Bahikhata - 41 in Hindi Biography by Subhash Neerav books and stories PDF | बहीखाता - 41

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बहीखाता - 41

बहीखाता

आत्मकथा : देविन्दर कौर

अनुवाद : सुभाष नीरव

41

घर की परिभाषा

मैं दो सप्ताह अमेरिका में रही। जसवीर के साथ बातें करके तरोताज़ा हो गई। जितने दिन अमेरिका में रही चंदन साहब गै़र-हाज़िर रहे। परंतु गै़र-हाज़िर भी कहाँ थे, हर समय तो उन्हीं की बातें, हर वक्त उन्हीं के सपने। चीख-चिल्लाहट, धुआँ, शराब की गंध तथा और पता नहीं कितना कुछ। वापस वुल्वरहैंप्टन पहुँचकर फिर से वही सब कुछ। फिर भी खुश थी कि अपने लोगों के बीच आ गई। चंदन साहब के बग़ैर सारा शहर ही अपना लगता था। हर कोई प्यार देता था। हर किसी को मुझसे हमदर्दी थी। मुझे यह हमदर्दी नहीं चाहिए थी। अब मुझे अपने लिए जीना था। मेरे अपनों में शामिल थे - साहित्य, मित्र, मेरी नौकरी और मेरे अन्य अपने।

वापस लौटकर मैं किराये पर रहने के लिए घर तलाशने लगी। मनजीत धालीवाल की एक छात्रा का परिवार अपना घर किराये पर देना चाहता था। मैंने जाकर घर देखा। यह निकट ही पड़ता था। मुझे घर बहुत पसंद आया। इसका बड़ा सा बगीचा तो मुझे पुकारने ही लग पड़ा। जब किराया पूछा तो सौ पौंड प्रति हफ्ता। मेरे लिए यह बहुत अधिक था, पर घर ऐसा था कि मैंने हाँ कर दी। मेरी तो अधिकांश तनख्वाह किराये में ही चली जाएगी। मैंने किराया दिया और घर की चाबी ले ली। मुझे लग रहा था कि यही मेरे सपनों का घर था। अब तक मैं अपने घर के सपने में से पति को मनफ़ी कर चुकी थी। मैंने इस घर में बैठकर एक कविता लिखी जिसका नाम ही घर था। वह कविता कुछ इस प्रकार थी -

