कुबेर
डॉ. हंसा दीप
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अब इस मुक्त मन की मुक्त उड़ान में बहुत कुछ उड़ने लगा था। माँ का कुबेर का ख़जाना खनन-खनन करता सामने आता। कल्पनाएँ उड़तीं न्यूयॉर्क शहर के स्वर्ग मैनहटन की गगनचुम्बी इमारतों के शीर्ष तक और बड़े से बोर्ड पर एक नाम उभरता लिखा हुआ, जगमगाती रौशनी से आँखों को चौंधियाता – कुबेर.....कुबेर....कुबेर, हर ओर कुबेर।
एक दिन इन पर लिखा होगा कुबेर। एक व्यक्ति नहीं, संस्था नहीं, शहर या देश भी नहीं सिर्फ़ एक विचार। ऐसा विचार जिस पर काम होता रहे और दुनिया क़दमों में बिछती रहे। दुनिया के लिए कालीन तो तैयार किया जा रहा था बस बिछाने भर की देर थी। यह वह कुबेरमयी विचार था जो ख़जाना ढूँढता नहीं था, ख़जाना बनाता था।
माँ के लिए कुबेर का ख़जाना बनाता।
माँ के लिए ख़जाने की चाबी को बनाता।
और माँ के लिए ही चाबी से ताला खोलकर सिक्कों की खनखनाहट से सबका भला करता कुबेर।
माँ के होठों की रुखाई और पैरों की बिवाई के लिए मल्हम तलाशता कुबेरमयी विचार जो उस तलाश में इतना खोया कि अपनी माँ को तो खो बैठा था मगर ऐसी कई माँओं को अपना बना चुका था जिन्हें एक संतान की तलाश थी। वह उनके आशीर्वाद लेता। उनके क़दमों तले बैठकर अपनी माँ के उन पैरों को महसूस करता जो उसका इंतज़ार नहीं कर पाए और चल दिए अनंत की खोज में।
मनचाहा सब कुछ करके वापस न्यूयॉर्क लौटना मन के लिए बेहद संतुष्टिजनक था। गाँव के लिए पर्याप्त सहायता छोड़कर आया था। काम करने के रास्ते दिखा कर आया था और जोसेफ जैसा मेहनती व्यक्ति उनके कामों की देखरेख के लिए था। अगर अब लगन से काम करेंगे, मेहनत से पीछे नहीं हटेंगे तो गाँव के लोगों की अगली दो पीढ़ियों के जीवनयापन का इंतज़ाम हो जाएगा। अगर मेहनत नही कर पाए तो अगली बार जाएगा तब तक वे वैसे ही रह जाएँगे जैसे थे। उसने अपना काम कर दिया था। उन सभी प्यासों को पानी तक ले आया था, पानी पीना या नहीं पीना अब उनकी इच्छा पर निर्भर था। पानी सामने रहते अगर प्यासा पानी नहीं पी सकता तो यह उसकी अकर्मण्यता ही होगी।
जोसेफ को इस बात से आगाह भी कर दिया था डीपी ने कि – “कुछ लोग काम करने से कतराएँगे, जहाँ कठोर रवैया चाहिए वहाँ तुम सख़्ती बरतने के लिए तैयार रहना। एक बार, सिर्फ एक बार परिणाम उनके पक्ष में होगा तो फिर कभी वे पीछे नहीं हटेंगे।”
इस तरह डीपी अपना और अपनों का सपना एक करके वापस आ गया था। वे आगे बढ़ेंगे तो जीत उसी की होगी, वे पीछे रहेंगे तो हार भी उसी की होगी। बहुत सारी योजनाएँ बैठकर बनायीं थीं जोसेफ के साथ जिसमें उसे भी अपना लाभ मिलता रहे ताकि उसकी भी रुचि बनी रहे। मैरी का सहयोग भी मिल रहा था। सार्थक कामों की सार्थकता जताने के लिए किसी को समझाने की ज़रूरत नहीं होती। डीपी जानता था कि यह काम वह मैरी और जोसेफ को सौंप कर ही पूरा कर सकता है।
सब कुछ करके न्यूयॉर्क की धरती पर क़दम पड़ना नए आयामों को खोजने की तैयारी के लिए था। यह धरती अब उसे अपनी-सी लगने लगी थी, काम करने का इतना उतावलापन उसने पहले महसूस नहीं किया था।
