Hone se n hone tak - 11 in Hindi Moral Stories by Sumati Saxena Lal books and stories PDF | होने से न होने तक - 11

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होने से न होने तक - 11

होने से न होने तक

11.

चलने से पहले आण्टी ने एक लिफाफा मेरी तरफ बढ़ाया था।

‘‘यह क्या है आण्टी ?’’मैंने पूछा था।

‘‘यह चार हज़ार रुपए हैं। नौकरी ज्वायन करने से पहले अपने कुछ कपड़े बनवा लो। पर्स,दो तीन जोड़ी चप्पलें या और जो कुछ लेना हो।’’

सुबह ही मैं अपने कपड़ो को लेकर उलझी हुयी थी। आण्टी को कोई रुहानी ख़बर हो गई क्या ? इस समय आण्टी का पैसा देना मुझे अच्छा लगा था फिर भी अजब सा संकोच महसूस हुआ था,‘‘इसकी क्या ज़रुरत थी?’’

उन्होने डॉटती निगाह से मेरी तरफ देखा था और लगभग डपट कर ही कहा था,‘‘ज़रुरत क्यों नही थी। कालेज जाओगी। उल्टा सीधा कुछ भी पहन कर तो जा नही सकती हो। ठीक ठाक कपड़े होने चाहिए। वैसे भी टीचर्स को हमेशा स्मार्ट दिखना चाहिए।’’ वे कुछ क्षणों के लिए रुकी थीं ‘‘फिर यह तुम्हारा ही पैसा है अम्बिका जो मैं तुम्हें दे रही हूॅ।’’ उन्होने बारी बारी से तीनो की तरफ देखा था,‘‘चलो अब मेरा काम ख़तम हुआ।’’उन्होने धीमे से बुआ के कंधे पर हाथ रखा था,‘‘उमा एक दिन बैठ जाओ मैं सारा हिसाब साफ कर देना चाहती हूं। बैंक का लाकर, एकाउॅण्ट सब अम्बिका के नाम ट्रान्सफर कराने हैं।’’

बुआ चुप रही थीं। मैं भी चुप थी। वैसे भी क्या बोलते हम दोनों।

उस पूरी रात मैं सो नहीं सकी थी। ऐसा लगा था जैसे इस एक दिन ने मेरी ज़िदगी बदल दी हो। रिश्तों के मेरे एहसास भी। ऑखो के सामने मॉ की छवि अपने भिन्न भिन्न रूपों में घूमती रही थी। सारे समय अपना भूला बचपन याद आता रहा था-पापा,बाबा, दादी भी। इसी दुनिया के किसी दूसरे छोर पर रहते डाक्टर नेगी भी। मन में बार बार आता रहा था कि डाक्टर नेगी से मॉ का कोई मन का रिश्ता सच में था क्या ? अजब सी तसल्ली सी महसूस हुयी थी यह सोच कर कि अपने जीवन के अंतिम क्षणों में अपने घर और अपनों से दूर मॉ एकदम अकेली नहीं थीं। मामा मामी के अलावा भी कोई था उनके निकट जिसका होना उनके लिए अर्थ रखता था। अचानक डाक्टर नेगी बहुत अपने से लगे थे और मन में उनसे मिलने की तड़पन सी हुयी थी। बाकी कोई इस दुनिया में नहीं हैं...मॉ,पापा,बाबा,दादी कोई भी नहीं। पर वे तो हैं। सोचा था कि कुछ नही तो पत्र के द्वारा संपर्क करुंगी। कभी आण्टी से पुछूगी। शायद उनके पास डाक्टर नेगी का पता हो। नही तो सी.डी.आर.आई. जा कर पता करुंगी। वहीं तो काम करते थे वे।

अगले दिन आण्टी का फोन आया था कि जौहरी जी नीचे आने के लिए ख़ुशी से तैयार हैं। उनके पूरी तरह से नीचे शिफ्ट करते ही ऊपर काम लगवा दिया जाएगा। एक बार फिर चल कर देख लें कि क्या कराना है। आण्टी जिस काम को भी उठाती हैं उसे इसी तरह से पूरे विस्तार और बारीकी के साथ युद्ध स्तर पर निबटाती हैं। उस काम का कोई पक्ष उनकी निगाहों से छूटता नहीं है।

