध्यक्ष कौन है. अभीप्सा यदि मानसी की बेटी है तब मानसी को भी ज्ञात होगा, फिर उसने मुझे एप्रोच क्यों नहीं किया? करती तो क्या तुम उसके लिए कुछ कर देते ! डॉ. तिवारी और डॉ. निकिता और मंत्रालय.....क्या वह इतना आसान होता.' उन्होंने सोचा 'आवश्यक नहीं मानसी को पता ही हो.... मेरे नाम के कितने ही लोग हो सकते हैं. फिर उसने तो यही सोचा होगा कि मैं सरकारी बाबू था.... आज भी कुछ पदोन्नतियों के बाद वहीं होऊंगा....' क्षणांश के लिए रुककर पुन: सोचा,'यह भी संभव है वह मानसी हो ही न....'

वह कुछ और सोचते कि अभ्यर्थियों को बुलाये जाने के लिए प्रवीण ने पूछा और उनसे पहले डॉ. पाण्डे ने सिर हिलाकर अनुमति दे दी.

अभीप्सा तिवारी को जब बुलाया गया तब वह कुछ विचलित हुए. एक बार उनके मन में आया कि वह उससे कुछ न पूछकर केवल उसके पेरेण्ट्स के विषय में पूछें,लेकिन तत्काल अंदर से आवाज आयी,'' डॉ. तपिश....क्या मूर्खतापूर्ण बात सोचने लगे.... इतना भावुक होकर अपने पद की गरिमा क्यों घटाने पर तुले हुए हो ?''

अभीप्सा ने चयन बोर्ड के सभी सदस्यों के प्रश्नों के उत्तर दिए और सही-बेहिचक. लखनऊ विश्वविद्यालय से उसने प्रथम श्रेणी में एम.ए. किया था,नेट उत्तीर्ण थी और पी-एच.डी. कर रही थी. अभीप्सा एक हलचल थी उनके अंदर. उसके अतिरिक्त दो अभ्यर्थी और भी थे जिन्होंने सभी के प्रश्नों के सही उत्तर दिए थे. लेकिन उन दोनों के बजाय घूम फिर कर उनके दिमाग में अभीप्सा की नियुक्ति घूम रही थी. 'अभीप्सा ही क्यों?' मन के एक कोने से प्रश्न उठा,'दूसरे अभ्यर्थी इसी विश्वविद्यालय के छात्र हैं.....उनमें कोई कमी भी नहीं है....फिर तपिश तुम अभीप्सा के बारे में ही क्यों सोच रहे हो! मानसी से जुड़ा अतीत तुम्हें परेशान कर रहा है?'

उन्होंने विश्वविद्यालय के विभागाध्यक्ष और डॉ. तिवारी की ओर दृष्टि डाली. डॉ. तिवारी साक्षात्कार समाप्त हो जाने के बाद डॉ. निकिता सिंह से फुसफुसाकर कुछ कह रहे थे और वह स्वीकृति में सिर हिला रही थी. कांफ्रेंसरूम में सन्नाटा देर तक चहलकदमी करता रहा. बीच-बीच में कुछ कागजों की सरसराहट की आवाज हो जाती. तभी उन्होंने धण्टी बजायी. वह सन्नाटे को तोड़ना चाहते थे. गेट पर तैनात चपरासी दौड़ता हुआ आया .

''चाय ''

''जी सर.'' चपरासी के मुड़ते ही वह बोले, ''किसके नाम पर विचार किया डॉ. तिवारी? '' उन्होंने विभागाध्यक्ष और डॉ. निकिता सिंह की ओर देखा.

''रंजना श्रीवास्तव.....''

''डॉ. साहब रंजना आधे प्रश्नों के उत्तर ही नहीं दे पायी थी.....' डॉ. प्रवीण राय विनम्रतापूर्वक बोले.

उन्होंने पुन: विश्वविद्यालय विभागाध्यक्ष की ओर देखा. वह चुप थे.

