देह की दहलीज पर - 4
साझा उपन्यास
देह की दहलीज पर
संपादक कविता वर्मा
लेखिकाएँ
कविता वर्मा
वंदना वाजपेयी
रीता गुप्ता
वंदना गुप्ता
मानसी वर्मा
अब तक आपने पढ़ा :- मुकुल की उपेक्षा से कामिनी समझ नहीं पा रही थी कि वह ऐसा व्यवहार क्यों कर रहा है ? उसने अपनी दोस्त नीलम से इसका जिक्र किया उसके मन ने किसी तीसरे के होने का संशय जताया लेकिन उसे अभी भी किसी बात का समाधान नहीं मिला है। बैचेन कामिनी सोसाइटी में घूमते टहलते अपना मन बहलाती है वहीं उसकी मुलाकात अरोरा अंकल आंटी से होती है जो इस उम्र में भी एक दूसरे के पूरक बने हुए हैं। वहीं कामिनी की परेशानी नीलम को सोचने पर मजबूर करती है कि आखिर उसके साथ क्या हो रहा है?
अब आगे
कथा कड़ी 4
रात का समय है । C-155 नम्बर के बंगले में पूर्व की ओर स्थित बेड रूम में नीलम और राकेश सोये हुए हैं । उम्र जवानी का दामन छुड़ा कर प्रौढ़ावस्था की ओर भागती हुई और मन कभी जीवन को पूरी तरह से जी लेने की ख्वाइश तो कभी उम्र को स्वीकार कर उसका वर्चस्व अपने ऊपर मान कर शिकस्त स्वीकार करने के बीच पेंडुलम सा डोलता हुआ । इस पेंडुलम का धागा भले ही एक हो पर उसके सिरे पर इत-उत डोलते दो जीवन हैं, जो नहीं जानते कि एक कहे जाने वाले इस रिश्ते में वो दोनों अलग –अलग आयामों को मापने के सफ़र पर वक्त के साथ तेजी से फिसलते जा रहे हैं । नीलम –उम्र ४७ वर्ष, कॉलेज में हिंदी विषय की सीनियर प्रोफ़ेसर, लंबा कद, गोरा रंग, तीखे नैन –नख्स और कभी अपने स्टाइल के लिए कॉलेज में जानी जाने वाली आजकल ना जाने क्यों थोड़ी बेतरतीब सी हो चली है । वहीँ उसका 52 वर्षीय पति राकेश जो पेशे से मल्टी नेशनल कम्पनी में इलेक्ट्रॉनिक इंजीनीयर है, पिछले कुछ वर्षों से अपनी दिनचर्या लुक्स पर कुछ ज्यादा ही ध्यान देने लगा है । कभी ढेरों कप चाय गटकने वाला राकेश अब सुबह उठ कर कभी नींबू पानी पीना पसंद करता है तो कभी मेथी का पानी । उनके रिश्ते को विस्तार देने वाला सेतु यानी उनकी बिटिया इला जब से हाथों में मेहँदी लगा ससुराल चली गयी है तब से हमेशा तीनों के स्वरों से चहकने –महकने वाला ये तीन बेड रूम, बड़े से ड्राइंग-डाइनिंग हॉल, आगे पीछे लॉन वाला घर अचानक से नीलम को बहुत बड़ा लगने लगा है । इतना बड़ा ...जिसमें इधर से उधर पागलों सी भागते हुए वो अपनी छोटी सी दुनिया खोजती रहती है ...कभी मन मन की तो कभी तन की ।
सूरज की किरणे खिड़की पर पड़े गहरे भूरे मखमली पर्दों के बीच से जगह बनाती हुई सोती हुई नीलम की आँखों पर अठखेलियाँ करने लगी । कितनी कोशिश करके वो रात को खिड़की पर पड़े दो पर्दों को इस तरह बिठाती है कि सुबह की रोशनी उसकी संडे को देर तक सोने की इच्छा में कोई बाधा न डाले पर कमबख्त कोई न कोई झिर्री छूट ही जाती है और जरा सी जगह पाकर भगवान् भास्कर के ये नन्हें दूत उसके कस कर मूँदे हुए नेत्रों पर नर्तन करते हुए मानो कहते हों, “उठो, औरत की जिन्दगी में संडे कहाँ है?” हर बार की तरह इस बार भी नीलम कुनमुनाई, जी किया इस बार इन किरणों को डपट देगी और उठ कर फिरसे झिर्री को बंद कर देगी । पर न जाने क्यों हर बार की तरह उनकी ये बाल सुलभ चपलता अच्छी लगी और ताकीद भी “औरत की जिन्दगी में संडे कहाँ?” देह भारी थी फिर भी हिम्मत कर के उठी, अपने लंबे हल्की सी चाँदी झांकते श्यामल केशों का एक ढीला सा जूड़ा बनाया ।
