पिछले भाग में आपने पढ़ा...
तो निष्कर्ष्र यह निकलता है कि प्रशंसा एक ब्रह्मास्त्र है और कोई भी इस अस्त्र से बच नहीं सकता। क्योंकि थोड़ी बहुत प्रशंसा तो हज़म की जा सकती है लेकिन इसकी अधिक मात्रा मनुष्य का दिमाग घुमा देती है। प्रशंसा का भी अपना एक नशा होता है।
व्यापारी अपने इन्ही विचारों में डूबा हुआ था और वह नवागांतुक अपने दोनो साथियों को समझा रहा था कि उन्हें इस क्षेत्र से निकलकर किस प्रकार उस खाई को पार करके ऊपर पहाड़ के शिखर पर पहुंचना होगा क्योंकि वह स्थान इस युद्ध से अप्रभावित रहेगा और उस पहाड़ की दूसरी ओर एक अन्य प्रांत की सीमा लग जाती है, जो तीन ओर से समुद्रतटों से घिरा हुआ है।
(आगे...)
अनजाने लक्ष्य की यात्रा पे
भाग-15
व्यापारी के प्राण कुत्ते में
वे सुरक्षित स्थान की ओर चल पड़े थे। वे एक दूसरे के पीछे चलते हुये नीचे ढलान पर चलते हुये गहराई में उतर रहे थे। सबसे आगे एक डाकू चल रहा था; जिसके कमर से एक रस्सी बंधी हुई थी। उसके पीछे-पीछे व्यापारी था यही रस्सी उस व्यापारी की कमर से लपेटकर दूसरा सिरा दूसरे डाकू की कमर से बंधा था जो व्यापारी के पीछे कुछ दूर चल रहा था। यानि रस्सी के दोनो सिरे दोनो डाकुओं की कमर से बंधे थे जिसके बीच में वह व्यापारी बंधा हुआ था। यह सूझ उस नये आने वाले डाकू की थी। इस रणनीति से दो उद्देश्यों की पूर्ति होती थी एक तो इससे उस भयंकर पहाड़ी ढलान वाले रास्ते पर चलते हुये वे एक दूसरे की सहायता से सुरक्षित रहते, दूसरे यह कि इस प्रकार से उस व्यापारी के भागकर राजा की सेना अथवा जंगलियों की शरण में जाने की सम्भावना खत्म हो जाती।
तीसरे डाकू के पीछे वही नवागांतुक डाकु था। उसने इन दोनो के धनुष बाण अपने कंधे पर लाद रखे थे और एक धनुष पर बाण चढ़ाकर हाथों में पकड़ा हुआ था। स्पष्ट्तः उसका निशाना वह व्यापारी ही था।
निराश व्यापारी सोंच रहा था, ‘यह दो क्या कम थे कि यह तीसरा आ धमका। इन दोनो को मूर्ख बनाना तो आसान था, किंतु यह तीसरा तो इन सबका बाप है। इससे किस प्रकार मुक्ति मिले?
शेरू की जगह निश्चित नहीं थी, कभी वह एक के साथ चलता कभी दूसरे के साथ। कभी वह सबसे आगे निकल जाता कभी सबसे पीछे।
कितना अच्छा होता है एक पालतू जानवर होना...। बेचारे व्यापारी ने एक लम्बी आह के साथ सोंचा।
वे सभी एक के पीछे एक चलते हुये पहाड़ के ढलान पर उतर रहे थे। राह सीधी सपाट तो बिल्कुल नहीं थी। नीचे उतरने की जो राह चुनी गई वह राह बिल्कुल भी न थी। वह तो एक दिशा मात्र थी। नीचे की ओर…
वहाँ गड्ढे थे, दरारें थीं और फिसलन थी। कदम जमाना मुश्किल हो रहा था। हर पल एक भय कि अब गिरे कि अब गिरे... और यहाँ से गिरना, मतलब सीधा नर्क में जाकर गिरना। किंतु वह रस्सी जो तीनो के कमर में बंधी हुई थी वह इनकी सुरक्षा कर रही थी। लेकिन व्यापारी जो कभी इस तरह की राह पर नहीं चला था उसे वह रस्सी मुसीबत ही लग रही थी। वह तो यह भी नहीं समझ पा रहा था कि नीचे जाने के लिये कोई सीधी-सादी पगडंडी के बजाये यह कठिन राह चुनने का क्या तुक है?