कुछ दिन अपनी टीम से बीते दिनों की जानकारी लेने और रिपोर्ट्स पढ़ने में निकल गए। भाईजी जॉन से मिल कर वह जीवन-ज्योत की तरक्की के बारे में बताता रहा। उसकी ख़ुशी उसके चेहरे से झलक रही थी जब वह नये प्रबंधन और डॉक्टर चाचा के योगदान के बारे में, बच्चों की उन्नति के बारे में, गाँव की ज़मीनों के बारे में भाईजी से बात कर रहा था।
“भाईजी अब खुलकर काम करने का विचार है।”
“तो अभी तक क्यों नहीं खुले थे मेरे भाई...” भाईजी ने हँसते हुए कहा।
“अभी तक मुझे जीवन-ज्योत की चिन्ता रहती थी पर वहाँ की उन्नति देखकर मैं बहुत ख़ुश हूँ। जितना काम यहाँ करूँगा उतनी ख़ुशी उन लोगों को दे सकता हूँ। भारत जाकर अपने लोगों को ख़ुश देखा तो मुझे बहुत ख़ुशी हुई। डॉ. चाचा के सुप्रबंधन से बहुत विकास हुआ है वहाँ और यही वजह है कि मैं अब मैं निश्चिंत हो गया हूँ। अपना सारा ध्यान केंद्रित करके आगे की योजनाएँ बनाना चाहता हूँ।”
कुछ करने का विचार तो भाईजी के दिमाग़ में भी चल ही रहा था।
“नया करने के बारे में तो मैं भी सोच रहा हूँ डीपी। एक अलग शैली विकसित करने के बारे में। जो भी क़दम उठाएँगे उस क्षेत्र के विशेषज्ञों की सेवा का लाभ उठाकर। कुछ विशेषज्ञों से भी बात करेंगे, यदि वे हमारी टीम में शामिल होना चाहेंगे तो हमारे लिए यह सुविधाजनक रहेगा। हालांकि अभी तो यह एक आरंभिक विचार है।”
“बताइए भाईजी क्या नया किया जा सकता है?”
“आओ बैठते हैं” दोनों कुछ नया करने के बारे में सोच रहे थे तो कोई योजना बनाना ज़रूरी था।
और योजनाएँ बनीं। लीक से अलग हटकर अब अपनी पहुँच को, अपनी कामयाबी को लोगों के साथ साझा करने का विचार आया। इस तरह नये लोगों से मिलना होगा, एक नयी सोच विकसित होगी और नये क्षितिज मिलेंगे अपने पंख फैलाने के लिए।
उन्हीं योजनाओं के तहत डीपी ने यहाँ की ऐकेडमिक संस्थाओं को डोनेशन देने के लिए संपर्क करना शुरू किया। टैक्स की बचत के साथ-साथ यह एक अच्छा तरीका था अपने दिल के क़रीब की जगहों पर अपनी उपस्थिति दर्ज़ करने का और उनके क्रियाकलापों में शामिल होने का। युवा लोगों के मध्य जा कर, अपनी सफलताओं की उनसे चर्चा करना और उन्हें नए रास्ते अपनाने के लिए उकसाना उसे अच्छा लगता था। वह ख़ुद को मोटिवेशनल स्पीकर के रूप में प्रस्तुत कर अपनी वाकपटुता की नैसर्गिक योग्यता से नई पीढ़ी को अपने अंदाज़ में बहुत कुछ कहना चाहता था, अपने कार्यों से उन्हें प्रभावित करना चाहता था।
जीवन-ज्योत में काम करते हुए दादा ने उसकी इस ख़ूबी को ख़ूब निखारा था। यह कोई सरल और शीघ्र फल देने वाला कार्य नहीं था। यह सुनियोजित और सोच-समझ कर उठाया गया क़दम था। धीरे-धीरे संपर्क बनाने थे, धीरे-धीरे संबंध बनाने थे। मिलने-जुलने के हर अवसर का लाभ लेकर उस क्षेत्र में काम शुरू किया। लोगों से मिलने के लिए कई सामाजिक समारोहों में भाईजी और डीपी साथ गए, संपर्क सूत्रों को बढ़ाया। समय लगा लेकिन धीरे-धीरे प्रतिभा की पहचान होने लगी, उन्हें भी होने लगी और लोगों को भी होने लगी।
