धनिया
गोवर्धन यादव
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खुशनुमा सुबह नहीं थी आज की। भयमिश्रित मातमी एकांत में भीगी हुई थी। दादू को तो जैसे काठ मार गया था। मां के अंदर गहरे तक मोम ही जम आई थी। दादू से गिड़गिड़ाते हुए उसने कारण जानना चाहा तो उसकी बूढ़ी आंखों से टपाटप आँसू बह निकले और जब वह माँ के पास पहुंची कारण जानने, तो बजाय कुछ कहने के उसने उसे सीने से चिपका लिया और फफक कर रो पड़ी। वह लगातार रोए जा रही थी। शंका और कुशंकाओं के जहरीले नाग उसके कोमल मन में, आंगन में, यहाँ-वहाँ विचरने लगे थे। जब माँ ने जी भर रो लिया और बतलाया कि उसका बापू पहाड़ी के उस पार गया, लौटकर नहीं आया। लगता है कि किसी चुड़ैल ने उसे फंसा लिया है। चुड़ैल तक तो बात ठीक थी पर 'चुड़ैल ने फंसा लिया है” यह जुमला उसकी समझ में नहीं आया। उसने फंसाने का अर्थ माँ से पूछा, तो उसने एक ही उत्तर दिया कि जब बड़ी हो जायेगी, तो खुद-बखुद समझ जायेगी कि फंसाना क्या होता है। अपनी सहेलियों एवं मित्रों से उसने इस गुत्थी को सुलझाना चाहा, पर असफलता ही हाथ लगी थी. वह बार-बार सोचती कि बापू पहाड़ी के उस पार क्या करने गया होगा। तभी उसे ध्यान आया कि एक दिन दादू ने कहानी बतलाते हुए कभी बतलाया था कि पहाड़ी के उस पार किसी रानी का राज है। वहां मरद नाम का कोई प्राणी नहीं रहता। उसकी फौज-फटाका में भी औरतें ही रहती हैं। यदि कोई मरद धोखे से उस ओर चला गया तो जिन्दा वापिस नहीं लौटा है। यह ठीक है कि बापू वहाँ चला गया होगा, रानी ने बापू को फंसा लिया होगा। पर फंसाया किस चीज से होगा, उसकी समझ में नहीं आया। अब वह माँ के कथन के अनुसार बड़ी होने की सोचने लगी। धनिया अब सुबह-शाम माँ के पल्लू से ही चिपकी रहती। अंदर से बरफ की-सी ठंडी हो चुकी माँ की उसे अब ज्यादा ही चिन्ता रहती। बापू वापिस आ जाये, इस वास्ते उसने न जाने कितने ही देवी-देवताओं की मिन्नतें मांगी थीं। पर बापू जो गया तो लौटकर नहीं आया। एक दिन वह ओझा के घर जा पहुंची।
ओझा के घर में घुसने से पहले एक तीखी-बदबूदार गंध उसकी नाक से आ टकराई। इससे पहले उसने ऐसी गंध नहीं सूंघी थी। अंदर प्रवेश करते ही उसने देखा कि चारों तरफ जानवरों की खालें एवं ढांचे लटके पड़े थे। ओझा एक ऊंचे से चबूतरे पर बैठा हुआ था और उसके ठीक सामने, एक धूनी जल रही थी, तथा पास ही इंसान की खोपड़ी व हड्डियां पड़ी थीं। लाल-पीले-काले रंग से उसने अपने चेहरे को और भी वीभत्स बना डाला था। माँ को देखते ही उसने बड़बड़ाना शुरू कर दिया और आँय-बाँय बकते हुए, उसने मुठ्ठी में कुछ उठाया और आग पर दे मारा। एक काला बदबूदार धुआं ऊपर-ऊपर तक उठ आया। डर के मारे उसकी तो घिग्घी ही बंध गई थी। उसने माँ की ओट लेते हुए बचने का प्रयास किया। माँ अब जमीन पर बैठ गई और अपना दुखड़ा सुनाने लगी। वह बार-बार हाथ जोड़कर गिड़गिड़ाती और कहती, जो भी मांगोगे दूंगी, पर धनिया के बापू को वापिस बुला लो।