ग्यारह बजे के करीब मैंने यश के आफिस फोन किया था। लगा था जैसे वह मेरे फोन का ही इंतज़ार कर रहे थे। दो बजे यूनिवर्सिटी की टैगोर लाइबर्रेरी में मिलने की बात तय हुयी थी। मैं जल्दी ही चली गयी थी। ऊपर के रीडिंग रूम में बैठ कर मैं किताबें पलटती रही थी। सोचा था अब समय कम बचा है कम से कम शुरू के दो तीन टापिक विस्तार से तैयार कर ले। पर मुझे तो यह भी नहीं पता कि मुझे पढ़ाने के लिए कौन सा वर्ष और उसका कौन सा पेपर दिया जाएगा। फिर लगा था कि ख़ाली समय में कुछ भी पढ़ते रहने में तो कोई नुकसान नही है। क्या पता मुझे पेपर देते समय सीनियर्स मुझसे मेरी इच्छा पूछ लें, सो मुझे पहले से यह स्पष्ट रहना चाहिए कि मैं क्या पढ़ाना चाहूंगी। ख़ैर इस समय तो मुझे यश के आने तक समय काटना है। दो बजने से पहले ही मैं उठ गयी थी। किताब को जगह पर रख कर मैं नीचे उतर आयी थी। लाइब्रेरी से बाहर आ कर मैं खड़ी ही हुई थी कि यश सामने से आते हुए दिखे थे। हमेशा की तरह वह बहुत ख़ुश लग रहे थे,‘‘कैसी हो ?’’

‘‘ठीक हूं।’’

यश ने मेरी तरफ ध्यान से देखा था,‘‘बहुत थकी थकी लग रही हो।’’

‘‘और तुम बहुत ताज़े ताजे़ से लग रहे हो,’’ मैं हॅसी थी,‘‘एकदम फ्रैश। साफ सुथरे से।’’

‘‘सो तो मैं हूं ही, साफ और सुथरा, नहाया धोया।’’

‘‘बस तुम ही तो नहाए हो। मैं तो नहायी हूं नही।’’मैं अच्छी तरह से जानती हूं कि अब यश आगे क्या बोलेंगे।

‘‘हॉ। अम्बि का तीसरा शानदार सप्ताह।’’ यश ने मेरी तरफ देख कर चिढ़ाया था,‘‘तो हॉ अम्बिका कौन सा शानदार सप्ताह चल रहा है यह?’’

हम दोनो हॅसते रहे थे। उस मज़ाक के लिए हम दोनो बड़े हो गए हैं। पर हमारे बीच यह मज़ाक अभी भी चलती है। मैं जब छोटी सी थी तो नहाने से डरती थी। मैंने यश को बतायी थी यह बात जिस को लेकर वह मुझे तब से लेकर आज तक चिढ़ाते हैं।

हम दोनों हॅसते हुए पार्किंग की तरफ बढ़ने लगे थे,‘‘कितनी देर से लाइब्रेरी में हो?’’ यश ने पूछा था।

‘‘बहुत देर हो गयी।’’

‘‘खाना खाया ?’’

‘‘हॉ खाया तो था।’’मैंने अटकते हुए जवाब दिया था।

‘‘मतलब पूरा पेट नहीं खाया है।’’

मैं हॅसी थी,‘‘तुम क्या सुनना चाहते हो मैं वही जवाब दूं? वैसे मैंने अपने पेट की एनालिसिस नहीं की है।’’

यश ने जैसे मेरी बात सुनी ही न हो,‘‘मतलब तुम खा भी सकती हो...नही खाया तो भी चलेगा।’’

‘‘ओफ्फो यश। अब बस भी करो। तुम्हें भूख लगी है तो चलते हैं न कहीं।’’

‘‘हॉ कुछ तो खाना ही होगा।’’ यश ने जैसे बड़े ज्ञान की बात बताई हो,‘‘पर लॅच नहीं,तुम ठीक से नहीं खाओगी तो मज़ा नहीं आएगा। बहुत भूख तो मुझे भी नहीं है। बस थोड़ी थोड़ी।’’

मैं हॅसी थी,‘‘अच्छा अब बस।’’

