Moods of Lockdown - 12 in Hindi Moral Stories by Neelima Sharma books and stories PDF | मूड्स ऑफ़ लॉकडाउन - 12

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मूड्स ऑफ़ लॉकडाउन - 12

मूड्स ऑफ़ लॉकडाउन

कहानी 12

हम फिर मिलेंगे

लेखक: चंडी दत्त

एसटीडी को पहचानते हैं आप? कुछ लोग फुल फॉर्म `सिंह ट्रक ड्राइवर’ बताते हैं तो कई ‘टीडीएस’ भी कह देते हैं - यानी ‘ट्रक ड्राइवर सिंह’।

नहीं-नहीं, सावधान! एसटीडी के सामने मुंह नहीं फाड़ना। उसे तो अपने ऐसे नाम पता तक नहीं हैं। ये चतुराई सोसायटी वाले समझते हैं कि सेक्रेटरी शर्मा के अगवाड़े ही जु़बान खोलनी है और गप्प की जलेबियां छानना है – ‘हां जी, शर्मा जी। सही कहते थे आप। इस ना बंदे की नज़र में ही कोई भेद है, खोट है।‘

कई गॉसिप पसन्दों की बीवियां भी प्रपंच प्रेमी होती हैं। पतिदेवों का नाटक पूरा होता कि वे अपनी-अपनी चिंताएं और आशंकाएं जाहिर करने लगतीं। शीला कहती – ‘जैसा खसम, वैसी बीवी। गेट तक मटकती आती है, सब्जी-दूध लेकर फिर फ्लैट में बंद! ना किसी का दुख पूछना, ना अपना बताना। सीरियल तक ना देखती है मनहूस।‘

पत्रकार की बीवी को इस पंचतंत्र से मतलब ना था, लेकिन समाज से बाहर कैसे हो जाती। भले दुनिया रॉकेट से लटककर चांद पे अठखेलियां कर लौट आई है और नोएडा की इस पॉश सोसायटी में हुक्का पानी बंद होने का चलन भी नहीं है, लेकिन 21 परिवारों के अपार्टमेंट में इतना भी कोई कैसे अफोर्ड करे कि आप जात बाहर कर दिए गए हैं- (यानी बाकी महिलाएँ हुंह करके मुंह फेर लें), इसीलिए पत्रकार की बीवी इतना कहकर कर्तव्य की इतिश्री कर लेती – ‘महिमा घटी समुद्र की, रावण बस्यो पड़ोस।‘

बौद्धिक लोग ये कहकर हंसी उड़ा सकते हैं कि इतने पॉश अपार्टमेंट में रहने वाले भला ऐसी छोटी हरकतें कर सकते हैं तो अब आपके इस अविश्वास पे हम कहें भी तो कहें क्या? (आखिरी लाइन चोरी की है, लेकिन हिंदी साहित्य में इतना तो डेफिनेटली चलेगा, इस विश्वास के साथ अपन माफ़ी नहीं मांगेंगे।)

…चलिए, 9वें फ्लोर पर ताकाझांकी की कोशिश करते हैं। यहां पाप की लंका बसी है। 2 फ्लैट हैं- एक 9 बी बंद पड़ा और दूसरे. यानी 9 ए के दरवाजे के साथ लगी नेमप्लेट पर बस इतना लिखा है – ‘13 मेरा साथ!’ सोचने वाली बात है- नवें फ्लोर पर 13 जैसी अशुभ संख्या का क्या काम? ऐसा भी कोई करता है क्या? लेकिन एसटीडी बनाम टीडीएस को ऐसे ही तो रावण नहीं कहा जाता होगा। कम से कम सोसायटी के मैक्सिमम आभिजात्य लोगों का कहना यही है।

दरवाज़े की मैजिक आई से झांकते ही आप समझ जाएंगे - रावण सचमुच गुलाबी पसन्द है। गुलाबी गमछे को पगड़ी की तर्ज पर लपेटे, सिर्फ बंडी पहने खुरदुरी आवाज़ में गुनगुना रहा है – ‘तेरा मेरा साथ रहे!’

