Hone se n hone tak - 9 in Hindi Moral Stories by Sumati Saxena Lal books and stories PDF | होने से न होने तक - 9

Featured Books
  • کاغذ

    زندگی کا کورا کاغذ پڑھ سکتے ہو تو پڑھ لو۔ اگر چند لمحوں کی م...

  • خواہشات کا سمندر

    خواہشوں کا سمندر دور دور تک پھیل گیا ہے۔ ایک خواہش نے زمین و...

  • ادا کیا

    آنکھیں بند کر کے پینے کی ممانعت کیوں ہے؟ شراب پینے کی کوئی م...

  • پناہ

    تباہ حال شہروں میں گھر تلاش کرنے کی بجائے۔ لوگوں کے چہروں کا...

  • سرد موسم

    خوشگوار نشہ آور موسم دل کو مائل کر رہا ہے۔ رنگ برنگے پھولوں...

Categories
Share

होने से न होने तक - 9

होने से न होने तक

9.

मैं नहा कर बाहर निकली तो बुआ मेरा इंतज़ार कर रही थीं। वे मुझे कुछ लंबे क्षणों तक ध्यान से देखती रहीं थीं,‘‘तुम भाभी से बहुत रिसैम्बल करती हो। शादी हो कर आई थीं तब वे बहुत कुछ तुम्हारी जैसी ही दिखती थीं।’’ बुआ चुप हो गयी थीं। पर वे मुझे उसी तरह से देखती रही थीं ‘‘कभी कभी भैया भाभी की बहुत याद आती है।’’

मैं चुप रही थी। कुछ देर तक बुआ जैसे कुछ सोचती रही थीं। जैसे तौल रही हों कि कहें या न कहें। वैसे सोंच कर बोलना उनका स्वभाव नही है पर पता नहीं क्यों इस क्षण उनके चेहरे पर द्विविधा है। उसी उलझी निगाह से उन्होने मेरी तरफ देखा था,‘‘भैया की डैथ के बाद भाभी ने अपने आप को एकदम समेट लिया था’’ कुछ क्षण के मौन के बाद बुआ फिर बोली थीं ‘‘एकदम बन्द कर लिया था, अपने आप में, तुममें, अपने करियर और अपने घर में। समझ ही नहीं आया कि उन्होंने ऐसा क्यों किया, क्या बात हुयी। अचानक क्यों सबसे रिश्ता तोड़ लिया?’’ बुआ काफी देर चुप रही थीं। उनकी आवाज़ में पीड़ा है,‘‘अम्मा बहुत दुखी होती थीं। वे बहुत हर्ट महसूस करती थीं। बहुत अकेला भी। उन्हे लगता भगवान ने उनसे उनका बेटा ही नहीं छीना, उसका पूरा परिवार छीन लिया उनसे। तुम्हारे लिए बहुत तड़पती थीं वे। उनके पास टेलिफोन तो था नहीं जो फोन पर ही बात करके थोड़ी बहुत तसल्ली कर लेतीं। बहुत कहने पर कभी भाभी जाती भी तो दो तीन दिन को। वह जाना और रहना अपनों जैसा कहॉ हो पाता था। धीरे धीरे तुम भी दादी से एकदम परायों की तरह मिलने लग गयी थीं। अम्मा को इस बात की बहुत तकलीफ रही।’’

मैं समझ नहीं पाती कि बुआ मुझसे मॉ की शिकायत कर रही हैं या शाम को उन्होने गुस्से में जो कुछ बोला था उसकी सफाई दे रही हैं या मुझसे दादी की और अपनी पीड़ा बॉट रही हैं। मैं चुप हूं। वैसे भी क्या बोलूं? मम्मी ने क्या किया, क्यों किया, सही किया या ग़लत किया, मैं तो कुछ भी नहीं जानती। बुआ का संवाद एकालाप जैसा होने लगा था।

मुझे लगा था कि मुझे भी कुछ बोलना ज़रूरी है,‘‘बाबा दादी की जब डैथ हुयी तब मैं कितनी बड़ी थी बुआ?’’ मैंने पूछा था।