यश ने डी.सी.एम. के सामने गाड़ी पार्क कर दी थी। सड़क पार कर के हम लोग हलवासिया के बगल में बने रायल कैफे की तरफ बढ़ लिए थे। गेट पर खड़े दरबान ने झुक कर दरवाज़ा खोला था। ऑखो को अंधेरे का अभ्यस्त हो पाने में कुछ क्षण लगे थे। हम दोनों अंदर की तरफ बढ़ने लगे थे तो कैफे के स्वामी माथुर साहब मिले थे...लंबे,दुहरा शरीर,हॅसता हुआ चेहरा। मुझे उन से मिल कर हमेशा अच्छा लगता है-एक अव्यक्त सा अपनापन। सुना है यहॉ के काल्टन होटल में रहते हैं-निपट अकेले-बरसों से ऐसे ही रह रहे हैं। मन में आता है फिर यह व्यापार किसके लिए चला रहे हैं? शायद अपना अकेलापन बॉटने के लिए। मेरे मन को क्या उनका अकेलापन बॉधता है उनसे। वे कुछ देर खड़े खड़े यश से बात करते रहे थे फिर धीमें से अपने माथे तक हाथ ले जाकर चलने की मुद्रा बनायी थी। एक क्षण ठिठक कर मेरी तरफ देखा था। मैंने नमस्कार किया था।

‘‘गॉड ब्लैस यू’’ उन्होंने धीमें से कहा था और वे काउन्टर की तरफ बढ़ गए थे और हम दोनों अपनी सीट की तरफ। रायल कैफे का सन्नाटा और अंधेरा अच्छा लगता है। न जाने क्या है कि यहॉ दूसरी मेज़ो पर औरों की उपस्थिति अपने मूड में व्यवधान नही बनती। हम लोग काफी देर तक वहॉ बैठे थे। यश ने स्नैक्स खाए थे और मैंने काफी मंगाई थी। यश की कटलैट की प्लेट में रखे एक दो चिप्स मैंने ऐसे ही उठा लिए थे। उस दिन हम दोनों लोग अधिकॉशतः मेरे घर की और वहॉ के रिपेयर्स और वहॉ जा कर मेरे रहने की बात करते रहे थे। यश घर देख कर और जौहरी परिवार से मिल कर काफी निशि्ंचत हो गए हैं। अपने घर में मेरा अकेले जा कर रहना अब उन को उतना परेशान नहीं कर रहा है-बल्कि ख़ुश ही हैं वह और मेरे घर के रेनोवेशन को लेकर काफी उत्साहित भी।

रायल कैफे से हम लोग बाहर निकले तो यश मेरी तरफ को देख कर क्षण भर को रुक गए थे,‘‘यहॉ से कहॉ जाओगी अम्बिका?’’

‘‘घर ही जॉऊगी यश। बुआ के घर।’’

‘‘मैं छोड़ दूं?’’ उन्होंने पूछा था।

‘‘नही यश मैं अकेले ही जाना चाहूंगी।’’

शायद वह मेरा उत्तर पहले से जानते थे,‘‘ठीक है।’’और यश ने पास से निकलता एक रिक्शा रोक लिया था। मैं उसमें बैठ गयी थी। यश ने मेरे कंधे को धीमें से छुआ था,‘‘अच्छा अम्बि।’’

‘‘ओ.के.यश। बाई। थैंक्यू।’’

रिक्शा आगे बढ़ लिया था। साथ होती तो यश ज़रूर पूछते,‘‘थैंक्यू किस चीज़ के लिए?’’ मुझे लगा था कोई एक चीज़ हो तो बताऊॅ भी। मेरी तो पूरी ज़िदगी ही यश के आभार से बॅधी है। मैं रिक्शे में अकेले बैठे बैठे मुस्कुरा दी थी। सामने से साईकिल पर आते सज्जन ने मेरी तरफ अचकचा कर देखा था। मुझे यह सोच कर अजब शर्म सी आई थी कि मैं तो रिक्शे पर अकेले बैठे पागलो की तरह मुस्करा रही हूं।

सुबह सवा नौ बजे मैं चन्द्रा सहाय डिग्री कालेज पहुच गयी थी। मन में एक स्वभाविक सी घबराहट थी। मैं प्रिंसिपल डाक्टर दीपा वर्मा के कमरे के बाहर खड़ी हो गयी थी। सोचा चपरासी के हाथ एक पर्ची पर अपना नाम लिख कर अन्दर भेज दू। मैं पर्स में अपना पैन ढूंड ही रही थी कि शायद उन्होंने पर्दे के पीछे से मुझे बाहर खड़े देख लिया था और मुझे अन्दर से पुकारा था, ‘‘अम्बिका...मिस सिन्हा।’’