ओह, तो फेवरिट सॉन्ग की लिरिक्स लिखवा ही रखी हैं ज़नाब ने नेम प्लेट पर … पर इस गुनगुने मिजाज़ वाले बन्दे को कोई रावण कैसे कह सकता है? अब यहां फेसबुक की तरह आश्चर्यचकित होने वाली इमोजी बनाई नहीं जा सकती, इसलिए ब्यूटी क्रीम से महरूम इन काले-काले अक्षरों से ही काम चला लीजै। बंदे को पहले सिंह कहा जाता था। एक घटना के चलते रावण नाम पड़ गया।

बात उस दिन दोपहर 12 बजे की है, जब सेक्रेटरी शर्मा को एसटीडी ने लिफ्ट के सामने के ओपन एरिया से नीचे लटका दिया और चिल्लाने लगा - `सॉरी बोलता है #@%*# या भेज दूं नरक में?’ लोगों ने ... ‘हाय-हाय, जान ही ले लेगा क्या भले आदमी की...’ कहकर शर्मा को चांद पार पहुंचने से बचा लिया, लेकिन खुद की उत्सुकता प्यासी रह गई। हंगामे का खुलासा नहीं हुआ, ना इस बात का कि शर्मा ने सिंह को रावण नाम क्यों दिया,. मेघनाद, टार्जन या हत्यारा क्यों ना कहा।

खैर, हंगामे की कुछ धूम होती, रपट-वपट लिखाने का सीन बनता, विचार पैदा होता, उससे पहले ही चायनीज बीमारी ने सबको चारदीवारी में सिमट जाने को मजबूर कर दिया। लोकल अथॉरिटी और पुलिस के कारिंदे बाकायदा पहुंच गए और झटपट में ऐलान कर दिया कि भई, 21 दिन का लॉकडाउन है। सब के सब चुपाई मारकर पड़े रहो। वैसे, ये रहस्य सदियों तक अनसुलझा रहेगा कि दिल्ली से निर्देश बाद में आए और इस सोसायटी के दरवाज़े पहले किस तरह बंद करा दिए गए। चलिए, गेस करते हैं - `इन्कमटैक्स के बड़े अफसर मल्होत्रा साहब के साले जी का मकान यहां है, इसलिए सोसायटी का जलवा अलग है। सारी ख़बरें एडवांस।‘

उस दिन से आलम ये है कि बाहर निकलें तो डंडे पड़ें और कम्पाउंड में टहलते समय गार्ड भी डब्ल्यूएचओ का चेयरमैन बन जाता है - `ना भाभी जी, जैन साहेब नक्को। ज़्यादा देर इधर नहीं रहने का… ।‘ हालांकि शर्मा जी गार्ड को घूरकर चुप करा देते और फिर फिलर्स में निंदा होने लगती रावण की। मजाल है कि शर्मा जी ने लटकाए जाने का रहस्य हलक से उगला हो। वे बस रावण के कैरेक्टर सर्टिफिकेट के पॉइंटस बताते रहते। शर्मा जी की ग़लती भी क्या। एक बंदा पावर में हो तो बेरोजगारी को समस्या बताता है और पावर में आते ही साले साहब को क्लर्की में फिट करा देता है। फिलहाल- उनकी मानहानि हो चुकी थी, इसलिए वे बस निंदा पुराण गा रहे थे। (हिंदी साहित्य के फ्लॉप आलोचकों की तरफ अपना कोई निशाना नहीं है। खालिस, सौ टके, शर्मा जी की बात हो रही है।)

अरे.. आप तो ऊबने भी लगे। ओके... सीधे प्वाइंट पे आते हैं।

- `पापा, पापा। सुनो ना।‘

- `बोल पापे दी जान। घिसी हुई कैसेट। पापा से आगे भी बोल।‘

- `मेरे साथ घर-घर खेलो ना।‘

- `वो क्या होता है। मुझे नहीं आता ये तुम लड़कियों वाला खेल।‘

- ‘जाने दो। बहाने ना बनाओ। कल - मेरे हाथों में नौ-नौ चूड़ियां हैं - पे डांस कर रहे थे और आज कह रहे कि लड़कियों वाला गेम नहीं खेलोगे। अच्छा सुनो, घर-परिवार खेलोगे।‘

- ‘चलो ठीक है। पर मुझे करना क्या होगा?’

