जी-मेल एक्सप्रेस
अलका सिन्हा
32. यातना से गुजर कर
सरप्राइज पार्टी सच में बहुत गोपनीय ढंग से आयोजित की गई थी। अभिषेक को अंतरा ने यह कहकर बुलाया था कि उसके दफ्तर का ‘अवॉर्ड-फंक्शन’ है जिसमें अंतरा को भी अपने परिवार सहित अवॉर्ड लेने आना है। यों, अभिषेक कहीं आना-जाना पसंद नहीं करता है, मगर इस बार उसने ज्यादा ना-नुकुर नहीं की। इस कामयाबी के बाद उसमें भी खुलापन आया है और अब वह लोगों से मिलने में सहज हो रहा है। तय समय पर हम घर से निकल पड़े।
हमने जैसे ही हॉल में प्रवेश किया, कोई देशभक्ति धुन बजने लगी।
मैं बुरी तरह चौंक गया, कुछ ऐसी ही धुन तो मैंने अपने कल्पना लोक में सुनी थी!
अभिषेक जब तक कुछ समझता-बूझता, अंतरा ने आगे बढ़कर उद्घोषणा की-- ‘‘अभिषेक सुखोई की उपलब्धि पर आयोजित इस पार्टी में आप सभी का स्वागत...’’
अभिषेक हड़बड़ाकर आसपास देखने लगा, हॉल की दीवारों पर सुखोई विमान के कई सारे चित्र सजे थे। अंतरा ने सूत्रधार का काम किया, सभी अतिथियों के सामने एक छोटी-सी स्पीच दी जिसमें अभिषेक की बचपन की बातों का जिक्र था, दोनों के बीच झगड़े और सुलह के संस्मरण थे। अंतरा ने अभिषेक से कुछ शरारती सवाल किए। सोचने-समझने का वक्त लिए बिना अभिषेक को उन सवालों के जवाब देने थे।
‘‘सपना देखना कब से शुरू किया?’’ अंतरा ने प्रश्न किया।
‘‘जब से आंख खुली।’’
‘‘किसी से मुहब्बत की?’’
‘‘की!’’
‘‘होsss,’’ सभी का उल्लास भरा सम्मिलित स्वर, ‘‘कौन है?’’
‘‘उसकी तस्वीर दिलो-दीवार पर चस्पा है।’’
अभिषेक ने फिल्मी अंदाज में दीवारों पर लगे सुखोई के चित्रों की ओर इशारा किया तो पूरी महफिल में तालियां गूंज गईं।
‘‘जीवन का सबसे यादगार पल?’’
‘‘यही है! यही है!! यही है!!!’’
‘‘अच्छा, आप अपनी ओर से कुछ कहना चाहेंगे?’’
अंतरा ने माइक अभिषेक को थमा दिया।
एक पल की चुप्पी के बीच खुद को संयत कर अभिषेक बोल पड़ा,‘‘आइ एम पापाज सन, बहुत बोलना मुझे नहीं आता, लेकिन निरंतर अपने लक्ष्य की ओर बढ़ना मैंने पापा से सीखा।’’
मैं जानता था, वह मेरी ओर देख रहा है, मगर मैं चाहकर भी नजर उठाकर उसकी ओर नहीं देख पा रहा।
उसका एक-एक शब्द मेरे कानों में गूंज रहा था।
मैं हैरान हूं। क्या कोई मुझसे भी कुछ सीख सकता है? क्या मैं भी किसी के लिए प्रेरणा बन सकता हूं? क्या परिवार की तरक्की में मैं भी शामिल हूं...
मेरी आंखों के आगे का दृश्य धुंधलाता जा रहा है। लग रहा है, ये सारी कायनात मेरे इर्द-गिर्द घूम रही है और समवेत स्वर में गा रही है- पापाज सन, पापाज सन।
‘‘माइ मॉम इज लेडी डायनमो, डिटरमिनेशन ली है मैंने मॉम से।’’ उसने आगे कहा।
विनीता का भी मेरे जैसा हाल था। वह भी अपने आपमें गुम होती जा रही थी जबकि अभिषेक उसी से मुखातिब था, ‘‘डटकर मुकाबला करना मां ने सिखाया। मुझे तो यहीं जाना था मां, ये तो तुम्हें तबसे पता था जब मैं पैदा भी नहीं हुआ था। फिर इजाजत देने में इतनी देर क्यों की?’’
