धनिया
गोवर्धन यादव
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गहरी नींद में सो रही धनिया। चर्र-मर्र चर्र-मर्र की आवाज सुनकर वह जाग गई। उसने ध्यान से उस आवाज को पहचानने की कोशिश की “अरे- ये तो बैलगाडिय़ों की चलने की आवाज है। याने कि कल हॉट भरेगा। उसने सहज में अंदाज लगा लिया।
पहाड़ों के कंधों पर से एक सर्पाकार सड़क रेंगते हुए आती है और इस गाँव को छूते हुए दूर निकल जाती है। सड़क कहाँ से आती है और कहाँ चली जाती है उसे नहीं मालूम, पर वह इतना जरूर जानती है कि व्यापारी लोग दूर-दूर से अपनी-अपनी गाडिय़ों में माल लादे रातभर चलते हैं और सुबह यहाँ अपनी दुकान सजाते हैं और माल बेचते हैं। सड़क के उस पार मैदानी इलाका है, जहां यह गाँव बसता है, यहां अस्पताल है, गेस्ट हाउस है, रेस्ट हाउस है, रिहायशी मकान भी हैं। अब तो जगह-जगह होटलों ने भी अपने पैर पसार लिए हैं। दूरदराज से सैलानी अक्सर यहां आते हैं, होटलों की शरण में रात बिताते हैं और पौ फटते ही जंगलों में उतर जाते हैं। पहाड़ों की तहलटी में जलप्रपात है, पुराने महलों के भग्नावशेष हैं, प्रकृति यहां नित्य नूतन शृंगार करती है। हिरण-बारहसिंगा, लोमड़ी-बायसन और भी न जाने कितने रंग बिरंगे पक्षी यहाँ डेरा डाले रहते हैं। सामने वाली काली पहाड़ी पर से सूर्योदय व सूर्यास्त का नजारा देखने लायक होता है। लोग-बाग यहां बड़े-बड़े कैमरे लेकर आते हैं और नयनाभिराम दृश्यों को कैद करके ले जाते हैं। इन्हीं तलहटियों में सैकड़ों आदिवासी गाँव अपनी धरोहरों एवं परम्पराओं को जीवित रखते हुए, तिल-तिल करके मर रहे हैं। पल-पल मुसीबतों का सामना करते हुए नंगे-अधनंगे रहते हुए, घास-पास की झोंपड़ी में सिर छिपाते हुए भूखे-नंगे आदिवासी जन आज भी अपनी ही लीक पर चलने को मजबूर हैं। विकास के नाम पर करोड़ों की राशि अधिकारियों व अफसरों द्वारा डकार ली जाती है। इन्हें कुछ भी पता नहीं होता। यदि जान भी जाए तो इन्हें कोई शिकवा-शिकायत नहीं और न ही ये अपना दुखड़ा लेकर किसी के पास जाते हैं। जो कुछ भी सहज-सुलभ उपलब्ध है उसी में जिंदगी काट देते हैं। उदासी-लाचारी-मजबूरी जैसे घटिया शब्द शायद इनकी डिक्शनरी में लिखे ही नहीं गए हैं। जो भी करते मिलजुल कर करते हैं। सुख तो इनके नसीब में लिखा ही नहीं है। अक्सर सुख बांटने के चक्कर में ही झगड़े-फसाद मचते हैं। सुख है भी कहाँ जिसे बराबर-बराबर बांटा जा सके। हिस्से में सभी के आते हैं दुख-तकलीफें। तो वे सब हिलमिल कर बांट ले जाते हैं। दुख मिटाने का उपाय भी जानते हैं ये लोग। कड़वी घूंट हलक के नीचे उतरी नहीं कि पांव थिरकने लग जाते हैं। समूची देहराशि नाच उठती है। औरत मरद एक दूसरे की कमर में हाथ डाले, घेरा बनाए घंटों नाचते रहते हैं। टूटे-फूटे शब्दों में गीत भी मुखरित हो उठते हैं। क्या मजाल कि कभी किसी के मन जरा सा खोट भी आ जाए। कभी-कभार कोई टंटा खड़ा हो भी जाए तो पंचायत बैठ जाती है और फैसला हो जाता है। मन में गांठ बांधकर रहने की इनकी आदत ही नहीं है। पलभर को तकरार फिर गले में हाथ डाले-हंसने बोलने लगते हैं। चार-चारोली, महुआ-लकड़ी गोंद न जाने कितनी ही वनोपज लेकर ये हॉट आते हैं, इन्हें बेचकर मिट्टी का तेल व नमक खरीदना नहीं भूलते। कभी-कभार अगर गंडे ज्यादा मिल गए तो अन्य आवश्यक वस्तुएं खरीदी जातीं।