उठने की कोशिश करते हुए एक हल्की नज़र राकेश की तरफ डाली । कितने चैन से सो रहा है । सन्डे जो है। पुरुषों की जिन्दगी में संडे होता है ..तभी तो... तभी तो कल कितनी देर तक “अगर तुम न होते” फिल्म का गीत, “कल तो संडे की छुट्टी है फिर किस बात का रोना है, आज रात तो हम को पगली जाग-जाग कर सोना है” गा –गा कर मनाता रहा और वो कितनी देर तक टालने का प्रयास करती रही । आखिरकार उसने अपने शरीर को ढीला छोड़ ही दिया और राकेश की इच्छा को पूरा हो जाने दिया । ऐसा नहीं है कि उसने पहली बार राकेश की इच्छा पर खुद को समर्पित किया हो । जिंदगी में तनाव और दवाब के ऐसे कई मौके आये हैं पर वो किसी हवा के झोंके की तरह आये और चले गए । लगातार ऐसा हुआ हो ये तो उसे याद नहीं। न ही उसने खुद को ऐसा बेजान महसूस किया । शायद –शायद राकेश ने अति कर दी है । अपने विचारों को परे झटककर वो उठने ही वाली थी कि पैर साइड टेबल से टकरा गया और उस पर रखा पीतल का फूल दान गिर गया । वो बिखरे हुए फूलों को समेटने लगी पर टन्न की आवाज़ से राकेश जग गया उसने उसे अपनी ओर खींचा ।
“क्या कर रहे हो राकेश, फूलों को तो समेटने दो”उसने प्रतिरोध करते हुए कहा ।
“मेरा फूल तो तुम हो, पहले मैं अपने फूल समेट लूँ” कहते हुए राकेश ने उसके गुलाबी होंठों को अपने होंठों में भर लिया ।
नीलम को असहय सा लगा उसने हल्का धक्का देते हुए राकेश को अलग कर अपने स्वर में नरमाई लाते हुए कहा, “ आप भी ना, रात के बाद फिर शुरू हो गए, कितने काम है मुझे ....”
“ठीक है जानेमन, जब तुम सामने होती हो तो मुझे बस एक काम ही याद आता है “ हँसते हुए राकेश ने उसे जाने की अनुमति दे दी और मुँह पर तकिया रख कर फिर से सोने की कोशिश करने लगा ।
ब्रश करके उसने चाय का भगौना चढ़ाया । पड़ोस में टी.वी चलने की आवाज़ आ रही थी । इतनी सुबह –सुबह और टी.वी. चालू , अजीब लोग हैं सोच कर वो अदरक कूटने लगी । सुबह की उसकी चाय खास होती है जिसमें अदरक, कालीमिर्च, तुलसी का पत्ता और हल्का सा सेंधा नमक पड़ा होता है । ये उसके गले और आवाज़ पर जादू का सा असर करता है । तभी शायद इस उम्र में भी उसकी आवाज़ बहुत सुरीली है । कॉलेज के फंक्शन हो या घरेलु, उसके गाने की फरमाइश तो रहती ही है । अक्सर वो अदरक कूटते हुए, चाय बनाते हुए गुनगुनाती ही रहती है । ये एक तरह से रियाज भी होता और रात के अँधेरे से दामन छुड़ा कर सुबह को सकारात्मक करने का प्रयास भी । पर तेज वॉल्यूम पर चलते टी.वी की आवाज़ में उसके लिए गाना मुश्किल हो रहा था । आवाज़ कुछ परिचित सी लगी । उसने आवाज़ की दिशा में कान लगा दिए । अरे ये तो “पति –पत्नी और वो” फिल्म देख रहे हैं ।