“तुम्हे नीचे उतरने के लिये कोई राह नहीं मिली क्या?”
“यह राह नहीं तो क्या है?” सबसे आगे चल रहे डाकू ने एक पत्थर से लटककर नीचे उतरते हुये पूछा।
व्यापारी को आश्चर्य के साथ झुंझ्लाहट भी हुई।
“आश्चर्य! तुम इसे राह कहते हो?” उसने झुंझलाते हुये कहा।
“आश्चर्य!! तुम इतने सप्ताह जंगल में गुज़ारने के बाद भी इतनी सी बात समझ नहीं पाये कि जंगल में सड़कें नहीं होतीं।” यह बात उस नवागंतुक ने कही थी जो अब व्यापारी की आंख में खटकने लगा था। इससे किस प्रकार पीछा छुड़ाया जाये, यह प्रश्न व्यापारी के मन में रह रह कर उठ रहा था। जब तक यह नहीं आया था, ले देकर सब ठीक-ठाक ही चल रहा था। हालांकि वह यह भूल रहा था कि इसी ने उसके प्राण बचाये थे। भूल रहा था या जानबूझकर भूलने की कोशिश कर रहा था; क्योंकि मानवीय प्रकृति इतनी स्वार्थी होती है कि जो अनुभव उसके तर्क को निरस्त करता है वह उस अनुभव को ही भूलने का नाटक करता है। यानि जो स्मृतियां बोझ बन जाये उसे वह अपने स्मृतिपटल से निरस्त कर देना चाह्ता है। यह स्वयम् के साथ छल नहीं तो क्या है?
किंतु प्रत्यक्षतः उसने यही कहा, “मैं तो पगडंडी की बात कर रहा था।”
इस बात पर वे तीनो डाकू ठहाका लगाकर ज़ोर से हंसने लगे।
अब इन्हे क्या हो गया? मैंने ऐसी कौनसी बात कह दी? वह झुंझला गया।
“क्या तुम बाघ से कुश्ती लड़ने की सोंच रहे हो?” पीछे चल रहे नवागंतुक ने कहा, “देखो तुम अपना इरादा बदल दो वर्ना...”
“इसमें बाघ से कुश्ती लड़ने की बात कहाँ से आ गई?”
“अरे शेर की राह पर चलने के लिये शेर जैसी हिम्मत भी तो चाहिये।”
“मैं समझा नहीं...”
“अरे महा चतुर, महाज्ञानी, महाठगात्मा क्या तुझे ज्ञात नहीं कि जंगल में पगडंडियाँ दो ही प्रकार की होती है, एक जो बाघ के निरंतर चलने से बनती है, दूसरी जो जंगली आदिवासियों के। किंतु परिस्थियाँ ऐसी हैं कि शेर की राह तुम्हारे लिये सुरक्षित नहीं है और जंगलियों की राह हमारे लिये...” और इस बात पर वे तीनो ठहाके लगाने लगे।
व्यापारी चुप रह गया।
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वे अपेक्षाकृत खुले स्थान पर पहुंच चुके थे। उनके सिरों के ऊपर वृक्षों की छाया और पैरों के नीचे कटीली झाड़ियाँ और नुकीले पत्थर थे। ढलान अभी भी समाप्त नहीं हुई थी किंतु अपेक्षाकृत कम ज़रूर हुई थी। कटीली झाड़ियों और उनमें छिपे नुकीले पत्थरों से बचने के लिये सबसे आगे चलने वाला डाकू एक तलवार से अपने सामने आने वाली झाड़ियों को कांटता छंटता चल रहा था। किसी किसी झाड़ी से अचानक कोई साँप निकल आता और पत्थरों के नीचे सरक जाता। व्यापारी के रोंगटे खड़े हो जाते।
एक झाड़ी से अचानक एक खरगोश निकला और कुलांचे भरते दूसरी ओर भागा। यह मनोरम घटना से व्यापारी का तनाव कुछ कम ही हुआ था कि अपने दाईं ओर से उसे एक झन्नटे की आवाज़ सुनाई दी और पकल झपकते ही वह खरगोश नीचे खाई में जा गिरा।
“यह तुमने क्या किया?” उसने सबसे पीछे चल रहे धनुर्धारी डाकु पर चिल्लाते हुये कहा।
“तुम्हें भूख नहीं लगती है क्या?” उसने शांत और संयत स्वर में प्रतिप्रश्न किया।
“किंतु वह तो तुम्हारे हाथ नहीं लगा...”