लगभग सम्पन्नता की सोपानों पर चढ़ते हुए भी, व्यापारी लूट-खसोट की परम्पराओं को बरकरार रखे हुए, हॉट में टूट पड़ते हैं। औने-पौने में माल खरीदकर लाखों कमा लेते हैं। आदिवासी जन जानते हैं कि उन्हें लूट लिया गया है फिर भी उनके चेहरे पर शिकन तक दिखलाई नहीं पड़ती। जानते हैं वे अपनी हद और सरलता की हल्की फुल्की सी मुस्कान ओढ़े रहने की जैसे इनकी आदत ही बन गई है।
सप्ताह में एक दिन भरता है हॉट। तरह-तरह की चीजें यहां सजने लगती हैं। गाँव के बहुत सारे लोग हॉट में आएंगे। आएंगे शब्द की कल्पना मात्र से वह रोमांचित हो उठी। सतिया, सलोजी, सोमत, झीनी, बसंती, कल्लू, भीमा, माखन इन सारे संगी साथी में से कोई न कोई हॉट में मिलेगा। मिलते ही गले लग जाएंगे फिर एक कोने में बैठकर गपियाएंगे। संभव हुआ तो गोलू हलवाई कीदुकान से जलेबी अथवा मूमपट्टी अवश्य ही खाई जायेगी। जलेबी की याद आते ही मुंह में मिश्री सी घुलने लगी। वह चट से उठ बैठी और सीधे बाथरूम में जा घुसी। उसे मालूम है कि इस वक्त चुन्नु-मुन्नु मांजी स्कूल के लिए जा चुके होंगे। डाक्टर अपनी क्लीनिक के पास पहुंच चुके होंगे। दादी या तो पूजाघर में बैठी गुरिया सटका रही होगी या घर में अस्त-व्यस्त फैले सामानों को करीने से सजा रही होगी। फिर उसे खाना भी तो पकाना है। यदि पूजा समाप्त हो गई हो तो सीधे ठाकुरजी के भोग के लिए कुछ मांगेगी। बिना नहाए-धोए चौके में घुसना यहां वर्जित सा है।
बाथरूम में घुसकर उसने अपने कपड़े उतारे और नहाने बैठ गई। शरीर को सुंगधित साबुन से मलमल कर नहाने के बाद उसने कपड़े बदलने शुरू किए। बाथरूम में टंगे आईने में उसने अपने शरीर को देखा तो बस देखते ही रह गई। मैली-कुचैली सी रहने वाली धनिया का रूप रंग कितना खिल गया है, उसने मन ही मन निहारते हुए कहा और आईने के और करीब खिसक आई। जरूरत से ज्यादा विकसित हो आए उरोजों को उसने छूकर देखा। छूते समय उसकी उंगलियों के पोर, घुण्डियों से जा टकराए। एक अजीब सी सनसनी और मादकता से उसका पोर-पोर थरथरा गया। लगा पूरा शरीर ही झंकृत हो उठा है। सुर्ख हो आए लरजते ओंठ, उभरे हुए गालों पर एक छोटा तिल, शराबी सी हो आई आंखें देखकर खुद अपने आपको रोक नहीं पाई और उसने आगे बढ़कर अपने अक्स को चूम ही डाला। अपने ही ओठों पर ओंठ टिकाते समय उसने स्पष्ट रूप से महसूस किया कि वह किसी अन्य लोक में पहुँच चुकी है।