जब तक मैं कुछ समझ पाती,और बढ़ कर अन्दर जाती,तब तक वे दरवाज़े पर आ कर खड़ी हो चुकी थीं। दुबला पतला शरीर,बेहद गोरा रंग,निश्छल चेहरे पर शिशु जैसा चापल्य और छोटी सी कोमल कद काठी ‘‘आप आ गईं मिस सिन्हा? गुड। आप अन्दर आ जाईए।’’और वे तेज़ी से अन्दर की तरफ वापिस मुड़ गयी थीं। वे मेज़ के उस पार पड़ी बड़ी सी लैदर चेयर पर बैठ गयी थीं।लगा था वे उसके अन्दर कहीं खो गई हों। मैं मेज़ के दूसरे किनारे ठिठकी सी खड़ी रही थी। वे झुक कर ड्राअर में से कुछ कागज़ निकालने लगी थीं। तभी उन्होंने निगाह उठा कर मेरी तरफ देखा था ‘‘अरे आप खड़ी क्यों हैं? बैठिए न।’’उन्होने सामने की कुर्सी की तरफ इशारा किया था। मैं बैठ गई थी। वे ड्राअर में अभी भी कुछ ठॅूड रही हैं। कमरे में अगरबत्ती का धुॅआ और उसकी भीनी भीनी सी महक है। मैंने कमरे में चारों तरफ निगाह घुमायी थी। प्रिंसिपल चेयर के ठीक पीछे एक मेज़ पर सरस्वती की मूर्ति रखी है। उसी के आस पास अन्य देवी देवताओं की छोटी छोटी मूर्तियॉ भी हैं। उनके आगे ताज़ा फूल रखे हैं। अगरबत्ती जल रही है,जैसे यहॉ अभी अभी पूजा की जा चुकी है। मुझे अजीब लगता है। कमरे का यह कोना कुछ भी लग सकता है किन्तु एक नामी गिरामी कालेज का प्रिंसपल रूम नही लग रहा। तभी मिस वर्मा ने एक कागज़ मेरी तरफ बढ़ाया था,‘‘आपका एपायन्टमैंट लैटर, उस दिन देना भूल गये थे।’’

‘‘थैंक्यू मैम’’ मैंने कागज़ उनके हाथ से ले लिया था।

‘‘अभी चार महीने के लिए ही नियुक्ति हुयी है।’’ वे हॅसी थीं ‘‘आपको तो पता है कि यह लीव वैकेन्सी है। पर’’ आगे वे कुछ भी कहे बग़ैर चुप हो गयी थीं।

‘‘जी मैम।’’

उन्होने एक बार मेरे हाथ में पकड़े गए कागज़ की तरफ, फिर मेरी तरफ देखा था,‘‘इसे संभाल कर रखिएगा। एक फाईल बना लीजिए। उसमें नौकरी से सबंधित सारे कागज़ सिलसिलेवार लगाती जाईए। उससे बहुत सुविधा रहती है।’’ उन्होने घर के किसी बड़े की तरह समझाया था।

‘‘जी मैम।’’

‘‘बीच बीच में कोई जी.ओ. वग़ैरा आते हों तो उनकी कापी भी रखती जाईए।’’ वे मुझे समझाती रही थीं। अचानक ही उन्हे कुछ ध्यान आया था। उन्होने घण्टी बजायी थी फिर साथ ही पुकारा था ‘‘रामचन्दर।’’

‘‘जी दीदी जी।’’ एक मध्यम कद काठी और मध्यम आयू का चपरासी आदेश की प्रतीक्षा मे सामने आ कर खड़ा हो गया था।

‘‘राम चन्दर अटैन्डैन्स रजिस्टर उठा दो।’’

उसने मेरी तरफ देखा था और मेरे पीछे कुछ दूरी पर रखी मेज़ पर से उठा कर खुला रजिस्टर मेरे सामने रख दिया था। उस पन्ने में लिखे सब नामों के अन्त में मेरा नाम पहले से लिखा हुआ है...अम्बिका सिन्हा...नियुक्ति की तिथि.। मैंने अजब सा रोमॉच महसूस किया था और अपने नाम के सामने दस्तख़त कर दिए थे।

‘‘यह रजिस्टर यहीं रखा रहता है। हर दिन क्लास में जाने से पहले सिगनेचर कर दिया करिए।’’

‘‘जी मैम.”

Sumati Saxena Lal.

Sumati1944@gmail.com