उस डाकू ने एक व्यंग भरी मुस्कान के साथ व्यापारी की ओर देखा और कुछ नहीं कहा।
अभी वे कुछ दूर ही चले थे कि अचानक से ढलान खत्म हो गई और एक पत्थर पर गिरा पड़ा वही खरगोश दिखाई दिया। एक बाण उस खरगोश के शरीर के आर-पार धंसा हुआ था। शेरू उस खरगोश के इर्द-गिर्द नाचता कूदता सा चक्कर लगाने लगा।
व्यापारी उस डाकू की व्यंग भरी मुस्कान का अर्थ समझ गया।
उतराई पूरी होने के बाद वे सब एक बडी चट्टान पर सुस्ताने के लिये रुके और आग जलाने और भोजन की तैयारी में जुट गये।
शेरू समझ गया था कि भोजन की तैयारी चल रही है और इसी कारण वह बेमतलब कभी इधर भागता कभी उधर भागता। कार्य के प्रति अपनी सक्रियता दिखाने की चेष्टा कर रहा था। वह, तैयारियों में जुटे एक डाकू से दूसरे डाकू तक भागकर जाता और फिर उस नवागंतुक डाकू के पास आकर उछलने कूदने लगता।
‘इतनी जल्दी यह कुत्ता इससे घुलमिल गया है।’ व्यापारी सोंचने लगा, ‘कितना गद्दार है यह कुत्ता। कुत्तों के नाम पर कलंक...’
वह नवागंतुक डाकू शान से खड़ा दोनो डाकुओं को निर्देश दे रहा था और वे उसके हर निर्देश का पालन कर रहे थे। शेरू कभी उसके मुख की ओर देख दुम हिलाता, कभी उछलता कूदता, कभी उसके पैरों में लिपट-लिपट जाता। वह भी रह रह कर शेरू को सहला लेता या कभी हलकी हलकी थपकी देता।
‘देखो तो!! एक दिन के परिचय को यह कुत्ता ऐसे जता रहा है जैसे बरसों का प्रेम हो। इस कुत्ते पर तो कभी विश्वास ही नहीं करना चाहिये। वैसे भी मेरे सभी कष्टों और सभी संकटों का कारण तो यही कुत्ता है। क्या हो यदि यह कुत्ता ही कहीं भाग जाये या मर जाये? मैं तो अपने वचन से मुक्त ही हो जाऊंगा। मैं तो कह दूंगा कि बात तो कुत्ते की सहायता से ही खजाना ढूंढने की थी। अरे! यह बात अब तक मेरी खोपड़ी में क्यों नहीं आई।’
“क्योंकि इसके जीवन की डोर से तुम्हारे प्राण अटके हुये हैं...” अचानक उस नवागंतुक की बात सुनकर व्यापारी चौंक गया। क्या यह मन की बात भी सुन लेता है?
