Jo Ghar Funke Apna - 20 in Hindi Comedy stories by Arunendra Nath Verma books and stories PDF | जो घर फूंके अपना - 20 - बाप रे बाप !

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जो घर फूंके अपना - 20 - बाप रे बाप !

जो घर फूंके अपना

20

बाप रे बाप !

लखनऊ में नाका हिंडोला थाने के थानेदार साहब मेरे लिए नितांत अपिरिचित थे और अपिरिचितों से गाली सुनने में कैसी शर्म. समस्या तो तब उठ खड़ी होती है जब अपनों को कुछ ग़लत बोलने के बाद उनसे बेभाव की पड़े. जैसी कि मेरे दोस्त तरलोक सिंह को पडी थी अपने ही पिताजी से. तरलोक भी मेरी स्क्वाड्रन में फ्लाईट लेफ्टिनेंट था. उसके पिताजी ने कलकत्ते में तीस साल पहले टैक्सी चलाना शुरू किया था. धीरे धीरे अपनी मेहनत के बल पर इन तीस सालों में वे तीस टैक्सियों के मालिक बन गए थे. इस कामयाबी के बाद उनकी दो अभिलाषाएं और थीं. पहली पूरी हो चुकी अभिलाषा थी कि उन्होंने स्वयं तो टैक्सी चलाई, बेटा कम से कम हवाई जहाज़ उडाये. दूसरी अतृप्त अभिलाषा थी कि तरलोक की शादी जिसकी बेटी से हो वह स्वयं कम से कम तीस ट्रकों का मालिक हो. उनके विचार से ‘लडकी कैसी हो?’ यह सोचने की ज़रूरत न तो स्वयं उन्हें थी न ही तरलोक को. इसी लिए एक दिन जब उन्हें बेटे के लिए शादी का प्रस्ताव एक ऐसी लडकी के पिता से मिला जो अमृतसर में उनतीस ट्रकों का मालिक था और तीसवीं ट्रक खरीदने वाला था तो उन्होंने तय किया कि पहले अमृतसर जाकर एक बार अपनी आँखों से स्वयं देख आयें कि ट्रकें कैसी हैं, नयी और अच्छे मेक की या सेकण्डहैंड? ट्रकें उन्हें ठीक लगीं तो बाद में तरलोक लडकी देख लेगा. तरलोक की सबसे बड़ी शिकायत ये थी कि पिताजी को ट्रकें वे अच्छी लगती थीं जो लड़कियों जैसी सुन्दर हों और लडकियां वे पसंद आती थीं जो ट्रक जैसी दमदार हों और घर गृहस्ती का बोझा बिना धुआं छोड़े उठा सकें.

बहरहाल, अमृतसर से एक दिन खबर आयी कि लड़कीवालों को तीसवीं ट्रक की डिलीवरी मिलने वाली है तो पिताजी ने अचानक अमृतसर जाने का कार्यक्रम बना लिया. कलकत्ते से दिल्ली का फोन तो उन दिनों दो चार घंटों में लग जाता था एयरफोर्स स्टेशन पालम का फोन भापाजी नहीं लगा पाए अतः तरलोक को वे अपने अचानक बने यात्रा कार्यक्रम की सूचना नहीं दे पाए. पर हावड़ा से अमृतसर जाने वाली मेल जब दिल्ली के पास से गुज़र रही थी तो बेटे के प्यार ने जोर मारा और उन्होंने तय किया कि यात्रा बीच में तोड़कर पालम में बेटे से मिलते हुए जाएँ. दिल्ली पहुंचकर उन्होंने तरलोक को फोन करना चाहा कि वह स्टेशन पर ही आकर उनसे मिल जाए ताकि वे आगे अमृतसर की यात्रा जारी रख सकें. पर स्टेशन के फोन बूथ से एयरफोर्स पालम का नंबर, फिर एयरफोर्स एक्सचेंज से हमारी स्क्वाड्रन का नंबर फिर क्रूरूम जहाँ हम सब होते थे का नंबर मिलवा कर अंत में अपने प्यारे बेटे से बात करना कलकत्ते की भीडभरी सड़कों पर टैक्सी चलाने से कहीं अधिक टेढा काम निकला. अंत में नंबर मिल भी जाए तो दोनों पक्ष चैन से एक दूसरे की बात स्पष्ट सुन पायें यह उन दिनों लगभग असंभव था, विशेषकर जब बीच में दो मैनुअल एक्सचेंज हों. तरलोक के भापा जी का फोन आया तो तरलोक को भी कुछ स्पष्ट सुनायी नहीं दे रहा था. फोन पर आवाज़ बहुत क्षीण सी आ रही थी. उसके भापा जी बार बार बताते रहे कि वे दिल्ली से बोल रहे हैं. तरलोक को मुश्किल से समझ में आया कि कोई दिल्ली से फोन कर रहा है. इसके बाद वह बार बार पूछता रहा कि आप कौन बोल रहे हैं. धीरे धीरे दोनों पक्षों की सहनशक्ति जवाब देने लगी. अंत में भापा जी ने चिढ़कर पूरे दम से चिल्ला कर कहा “अरे मैं बोल रहा हूँ, तू अपने पेओं (बाप) को भी नहीं पहचानता?” तरलोक थोड़ी देर पहले ही फ्लाईट कमांडर साहेब से किसी गलती के लिए पड़ी झाड से खीझा बैठा था. पता नहीं किस सिरफिरे को इस समय मज़ाक करने की सूझी थी. पूरे जोर से चिल्लाकर उसने भी पलटवार किया –“अरे यार,यहाँ तो सारे ही मेरे पेओ लगते हैं, तू कौन सा वाला है?”