एक-दो स्पीच के बाद लोगों की रुचि को देखते हुए आयोजक संपर्क करने लगे, लोग सर डीपी को अपने कार्यक्रमों में आमंत्रित करने लगे। स्पीच के लिए, वर्कशॉप के लिए, कॉन्फ्रेंस के लिए ऐसे कई शैक्षणिक समारोहों में जाने का सिलसिला शुरू किया। अपनी प्रस्तुतियाँ श्रोताओं के दिलोदिमाग़ पर छा जाए, इसके लिए उसे बहुत मेहनत करनी पड़ती थी। पिछले कई सालों से उसके जनसभा में स्पीच देने का काम रुक गया था। अब तो उसके पास बोलने के लिए बहुत कुछ था। जीवन के संदेश भी थे, व्यापार की सफलताएँ भी थीं और जीवन-ज्योत जैसे लाभेतर संस्थान की पृष्ठभूमि भी थी। दादा के प्रयासों का परिणाम था वह स्वयं, और उसके पास बताने के लिए ऐसे सैकड़ों बच्चे थे जो अपना रास्ता बना कर अपनी मंज़िल की ओर बढ़ रहे थे।
यहाँ की मिट्टी को अपना बनाने के लिए यहाँ के लोगों से जुड़ना एक बेहद सकारात्मक क़दम था। अपनी सफलता के राज़ बयान करने के साथ अपने अनुभवों को साझा करना। ऐसी कक्षाएँ शुरू करने के विचार में ऐसे बिन्दु थे जहाँ छात्रों को प्रेरित किया जा सके, मेहनत करने के लिए, हर काम को लगन से करने के लिए, चुनौतियाँ स्वीकार करने के लिए और आउट ऑफ बॉक्स सोचने के लिए। शहर के विस्तृत कैनवास में जगह बनाना इतना आसान भी नहीं था। कोशिश करने के लिए प्राथमिक क़दम उठा लिए गए थे। कहीं भी अपनी जानकारी साझा करने के लिए या भेजने के लिए आधारभूत आवश्यकताओं पर विचार करना ज़रूरी था।
एक बड़ी रुकावट भी रही इस काम में। पढ़ाने के लिए कक्षाएँ लेने वाले डीपी के पास कोई औपचारिक डिग्री नहीं थी। किसी डिग्री के न होने से एक बहुत बड़ा संकोच भी था जब वह सामाजिक संस्थाओं और विश्वविद्यालयों को अपने प्रस्ताव भेजता था। भाईजी ने इस संकोच को दूर करने का प्रयास किया, उसे अपने छोटे-छोटे ऑडियो-वीडियो प्रस्तुत करने के लिए प्रोत्साहित किया। डीपी को माइक्रोसॉफ्ट के संस्थापक बिल गेट्स, फेसबुक के संस्थापक मार्क ज़करबर्ग आदि कई बड़े नामों के उदाहरण दिए जिन्होंने बगैर किसी बड़ी डिग्री के अपने आपको शिखर तक पहुँचाया था।
दादा कई बार कबीर की चर्चा करते थे जो अपने गूढ़ संदेश को सीधी-सरल बात में कहकर लोगों तक पहुँचाते थे। वे जो देखते थे उसी पर बोलते थे। ऐसे ही फक्कड़पन में लिखे गए उनके दोहे जन-जन की जबान पर थे। आज भी हिन्दी साहित्य में कबीर के दोहों को बहुत उच्च स्थान प्राप्त है। लेकिन सच्चाई यह भी थी कि समय से परे इस ख्याति प्राप्त कवि का स्वयं का कहा गया वाक्य ही बहुत कुछ कह जाता है - “मसि कागद छुयो नहीं, कलम गही नहीं हाथ”। कबीर के लिए दादा की यह प्रशंसा भी याददाश्त में थी जब दादा कहते थे कि एक फक्कड़ कवि ने अपने विचारों को निर्बाध फैलाया, ऐसे विचार जो कभी किसी डिग्री या सर्टिफिकेट के मोहताज़ नहीं रहे।
