धनिया
गोवर्धन यादव
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अब आए दिन ओझा के उत्पात बढ़ते ही चले गए। कभी वह अस्पताल आकर डाक्टर को धमकी दे जाता तो कभी धनिया को। कभी-कभी तो वह पूरे परिवार को जादू-मंतर से मार डालने की धमकी दे जाता। डाक्टर के परिवार को आतंकित करने के लिए वह आटे का पुतला बनाता। हल्दी कुमकुम से उसे लाल-पीला कर देता और डाक्टर की चौखट पर धर आता। कभी नींबू में कीलें टोंच देता और दरवाजे पर बांध आता। यह काम वह बड़ी सफाई से देर रात करता ताकि कोई उसे आता-जाता न देख पाए। आखिरकार तंग आकर डाक्टर ने पुलिस में रपट दर्ज करवा डाली।
शायद पुलिस वालों की यातना के भय से अथवा किसी अन्य कारण के चलते वह दुबारा उस गाँव में दिखलाई नहीं पड़ा और न इस बीच आतंक ही मचाया। लगा कि सब कुछ एकदम शांत हो गया है।
दोपहर का यही कोई तीन अथवा चार बजा रहा होगा। परिवार के सभी सदस्य आंगन में बैठे बतिया रहे थे। तभी कल्लू आता दिखलाई पड़ा। धनिया का मन कल्लू को देखकर प्रसन्नता से नाच उठा। वहीं शंका-कुशंकाओं के चलते निराशा से भर उठा। पता नहीं कल्लू क्यों आ रहा होगा- क्या बात होगी- कारण क्या है उसका इस वक्त आने का। तरह-तरह के प्रश्न उसके जेहन में उतर कर उसे अशांत कर देते। वह जानती थी कि बड़े-बूढ़ों के समक्ष वह उससे बात नहीं कर पायेगी और न ही उससे आँख मिला पायेगी। किसी काम का बहाना बताकर वह अन्दर चली गई और दीवार की ओट लेते हुए सुनने का प्रयास करने लगी।
कल्लू ने आते ही शिष्टता से अपने दोनों हाथ जोड़े और फिर परिवार के सभी सदस्यों को सतिया के विवाह में आने का निमंत्रण देने लगा। धनिया ने जब सतिया के विवाह की बात सुनी तो वह प्रसन्नता से नाच उठी। कितने दिन बीत गए वह अपने गाँव नहीं जा पाई थी। अब वह सतिया की शादी में जायेगी तो झूमझूम कर नाचेगी-गायेगी। सारे लोगों से उसकी भेंट भी होगी। दीवार की ओट में खड़ी धनिया कल्पना लोक में विचरने लगी थी।
परिवार के प्राय: सभी सदस्यों ने शादी में आने का वादा किया। आश्वस्त कल्लू अब वापिस होने को था। उसकी नजरें धनिया को बराबर खोज रही थीं। जब उसने उसे कहीं नहीं पाया तो वह उद्विग्न मन से लौट पड़ा। आगे बढ़कर उसने गेट खोला। बाहर निकला, गेट लगाया और उतार में उतरने लगा। पच्चीस-पचास कदम ही चल पाया होगा कि उसने धनिया को सामने खड़ी पाया। कहाँ से आ गई धनिया? उसने अपने आपसे प्रश्न किया और लपककर उसने धनिया के हाथ पकड़ लिए। एक सघन वृक्ष की छांव तले बैठते हुए काफी देर तक बतियाते रहे और सहज प्यार के चलते अपना भविष्य तलाशते रहे। जब कल्लू ने अंदाज लगा लिया कि यहां बैठे काफी देर हो गई है तो शादी में आने का पुन: वादा करवाते हुए उसने धनिया से विदा मांगी और पहाड़ी की गहराईयों में उछलता-कूदता आगे बढ़ गया। धनिया तब तक खड़ी उसे निहारते रही जब तक वह आंखों से ओझल नहीं हो गया। जब वह लौटी तो उसके ओठों पर कोई सुरीला प्यार भरा गीत मुखरित हो रहा था।
अब उसे आने वाले हॉट का बेसब्री से इंतजार था। घर का कामकाज सम्हालते, दादी से नोंकझोंक करते रहने में पूरा सप्ताह यूं ही बीत गया जैसे कोई कल ही की बात रही हो।
दोपहर बाद वह मांजी के साथ हॉट पहुंची। रास्ता चलते उसकी खोजी आंखें अपने स्वजनों को ढूंढ़ती। जब कोई राह चलते मिल जाता, चटर-पटर करती चलती। एक मनीहारी की दुकान के सामने जाकर ठहर गई। मांजी ने कालीपोत की माला-ढेरों सारे टिकुली के पैकेट-आईना-कंघा-रिबिन और न जाने कितनी ही चीजें खरीदीं। धनिया बार-बार सोचती भला क्यों खरीद रही होंगी मांजी। शायद उसके लिए अथवा सतिया के लिए जिसका अगली पूरनमासी पर ब्याह जो होना था। यंत्रवत्ï धनिया खरीदी गई वस्तुएं करीने से झोले में रखती जाती। फिर गोटा-चांदी के दुकान में रुकते हुए हंसली-दोहरी-कंगन-पायल-बाजूबंद और न जाने कितनी ही वस्तुएं खरीदीं। ''मांजी, ये सब किसके लिए हैं? लगभग मध्यम स्वर में धनिया ने पूछा।
''कुछ तो तेरे लिए और कुछ तेरी सहेली सतिया के लिए”.