सभी की नजरें विनीता की ओर थीं और विनीता आंखें बंद किए देख रही थी अपने सपने की हकीकत।
अभिषेक ने अंतरा की ओर देखा, ‘‘बिंदास होकर जीना अभी सीखना है तुमसे।’’
पार्टी की भव्यता देखने लायक थी। आधुनिक होते हुए भी धरती से जुड़ी, भाव-प्रवण।
एक फौजी के माता-पिता होने का गौरव हम दोनों ही महसूस कर रहे थे। मैं देख रहा था, एक नई दुनिया उसके स्वागत को तत्पर है। कई तरह के गौरव चिह्न उसकी प्रतीक्षा कर रहे हैं और मेरा रोम-रोम उसका प्रशस्ति गान गा रहा है—
प्रगति-पथ पर अग्रसर तेरे सबल से सबलतर,
ये चरण-- बढ़ते रहें! बढ़ते रहें!!
सोचता हूं, जिंदगी भी कैसे-कैसे मोड़ दिखाती है। जब कुछ रोज पहले मैं डायरी के चक्कर में फंसकर तहकीकात के लिए बुलाया जाने लगा था, तब कैसा आहत हुआ था। आत्महत्या तक करने का ख्याल मन में आने लगा था। अगर सचमुच कोई ऐसा-वैसा कदम उठा लेता तो क्या आज यह खुशी देख पाता? खुद तो इससे वंचित रहता ही, परिवार पर भी एक दाग लगा छोड़कर चला जाता।
इसी तरह जब मैंने क्वीना की जिंदगी गढ़नी शुरू की थी तब उसके प्रति कितना आसक्त होने लगा था। उसके साथ कुछ बुरा हो तो मुझे नागवार गुजरने लगता था। इसी तरह, हम भी तो उस रचनाकार के गढ़े पात्र हैं, वह भला हमारे साथ बुरा होने देगा? क्या वह भी हमारे साथ उसी प्रकार आसक्त नहीं होता?
कुदरत के प्रति असीम आस्था अनुभव करने लगा हूं। जो भी घटता है उसका कुछ-न-कुछ मकसद जरूर होता है। अब लगता है कि मैं जो इस डायरी प्रकरण में फंसा, उसका भी कुछ उद्देश्य होगा ही और मेरी उसमें कुछ सार्थक भूमिका भी जरूर होगी। मुझसे क्या अपेक्षित है? मुझे क्या करना चाहिए? मैं किस प्रकार इसे सही दिशा में ले चल सकता हूं? पूर्ण समर्पण भाव के साथ मैं खुद को प्रस्तुत करता हूं कि अपनी भूमिका सिद्ध कर सकूं।
चरित का डायरी को अपनी बताने के पीछे सारी जांच को गलत दिशा में भटकाने का षड्यंत्र साफ जाहिर है। ऐसे में मुझे क्या करना चाहिए? यह डायरी, जिसने मेरी रचनात्मकता को संतुष्ट किया, मेरे भीतर के लेखक को स्पेस दिया, उसे जिंदा रखा, मैं उसके साथ इस तरह का खिलवाड़ कैसे बरदाश्त कर सकता हूं? मैं इस डायरी की निजता को किसी के भी हाथों रेजा-रेजा होते नहीं देख सकता। इस झूठ का परदाफाश करना जरूरी है।
‘‘डॉक्टर साहब, त्रिपाठी बोल रहा हूं... मैं पूरे दावे के साथ कह सकता हूं कि चरित झूठ...’’ मैंने डॉक्टर मधुकर को फोन मिला दिया।
‘‘फोन पर नहीं, मिस्टर त्रिपाठी। अभी मिलता हूं आपसे, सामने बैठकर बात करेंगे।’’
मधुकर ने फोन रख दिया, तब लगा, कहीं मैं अतिरेक तो नहीं कर बैठा? मैं क्यों खामख्वाह ही इस केस में इतनी दिलचस्पी ले रहा हूं? बेवजह इन्वेस्टिगेशन टीम से मिलने और उन्हें जिरह-बहस के लिए उकसाने की क्या जरूरत है? मेरा इस तरह इसमें इन्वॉल्व होना ठीक नहीं है। क्या पता, डॉक्टर मधुकर यों ही मुझे अहमियत देते हों कि इस झांसे में आकर मैं कुछ उगल दूंगा... क्या पता, उनकी नजर में मैं भी इस केस से जुड़ी एक महत्वपूर्ण कड़ी हूं और मुझसे पूछताछ करने का उन्होंने यह रास्ता अपनाया हो?