ओझा, अब अपनी जगह पर बैठे-बैठे ही, जोर-जोर से उछलकूद करने लगा। पता नहीं, क्या-क्या अर्र-सर्र बकता जाता। धनिया ने गौर से देखा कि उसकी कामुक नजरें माँ के जिस्म से बुरी तरह चिपकी हुई हैं। माँ के शरीर पर भरपूर गोश्त था। सिर के बाल जमीन से छू रहे थे। वक्ष उन्नत व कठोर थे। साड़ी से कमर तक ढकने के बाद, उसने शेष साड़ी से पीठ और वक्ष ढक रखा था। इतनी गोरी-चिट्टी थी माँ कि उसके जैसी दूसरी कभी देखने में नहीं आई। हमारी जाति में औरत, मरद सभी काले कलूटे रहते हैं। बापू उसे प्यार से गोरी-कबूतरी जो कहा करते थे। ओझा ने हूँ-हाँ-हूँ-हाँ बकते रहने के बाद उसे रात में आने को कहा और यह भी कहा कि इस लौंडिया को साथ लेकर न आए। कुछ विशेष जतन करना होगा, तीसरे दिन तेरा मरद वापिस आ जायेगा। रात में बुलाने का मतलब कुछ-कुछ उसकी समझ में आ रहा था। फिर भला मां को तो अच्छी तरह समझ में आ ही गया होगा। माँ दुबारा पलटकर वहां नहीं गई और न ही उसने कभी जाने का मानस ही बनाया।
बापू के जाने के बाद से, माँ में एक कठोरता घर कर गई थी, जो उसके व्यवहार से साफ झलक भी आया करती थी। अंदर तक वह इतने क्रोध में भरी हुई होती थी कि जब वह किसी लकड़ी के लठ्ठे पर, कुल्हाड़ी का भरपूर वार करती, तो वह फक से दो टुकड़ों में बंट जाता था। एक दिन वह लकड़ी काटने जंगल में घुसी तो आदमखोर के हत्थे चढ़ गई। लोगों ने जंगल की खाक छान मारी, पर माँ का कहीं भी पता नहीं चला। कुछ दिन बाद उसके शरीर का पिंजड़, एक ऐसी जगह मिला, जहाँ आम आदमी का पहुंच पाना संभव नहीं था।
माँ और बापू के इस तरह चले जाने के बाद से दादू और व्यथित सा रहने लगा। उसके मन में अब एक ही आस बची थी कि वह किसी तरह उसके हाथ पीले कर दे और चैन से मौत को गले लगा ले। पर क्या वह उसके बस में था। समय पंख लगाकर उड़ता रहा। दादू के कलेजे में लगे जख्म शायद ही भर पाए होंगे। इसका अहसास उसे भी बराबर बना रहता। वह खुद भी दोनों के वियोग में कितना तड़पती रहती है, यह तो उसका अपना दिल ही जानता है।
दादू की देखरेख करते, घर का कामकाज सम्हालते, उसे पता ही नहीं चल पाया कि बचपना रेंगकर कब जवानी की देहलीज पर आ पहुँचा। बूढ़ी हड्डियाँ कब तक जोर मारतीं। एक बार वह बिस्तर से जा लगा, तो दुबारा उठ न पाया।
दिन पर दिन गिरती उसकी हालत को देखकर चिन्तित हो उठी वह। अगर उसका दादू यूं ही चल बसा तो उसका क्या होगा। यह ख्याल उसे बेचैन कर देता। अपने दादू के लिए वह कुछ भी करने को तैयार थी। मूसलाधार बारिश हो रही थी। बिस्तर पर पड़ा दादू हिचकियाँ ले रहा था। जब वह सांस लेता तो खर्र-खर्र की आवाज आती जो दूर तक सुनाई पड़ती। असह्ïय दर्द से वह बीच-बीच में चीख भी पड़ता था।