बुआ शायद मन ही मन हिसाब लगाने लगी थीं।

‘‘मुझे उन दोनों की ठीक से याद नहीं है।’’मैंने अपनी बात पूरी की थी।

बुआ ने सॉस भरी थी ‘‘हॉ तुम शायद छॅ साल की ही थीं। तुम सन् 1965 में हुयी थीं और उन की डैथ 1971 में हुयी थी। दोनों आठ दिन के अन्तर पर ही तो चले गये। पहले पिता जी फिर अम्मा। अम्मा की जीने की इच्छा ख़तम को गयी थी। वैसे भी उन बेचारी के पास जीने के लिए बचा ही क्या था।’’ बुआ जैसे फिर से एकालाप करने लगी थीं,‘‘सो तो एक तरह से अच्छा ही हुआ कि अम्मा पिताजी के जाने के बाद फौरन चली गयीं। नहीं तो कहॉ जातीं? किसके पास रहतीं? कौन देखभाल करता उनकी?’’

मेरे मन में आया था कि कहूं ,क्यों आप भी तो थीं। पर मैं चुप रही थी। वैसे भी बुआ के साथ किसी भी संदर्भ को नया मोड़ देने में मैं हमेशा डरती हूं। पता नहीं वे किस बात का बुरा मान जाऐं और किस बात से भड़क जाऐं या किस बात को इतना खींच दें कि उसको झेल पाना मेरे लिए कठिन हो जाए। पर शायद बुआ ने मेरे मन की बात सुन ली थी या शायद स्वयं थी वह बात उनके मन में-एक पीड़ा, एक मलाल, ‘‘तुम्हारे फूफा उन दिनों यू.एस.में थे।’’ बुआ अजब तरह से हॅसी थीं,‘‘यहॉ भी होते तब भी क्या होता? इस देश में बेटियों का कोई घर नहीं होता बेटा। न मॉ बाप का घर अपना होता है, न पति का घर अपना होता है। उस में वह रहती है पर किसी को बुलाने का और रखने का हक उसे नहीं होता। फिर मेरी शादी को तो तब पॉच साल भी नहीं हुए थे। मैं तो ख़ुद उस घर में अपने लिए जगह बनाने की कोशिश कर रही थी।’’ वे कुछ देर के लिए चुप हो गयी थीं फिर उन्होने अजब तरह से देखा था,‘‘तुम्हारे फूफा उतने सीधे भी नहीं जितने सब को लगते हैं। उन शुरू के दिनों में तो बिल्कुल भी नहीं थे। अब मेरी शादी को इतने साल हो गए। अब मेरे दोनों बच्चे बड़े हुए। अब कहीं जा कर यह घर मेरा हुआ है।’’बुआ कुछ देर सोचती रही थी,‘‘सच बात यह है अम्बिका कि जब बच्चे हो जाते हैं और बड़े हो जाते हैं औरत तब ही अपने घर को पूरी तरह से अपना समझ पाती है।’’वे जैसे मुझे कोई ज्ञान की बात बता रही हैं। मैं क्या बोलूं बस धीमे से हॅस भर देती हॅू। मन में आया था कि अब तो यह घर पूरा का पूरा बुआ का ही लगता है। फूफा से अधिक उनका।

बुआ बहुत देर तक बाबा दादी की बात करती रही थीं। उनकी ऑखों में फिर से ऑसू तैरने लगे थे और उनकी आवाज़ भर्राने लगी थी,‘‘कितने आराम से मिसेज़ सहगल ने सारे रिश्ते नातों की ऐसी तैसी कर दी। ऐसे कह रही थीं जैसे भाभी के लिए कुछ करने वाला कोई था ही नहीं। दूर होते हुए भी लोग कितनी आसानी से दूसरों की ज़िदगी में घुस जाते हैं।’’ बुआ की आवाज़ में क्रोध झलकने लगा था।