मन में फिर एक बार “पति –पत्नी और वो” में विद्या सिन्हा और संजीव कुमार की दिलकश अदाकारी याद आ गयी। “लड़की साइकिल वाली याद करते हुए उसे याद आया कि जब संजीव कुमार का रंजीता के साथ अफेयर चल रहा था तो वो अपनी पत्नी से भी कितना प्यार करने लगा था । ये उसका गिल्ट था या ...। राकेश का भी प्यार आजकल बढ़ता ही जा रहा है । उस दिन टाइम्स ऑफ़ इंडिया में छपी मलाइका की न्यूड जिम सूट की तस्वीर को कितनी देर तक घूरते रहा था। ऐसा पहले तो नहीं करता था। कहीं राकेश ....।” उसने अपने विचारों को परे झटका पर मन अनमना सा हो गया ।
चाय बनाने के बाद भी मन में अंकुरित वो नन्हा सा बीज अपने कोमल पल्लव खोल कर आकार बढाने लगा । वो चाय का कप ले कर बालकनी में चली आई । आँख मल कर उठे नन्हे बच्चों समान चीं-चीं करते पक्षियों का कलरव उसे भला प्रतीत हुए । उगते सूर्य की गुनगुनी धूप सम्पूर्ण धरा को सिदूरी रंग में रंग रही थी । क्या उम्र होगी सूर्य की, धरा की पर उसका प्रेम आज भी हर सुबह अपनी प्रेमिका का श्रृंगार करने से नहीं चूकता बिना रुके, बिना थके । सुबह के इस स्वर्णिम रूप पर लिखी न जाने कितनी कवितायें उसके जेहन में ताज़ा हो गयीं । कुछ पंक्तियाँ मन में कुलबुलाने लगीं । यूँ वो कोई लेखिका नहीं है पर कभी –कभी भाव शब्दों के वस्त्र पहन कर जैसे खुद ब खुद कागज़ पर उतर जाते । बगल के कमरे से एक पेन उठा कर लायी और आज के अखबार को खोल कर तमाम राजनैतिक, हत्या और धोखे की श्याम खबरों के बीच वो लाल रंग के पेन से पंक्तियाँ उकेरने लगी ...
“लो भोर उठी अलसाई सी,
सूरज ने खोले नेत्र लाल
समेटे रजनी घन केश व्याल,
किरणें मधुर मुस्काई सी”
वो आगे कुछ लिख पाती की तभी राकेश वहां आ गया । उसने जोर –जोर से कविता पढना शुरू किया, “लो भोर उठी अलसाई सी ...”लो भोर उठी अलसाई सी” कह कर उसने उसके हाथ से कलम छीन लिया और उसे अपनी दोनों बाहों में उठा लिया और बोला, “लो, मैंने अपनी भोर को उठा लिया है”।
“पर, तुम तो अज देर तक सोने वाले थे” उसने राकेश की तेज धडकनों को जानबूझ कर नज़र अंदाज करते हुए कहा ।
“जिसके पास तुम्हारे जैसा सोना हो वो सो कर अनमोल जीवन के पलों को क्यों खराब करे” राकेश की धड़कने कुछ और तेज हो चलीं ।
“क्या नए –नवेले जैसी बात कर रहे हो, हमारी शादी हुए पूरे 27 साल हो गए हैं जनाब, नाना बनने का समय आ गया है अब भी, अब उतारो मुझे” उसने थोडा सिमटते हुए कहा ।
“उम्र क्या है एक नंबर है जानेमन, अभी तो सिर्फ 27 साल ही हुए हैं नंबर को उल्टा कर दो तो हम तो 72 साल बाद भी ऐसे ही प्यार करेंगे. वो कहते हैं न शराब और औरत जितनी पुरानी हो, नशा उतना ही गहरा चढ़ता है, फिर तुम तो नीलम हो, बेशकीमती नीलम जिसकी चमक कभी फीकी नहीं पड़ने दूँगा” कहते हुए वो उसे बेड रूम की ओर ले चला । बिस्तर पर धीरे से किसी कीमती सामन की तरह उसे उतार कर वो उसके बालों में उँगलियाँ फिराने लगा । उसकी गर्म साँसों का तेज झोंका नीलम की साँसों में समाने लगा ।
“आज –नहीं, आज नहीं” कहते हुए नीलम ने मुँह फेर लिया ।
“क्यों आज क्यों नहीं, आज तो संडे है?” राकेश ने बहुत प्यार से पूछा ।
“वो ...वो आज मेरा व्रत है” उसने हकलाते हुए कहा ।अचानक से खुद को बचाने का एक यही बहाना उसे समझ आया ।
“आज ...संडे को कौन सा व्रत है । और तुम कबसे इन व्रतों के चक्कर में पड़ गयी ?”