''कितना प्यार करती हैं आप हम आदिवासियों से”.धनिया ने विभोर होते हुए कहा।
''हाँ, ये बात तो सच है कि दिल में तुम लोगों के प्रति हमेशा से ही प्यार का ज्वारभाटा मचलता रहता है, फिर ये हमारा ही नहीं बल्कि सभी लोगों के मन में भी इस तरह की भावनाएं होनी चाहिए। चल अब घर चलें”. मांजी ने कहा।
''मैं अगर थोड़ी देर ठहर कर आऊं तो आप बुरा न मानेंगी न? धनिया ने अहिस्ता से कहा। मांजी जानती थीं कि धनिया का मन कल्लू का सानिध्य पाना चाह रहा होगा तभी तो लजाते हुए उसने रुक जाने का मन बनाया था।
''अच्छा जल्द ही लौट आना”. कहती हुई वे आगे बढ़ गईं।
बाजार से थोड़ा हटकर पुरुष-महिलाएं घेरा बनाए हुए बतिया रहे थे। धनिया की चाल में एक अलग ही किस्म का आवेग था। तितली बनी उड़ती डोलती सी वह मस्तानी चाल में उड़ी चली जा रही थी। दूर से जब उसने अपने स्वजनों को बैठा पाया तो उसकी प्रसन्नता का पारावार देखने लायक था। सतिया से मिलते हुए उसने अपने सीने से चिपका लिया और न जाने किस आवेश के चलते उसके गाल पर अनेक चुंबन जड़ दिए। सतिया भी परेशान सी हो उठी कि आज धनिया को हो क्या गया है। फिर एक ओर बैठते हुए बतियाने लगी। बातों ही बातों में उसने उसके लिए क्या-क्या खरीदा है सब उगल दिया। अनायास ही सतिया की आँखें डबडबा आईं। शायद इस सोच के चलते कि दोनों पति-पत्नी आदिवासी जनजीवन से कितना जुड़ाव रखते हैं। सप्ताह भर पहले आ जाने का वादा करते हुए धनिया वापिस हो ली।
आए दिन गए ओझा कोई न कोई षड्ïयंत्र अवश्य रचता। कभी डराने की गरज से तो कभी भय पैदा करने की गरज से वह आटा का पुतला बना लाल पीले रंग में रंगता और अंधियारा गहरा जाने के साथ ही डाक्टर के आवास के सामने रख आता। कभी नींबू पर कीलें गड़ा कर, उस पर सिंदूर अथवा कुमकुम डालकर रख आता। उसकी दिली इच्छा थी कि ऐसा करने पर डाक्टर डर जायेगा और फिर घाटी में उतरने की हिम्मत नहीं करेगा। सारे धतकरम करने के बाद भी डाक्टर ने अपनी हिम्मत नहीं हारी और वह अब प्राणपन से अपने काम को अंजाम देता रहा।
सतिया की शादी में सप्ताह भर पहले जाने की जिद धनिया करने लगी। डाक्टर तो यह चाहता था कि शादी के दिन सभी जाएंगे इकठ्ठे और वापिस भी हो लेंगे। पर धनिया अपनी ही जिद पर अड़ी रही। डाक्टर यह भी जानता था कि ओझा अपनी सीमाएं तोड़ बैठेगा और अकेली दुकेली जान धनिया को शारीरिक नुकसान भी पहुंचा सकता था। धनिया के मन में कहीं डर न बैठ जाए शायद इसके चलते वह खुलकर बोल नहीं पा रहे थे। जब धनिया नहीं मानी तो उन्होंने एक आदमी को साथ लेकर जाने के लिए कहा। डाक्टर चाहता था कि वह आदमी उसे सही सलामत सतिया के यहां तक छोड़ आए। थोड़ी दूर तक तो वह भेजे गए आदमी के साथ चलती रही फिर उसे वापिस हो जाने के लिए प्रार्थना करती रही। अब एक आजाद परिन्दे की तरह वह फुदकती-इठलाती-गुनगुनाती पहाड़ी उतरने लगी।
ढेरों सारे सामान की गठरी लादे जब वह सतिया के घर पहुँची तो वहां का उत्साह देखने लायक था। हर कोई अपने आप में मगन था। धनिया को अपने बीच पाकर शायद उनका आनन्द द्विगुणित हो गया था। देर रात तक गीतगारी होती। मटकों से दारू उतारी जाती और औरत-मरद साथ बैठकर गटकते। बच्चे भी भला पीछे रहने वाले कहां थे। वे भी नजरें चुराकर दोना दो दोना गटक जाते। हास-परिहास ठिठोली में दिन कब बीत जाता, पता ही नहीं चलता। सखी-सहेलियों के आग्रह पर उसने भी चढ़ा रखी थी। फिर कल्लू भी तो चाहता था कि धनिया के साथ रात भर ठुमका लगाता रहे। देर रात तक नाचना-गाना-बजाना चलता रहा।