- ‘कुछ खास नहीं। मैं पर्चियों पर बर्तनों के नाम लिख देती हूं, तुम सीरियल से लगाते जाना।‘

- ‘ओके बॉस।‘

एसटीडी के चेहरे पर अब हंसी खिल रही थी। तकरीबन छह फीट लंबा-चौड़ा, जाटों जैसी बॉ़डी वाला बंदा नौ साल की बच्ची के साथ बच्चा बन गया था। बच्ची रंगीन कागज़ की स्लिप बना लाई। उन पर बर्तनों के नाम लिखे थे। स्लिप बस एक सिरे से लगाना था, यानी कटोरी गिलास और चम्मच एक साथ और भगोना, कड़ाही, करछुल के नाम लिखी स्लिप दूसरी तरफ। बच्ची के पास ना तो ओरिजिनल बर्तनों का एक्सेस था, ना खिलौने वाले बर्तन थे, लेकिन कहते हैं ना – ‘आवश्यकता आविष्कार की जननी है’ तो बिटिया के दिमाग ने अनूठा तरीका ढूंढ लिया था। स्लिप पर बर्तनों के नाम लिखो और उन्हें ही पिन करके परदे पर टांग दो। बचपन में लालच नहीं होता, इच्छाएं होती हैं। कभी-कभी चतुरता तो दिख जाती है पर किसी बच्चे में छल कितनी ही कोशिश करें, नहीं ढूंढ सकते।

‘मैं जट यमला पगला दीवाना, हो रब्बा इत्ती सी बात ना जानां…’, एसटीडी के फोन की घंटी बजी। उसने स्लिपें एक तरफ छोड़ीं और खुद गेट की ओर लपका।

- ‘जी मैडम। हुकुम…। जी, समझा जी…। मगर मैडम…। ओके जी।‘

उसके घर के अंदर पहुंचने से पहले दो घटनाएं घट चुकी थीं। एक तो हम गेट से पहले ही मिस्टर इंडिया हो चुके थे। (आगे से ज़रूरत पड़ी तो अपन इनविजिबल मोड में ही रहेंगे। कौन लॉकडाउन में हड्डियां तुड़वाए। आजकल कोरोना के अलावा, और कुछ देखा भी नहीं जाता।), दूसरी तरफ बेटी रानी मां के पास शिकायतें लगाने पहुंच गई थीं।

- ‘मां, मां, देख ना पापा ने क्या किया।‘

- ‘क्या किया बेटी, पापा ने।‘

- ‘मेरा घर परिवार बिखेर दिया।‘

- ‘ओह बेटा। बस इतनी सी बात। घर-परिवार बिखेरने के तो ये माहिर ही हैं। अच्छा, ये बता, किसका फोन आया था?’

- ‘मां, बुलबुल आंटी का शायद। पापा, मैडम मैडम कहकर बात कर रहे हैं।‘

- `ओह, तभी कहूं, बनियान पहनकर बाहर कैसे पहुंच गए। ठीक ही है बेटा। ये बुलबुलें जहां आती हैं, वहीं गृहस्थी टूट जाती है।‘

बेटी अपनी बड़ी-बड़ी आंखें झपकाते हुए चुप थी। उसकी समझ में कुछ ना आया तो कहती क्या।

- ‘क्या हुआ रमेश जी।‘

अच्छा रहा कि आपका ये कथावाचक वहां सीढ़ियों के मुहाने पर, दरवाज़े की मैजिक आई के सामने ना था, नहीं तौ रमेश जी संबोधन सुनकर ही ग्राउंड फ्लोर तक लुढ़क जाता, लेकिन ख़ुदा का शुक्र - इतना कुछ सोचने की ज़रूरत नहीं नहीं पड़ी। एसटीडी, टीडीएस, रावण, टॉर्जन जैसे ख़तनाक संबोधनों के बाद बेहद अ-हानिकारक रूप में सामने आए रमेश जी ने बातचीत का मोर्चा संभाल लिया – ‘लवली जी, मुझे आप कुछ भी कह लो। भिंडी लाल, टमाटर प्रसाद। कुछ भी। बस चिंता ना किया करो। सब ठीक होगा। मैं देख रहा हूं, जब भी बुलबुल जी का फोन आता है, आप ना चिंतित हो जाते हो।‘

- ‘रमेश जी, बिनावजह ट्राई ना किया करो जोकर बनने का। आपकी उदास आंखें सब बता देती हैं।‘

- ‘एक उदास आदमी का मसखरा हो जाना हंसने वाली बात तो नहीं है जी!’

