Dhaniya - 5 - last part in Hindi Moral Stories by Govardhan Yadav books and stories PDF | धनिया - 5 - अंतिम भाग

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धनिया - 5 - अंतिम भाग

धनिया

गोवर्धन यादव

5

पहाड़ की चोटी से उतरती देनवा अपनी अधिकतम गति से शोर मचाती हुई आती है और फिर एक बड़ी-सी पहाड़ी पर से झरना का आकार लेते हुए गहराईयों में छलांग लगा जाती है। तेजी से नीचे गिरती हुई जलराशि, एक अट्टहास पैदा करते हुए झाग उगलने लगती है। साथ ही चारों ओर धुआं-सा भी उठ खड़ा होता है। नदी में बनते भंवरों ने पहाड़ में जगह-जगह सुराख-से भी बना डाले थे। यह प्रक्रिया एक दो दिन की नहीं बल्कि बरसों से सतत चल रही प्रक्रिया का नतीजा था। आदमी एक सुराख में पूरा समा जाए इतनी गहराईयां तो बन चुकी थीं। वह एक दर्रे से घुसता तो दूसरे से जा निकलता।

धनिया नजरें बचाती हुई उस ओर बढ़ी चली जा रही थी। चाँद अपने पूर्ण यौवन पर था। झरने के किनारे पहुंची तो लगा कि चांदी पिघल कर बही जा रही है। उसे मालूम था कि यहीं कहीं कल्लू बैठा उसकी प्रतीक्षा कर रहा होगा। दूर से ही उसने एक परछाई को घूमता देखा, फिर वह आंखों से ओझल हो गया। धनिया को लगा कि कल्लू ने उसे देख लिया होगा और अब वह छुप जाने का उपक्रम कर रहा होगा। शायद उसे चखाने के लिए।

मन में एक विशेष उमंग लिए धनिया आगे बढ़ती चली गई। वह उस ओर निर्भीकता से बढ़ी चली जा रही थी, जहां उसने एक परछाई को अभी-अभी डोलते देखा था। जब वह वहां पहुंची तो देखा, वहां कोई नहीं था। दिल धक से धक-धक करने लगा। कहां चला गया होगा कल्लू, उसने अपने आपसे प्रश्न किया। सफेद झक प्रकाश में उसकी नजरें अपने प्रियतम को खोज रही थीं। कभी उसकी नजरें पहाड़ की गहराईयों में जा समातीं तो कभी किसी झुरमुट में।

उसे तत्क्षण ऐसा लगा कि कल्लू इसी चट्टान के पीछे छुपा होगा। उसने आहिस्ता से बढ़ते हुए उस ओर जाना चाहा। तभी किसी की मजबूत बाहों ने उसे अपने शिंकजे में कैद कर लिया। उसने सहज में ही अंदाजा लगाया कि हो न हो कल्लू ही होगा। पर बांहों का कसाव कल्लू का न होकर किसी और का हो सकता है क्योंकि उसके कसाव से स्वत: ही स्पष्ट था कि वह प्यार की गरज से लिपटे हुए हाथ नहीं थे, बल्कि उसके शरीर के पुर्जे-पुर्जे को तोड़ डालने के लिए कसे गए थे। हड़बड़ा उठी धनिया। उसने अपने आपको उस चुंगल से छुड़ाना चाहा। पर कसाव लगातार बढ़ता ही चला जा रहा था। चीख उठी धनिया और कसाव से मुक्त होने के लिए हाथ पांव मारने लगी। काफी छीना-झपटी के बाद वह मुक्त हो पाई थी। मुक्त होते ही उसने पलटकर देखा। ओझा अपनी वीभत्सता के साथ अट्टहास कर रहा था। पसीना-पसीना हो आई धनिया। साक्षात्ï मृत्यु को सामने पाकर वह हड़बड़ा उठी और किसी तरह अपनी जान बचाने की सोचने लगी। ओझा अपनी मस्ती में चूर उसकी ओर एक-एक कदम आहिस्ता-आहिस्ता बढ़ा रहा था। किंकत्र्तव्यविमूढ़ धनिया पीपल के पत्ते के मानिंद थर-थर कांप रही थी। हड़बड़ाहट में उसके हाथ बघनखे से जा टकराए। बघनखा हाथ में आते ही उसे लगा कि बचाव का उपाय हाथ आ गया है। बचाव की मुद्रा लेते हुए उसने बघनखे को तत्क्षण अपने पंजे में फंसाया और ओझा के अगले कदम की प्रतीक्षा करने लगी। जैसे ही वह झपटने की मुद्रा में आगे बढ़ा, धनिया ने लपककर वार कर दिया। पल भर में उसने बघनखा उसके पेट में गहरे तक धंसा दिया और झटके से बाहर खींच लिया। एक चीख के साथ ओझा धरती पर जा गिरा। उसके गिरते ही उसने पलटकर जगह-जगह से उसका मांस नोंचना शुरू कर दिया। रणचण्डिका बनी धनिया तब तक वार करती रही जब तक वह बेजान होकर एक ओर लुढ़क नहीं गया। धनिया जैसे-जैसे वार करती जाती, ओझा भयंकर गर्जना के साथ चीखता-चिल्लाता रहा। जब धनिया ने देखा कि वह निष्प्राण हो गया है तो उसने उसे पूरी ताकत के साथ घसीटा और देनवा में फेंक दिया।

उसने नीचे झांककर देखा। चाँद के प्रभाव में चाँदी सा हो आया जल सुर्ख लाल हो उठा था।