धनिया की आँख खुली तो देखा सूरज सिर पर ऊपर तक चढ़ आया है। आँखें मटमटाते हुए उसने महसूस किया कि सारे लोग उदासी ओढ़े बैठे हैं। उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि अचानक हो क्या गया। जब उसने कारण जानना चाहा तो पता चला कि सतिया रात में घर से भाग गई। सारे लोग उसे खोज-खोज कर थक गए। पर वह मिल नहीं पा रही है। धनिया ने पूरा किस्सा सुना तो उसके होंठ गोल हो आए। बनावटी उदासी का कारण उसकी समझ में भलीभांति आ चुका था। वह जानती थी कि शादी से पहले लड़की घर से भाग जाती है। वह साथ में अपने होने वाले खाविन्द को भी लेकर रफू-चक्कर हो जाती है। जंगल में छिपकर वे कहां रहते होंगे, ये सभी जानते हैं। पर भाग जाने पर शोक जरूर मनाते हैं। दो-चार दिन तक ये नाटक चलता रहता है। औरत मरद का जत्था जंगल का पत्ता-पत्ता छान डालने का ढोंग करता जाता है। साथ ही गीत-गारी का भी कार्यक्रम जारी रहता है। फिर शादी से एक दिन पहले दोनों को पकड़ लिया जाता है। रस्सी से बांधकर वे दोनों को घर ले आते हैं। फिर दोनों को आमने-सामने किसी वृक्ष के तने से टिकाकर खड़ा कर देते हैं। दोनों के बीच अलाव जलता रहता है ताकि ठंड का उन दोनों पर कोई असर न पड़े। अलाव के चारों ओर औरत मरद घेरा बनाकर बैठ कर गपियाते हैं, औरतें गीत गाने लगती हैं। कोई दारू से भरी मटकी उठा लाता है तो कोई टिमकी-तुरही अथवा अन्य कोई वाद्य। टिमकी की टिमक-टिमक के बीच दोना भर-भर कर दारू बांटी जाती है। जब अच्छा खासा नशा सवार हो जाता है तो औरत मरद एक दूसरे की कमर में हाथ डाले रात भर थिरकते। मस्ती मारते। हो-हल्ला मचाते। दूसरे दिन दोनों की रस्सी खोल दी जाती है। एक तरफ दुल्हन का साज सिंगार होता है तो दूसरी तरफ दूल्हे को खूब सजाया संवारा जाता है। सूरज की पहली किरण के साथ ही नगाड़ों की गूंज से जंगल मुस्कराने लगता है। ढेरों सारी रस्मों को पूरा कराता रहा ओझा। दोनों को आमने सामने बिठा आंय-बांय न जाने क्या-क्या बकता। ये तो वही जाने। फिर एक दोना दारू बुलवाई जाती। आधी दुल्हन पीती तो उसी दोने में बची आधी दूल्हा। दोना खाली होते ही हो जाता दूसरा नेंग। जामुन की एक हरी डाली तोड़कर लाई जाती। उस डाली को जमीन में गड्ढा खोद कर लगा दिया जाता। फिर दूल्हा-दुल्हन उसके चार-पांच चक्कर लगाते। इस तरह दो जान एक हो जाते।
धनिया को मालूम है कि सतिया और भद्दू इस समय कहां छुपे होंगे। अगर वह चाहे तो एक मिनट में दोनों को पकड़ कर ला सकती है। पर वह जानती है कि सामाजिक परम्पराओं को निबाहने के लिए ही ये सब किया जाना आवश्यक है। उसका मन तो कल्लू को ढूंढऩे के लिए उतावला हुआ जा रहा था।
अलाव के चारों ओर बैठे मरद और औरतें चुहलबाजियां कर रहे थे। यही तो मौका होता है शादी विवाह में, जब दोनों पक्ष बैठकर हास-परिहास करते हैं। मन नहीं लग रहा था धनिया का, वहां बैठने को। नजरें बचाकर वह उठ बैठी और अभी आती हूं कहकर चल पड़ी। जानती थी वह कि झरने के किनारे कल्लू बैठा उसका इंतजार कर रहा होगा।
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