“वो श्यामा ने बताया है, रविवार यानी सूरज देव का दिन, इस दिन व्रत करने से सूर्य के समान नाती होगा” । उसने अपने झूठ को बचाने के लिए एक और झूठ गढ़ा ।
“श्यामा ने, श्यामा हमारे यहाँ सफाई –बर्तन करती है । वो अनपढ़ है अशिक्षित है पर तुम ...तुम तो पढ़ी लिखी हो प्रोफेसर हो । ऐसे अंध विश्वास मानोगी । तुमने तो इला के समय में भी कोई व्रत नहीं किया था ...फिर अब ?” राकेश ने झुन्झुलाते हुए कहा । उसकी पकड़ नीलम के कन्धों से कुछ ढीली हो चली । कुछ भी हो, व्रत और भगवान् के मार्ग में न आने के कारण अपनी कामनाओं के ज्वार को शांत करने की कोशिश करने लगा । बहुत धार्मिक तो वो नहीं था पर अपनी माँ को बचपन से तमाम व्रत उपवास करते देखा था । ये मत छूना, उस आसन पर मत बैठना, रसोई में अपने हाथ से उठा कर कुछ मत खाना का अनुसाशन माँ के उस लोक जाने के वर्षों बाद भी स्मृतियों के रूप में अवचेतन में जीवित था । जब नीलम जीवन में आई तो उसने कई बार इन सब बातों को नकारा था । सास –बहु के झगड़ों की भी वजह कई बार यही होती थी । नीलम के अकाट्य तर्कों से माँ के भीतर जमी धर्मभीरुता की काई हटी थी । धीरे –धीरे माँ भी बदलीं थी । ऐसा नहीं था कि उन्होंने व्रत करना छोड़ा हो । पर रसोई की लक्ष्मण रेखा सहज विश्वास के सागर में विलीन होने लगी थी । कुछ व्रत माँ के साथ नीलम भी करती थी, जैसे जन्माष्टमी, महा शिवरात्रि और करवाचौथ आदि पर उसने कभी इस तरह से नहीं किया । उसने हमेशा उसकी भावनाओं का साथ दिया है और कभी –कभी तो उससे आगे बढ़कर भी ।उसे नीलम का उससे आगे बढ़ कर तरह –तरह के प्रयोग करना अच्छा लगता था । कई बार वो उसे “शयनेशु रंभा” कह कर चिढाता भी तो वो हँस कर कहती भी थी कि ईश धर्म, गृहस्थी का धर्म और शरीर का धर्म सब साथ साथ चलते हैं । उसने अपने दोस्तों से सुना भी था कि ये पत्नियाँ व्रत करके बहुत तरसाती हैं ...और वो अपने भाग्य को सराहता कि नीलम ऐसी नहीं है । फिर इतने वर्ष बाद ...अचानक ऐसा क्यों । मेरी प्यारी नीलम ...माँ में क्यों ढलने लगी ।
“क्या करूँ, माँ का दिल है, फिर बेटी इतनी दूर है । श्यामा ने बताया तो खुद को रोक न सकी” । राकेश के विचारों की श्रृंखला तोड़ते हुए नीलम ने कहा । हालांकि कहने को तो उसने कह दिया पर मन चीत्कार कर रहा था अब राकेश के साथ मलाई कोफ्ते और पाइनएप्पल रायते के लंच का क्या होगा । घंटो मेहनत करके बनाओ पर खाने को तो मिलेगा ठेंगा । तभी उसे याद आया कि शाम को पड़ोस की शर्मा आंटी के यहाँ लेडीज संगीत के लिए जाना है । शर्मा आंटी की पतोहू आई है । उसी की मुँह दिखाई होनी है । हँसी –मजाक होगा । नाच-गाना होगा और खाना –पीना भी । उसने खुद को तसल्ली देते हुए कहा, “शाम तक की बात है, फिर तो जी भर के खाना मिल ही जाएगा । कर ले बेटा करले, नहीं तो ये मिस्टर हॉट तुझे घड़ी –घडी तपाते ही रहेंगे ।
वो कमरे के बाहर जाने लगी । राकेश ने कुछ नहीं कहा बस उसे एक उदासी भरी गहरी साँस की आवाज़ आई ।
अचानक उसे लगा कि इस साँस ने कई रेखाएं उनके बीच खींच दी हैं ।
क्रमशः
वंदना बाजपेयी
vandanabajpai5@gmail.com
शिक्षा : M.Sc , B.Ed (कानपुर विश्वविद्ध्यालय )
सम्प्रति : संस्थापक व् प्रधान संपादक atootbandhann.com
दैनिक समाचारपत्र “सच का हौसला “में फीचर एडिटर, मासिक पत्रिका “अटूट बंधन”में एक्सिक्यूटिव एडिटर का सफ़र तय करने के बाद www.atootbandhann.com का संचालन
कलम की यात्रा : देश के अनेकों प्रतिष्ठित समाचारपत्रों, पत्रिकाओं, वेब पत्रिकाओं में कहानी, कवितायें, लेख, व्यंग आदि प्रकाशित । कुछ कहानियों कविताओं का नेपाली , पंजाबी, उर्दू में अनुवाद, महिला स्वास्थ्य पर कविता का मंडी हाउस में नाट्य मंचन ।
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