हो सकता है, ऐसा हो। तो मैं कौन-सा सच में इस केस से जुड़ा हूं कि अपनी राय बताने से फंस जाऊंगा? आखिर कुदरत ने मुझे भी एक अवसर दिया है कि मैं इतने महत्वपूर्ण प्रॉजेक्ट का हिस्सा बन सकूं, तो इतना सोच-विचार क्यों? मैं तो यही मानता हूं कि डॉक्टर मधुकर मुझे इतनी तरजीह इसलिए देते हैं कि वे समझते हैं कि अपनी सोच और मेरी कल्पना के साथ वे इस केस को बेहतर ढंग से सुलझा पाएंगे, तो मेरा भी फर्ज बनता है कि मैं उनकी अपेक्षाओं पर खरा उतरने का प्रयास करूं।
गाड़ी आ पहुंची थी।
‘‘अरे डॉक्टर साहब, आपने ये जहमत क्यों की?’’ मैंने देखा, डॉक्टर मधुकर खुद ड्राइव करके आए थे।
‘‘आपके साथ कहीं बैठकर कॉफी पीने का मन हो आया, आइए।’’
डॉक्टर की सादगी पर मन रीझ गया। मैं आगे, डॉक्टर की बगल वाली सीट पर बैठ गया। हमारे ऑफिस से कुछ दूर पर ही किसी क्लब में डॉक्टर ने गाड़ी पार्क की।
सुंदर-सा लॉन और बीच में कांच की पारदर्शी दीवारों से घिरा रेस्तरां... बाहर देखो तो प्रकृति के साथ हैं और भीतर, वातानुकूलित आधुनिक सुविधाओं के साथ। मजा आ गया। ऐसे माहौल में डॉक्टर भी बहुत बदला हुआ मालूम पड़ रहा था। उसने आसमानी रंग की जीन्स पर मलमल का सफेद कुरता पहन रखा था।
‘‘आज तो आप एकदम बाबू मोशाय लग रहे हैं।’’ मैं कहे बिना नहीं रह सका।
‘‘बाबू मोशाय तो मैं हूं ही,’’ कहते हुए जब डॉक्टर ने बताया कि आज वह छुट्टी पर था तो मैं अपनी अनधिकार चेष्टा पर शर्मिंदा हुए बिना न रह सका। मगर डॉक्टर आज डॉक्टर वाले अंदाज में था ही नहीं। उसने खूब झाग वाली कैपिचिनू कॉफी का आर्डर दिया।
उसने बताया कि वह मूल रूप से ऑल इंडिया मेडिकल इन्स्टीट्यूट में मनोचिकित्सक है और सरकारी प्रॉजेक्ट के तौर पर इस केस पर काम कर रहा है। उसने इस पीड़ा को व्यक्त किया कि आजकल लड़कों को यौनाचार से जुड़ी गतिविधियों की तरफ बहुत तेजी से धकेला जा रहा है और माहौल ऐसा होता जा रहा है कि अधिकतर लड़के तो इसे शोषण की तरह देख ही नहीं रहे। कारण यह है कि उन्हें स्कूली जिंदगी से ही इस ओर प्रवृत्त किया जाने लगा है। उम्र के उस दौर में, जब वह न तो बड़ा होता है न ही बच्चा, उस समय किसी के द्वारा मिलने वाली अतिशय अहमियत उन्हें बड़ी तेजी से इस ओर आकर्षित करने लगती है जो शारीरिक और मानसिक बदलाव के इस पड़ाव पर कई तरह की जिज्ञासाओं को शांत करने का जरिया भी बनती है।