- ‘रमेश जी, इससे बड़ी चालाकी कुछ और नहीं हो सकती कि पहले मूर्खतापूर्ण बातें करो, फिर खुद को मासूम साबित करने के लिए उदास हो जाओ और तब भी हल न निकले तो चुप हो जाओ। अगला खुद ही हांफकर शांत हो जाएगा। आप हमेशा से ऐसे ही हो।‘

- ‘अच्छा।‘, बहुत देर बाद रमेश के चेहरे पर हंसी आई। उसने लवली की चुटकी ली – ‘आपको बुलबुल जी से क्या दिक्कत जी। आप कौन-सी मेरी ब्याहता हैं, जो इतनी भभक रही हैं।‘

---- चलिए, सीन चेंज करते हैं और एक सवाल करते हैं आपसे। रमेश अगर ट्रक ड्राइवर है तो इतनी पॉश सोसायटी में रहता कैसे है, जिसमें किराए का मकान भी चालीस हज़ार रुपए महीने से कम नहीं मिलता। अधिक नहीं तड़पाते हैं और आगे की बात सुनवाते हैं।

लवली बौखला उठी, बोली – ‘रमेश जी, भावुकता और मूर्खता में पतली सी लकीर का फर्क होता है। भावुक होकर आप सोचते हैं जी, हम तो बड़े अच्छे हैं। देखिए, कितनी प्यारी बात कही है... पर ये भूल जाते हैं कि तर्क पर ज़िंदगी चलती है। बहुत भावुक लोग हमारे जैसे ही हो जाते हैं... अव्वल दर्जे के निष्फल लोग।‘

- ‘लवली जी, कौन कहेगा कि आप एक चौथी फ़ेल ड्राइवर की बीवी हो। इतनी बड़ी-बड़ी बातें। आवाज़ नीची कीजिए। किसी ने सुन लिया तो क्या कहेगा।‘

लवली की आंखों से आंसू बह आए। उसने कहा- ‘क्या कह रही थीं बुलबुल जी। यही ना कि तुम उनके फ्रेंड्स कॉलोनी वाले घर में जाकर रहो। और मेरे बारे में क्या कहा कि गला दबाकर मार दो।‘

शाम ढल गई थी। उस रात घर में किसी ने कुछ नहीं खाया। चूल्हा ठंडा ही रहा। ठंडा दूध बस बच्ची ने पिया। भोर हुई, दोपहर आई और शाम तक ढल गई। बच्ची कभी सोफे के कोने में अटके रमेश को देखती, कभी दूसरे कमरे में ज़मीन पर बिछी चटाई पर लुढ़की मां को देखकर लौट आती। कहीं से कोई आवाज़ ना आती। रात के आठ बजे, तब लवली ने तेज़ आवाज़ में रमेश को पुकार लगाई। वो ऐसे कदम उठाकर बढ़ा, जैसे कमर से लेकर पैरों तक लोहा बंधा हो।

लवली बुदबुदाई- ‘सुनिए, रमेश जी। बार-बार याद दिलाने की ज़रूरत नहीं कि मैं आपकी बीवी नहीं हूं और अपने साथ रखकर आपने हम दोनों पर एहसान किया है। मैं तो ये भी नहीं कह सकती हूं कि मुझे आपसे प्यार हो गया है। ना मैंने देसी दुल्हनों की तरह उपासना की है, ना हमारा वासना का रिश्ता है।‘

रमेश ने मुस्कराने की कोशिश की और रो पड़ा। बोला, ‘लवली जी। मुझे माफ़ कर देना। मुझे आपको इस नर्क में लेकर नहीं आना चाहिए था।‘

लवली ऐसे हंसी, जैसे आंखें मूंद रही हो – ‘क्या नहीं है यहां। टीवी, फ्रिज, एसी, डबल बेड।‘

- ‘लेकिन हम तो यूं भी चटाई पर सोते हैं।‘

- ‘रमेश जी, क्या कुछ खाओगे? आपको याद है, हमने आज दूसरे दिन भी कुछ नहीं खाया है। बस, बिटिया को कल दूध दिया था, जरा सा।‘

- ‘मुझे भूख नहीं लगी है। आप दोनों झगड़ा ना करो प्लीज़।‘

बच्ची की भूख एक असहाय विनती में बदल चुकी थी। रमेश ने कहा- ‘लवली जी। सारी दुनिया भूख और डर में है। ना जाने कितनों की नौकरियां छूट गईं। कितनों के काम-धंधे। आज सोलह दिन बीत गए। हम दोनों तो इस उधार के घर में ऐश कर रहे हैं। हां, ऐश ही… कभी सोचा है कि जो सड़क किनारे सोते थे, उनका आज क्या हाल होगा?’