आहट पाकर वह चौंक पड़ी। उसकी नजरें पुन: आईने से जा चिपकीं। देखा, ओझा उसे घूर रहा था। उसका माथा ठनका। ओझा और यहाँ? हो सकता है वह बदला लेने के लिए यहां आ धमका हो। उसने पलटकर देखा। सचमुच ओझा सामने खड़ा अपनी वीभत्स मुस्कान बिखेर रहा था, और बार-बार अपनी जीभ ओठों पर फेर रहा था। उसका शरीर डर के मारे पीपल के पत्ते के मानिंद थरथर कांपने लगा। पता नहीं कितनी देर से खड़ा वह उसकी नग्न देह को घूर रहा होगा। उसने तत्काल लपककर साड़ी उठानी चाही। साड़ी के उठाते ही बघनखा एक ओर लुढ़क पड़ा। उसने उसे उठाया और बचाव की मुद्रा में खड़ी हो गई। अब वह आक्रमण करना ही चाहती थी। जैसे ही उसने अपना हाथ हवा में उछाला और उसकी ओर लपकी, वार खाली गया। वहां तो कोई भी नहीं है। बुदबुदाते हुए उसने अपने आप से कहा। चारों ओर नजरें घुमाकर भी देखा। सचमुच वहां कोई भी नहीं था। उसे अपने आप पर ही क्रोध हो आया। बघनखे को कमर में खोंसकर उसने साड़ी लपेटी और बाहर आ गई। बाहर आकर उसने एक-एक कोना छान मारा कोई भी नहीं था वहां। उसने बाउण्ड्री वाल के उस पार भी झांककर देखा। पहाड़ अपनी अनन्त गहराईयाँ लिए हुए दूर-दूर तक पसरा पड़ा था और हवा सांय-सांय करके बह रही थी। उसने इत्मिनान से लंबी गहरी सांस ली और अपने आपको संयत करने लगी। उसके अपने हाथ पुन: कमर के इर्द-गिर्द घूम गए। बघनखा बंधा हुआ पाकर उसने फिर एक गहरी सांस ली। तभी उसे मां के ये शब्द अक्षरत: याद हो आए, ''बेटी- इसे अपने से कभी भी अलग मत करना। जरूरत पडऩे पर ये काम आयेगा”। कितने विश्वास के साथ कहा था माँ ने। तभी उसे एक पुरानी घटना याद हो आई।
माँ के ही साथ गई थी धनिया महुआ बीनने। इस बार भी महुआ गजब का फूला था। माँ महुआ बीन रही थी। तभी एक भालू उधर से आ निकला। एक वृक्ष की आड़ लेकर बचाव की मुद्रा में खड़ी हो गई माँ। भालू ने झपट्टा मारा। पर दुर्भाग्य से उसका वार खाली गया। भालू के दोनों पंजे तने से बाहर निकल आए। माँ ने पलटकर फुर्ती से उसके दोनों पैर पकड़ लिए और पूरी ताकत से उसे अपनी ओर खींचा। भालू का सीना तने से टकराया और वह बुरी तरह से चीख उठा। तने पर एक पैर टिकाते हुए माँ ने उसे परे ढेला फिर ताकत से अपनी ओर खींचा। रस्साकशी का ये खेल काफी देर तक चलता रहा, जब तक भालू निढाल होकर गिर नहीं पड़ा। भालू के गिरते ही माँ ने कमर में लिपटा बघनखा निकाला और उसका पेट चीर दिया। एक भयंकर चीख के साथ वह ढेर हो गया। माँ की बहादुरी का नमूना उसने अपनी आंखों से देखा था। उसे गर्व हो आया था अपनी माँ पर। एक बड़ी-सी चट्टान पर बैठकर अपनी तेज हो आई सांसों पर नियंत्रण करने लग गई थी। संयत होते ही उसने इसी बघनखे को उसकी कमर में बांध दिया था तथा चलाने का प्रशिक्षण भी दे दिया था। काश यह बघनखा माँ के पास उस समय होता, जब शेर ने उस पर आक्रमण कर दिया था तो वह अपने आपको शायद बचा ले आती, पर होनी को कौन टाल सकता है। उसने अपने आपसे कहा।
चुन्नु-मुन्नु और मांजी स्कूल से लौट चुके थे। चारों ने मिलकर खाना खाया। खाना खा चुकने के बाद वे गिल्ली-डंडा खेलने में व्यस्त हो गए। मांजी का अब बाजार जाने का वक्त था। उन्होंने थैलियां उठाईं और जाने को उद्धत हुईं। तभी उन्होंने धनिया से भी हॉट चलने को कहा। धनिया तो कभी की तैयार थी। बस उसे इशारे भर की जरूरत थी।
आधा-एक फर्लांग की दूरी पर भरता है हॉट। रास्ता चलते समय उसकी नजरें आने जाने वालों के चेहरों से जा चिपकतीं। इन अजनबी चेहरों में वह अपने स्वजनों को खोजने का प्रयास करती। जब कोई परिचित मिल जाता तो रास्ता चलते चटर-पटर करने लगती।
पूरे सप्ताह की चीजें खरीदती जाती मांजी और धनिया को पकड़ाती जातीं। सारी खरीददारी निपटाने के बाद वे वापिस होने को हुई तो धनिया ने मासूमियत के साथ थोड़ी देर रुककर आगे आने को कहा क्योंकि वह जानती थी कि हॉट से थोड़ा हटकर आदिवासी जन बैठकर बतियाते हैं। उसे उम्मीद थी कि कोई न कोई परिचित उसे जरूर मिल जायेगा। बहुत दिन हो गए सबसे मिले हुए। यही कोई छह महीना अथवा साल भर अथवा इससे भी ऊपर ठीक से याद नहीं उसने सोचा।
व्यग्रता से वह हॉट के उस पार जाना चाहती है। अपने स्वजनों से मिलने की आतुरता में उसकी चाल दोहरी हो उठती है। उसने दूर से ही देखा। लोग घेरा बनाए बैठे बतिया रहे थे। अपने स्वजनों से भेंट करने एवं खबरों का आदान-प्रदान करने के लिए हॉट से बढ़कर और क्या हो सकता है। उसकी नजरें फुर्ती के साथ सभी के चेहरों पर फिसलने लगीं। उसने सतिया को बैठे देखा। फुर्ती से बढ़कर उसने थैला एक ओर रखा और उसे अपनी बांहों के घेरे में आलिंगनबद्ध कर लिया। इस अप्रत्याशित घटना से सतिया घबरा सी उठी। धनिया उसे पूरी ताकत के साथ अपने सीने से चिपकाती तो कभी उसके गालों पर चुम्बन जड़ देती। उसने उसे परे ढेलने की कोशिश की पर धनिया की पकड़ काफी मजबूत थी। लोग-बाग दो सहेलियों के मिलन को देखकर गद्ïगद्ï हुए जा रहे थे। फिर दोनों सहेलियां वार्तालाप में निमग्न हो गईं तभी उसकी नजर चट्टान पर बैठे एक बांके छैला पर पड़ी जो घेरे से दूर बैठा, न जाने किन विचारों में गुम बीड़ी धुनक रहा था। सिर पर पगड़ी, रौबदार चेहरा, चेहरे पर नुकीली मूंछें, कुर्ता बंडी व घुटने-घुटने तक धोती बांधे शांत भाव से इन्हें ही घूर रहा था। धनिया ने इशारे से पूछा तो सतिया ने बतलाया कि यह और कोई नहीं बल्कि उसका कल्लू है। अरे वही कल्लू जो अक्सर तुझसे ही ज्यादा तकरार किये रहता था और तुझसे ही चिपका डोलते रहता था। याद है तुझे, देनवा के गहरे पानी में ये मुआ नंग-धड़ंग कूद पड़ा था और तैरते हुए मुझे ही सता रहा था। बचपन की छेड़छाड़ की याद आते ही उसके गाल लाल हो उठे।