यह मेरा घर है

किराये का मकां है।

अकेलेपन का हमसफ़र

सुबह-सवेरे पंछियों की

गुटरगूं का बगीचा

सांसों की खामोश धड़कन की ख़ैरगाह

वक्त की आँधियों से बचाता

तिड़की दीवारों सहित

हर सवेर मुझे खुशी-खुशी भेजता

हर शाम

ड्यौढ़ी बन मेरी प्रतीक्षा में रहता

झुलसे सपनों की मरहम बनता

चौराहे की भीड़ में से बचाकर

मुझे अपनी आगोश में भर लेता

यह मेरी सुबह की बंदगी की अरदास होता

यह मेरी रात की नींद का बिस्तर होता

यह मेरा घर है

किराये का मकां है।

मेरे इस घर में रहने की ख़बर चंदन साहब तक भी पहुँच चुकी थी। वैसे वह कम ही किसी दोस्त को बता रहे थे कि हमारे बीच क्या हुआ है। फिर भी, मुझे एक-दो मित्रों से पता चला कि कह रहे थे कि शराब पीकर गलती हो गई। गलती मानना और दोबारा फिर से वही गलती करना तो उनकी फितरत में शामिल था। मैं चाहकर भी अपने से चंदन साहब का लकब(उपनाम) उतार नहीं सकती थी। बड़ा कारण यह था कि सभी मित्र साझे थे। साहित्यिक क्षेत्रों से बाहर भी उनके मित्र बहुत कम थे और मेरे भी। हमारे मित्रों की अच्छी बात यह रही कि न कोई उनके हक़ में उठा और न कोई मेरे हक़ में। यद्यपि कहीं कहीं मुझे सुनने में यह मिलता था कि कुछ मित्र यह कह रहे थे कि बेचारे चंदन को लगा गई देविंदर कौर चूना। जब कि बात इससे उल्टी थी। चंदन साहब ने ही सब कुछ अपने कब्ज़े में कर रखा था। दरअसल, चंदन साहब ने लोगों को मेरे विरुद्ध पता नहीं क्या क्या कह दिया था। वैसे बहुत से दोस्त दिल से हमारे शुभचिंतक रहे। निरंजन सिंह नूर जैसा एक भी नहीं था जो हम दोनों को बिठाकर सुलह करा सकता। वैसे तो अब सुलह के अवसर रहे ही नहीं थे, फिर भी इस सोच के साथ कोई आगे नहीं आया। चंदन साहब के घर मेरा बहुत सारा सामान पड़ा था। मेरा टेबल था, किताबें थीं, टेलीविज़न था, क्राॅकरी थी, कपड़े थे और कुछ अन्य सामान भी। यह सारा सामान मेरे फ्लैट में से आया था। मैंने अपनी एक छात्रा मित्र नसरीन के साथ इस बारे में बात की। उसके भाइयों का फर्नीचर का कारोबार था इसलिए उनके पास एक बड़ी वैन भी थी। नसरीन अपने भाइयों को संग लेकर मेरा सामान उठवा लाई। मैं अपनी कार तो पहले ही ले आई थी। मेरे कार के पेपर चंदन साहब के पास ही थे। एक दिन मैंने उन्हें फोन किया कि पेपर मुझे पोस्ट कर दें, पर वह खुद ही आ गए। मैंने दरवाजे़ में खड़े होकर ही पेपर ले लिए। उन्होंने पेपर देकर मेरी तरफ पैर बढ़ाया, पर मैंने थैंक यू कहकर दरवाज़ा बंद कर लिया।

जब मैं अपने फ्लैट में रहती थी तो दूर दूर से चला दोस्त मेरे पास आकर ठहरता था। अब यह घर भी दोस्तों की प्रतीक्षा करने लगा। मेरे मित्रों को भी मेरे इस नये घर का पता चल चुका था। पहले वाली प्रगतिशील लेखक सभा के सदस्यों तक भी हमारी इस अलहदगी की ख़बर पहुँच चुकी थी। सभा के सभी सदस्य ही समझते थे कि मुझे चंदन साहब के कारण ही उनसे दूर होना पड़ा था। उन्होंने मुझे पुनः सभा में ले लिया। मैं उनकी बैठकों में हिस्सा लेने लगी। वैसे दर्शन धीर की इस बात ने मेरा गर्व और ज्यादा बढ़ा दिया जब उन्होंने कहा कि “हमने तो तुझे कभी भी अपनी सभा से नहीं निकाला था।“

अगली गर्मियों में लैस्टर वाली लेखक सभा ने इंटरनेशनल कान्फ्रेंस करवाई। मैंने भी इसमें हिस्सा लिया। चंदन साहब भी यहाँ आए। अब वह मेरे लिए एक पराये व्यक्ति थे। कान्फ्रेंस में बाकी मित्र तो मिलते जुलते रहे, वह तो अब दोस्त भी नहीं थे। दुश्मनी मुझे करनी नहीं आती थी। मेरी एक सहेली मुझे कहा करती थी, “देविंदर, तू बहुत मूर्ख है। यदि मैं तेरी जगह पर होती तो इस ज़ालिम से ऐसा बदला लेती कि इसको सड़क पर ला देती। इसका सारा घर अपने कब्ज़े में करती और हर समय पुलिस का भय दिखाकर इसे कंपाती रहती। शायद वह सहेली सच कह रही थी, पर मैं ऐसी नहीं हूँ। मैं ऐसा सोच भी नहीं सकती। कानूनी तौर पर यद्यपि बहुत कुछ किया जा सकता था लेकिन एक कानून मानवीय भी होता है जिसमें अपने उतने भर हक़ के लिए लड़ा जा सकता है जितने के आप हक़दार होते हो। मुझे पता है कि इस मुल्क में कई स्त्रियों ने अपने पतियों को इस तरह सड़क पर ला बिठाया कि वे मैंटल होस्पीटलों में पहुँच गए। इसी तरह कुछ पुरुषों ने अपनी औरतों को बर्बाद किया। मेरी लड़ाई मेरे अस्तित्व की बहाली की लड़ाई थी। मनुष्य की स्वतंत्रता की लड़ाई थी। मेरे स्वाभिमान की रक्षा की लड़ाई थी। मैं चंदन साहब की सम्पŸिा हड़प करना चाहती थी, ऐसा करना तो एक तरफ, मैं तो यह सोच भी नहीं सकती थी। दूसरा व्यक्ति कैसे सोचता है, क्या करता है, इसकी जिम्मेदारी मेरी नहीं।