''सर.... डॉ. प्रवीण ठीक कह रहे हैं.'' डॉ. शुक्ल की आवाज थी. डॉ. शुक्ल ने कुछ अधिक ही प्रश्न किए थे रंजना श्रीवास्तव से. उन्होंने उससे यह भी पूछा था कि पी-एच.डी. के उसके निर्देशक कौन थे! प्रश्न सुनकर पहले तो रंजना अचकचाई थी,फिर डॉ. तिवारी की ओर देखती रही थी. वे यह देखकर उलझन में थे कि वह उनकी ओर क्यों देख रही थी. जब डॉ. शुक्ल ने अपना प्रश्न दोहराते हुए कहा,''रंजना श्रीवास्तव,आप डाक्टर साहब की ओर क्यों देख रही हैं ? मेरे प्रश्न का उत्तर दें .''

''जी,डाक्टर साहब मेरे निर्देशक थे.'' डॉ. तिवारी की ओर इशारा करती हुई रंजना बोली थी.

अब वह समझ पा रहे थे कि डॉ. शुक्ल ने सोच-समझकर उस लड़की से वह प्रश्न किया था. शुक्ल को पहले से ही जानकारी रही होगी और बोर्ड के सभी सदस्यों को इस प्रकार वह इस बात से अवगत करवाना चाहते होगें. शायद उन्हें यह भी जानकारी रही होगी कि डॉ. तिवारी रंजना श्रीवास्तव का ही चयन करना चाहेगें.

अभीप्सा के नाम का प्रस्ताव करने का विचार उन्हें त्यागना पड़ा था,क्योंकि डॉ. तिवारी डॉ. शुक्ल पर बरस पड़े थे. प्रवीण शुक्ल के पक्ष में बोल रहे थे और उनके तर्क थे कि जब रंजना श्रीवास्तव से अच्छे और उससे अधिक योग्य अभ्यर्थी हैं तब उसका चयन क्यो किया जाए !

डॉ. तिवारी और निकिता सिंह रंजना के पक्ष में अड़ गये. लगभग दो घण्टे तक बहस चलती रही. चाय के दो दौर समाप्त हो चुके थे . निष्कर्ष के लिए शुक्ल और प्रवीण उनकी और हेड की ओर देखने लगे थे. हेड ने पूरी तरह मौन धारण किया हुआ था. शायद उन्हें पहले से ही यह ज्ञात था कि तिवारी अपने कंडीडेट के लिए सदैव की भांति अड़ेंगे. तिवारी के आड़े आना उन्हें उचित नहीं लगा. उन्होंने चुप का विकल्प चुन लिया था. तपिश बहुत देर तक अपने प्राध्यापकों और डॉ. तिवारी के बीच छिड़ी बहस को सुनते रहे थे. उन्होंने विभागाध्यक्ष की ओर पुन: देखा. वह स्थितप्रज्ञ थे. अंतत: उन्होंने कहा,''डॉ. तिवारी,रंजना इस कॉलेज के लिए उपयुक्त नहीं रहेगी....उसके बजाय आप किसी अन्य के नाम पर विचार करें तो अच्छा होगा .''

''मैं किसी और के नाम की संस्तुति नहीं करूंगा. यदि आप लोग करना भी चाहेगें तो मैं हस्ताक्षर नहीं करूंगा. ''डॉ. तिवारी ने उबलते हुए कहा.

''मैं भी नहीं करूंगा .'' डॉ. निकिता सिंह के स्वर में भी उत्तेजना थी .

और बोर्ड निरस्त कर दिया गया था.

*****

जब कांफ्रेंस रूम से वह बाहर निकले अंधेरा हो चुका था. चपरासी,सेक्शन अफसर, दो क्लर्कों के अतिरिक्त चौकीदार ही वहां थे. टयूबलाइट्स और पीले बल्बों की रोशनी कॉलेज परिसर में फैली हुई थी. किसी से बिना कुछ कहे वह रिशेप्शन की ओर बढ़ गए. प्रवीण उनके पीछे लपके, लेकिन दूर से ही सूना पड़े रिशेप्शन को देख वह उल्टे पांव लौट पड़े थे अपने चैप्बर की ओर.

''सर,मैंने आपसे पहले ही कहा था....हमें दोबारा उसी प्रक्रिया से गुजरना होगा सर ..... छ: महीने लग जाएगें... लेकिन.....’'

'हुंह....'' विचारमग्न स्वर में वह बोले, ''तो सभी चले गए?''

''कौन सर ?'' प्रवीण ने उनके पीछे चलते हुए पूछा.

''कोई नहीं.''

और वह तेजी से अपने चैम्बर की ओर बढ़ गए थे .

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