कुबेर
डॉ. हंसा दीप
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भाईजी की बातों से जहाँ अनुभव छलकता था तो वहीं डीपी उनके अनुभव को भुनाने के लिए प्रश्न पर प्रश्न दाग देता था।
“जी हाँ भाईजी, मैं पूरी तरह सहमत हूँ आपके मंतव्य से। मगर ख़तरा कितने प्रतिशत हो तो आगे बढ़ना चाहिए। एक अंदाज़ आप बता सकें तो कुछ रास्ता दिखे कि इतनी राशि का बंदोबस्त मैं कर भी पाऊँगा या नहीं।” डीपी के सवाल का सीधा-सादा मतलब यही था कि अगर उसके पास इतना पैसा ही नहीं हुआ तो फिर समय की बरबादी क्यों की जाए। अपनी चादर के अंदर ही पैर रहें तो ही काम चल सकता है वरना नहीं।
“ऐसा है डीपी, कभी-कभी पचास प्रतिशत पर भी आगे बढ़ा जा सकता है लेकिन ज़्यादातर पन्द्रह से बीस प्रतिशत के आगे मैं ख़तरा मोल नहीं लेता। अगर मेरे पास पर्याप्त फंड्स होते हैं तो भी मैं हाथ खिसका लेता हूँ। जितना अधिक ख़तरा होगा उतना आपकी मूल संपत्ति के कम होने का अंदेशा रहता है। मेरा गणित तो यही कहता है कि मूल अगर निकल जाए तो ख़तरे उठाओ वरना अन्य मौक़ों का इंतज़ार करो।”
“और मान लीजिए कि अगर सब कुछ सही बैठ रहा है तो निवेश अपनी कंपनी के नाम से करना चाहिए या फिर अपने व्यक्तिगत नाम से...” एक के बाद एक पूछे जा रहे सवालों से विक्रम और बेताल की कहानियाँ याद आतीं कि किस तरह सवाल और जवाब के आधार पर जीवन के सत्य उजागर होते थे। वहाँ जीवन के सत्य थे यहाँ भाईजी व्यापार के सत्य उजागर करते थे।
“दोनों के नाम करते रहो। अगर कोई भी सौदा फेल हुआ तो बहुत नुकसान नहीं उठाना पड़ेगा। आधा नुकसान तुम्हारी कंपनी झेल लेगी और आधा ही बोझ तुम पर होगा। इस तरह चलने से हर जगह देयता का भार आधा-आधा हो जाएगा।”
भाईजी चले गए – “चलो, फिर मिलते हैं” कहकर।
उनके जाने के बाद डीपी के दिमाग़ में सब कुछ सीधा और सरल था। भाईजी जॉन के अब तक दिए सारे सुझाव चाँदी के चम्मच में बदले थे। उसे कोई अगर-मगर नज़र नहीं आया। तत्काल अमल होने लगा। हिसाब लगाया गया, कुल कितनी जमा राशि है, कुल कितना निवेश कर सकता है और कुल कितना उधार लिया जा सकता है। एक दूसरे पर जो भरोसा उन दोनों ने कायम किया था अब वह एक दाँत से रोटी तोड़ने के समान था।
सबसे अच्छी बात तो यह थी कि अब दोनों का व्यापार अलग था। काम सीखने के बाद सबसे पहले भाईजी जॉन ने यही सुझाव दिया था कि – “तुम अब अपना व्यवसाय शुरू करो, अपनी कंपनी बनाओ, चाहो तो अपना ब्रोकरेज खोलो। तुम अपने फैसले ख़ुद लो और अपनी पूँजी का निवेश भी ख़ुद करो। कुछ भी पूछना हो तो पूछ लो मगर निर्णय तुम्हारा हो। कागज़ पर सारी योजनाएँ सूक्ष्म विश्लेषण के साथ बनें ताकि सारे तथ्य सामने हों।”