“क्योंकि इसके जीवन की डोर से तुम्हारे प्राण अटके हुये हैं...” वह शेरू को लेकर व्यापारी की तरफ आते हुये कह रहा था, “अतः तुम्हारा हित इसी में है कि तुम अपने प्राणों से बढ़कर इसके प्राणों की रक्षा करो। इसकी देख भाल करो। मैं देख रहा हूँ कि तुम इसकी देखभाल नहीं करते। इसकी कोई चिंता नहीं तुम्हें, इसी कारण से यह हर किसी से जल्दी घुलमिल जाता है।”
“क्या तात्पर्य है तुम्हारा?” व्यापारी ने खीजकर उससे प्रश्न किया।
“मेरा तात्पर्य स्पष्ट है ठग शिरोमणी, कि तुम इस प्राणि की देखभाल ठीक प्रकार से नहीं कर रहे हो, जबकि तुम्हें पता है इस श्वानविशेष में ही तुम्हारे प्राण बसे हुये हैं।”
“किस प्रकार?”
“जिस प्रकार उस राक्षस के प्राण एक तोते में बसे हुये थे। तोता मरा, राक्षस मरा। कथा याद है या कथा सुनाऊँ।”
“यह झूठ है। मेरे प्राण किसी कुत्ते में नहीं है।” व्यापारी झुंझला कर चीख उठा।
भोजन की तैयारी में जुटे दोनो डाकु चौंक कर इस ओर देखने लगे।
व्यापारि उसी चट्टान पर बैठा था; जिस चट्टान पर उसे बैठाकर एक वृक्ष की डाल से बांध दिया गया था। उनके सरदार का दूत वह नवागंतुक उसके पास खड़ा एक पैर चट्टान पर रखे और हाथ में धनुष बाण लिये उसके ऊपर झुके सिर पर बाण टिकाये कह रहा था, “सुनो ठग शिरोमणी, हम जानते हैं कि तुम वही बूढ़े ठग हो। रूप बदलने में माहिर। तुम्हें एक माह का अवसर इसी लिये प्रदान किया गया है कि तुम्हारे पास विशेष प्रतिभा वाला कुत्ता है, जो अपनी नाक से छिपा हुआ खजाना ढूंढ लेता है; और इस अवधि में तुम्हे यही साबित करना है। यदि यह कुत्ता तुम्हारे पास नहीं रहा तो हमारे लिये तुम वही वृद्ध ठग रह जाओगे जिसने इस जंगल के सबसे शक्तिशाली दस्युदल को ठगा है और जिसके लिये हमारे सरदार ने मृत्यु दंड निर्धारित कर रखा है। अब समझ में आया...?”
व्यापारी अंदर तक कांप गया।
‘ओह! मैं क्या करने जा रहा था...?’
सोंचकर उसके रोंगटे खड़े हो गये।
‘मैं कैसे भूल गया था...?’ व्यापारी सोंचने लगा।
“होता है। मानव कई बार अपनी अवस्था और स्थिति से उदासीन हो जाता है...” उस नवागंतुक डाकू ने कहा। व्यापारी ने संदेह भरी दृष्टि से उसकी तरफ देखा।
‘अवश्य ही यह मन की बात भांप जाता है।’ व्यापारी ने मन में कहा।
नवागंतुक डाकु, व्यापारी की ओर देख मन ही मन मुस्कुरा रहा था।
( आगे भाग-16 में... )
“तो सेनापति के उस गुप्तचर को मुझपर संदेह हो गया था। यह नहीं होना चाहिये था क्योंकि हम पहले से संदिग्ध थे और विश्वास जीतने के लिये ही हम इस यात्रा पर थे।
मैं आने वाले संकट की कल्पना करके दुखी था। बात कुछ नहीं थी लेकिन वह गुप्तचर अपने स्वामी के समक्ष अपने आप को सतर्क और चतुर सुजान साबित करने के लिये पता नहीं क्या क्या आरोप लगाने वाला है।
मिर्ज़ा हफीज़ बेग की कृति.