डॉक्टर ने यह भी बताया कि लड़कों के साथ होने वाली इस तरह की घटनाओं की संख्या कम नहीं है। यह बात दूसरी है कि हमारा समाज इस तरह की घटनाओं के प्रति पर्याप्त सजग नहीं है जबकि इनका शोषण भी लड़कियों के साथ हुए बलात्कार से कम घातक नहीं होता। लड़कों को भी वैसी ही मानसिक यातना से गुजरना पड़ता है। इस तरह की घटनाएं उनके भावात्मक और रागात्मक संबंधों को बुरी तरह प्रभावित करती हैं। कई बार तो व्यक्ति ताउम्र ऐसे रिश्तों में सहज नहीं हो पाता और एक खूबसूरत अहसास से हमेशा के लिए वंचित रह जाता है।
मेरे जहन में निकिता की तस्वीर उभरने लगी। वह भी तो ऐसी ही यातना के कारण सहज जीवन से वंचित रह गई थी। डॉक्टर बता रहा था कि इस तरह का व्यवहार लड़कों के मन पर भी वैसा ही दबाव पैदा करता है और उनके व्यक्तित्व के विकास को अवरुद्ध कर देता है।
डॉक्टर का मानना था कि पहले तो वे यह समझ ही नहीं पाते कि उनका शोषण किया जा रहा है, उन्हें तो लगता है कि वे दुनिया के बादशाह हो गए हैं और जब तक वे इस तथ्य को समझ पाते हैं तब तक वे काफी दूर निकल चुके होते हैं। ऐसे में वे यह नहीं तय कर पाते कि वे इस बारे में किससे बात करें, उनकी बात सुनी भी जाएगी या नहीं और बताने के बाद होगा क्या? उन्हें स्वीकार भी किया जाएगा या नहीं?
ऐसे कई शक, कई सवाल उनके व्यक्तित्व पर हावी हो जाते हैं और उनका समुचित विकास नहीं हो पाता। कुछ लड़के चारित्रिक दृष्टि से कमजोर पड़ जाते हैं और इसे अपनी सफलता का जरिया बनाने लगते हैं तो कुछ लड़के अपने-आपमें सिमटकर रह जाते हैं। उनके भीतर एक तरह की ग्रंथि पनपने लगती है। अपने भीतर के दर्द को बाहर निकालने के लिए उनकी आत्मा छटपटाती रहती है, मगर वे किसी से अपनी तकलीफ साझा नहीं कर पाते और एक तरह का चुप्पापन उनके व्यक्तित्व पर हावी होने लगता है।
डॉक्टर ने बताया कि ऐसे समय में माता-पिता की बड़ी सशक्त भूमिका होती है। वे उनकी जिज्ञासा का सही तरह से निराकरण कर सकते हैं और उन्हें सही-गलत की पहचान करा सकते हैं। मगर दिक्कत यह है कि भारतीय समाज में इन विषयों पर बात करने का संस्कार अभी तक नहीं बन पाया है जिसका नतीजा यह निकलता है कि बच्चे अपने तरीकों से इन पर जानकारी एकत्रित करने लगते हैं जो कई बार बहुत घातक होती है।
उसने कहा कि इस केस के माध्यम से वह एक ऐसा फूलप्रूफ सिस्टम तैयार करना चाहता है जिसके तहत लड़कियों की तरह लड़कों को भी स्कूली जीवन से ही इस बारे में जागरूक किया जा सके और उन्हें शोषण से बचाया जा सके।
‘‘जानते हो, इस केस में मेरी इतनी दिलचस्पी क्यों है?’’ डॉक्टर मधुकर कुछ भावुक हो आया था, ‘‘एक समय मैं भी इस तरह की यातना से गुजर चुका हूं...’’
(अगले अंक में जारी....)