सुनियोजित योजना के तहत कंपनी खोलनी थी। कंपनी के नाम के लिए कुछ सोचा नहीं था पर एकाएक एक ही शब्द उभरा मस्तिष्क में और वह था ‘कुबेर’। माँ का उलाहना छुपा था इस शब्द में जिसे वह आकार देना चाहता था। ‘कुबेर रियलिटी इंक’ के नाम से किसी सोच-विचार की कोई गुंजाइश नहीं दिखी और उसकी अपनी पहली कंपनी का काम शुरू हुआ। अब उसके अपने सौदों की संख्या बढ़ने लगी। कई ग्राहक उसके निवेशों में हिस्सा लेने की इच्छा दिखाने लगे। अब वह ग्राहक के लिए ही काम नहीं करता था, ख़ुद अपने लिए भी पुराने मकान, दूर-दूर की सस्ती ज़मीन और ‘प्री कन्स्ट्रक्शन’ के सौदे करने लगा।
बैंक से लोन लेने में कोई दिक्कत नहीं थी, क्योंकि उन परियोजनाओं में उसके समूह का अंशदान बैंक की रकम से अधिक होता था। व्यक्ति अगर डाउनपेमेंट में बड़ी रकम निवेश कर सके तो वह बैंकों के लिए एक सुरक्षा कवच की तरह हो जाता था। बैंक अधिकारियों को आश्वस्त करने के लिए इतना पर्याप्त था कि जितना ख़तरा वे उठा रहे थे लगभग उतना ही ग्राहक भी उठा रहा था। निवेश की जाने वाली धनराशि के लिए उनके अपने नियम बहुत ही मददगार थे। अभी तक कमायी हुई जमा पूँजी का निवेश होने से जायदाद के मूल्यांकन की राशि तेज़ी से ऊपर बढ़ी और बैंक से उधार मिलना और भी आसान हो गया।
डीपी ने एक साथ कई जोखिमें उठायीं, ऐसी जगह ज़मीनें खरीदीं जहाँ इस समय कुछ नहीं था पर सरकार की योजना वहाँ शहरी यातायात पहुँचाने की थी। बाज़ार पर सतर्क निगाह रखते हुए उसने कई ज़मीनों के प्लॉट्स बेचते हुए लाभ अपने खाते किया, साथ ही भाईजी जॉन के मार्गदर्शन से धंधे के नंबर बढ़ने लगे, जोखिम उठाने के अवसर भी बढ़ने लगे थे। एक के बाद एक सफलता में अति आत्मविश्वास था, एक ज़ुनून था।
खरगोश और कछुए की कहानी में जीत चाहे धीरे चलने वाले कछुए की हो मगर हर महत्वाकांक्षी इंसान को तो खरगोश जैसे तेज़ दौड़ना ही अच्छा लगता है। इस गतिमान, निरंतर आगे बढ़ती, दौड़ती दुनिया में भला कौन इतना धैर्य रखना चाहेगा कि कछुए की तरह धीरे-धीरे, टुक-टुक करते चले और पिछड़ जाए आज के उन खरगोशों से जो सुस्ताने के लिए रुकते नहीं बस दौड़ते ही रहते हैं।
डीपी के बढ़ते निवेशों और अपने व्यवसाय में ख़तरे उठाने के मौकों को हाथ से न जाने देने की हिम्मत को देखकर बिल्कुल ऐसा ही लग रहा था कि उसके दौड़ने की गति काफी तेज़ हो गयी है। कछुए की गति को काफी पीछे छोड़ चुका था वह। एक के बाद एक सफलताओं ने एक हद तक भय मुक्त, स्वच्छंद होकर व्यापार के अलग-अलग रूपों को आकार देना शुरू कर दिया था।