उसकी मनभावन सुगठित देह यष्टि देखकर उसके मन में कुछ-कुछ होने लगा। जी में आया कि दौड़कर गले लगा डाले और जड़ दे ढेर सारे चुम्बन। बचपन में यह सब संभव था। क्या आज वह इस उमर में और सबके सामने ऐसा कर पायेगी। विचारों के आते ही उसे लाज -सी भी हो आई। उसकी नजरें अब भी उसके इर्द-गिर्द ही घूूम रही थीं और वह बांका छोरा भी कनखियों से उसे ही देख रहा था। शायद न देखने का बहाना बनाते हुए अपनी सहेली से बातों में उलझी धनिया ने पुन: पलट कर देखना चाहा तो वह अपनी जगह पर नहीं था। 'कहाँ चला गया होगा कल्लू?. उसने अपने आपसे प्रश्न किया। उसका मन कल्लू को देखने के लिए बेताब हो उठा और वह चारों ओर नजरें घुमाकर उसे खोजने का प्रयास करने लगी।
तभी उसने देखा। वह लौट रहा है और उसके हाथ में कुछ दिखलाई भी पड़ रहा है। न जाने क्या ला रहा होगा? उसने अपने आपसे कहा। तब तक कल्लू लंबे डग भरता हुआ वहां आ पहुँचा। उसके हाथों में गरमा-गरम जलेबी से भरा दोना था। सतिया ने फुर्ती से दोना छुड़ाकर अपने कब्जे में कर लिया फिर एक जलेबी उठाकर धनिया के मुँह में ठूंस दिया फिर कल्लू के मुँह में। हास-परिहास-ठिठौली के इस खेल को देखकर प्राय: सभी ठहाका मार कर हंस पड़े। मुँह में मिठास पड़ते ही धनिया को याद हो आया कि बचपन में जब भी वह बापू के साथ हॉट आती थी। कल्लू और वह हलवाई की दुकान में सरपट भागकर जाते थे और जलेबी अवश्य खाते थे। आज कल्लू स्वयं आगे बढ़कर जलेबी उसके लिए लाया है। यह देखकर वह आनन्द से विभोर हो उठी।
अब उसे आने वाले हॉट की प्रतीक्षा रहती। हॉट वाले दिन वह अपने आपको खूब सजाती संवारती और मां के साथ हो लेती। आज कुछ हॉट ज्यादा ही भरा था। लगुन-सरा का मौसम जो था। उसने कल्लू को यहां वहां ढूंढ़ा पर कहीं भी दिखलाई नहीं पड़ा। तरह-तरह के प्रश्न मन में आते जो उसे छलनी कर जाते। किसी अंदेशे के चलते उसका दिल धड़कने लगा। काफी खोज खबर के बाद सतिया मिली तो उसने बतलाया कि ओझा ने उन दोनों को मिलते देख लिया था। उसने कल्लू को रोकना चाहा पर कल्लू के सिर चढ़ी जवानी कहां मानती। फिर क्या था। ओझा के दो-चार लग्गु-भग्गु उस पर टूट पड़े और तब तक पीटते रहे, जब तक वह बेदम नहीं हो गया।
कल्लू के साथ घटित घटना को सुनते ही वह चीत्कार कर उठी। आंखों से आंसू टपटपाकर बह निकले। वह जानती थी कि ओझा इसे बर्दाश्त नहीं कर पायेगा और वह नीच, कुछ भी कर बैठेगा। हुआ वही, जिसका उसे अंदेशा था। उसके जी में आया कि घाटी उतरकर सरपट दौड़ पड़े और अपने कल्लू को बचा ले। उसने गांव जाने की जिद ठानी तो लोगों ने उसे समझाया कि वह ऐसा न करे क्योंकि यह भी संभव है कि अकेली दुकेली पाकर, वह उसे भी घायल कर दे। संयोग से डाक्टर भी हॉट पहुंच गए थे। जब उन्होंने इस हृदय विदारक घटना को सुना तो एक अच्छा खासा जत्था लेकर घाटी में उतर गए और जब लौटे तो गंभीर हालत में पड़े कल्लू को उठा लाए और अस्पताल में दाखिला देते हुए उसका इलाज शुरू कर दिया। किसी चाकरी की तरह सेवा करती रही धनिया। कुछ दिन बाद वह पूर्णरूपेण स्वस्थ हो गया। स्वस्थ होते ही वह घर जाने की जिद करने लगा। हालांकि धनिया चाहती थी कि यहीं रुक जाये, पर ऐसा कर पाना उसके लिए संभव नहीं था।
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