धनिया के जी में आया कि दौड़कर ओझा को बुला लाए। शायद उसका जन्तर-मन्तर कुछ काम आ जाए और दादू बच जाये, तभी उसको पिछली घटना याद हो आई। माँ भी तो गई थी ओझा के पास। बापू को वापिस लिवा लेने के लिए। माँ के गदराए जिस्म को देखकर वह किस प्रकार की हरकतें करने लगा था। उसे आज भी याद है। तभी उसकी नजर अपने समूचे जिस्म पर दौड़ पड़ी। माँ ही के जैसी तो दिखती है वह भी। उसने उसके ही जैसा जिस्म पाया है, जो कपड़े में नहीं समा पा रहा है। फिर साड़ी तो चिन्दी-चिन्दी हो आयी है और फटी जगह से उरोज बाहर तक उचक आए हैं। क्या ऐसी हालत में उस दरिन्दे के समीप जाना उचित होगा उसका। तरह-तरह के प्रश्नों के पहाड़ खड़े हो गए थे उसके सामने जिसके उस पार जाने की वह न तो हिम्मत जुटा पाई और न ही उसमें उतनी सामथ्र्य थी। असमंजस की स्थिति में उसे डाक्टर का ध्यान हो आया। आशा की एक किरण कौंधी और बारिश के थमते ही वह सरपट दौड़ पड़ी डाक्टर को लिवा लाने। घिर आई सांझ में उसके मन में न तो किसी हिंसक पशु के खौफ का ही डर समाया और न ही कंटीली ऊबड़-खाबड़ रास्तों की चुभन। वह सरपट बिना रुके ही चली आई थी, डाक्टर को लिवा लाने। वह तब तक दौड़ती रही जब तक डाक्टर का मकान नहीं आ गया।
अजीब खब्ती किस्म का था यह डाक्टर। शहरों की चकाचौंध से दूर वह इस बीहड़ में चला आया था। शोषित-पीडि़त-अज्ञानी आदिवासियों की सेवा करने का जुनून सवार था उसके सिर पर। चढ़ती दोपहरी तक वह अपने दवाखाने में इलाज करता फिर पहाड़ों की तलहटी में बसे गाँव में घुस पड़ता। ऊबड़-खाबड़ रास्तों के बीच चलता। कभी उसका वास्ता जंगली जानवरों से भी पड़ता। पर वह निर्भीक अपनी ही धुन में रमा रहता। दिन में दो-चार गाँवों की फेरी लगा लेना उसकी आदत सी बन गई थी। पत्नी-बच्चे और माँ भी उसने ऐसे ही पाये थे जिन्हें आदिवासी जनजीवन से गहरा लगाव था।
अपने ही विचारों की तंद्रा में खोई थी धनिया। तभी उसकी नजर बाउण्ड्री वाल से ठीक सटकर, पहाड़ों के उतार में उतर रही पगडण्डी पर पड़ी। उसने सहज में ही अंदाजा लगा लिया कि यह वही पगडण्डी है, जिस पर चलकर वह यहां दूसरी बार आई थी। पहली पहल जब, उसका दादू सख्त बीमार पड़ गया था और दूसरी बार वह डाक्टर के साथ चली आई थी सदा-सदा के लिए दुबारा वापिस न लौटने के लिए।
दादू के मरने की खबर प्राय: आसपास के सभी गांवों में फैल गई थी। आहत ओझा ने इस अवसर का भरपूर लाभ उठाने की सोची। अपने दो-चार लग्गू-भग्गूओं के साथ वह आ धमका था। क्रोध से भरा हुआ वह थर-थर कांप भी रहा था। प्राय: सभी के हाथ में कोई न कोई हथियार था। आते ही उसने डाक्टर को घेर लिया और उपस्थित समुदाय को उसके विरुद्ध भड़काने लगा। उसका अपने हक में ऐसा किया जाना भी शायद अनिवार्य था क्योंकि उसका फलता-फूलता धंधा एकदम चौपट जो हो गया था। आदिवासी लोग अब उसके पास न जाकर, सीधे डाक्टर के पास चले जाया करते थे। बीमार पडऩे पर वहां उन्हें दवा-दारू भी मिलती और वे शीघ्र ही स्वास्थ्य लाभ पा लेते थे। डाक्टर की पत्नी आदिवासी बच्चों को पढ़ाती थी। शायद यही कारण था कि इस दम्पति के आने के बाद से इनके जीवन स्तर में अच्छा खासा परिवर्तन आ गया था। इस बात को रेखांकित करना भी लोग नहीं भूले थे। शायद यही कारण था कि उसके भड़काऊ भाषण का किसी पर भी असर नहीं पड़ा था बल्कि लोगों ने उसके विरुद्ध मुँह खोलना भी शुरू कर दिया था। अपने ही समाज में, जहाँ उसे सिर आँखों पर बिठाया जाता था आज बेइज्जत किया जाने लगा था। डाक्टर के बढ़ते प्रभाव व अपनी घटती इज्जत से वह बुरी तरह बौखला सा गया था और अंदर गहरे तक आहत भी हो उठा था।
सारे क्रियाकर्म निपट जाने के बाद वह डाक्टर के साथ हो ली थी। दादू की स्वयं की भी यही इच्छा थी कि वह डाक्टर के साथ चली जाए। दादू के मन में एक अज्ञात भय ने घर कर लिया था कि वह अकेली इस बीयावान में कैसे रह पायेगी?. अत: मरने से पहले उसने लडख़ड़ाती जबान से डाक्टर से अनुनय किया था कि वह उसे अपने साथ ले जाये— रूखा- सूखा जो भी इसे मिलेगा खाकर रह लेगी और घर के कामकाज कर देगी। आश्वस्त होने के बाद ही बुड्ढे ने अपने प्राण त्याग दिए थे। डाक्टर जब उसे अपने साथ लिवा लेने लगा तब भी ओझा ने खासा विरोध किया परन्तु उसे असफलता ही हाथ लगी थी। बदला लेने की प्रतिज्ञा के साथ ही वह जंगल में समा गया था।
ओझा के रौद्र रूप का ख्याल आते ही वह आशंकित हो उठी थी। उसकी आशंका कुछ ज्यादा ही बलवती हो चली थी कि ओझा, डाक्टर से भी बदला जरूर लेगा। अत: डाक्टर को भी चाहिए कि वह अकेला घाटी में न उतरे बल्कि अपने साथ किसी न किसी को लेकर अवश्य चला करे।
पहाड़ों की गहराई में नजरें झुकाए धनिया अपने अतीत के भंवर में गोते खा रही थी। पता नहीं, वह और कितनी देर पाषाणी प्रतिमा बनी बैठी रहती यदि दादी आकर उसे झकझोर न देती।
जब तक अपने ठाकुर जी की पूजा पाठ और रामायण का एक मास पारायण नहीं कर लेती दादी तब तक वह अनाज का एक दाना भी हलक के नीचे नहीं उतारती थी। पूजा पाठ समाप्त कर उन्हें भूख भी लग आई होगी और उन्होंने मुझे ढूंढऩा शुरू किया होगा। जब पूरा घर छान मारा उन्होंने और मुझे कहीं नहीं पाया होगा तो वे चिन्तित अवश्य हो उठी होगी और मुझे यहां खड़ा पाया तो चली आई लेने। धनिया ने अपने आप से कहा। दादी को सामने पा वह मुस्कराने लगी। दादी ने नीचे झांककर देखा। एक गहरी निस्तब्धता कुण्डली मारे बैठी थी, उन्होंने व्यंग्यात्मक लहजे में बोलते हुए पूछा, ''क्यों री तू रोज यहां खडी होकर क्या देखती है- मुझे तो कुछ भी दिखाई नहीं पड़ रहा है।ÓÓ धनिया की समझ में नहीं आया कि वह दादी को क्या और कैसे समझाए कि उसका अपना अतीत इन्हीं गहराईयों में कहीं दफन हो चुका है और आज वह भूत बनकर उसका पीछा कर रहा है। जवाब न देते हुए वह दादी को बांहों का सहारा देते हुए घर की ओर लौट पड़ी।
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