तेज़ दौड़ने में ठोकर तो लगती ही है, उसे भी लगी। एक जबर्दस्त ठोकर लगी। चक्कर खाकर गिरना पड़ सकता था ऐसी ठोकर लगी। एक सौदे में बहुत नुकसान हुआ। दिवालिया कोई और हो रहा था पर उसके छींटे उन तक उड़ कर आ रहे थे। हुआ यूँ कि एक महँगा व बड़ा मकान जो उसने खरीदा था उसके आसपास के कुछ मकान बैंक की नीलामी में जा रहे थे, उन मकानों को जल्दी से जल्दी बेचने के लिए बैंक ने उनके भाव काफी घटा दिए थे। आसपास की जितनी भी प्रॉपर्टी थी सबमें नुकसान होने लगा। फ़ॉरक्लोज़र की यह प्रक्रिया बड़ी दर्दनाक होती है। इस वजह से इस पूरे क्षेत्र के मकानों के भाव घटते गए। जब ऐसा होता था किसी इलाके में तो उस स्थिति से बाहर आने में सालों लग जाते थे। डीपी इतने साल इंतज़ार नहीं करना चाहता था। उस राशि का उपयोग कहीं और किया जा सके इसलिए जो भी दाम मिला उसमें बेच दिया वह मकान।
नुकसान तो हुआ लेकिन एक बड़ा पाठ पढ़ा। यह सबक मिला कि फ़ायदा कम हो तो ठीक है, नुकसान ज़्यादा न हो इस बात का ख़्याल रखा जाए। इसी पाठ के नियमों को अपनाते हुए आगे का निवेश होता रहा। अब उसका काम सिर्फ़ योजनाएँ बनाना, विशेषज्ञों से उन पर विमर्श करना और पूँजी जुटाना था। जानलेवा काग़जी कार्यवाही और सरकारी नुक़्ताचीनी सम्हालने के लिए स्टाफ था। शहर की भावी परियोजनाओं में निवेश के लिए लोग उससे सलाह लेने भी आने लगे।
भाईजी जॉन के दोनों बेटे अपनी शिक्षा के साथ धीरे-धीरे अपने पिता के व्यवसाय की बारीकियाँ समझ रहे थे। उनकी इच्छा अपने पिता का ही व्यवसाय सम्हालने की थी बस एक बार अपनी शिक्षा पूरी हो जाए, उसी का इंतज़ार था उन्हें। डीपी के लिए किसी भी निर्णय को अंतिम रूप देने से पहले भाईजी जॉन की विश्वस्त सलाह लेना ज़रूरी हो जाता था। उनके ‘हाँ’ कर देने से उसका विश्वास बढ़ता। भाईजी मार्गदर्शन तो करते मगर चेतावनियाँ भी देते, असफलताओं को झेलने की ताक़त भी देते। उसकी सफलताओं को देखकर बहुत उत्साहित होते, शाबाशी भी देते। दोनों ही योजनाएँ बनाते, चर्चा करते और अमल में लाने के पहले हर बिन्दु पर विस्तार से चर्चा करते।
एक सफल ‘रियल्टर’ के रूप में डीपी की पहचान होने लगी थी इन दिनों। डीपी को जो कमीशन मिलता था वह उसके ख़ुद के लिए बहुत था। बाकी पैसों में से बड़ी राशि जीवन-ज्योत को जाती ही थी। अब इसके अलावा अगले क़दम में और भी बहुत कुछ सोचा जाने लगा। इतना कुछ कि उसकी सोच दूर अपने गाँव के विकास को देखने लगी।
रोटी के लिए जूझते उन चेहरों की याद आने लगी जिनकी मिट्टी कभी सोना नहीं उग़लती, वे कभी धूल से धन नहीं निकाल पाए, वे कभी पत्थरों से पानी नहीं निकाल पाए, वे कभी फटी ज़मीन की सिलाई नहीं कर पाए, वे कभी प्रकृति से जीत नहीं पाए। मन दौड़-दौड़ कर वहाँ जाता अपने गाँव में जहाँ सुविधा नाम की कोई चीज़ नहीं थी।
माँ-बाबू नहीं थे पर अपना गाँव था और जो लोग रहते थे वहाँ अभी भी उनसे अपनेपन का पुराना नाता था। काफी दिनों से उसका काम अच्छा चल रहा था। वह और कोई बड़ी रिस्क ले उसके पहले कुछ पैसा गाँव वालों के लिए भेजना चाहता था। यहाँ रुक कर जितना काम कर रहा था, जितनी कमाई कर रहा था उसमें उनका भी तो हिस्सा था। अपनी जन्मभूमि का क़र्ज़ था जिसके बारे में सोचना शुरू किया डीपी ने।