यकायक पुलिस वैन का सायरन सुनाई दिया। नीचे कंपाउंड में जमा शर्मा जी ने एक ‘हां जी हां जी’ से कहा- ‘और तो दुख नहीं यार। बस बॉटल का इंतजाम हो जाता।‘

सीमा उधर से गुजरी। अथॉरिटी वाले के साले के किराएदार की हाउस हेल्प। फ्लैट में ही रहती थी। शर्मा जी मुस्कराए और फिर यकायक उन्हें वो दिन याद आ गया, जब 9वें फ्लोर के बंद कमरे से सीमा के साथ बाहर निकलते हुए एसटीडी ने उन्हें तकरीबन धर-दबोचा था। शर्मा खिसिया तो गए थे, लेकिन चुप कैसे रह जाते। सीमा सीढ़ियों से नीचे की ओर लपकी और इधर शर्मा भभके – ‘क्या देख रहा है। मुझे नहीं पता कि बुलबुल मैडम ने तुझे ये फ्लैट क्यों दे रखा है। सेवा करता है ना तू।‘

कुछ और बोल पाते वो, तभी एसटीडी यानी रमेश ने उन्हें पैरों से पकड़कर नीचे लटका दिया था। खटास भी तो पुरानी थी दोनों के बीच। बुलबुल जी विधवा थीं। एक बड़ी कंपनी अपने अकेले के दम पर चलाती थीं। मालदार और अकेली औरत की नज़दीकी दो-चार को छोड़कर भला कौन नहीं चाहता। शर्मा ने पहले उनकी तारीफों के पुल खूब बांधे, लेकिन दाल ना गली। कुछ महीने पहले एक शाम सबने देखा कि बुलबुल जी के साथ कार में एसटीडी आया है। कई बार वो बुलबुल मैडम के पास ही रुक जाता। और एक दिन जब बुलबुल मैडम फ्रेंड्स कॉलोनी के नए बने बंगले में शिफ्ट होने जाने लगीं, तब इसी शर्मा ने जमकर बवाल काटा था – ‘आप ऐसे ही किसी को भी फ्लैट की चाबी नहीं दे सकतीं।‘ उसने खूब नियम-कानून बताए, बुलबुल शायद कुछ कमज़ोर पड़ जातीं, लेकिन फिर देर तक बोलने वाले शर्मा की आवाज़ ही रमेश की दमदार देह के सामने झींगुर जैसी रह गई। बुलबुल मैडम वहां से चली गईं और पीछे छूट गए रमेश को तबसे ही एसटीडी कहा जाने लगा। शर्मा अब उसे सिंह ना बुलाता। क़हर तो तब बरपा, जब एक दिन एसटीडी यानी रमेश अपने साथ एक औरत और नौ साल की बच्ची को ले आया।

शर्मा ने खूब रोना-धोना मचाया, लेकिन बुलबुल ने फोन पर उसे खरी-खोटी सुना दी। कहा- ‘तुम्हें डॉक्यूमेंट्स चाहिए? वो पहुंचा देंगे। उससे पहले कोई शोर-शराबा करोगे तो सोसायटी का रजिस्ट्रेशन कैंसल होगा और तुम जेल जाओगे, सो अलग।‘

शर्मा और रमेश की ऐसी ‘मज़बूरी और हेट’ वाली रिलेशनशिप थी और रमेश का क्या हाल था।

-

‘लवली जी, आप तैयार रहिएगा। कल तड़के ही यहां से चल देंगे। मैं आपको माथुर साहब के पास छोड़ दूंगा।‘

- ‘नहीं। मैं उनके यहां नहीं जाऊंगी। वो मेरे पापा नहीं हैं। वो मां को बहुत मारते हैं। मुझे भी बहुत पीटते हैं।‘, बच्ची की आंखों में नाउम्मीदी की बुझती हुई शाम उतर आई थी।

- ‘रमेश जी। छोड़ने जा सकने की बात तो आपको तब सोचनी चाहिए थी, जब माथुर साहब मुझे हैवानों की तरह पीट रहे थे और आपने उन्हें मुक्के मार-मारकर ज़मीन पर गिरा दिया था। कैसे भी हैं, हैं तो मेरे पति ही।‘

- ‘हां, लवली जी। बिल्कुल आपके पति हैं। परमेश्वर भी हैं, लेकिन आपने मुझ अनजान, परदेसी से ऐसा नेह का रिश्ता क्यों जोड़ लिया कि मैं कुछ सोचना-समझना ही भूल गया।‘