फोन से अचानक धडाम से काटे जाने की आवाज़ आई और तरलोक ने चैन की सांस ली कि इस प्रैक्टिकल मजाकिए से मुक्ति मिली. पर दो घंटों के बाद ही गार्ड रूम से फोन आया कि खिचड़ी दाढ़ी वाले एक हृष्टपुष्ट सरदार जी फ्लाईट लेफ्टिनेंट तरलोक सिंह से मिलने आये हैं, बहुत गुस्से में लगते हैं और विजिटर्स रजिस्टर में आने के प्रयोजन के कॉलम में उन्होंने लिखा है ‘देखने के लिए कि मेरे बेटे के और कौन कौन से बाप यहाँ मौजूद हैं’

तरलोक ने गार्ड रूम में जाकर किसी न किसी तरह अपने भापा जी को मना ही लिया. पर तब ही नहीं, आज भी, मुझे लगता है कि हर आदमी के घर पर भले एक बाप हो लेकिन जीवन के रणक्षेत्र में सबके कई बाप अवश्य होते हैं. तभी हर आये दिन ज़िंदगी की ठोकरें खाने के बाद वह “बाप रे बाप” चिल्लाता हुआ अंत में इन दूसरे बापों से तंग आकर बड़े वाले बाउजी अर्थात ‘परम पिता परमात्मा’ की शरण में जाकर त्राहि माम की गुहार लगाता है. वैसे कई बार थक कर माँ के आँचल की शीतल छाया भी याद आती है. पर पैत्रिक व्यवस्था वाले हमारे समाज में माँ की ममता की महत्ता मधुर और स्निग्ध होने के कारण है. परास्त होकर, पिटकर या ठगे जा कर, हम अंत में जब किसी के सामने हथियार डालते हैं तो अपनी खिसियाहट छिपाते हुए कहते हैं कि फलाना तो हमारा भी बाप निकला. ये कोई नहीं कहता कि फलानी तो हमारी भी अम्मा निकली. नारी से सबका एक रिश्ता आसानी से जुड़ता है. जब वह गरीब की जोरू होती है तो सबकी भाभी बन जाती है. पर बाप का रिश्ता उससे बनता है जो कहीं न कहीं आपकी नस दबाने में सक्षम हो. लोग कहते हैं कि ना जाने किस भेस में नारायण मिल जाए पर वास्तव में उनको सतर्क इसलिए रहना पड़ता है कि ना जाने किस वेश में बाप उन्हें मिल जाए. वक्त आने पर गधे को भी बाप बनाने में लोग संकोच नहीं करते. पर काम निकल जाने के बाद, बाप क्यूँ बनाया था, बता देने पर कभी कभी सीधा सादा गधा भी दुलत्ती झाड सकता है.

लोग बात से बात निकालते हैं और मैं हूँ कि बाप से बाप निकाल रहा हूँ. पर करूँ क्या? गज़लसम्राट जगजीत सिंह गाकर चले गए कि ‘बात निकलेगी तो फिर दूर तलक जायेगी. ’ नौकरी में प्रायः देखने को मिलता है कि सर्विस में जिसका बाप निकलेगा वह दूर तलक जाएगा. कहते हैं ‘उत्तम खेती मध्यम बान, निकृष्ट चाकरी, भीख निदान’ नौकरी को निकृष्ट मानने का. कारण स्पष्ट है. जो नौकरी करता है उसके एक से अधिक बाप होते हैं. और जो कई बाप बना लेने का नुस्खा जानता है वही नौकरी में सफलता की सीढियां चढ़ता हुआ एक दिन सबका बाप बन जाता है. हाँ कभी कभी कुछ सामाजिक मजबूरियों के कारण असली बाप को भी अपना बापपन छिपाना पड जाता है. ऐसे में ये स्थिति भी देखी गयी है कि बेटा भरी अदालत में चीख चीख कर कहे “मान न मान मैं तेरी संतान“ और बाप साफ़ इनकार करते हुए कहे “नारायण! नारायण! मुझे क्यूँ बीच में डालता है, तू भगवान का दिया अर्थात नारायणदत्त है’’

क्रमशः ---------