यह सही वक़्त लग रहा था कि एक बार भारत जाकर जीवन-ज्योत हो आए, ढाबे पर जाकर देखे, अपने बचपन के साथियों से मिले। मालिक गुप्ता जी, उनकी पत्नी और उनकी बेटी से मिल ले। गाँव हो आए, मैरी से भी मिल ले। जीवन-ज्योत में नया प्रबंधन कैसा है यह अपनी आँखों से देख ले। सुखमनी ताई, बुधिया ताई एक के बाद एक सारे चेहरे जैसे उसे पुकारने लगे। मन उड़ान भरने के लिए बेताब था।
भाईजी जॉन से बात की तो उन्होंने तुरंत ‘हाँ’ कर दी। वे जानते थे कि डीपी ने इस भारत यात्रा के बारे में सोचने से पहले बहुत मेहनत की है और अब वह यहाँ की दौड़ में शामिल हो चुका है, एक बार सबसे मिल आएगा तो आकर दोगुनी ऊर्जा से काम करने का मनोबल ऊँचा रहेगा। तत्काल टिकट बुक कर लिए गए। एक तीखी तलब-सी थी भारत पहुँचने की और सबसे मिलने की, बातें करने की। उड़ान के दौरान कई घंटों तक सोच-विचार करते हुए कागज़ पर कुछ ऐसी योजनाएँ बनाने की कोशिश की जिससे गाँव वालों के लिए कम से कम दो जून रोटी की व्यवस्थाएँ कर सके। कई विचार आए-गए और कई विचार वहाँ जाकर, स्थिति देखकर अंतिम रूप लें यही प्राथमिकता थी।
विमान से भारत की धरती पर उतर कर ऐसा लगा मानों शरीर को इस विटामिन की सख़्त ज़रूरत थी। इस धरती की सौंधी-सौंधी महक न्यूयॉर्क की धरती से अलग थी। आज घर आया था परदेसी, इतना क़ाबिल बनकर कि पिछले जीवन की घड़ियों को माला के दानों की तरह फेरने लगा वह। हर दाने में एक कहानी छिपी थी। उसकी इस माला में एक सौ आठ मनकों से कई गुना अधिक मनके थे। मन के मनकों को फेरते-फरते अच्छे-बुरे पल सामने आते। मन कभी मुस्कुराता, कभी हँसता तो कभी उदास होता।
गाँव जाने से पहले किराए की लग्ज़री कार से गुप्ता जी के ढाबे पर पहुँचा तो सब कुछ बदला-बदला-सा दिखा। फर्नीचर अलग था, रंग-रोगन अलग था, यहाँ तक कि लोग भी सब अलग थे, अनजान थे। कोई परिचित चेहरा नज़र ही नहीं आया। चारों ओर देखते निगाहें खोजने लगीं कि कहीं बीरू और छोटू दिख जाएँ जो अब उसी के बराबर दिखते होंगे।
“गुप्ता जी कहाँ हैं” इधर-उधर देखते, खोजते, सामने काउंटर पर खड़े एक व्यक्ति से पूछा डीपी ने कि शायद वह बता पाए।
“कौन गुप्ता जी” सामने खड़े व्यक्ति ने असमंजस में देखा उसे मानो यह नाम उसने पहली बार सुना हो।
“यहाँ के मालिक गुप्ता जी”
“मालिक तो मैं हूँ, मेरा नाम विमल सहाय है।”
“विमल सहाय” यह नाम तो पहले कभी उसने सुना ही नहीं। हो सकता है कि कहीं चले गए हों वे।
“सहाय सा. आपने गुप्ता जी से ढाबा खरीदा तो क्या आप बता सकते हैं कि अब वे कहाँ मिलेंगे”
“मैंने तो राम गोपाल जी से खरीदा है। मैं गुप्ता जी को नहीं जानता”
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