लैस्टर की कान्फ्रेंस में भारत से बहुत सारे लेखक आए। दो दिन यह कान्फ्रेंस चलती रही। कई परचे पढ़े गए और उन पर विचार हुआ। मेरा काम कविता पर अधिक होने के कारण कवि मेरे साथ अधिक जुड़ते थे। इस कान्फ्रेंस में पहुँचे बहुत सारे लेखक मेरे घर भी आए। मोहनजीत, परमिंदरजीत, जसवंत दीद कुछ दिन मेरे पास ही रहे। एक शाम महफ़िल भी मेरे घर पर रखी गई। इसमें भारत से आए सभी मित्रों ने हिस्सा लिया, विशेषकर कवियों ने। मोहनजीत, परमिंदरजीत, बिपनप्रीत, भूपिंदर प्रीत, अंबरीश, परमजीत, जसवंत दीद, दर्शन बुट्टर, भूपिंदर परिहार, भूपिंदर सग्गू, अवतारजीत धंजल, विक्रमजीत, मनमोहन महेड़ू, मनजीत टिवाणा, दलवीर कौर आदि। कहने का तात्पर्य यह कि जो भी कवि कान्फ्रेंस में था, वह उस शाम मेरे घर भी था। स्थानीय कवि तो थे ही। इनमें से बहुत-से स्वर्ण चंदन से भी मिलकर आए थे या अभी जाकर मिलना था। वह शाम बहुत ही खूबसूरत शाम थी। हर कवि ने अपनी कविताओं और गीतों से ऐसा रंग बांधा कि छोटे साइज़ का कमरा शायरी का मंदिर बन गया जो अभी तक स्मृति में अंकित हुआ पड़ा है। ये विचार परमिंदरजीत के थे जो उन्होंने ‘अक्खर’ पत्रिका में पेश किए थे। मैंने भोजन का भी प्रबंध कर रखा था और शराब का भी। भूपिंदर सग्गू ने इस मामले में मेरी विशेष मदद की थी।

इन्हीं दिनों के दौरान ही पंजाबी सभा के कर्ताधर्ता मोता सिंह सराय ने मेरी आलोचना की पुस्तकों को प्रिंसिपल संत सिंह सेखों अवार्ड देने का निर्णय किया जो मेरे लिए बड़े गर्व की बात थी और इस बात का सबूत भी कि चंदन साहब से अलग होकर मेरे स्वाभिमान को कोई धक्का नहीं लगा था। इस प्रकार अन्य सभाओं द्वारा भी मुझे पूरा सम्मान मिलता रहा। बल्कि मुझे यह महसूस हो रहा था कि चंदन साहब से अलग होने के बाद यह सम्मान पूरी तरह खुलेदिन से दिया जा रहा था। सिर्फ़ यही नहीं, अन्य कई सभाओं और विशेष तौर पर कान्वेंटरी पंजाबी लेखक सभा द्वारा भी मेरी साहित्यिक उपलब्धियों को देखते हुए मुझे सम्मानित किया गया। इससे कई साल पहले साउथहैंप्टन की सभा द्वारा भी मुझे अपेक्षित सम्मान दिया जा चुका था।

करीब दो महीने बाद की बात है कि मेरा एक विद्यार्थी जगदीश अपने पिता के साथ भारत जा रहा था। उसने जलंधर जाना था, पर दिल्ली उतरना था और एक रात दिल्ली में रुकना था। मैंने उससे कहा कि वह एक रात हमारे फ्लैट में रुक सकता है। चाबी मेरी भाभी से ले सकता है। हैरानी वाली बात यह हुई कि जब वह चाबी लगाने लगा तो देखा कि ताला तो वहाँ था ही नहीं। दरवाज़े पर दस्तक देने पर अंदर से चंदन साहब निकले और उनके साथ कोई अन्य भी था। शायद उन्होंने अमृतसर से अपने भतीजे को बुला लिया था। यह कैसा डर था जिस कारण चंदन साहब ऐसी हरकतें करने पर उतारू हो गए थे। सोचकर मुझे उन पर क्रोध नहीं, तरस आया। वह अपने आप को कितना असुरक्षित महसूस कर रहे थे, इससे बढ़कर त्रासदीपूर्ण स्थिति किसी इन्सान के लिए क्या हो सकती है ?

(जारी…)