डीपी भी तो अपनी शानदार, लच्छेदार स्पीच के बारे में ख़ूब जाना जाता था जो केवल शाब्दिक नहीं थी। उसके जीवन तथा उसके संघर्षों का मर्म उसके शब्द बनते थे। जो उसने भोगा था वह यथार्थ सबको बाँटना चाहता था। जीवन-ज्योत ने उसे इस असाधारण कला में माहिर करके छोटे दादा की जो उपाधि दिलवायी थी उस उपकार के लिए वह जितना भी करे उतना कम है। आज वही कला उसे एक न्यूयॉर्कर की प्रतिष्ठा दिलवा सकती थी। और फिर बात करने के लिए आदमी के पास ज्ञान होना चाहिए, सच्चाई से भरी वाकपटुता होना चाहिए, कोई डिग्री वाला कागज़ कभी बोलता नहीं और ना ही कोई डिग्री कुछ करती है। जो कुछ भी करना होता है वह तो इंसान ही करता है जिसके नाम वह डिग्री है। यही वह कारण था कि डीपी के पास औपचारिक डिग्री नहीं होने से कोई फ़र्क नहीं पड़ा।
उसने यहाँ की एक बड़ी यूनिवर्सिटी के सहयोग के लिए अंशदान अभियान कार्यक्रम चलाया। भारतीय भाषाओं और संस्कृति के लिए यूनिवर्सिटी में स्थायी चेयर स्थापित करना हो तो यूनिवर्सिटी को एक बड़ी राशि चाहिए। उसे लगा कि इस उद्देश्य के लिए दानदाता तो बहुत मिल सकते हैं पर उन तक बात पहुँचाने के लिए लोग नहीं हैं। बस उसने यह मिशन पूरा करने का बीड़ा उठाया। भाईजी के अपने व्यवसायी शुभचिंतकों और मित्रों ने तीन मिलियन डॉलर का लक्ष्य बनाया और साउथ एशियन स्टडीज़ विभाग के विकास की शुरूआत हो गई। इंडो-अमेरिकन संस्थाओं में उसके प्रवेश के द्वार खुले तो कई और जगहों से उसे गेस्ट स्पीकर के रूप में आमंत्रण मिलने लगे। एक नयी चेतना के लिए, नए जोश के साथ, नए उत्साह ने, नए कैनवास पर अपना रंग फैलाना प्रारंभ किया।
युवा पीढ़ी के लिए लीक से हट कर सोचने वाले दिमाग़ नयी सोच पैदा करते हैं जहाँ डिग्रियों को पाने के लिए भेड़ चाल नहीं होती, जहाँ भीड़ का अंधाधुंध अनुकरण नहीं होता। किसी औपचारिक ऐकेडमिक परीक्षा के बगैर भी अपने दिमाग़ से जीवन के कितने बड़े समीकरण हल किए जा सकते हैं इसका एक नया रूप देखने को मिलता।
अपनी टीम के ज़िम्मे सब काम छोड़कर भाईजी जॉन के साथ जब इंडो-अमेरिकन संस्थाओं के प्रमोशन में वह व्यस्त हुआ तो कई प्रतिष्ठित लोगों से संपर्क बने। ऐकेडमिक समारोहों में वह भारत के इतर और मुख्यतः युवा मामलों पर बोलना पसंद करता था। अपनी प्रस्तुति तथ्यों और पूरी तैयारी के साथ हो तो आयोजक वक्ता को खोज ही लेते हैं। जहाँ भी उसे अवसर मिलता, उसकी सधी हुई स्पीच अपनी छाप छोड़ जाती। छात्र, प्रोफेसर और प्रेस सब सुनते ही रह जाते। कम उम्र में बगैर किसी ऐकेडमिक शिक्षा के किसी व्यक्ति को इतना ज्ञान हो सकता है, इतनी सफलता मिल सकती है, यह एक अविश्वसनीय सच था।
एक सार्वजनिक छवि बनाना किसे अच्छा नहीं लगता, उसे भी अच्छा लग रहा था। भाईजी जॉन कभी-कभी उसके साथ होते उसकी हौसला अफज़ाई के लिए। उनके लिए भी डीपी की यह प्रसिद्धि एक नयी दिशा थी जिससे युवा पीढ़ी में अपनी जगह बनाने के मौके मिलते। उन्हें अच्छा लगता कि उनका डीपी एक उदार सोच रखता है, नये-नये लोगों से मिलता है और नये विचारों का आदान-प्रदान कर अन्य लोगों के साथ-साथ अपनी दुनिया को भी समृद्ध करता है।
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