रमेश की आंखों के सामने 12-22 की भव्य कोठी का दृश्य उभर आया। वो माथुर साहब की गाड़ी चलाता था। हर शाम जैसे ही माथुर कोठी में पहुंचते, उनके जूतों की चर्र-मर्र शांत होते ही लवली के चीखने चिल्लाने की आवाज़ें गूंजने लगतीं। माथुर घंटों गालियां देते। लवली हाथ जोड़े गिड़गिड़ाती रहती। बेटी की मासूमियत की गवाही देती, लेकिन माथुर के हाथ ना रुकते।

और जब कभी माथुर ऑफिशियल मीटिंग्स के लिए बाहर जाते, तब उसी मज़बूर, दुखों से हारी, लवली का चेहरा चमकने लगता। किसी चिड़िया की मानिंद वो चहकती, गुनगुनाती, जैसे मुसीबतों का समंदर पार करके आई है। मीठी आवाज़ में कविताएं गाती। रमेश पढ़ा-लिखा था, बस हालात का मारा था, मजबूरी में गाड़ी चलाता था।

एक दिन उसने झिझकते हुए कहा – ‘मैडम, साहब इतना गुस्सा क्यों करते हैं।‘

वो एक ज़ख्मी मुस्कान के साथ चुप रह गई। क्या बताती। फ़िल्मी कहानियों जैसी ज़िंदगी। गरीब घर की कम उम्र लड़की और पैसों के पहाड़ पर बैठे बौनी शख्सियत वाले माथुर। शक से भरपूर। जब भी लवली को वक्त मिलता, वो रमेश को बिन कुछ बोले, अपने एकांत जीवन की कहानियां सुना देती और एक दिन माथुर का शक रमेश पर भी फूट पड़ा।

--- रमेश को बुलबुल मैडम ने नौकरी पर रख लिया। अपने राइट हैंड की तरह हरदम साथ मौजूद रहने को कहतीं। वो चाहती क्या थीं – ये रमेश ने कभी समझना ना चाहा। हां, जबसे वे फ्रेंड्स कॉलोनी में गई हैं, तबसे रमेश को लगातार बुलाती रही हैं। पहले उन्हें लवली के घर पर रहने से कोई दिक्कत ना थी, लेकिन अब... हर फोन कॉल में वे यही कहतीं – “वो जो भी है तुम्हारे साथ। उसे गांव छोड़ आ। रमेश तू यहीं बंगले पर रह।‘

रमेश को कुछ नहीं चाहिए था ज़िंदगी में। वो हमेशा से आइसोलेशन में रहा था। आज का क्वेरेंटाइन टाइम उसके लिए जैसे राहत का वक्त था। इससे पहले कौन-सा वक्त ऐसा रहा, जब वो मुश्किलों से जूझता नहीं था। चुपचाप, अकेले, उदास और अवसाद से घिरा हुआ। एक दिन अपने पुराने कपड़े उठाने और हिसाब करने के लिए माथुर की कोठी पर पहुंचा तो साथ में लवली को लेकर लौटा। पीछे ड्राइंगरूम में जबड़ा तुड़वाए माथुर पड़े थे। धीरे-धीरे गालियां देते हुए कि कहीं रमेश लौट आया तो बचे हुए दांत भी टूट जाएंगे।

- ‘तो क्या करोगे तुम रमेश। मेरी चिंता ना करो। औरतें हमेशा से क्वेरेंटाइन में रही हैं। उन्हें घूमने के मौके नही मिलते। एक वक्त के बाद चाहिए भी नहीं होते।‘

रमेश ने कहा- ‘नहीं लवली। तुम्हारी बेटी...।‘

बेटी बोली- ‘तुम ही मेरे पापा रहो।‘

तीनों हंस दिए। अगली सुबह वे झुग्गियों की तरफ बढ़ने वाले थे। रमेश नालायक ना था। उसे पंक्चर बनाना आता है और मीठा गुनगुनाना भी। ये इल्लॉजिकल कहानी बंद करता हूं और आप मुस्कराना शुरू करें। टाटा 407, फिर मिलेंगे।

लेखक परिचय:

दो दशक से प्रिंट, टीवी, रेडियो और डिजिटल पत्रकारिता में सक्रिय। सिनेमा, साहित्य और रंगकर्म से गहरा प्रेम। छात्र राजनीति भी की। अमर उजाला, दैनिक जागरण, फोकस टीवी, स्वाभिमान टाइम्स के बाद अब दैनिक भास्कर - अहा! ज़िंदगी में फीचर संपादक। गोंडा में जन्म, मुम्बई में निवास। एक फिल्म में अभिनय व गीत लिखे। दो धारावाहिकों में गीत, संवाद और स्क्रीन प्ले लेखन भी।

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