मैं चुप हॅू। बुआ उसी पसीजी निगाह से मेरी तरफ देखती रही थीं,‘‘हर कोई करोड़पति नहीं होता अम्बिका। पर बाबू के पास जो तीन चार लाख रूप्ए थे वे पूरे के पूरे वह भाभी को ही दे कर गए थे। उनकी बीमारी में मैं गई थी। शायद उनकी डैथ से तीन चार दिन पहले की ही बात है। मुझसे कहने लगे तुम्हारी तरफ से मैं निशि्ंचत हॅू बेटा। तुम्हारे पास कोई कमी नहीं। मेरे पास जो कुछ भी थोड़ा बहुत है मैं बहू को दे कर जाना चाहता हॅू। सुदेश इतनी जल्दी अचानक चले गए कि उन्होने बहू और बच्ची के लिए छोड़ा ही क्या होगा। जवाब में मैं क्या कहती। पर सोचो तुम्हारे फूफा को ही कुछ हो जाता...या फिर।’’ वे कुछ देर तक चुप रही थीं। उन्होंने मेरी तरफ अजब सी निगाह से देखा था ‘‘या फिर मेरे और तुम्हारे फूफा के बीच कोई तनाव ही पनप जाता तो मेरा क्या होता। ऊॅच नीच तो हमारे रिश्ते में भी बहुतेरी आयी पर मैं वह बात किससे करती।’’ बुआ होंठ टेढ़ा करके अजब तरह से मुस्कुरायी थीं,‘‘इस देश में मॉ बाप बेटियों से प्यार करते हैं।’’वे सस्वर धीमें से हॅसी थीं‘‘पर सिर्फ प्यार करते हैं। सम्पत्ति पर वे केवल बेटे और उसके परिवार का ही हक समझ पाते हैं।’’मैंने चौंक कर बुआ की तरफ देखा था। लगा था शायद कुछ ग़लत नहीं कह रहीं वह। बाबा के पास जो थोड़ा बहुत था वह घूम फिर कर मेरे पास आया है...बाबा के बेटे की बेटी के पास। फिर बाबा अपनी बेटी को कुछ क्यों नहीं दे सके। बाबा ने मॉ के दुर्भाग्य के साथ कोई न्याय किया था या बेटी और बहू के बीच पक्षपात। मन आया था कि बुआ से उस विषय में बात करुं। उनसे पूछूॅ कि क्या बाबा ने उन्हें कुछ भी नही दिया था। पर मैं चुप रही थी।

दुपहर में धुले कपड़े अभी बाहर से उतर कर आए हैं। बुआ उन्हें अलग अलग ढेरी में तह करके रख रही हैं। वे वैसे ही अपने काम में लगी रही थीं। बीच का मौन थोड़ा लंबा लगने लगा था तभी बुआ ने मेरी तरफ देखा था,‘‘भाभी उस समय सी.डी.आर.आई. में रिसर्च कर रही थीं। बाद में वहीं नौकरी लग गई उनकी। अम्मा पिताजी के सामने लग गयी होती तो थोड़ी तसल्ली हो जाती उन्हें। उन लोगों के छोड़े रुपयो से ही भाभी ने ऊपर का घर बनवाया था। उस ज़माने में तीन साढ़े तीन लाख कोई बहुत छोटी रकम भी नहीं थी। सी.डी.आर.आई.से पूरी तन्ख़ा मिल ही रही थी। सो सच बात यह है कि पैसे की उन्हे कोई कमी कभी नही रही। ख़ैर चलो।’’ बुआ ने जैसे एकदम अपनी बात का समापन कर दिया था।

मैं चुप ही रही थी। बुआ से बात करते अचानक परिवार और रिश्तों का मोह मन को मथने लगा था। मन में ख़ालीपन भरने लगा था। सोच कर अजीब लगा था कि मुझे पापा की याद नहीं है। चलो तब मैं बहुत छोटी थी। पर मुझे तो बाबा दादी की भी याद नहीं है। छॅ साल की उमर इतनी कम भी नहीं होती कि मन की स्लेट पर उसका कोई नामोंनिशा तक न रहे। मुझे लगा था कि क्या मेरे मन ने उन दोनों को याद रखने की कोई ज़़रूरत ही नही समझी थी जो यादो से सब कुछ यूं धुल पुछ गया। सच बात यही है कि मैंने उन सब को याद करने की कभी कोशिश ही नहीं की जैसे मेरे जीवन मे उन सबका कभी कोई वजूद रहा ही नहीं था। मैं तो बस अपनी ज़िदगी जीती रही...बीतने वाले हर दिन के साथ एक एक दिन अलग अलग। मैंने तो कभी मम्मी पापा की तस्वीर भी अपने पास नहीं रखी। घर नही तो क्या हास्टल की स्टडी टेबल पर अपने लोगों की फोटो तो रख ही सकती थी। अनायास मेरी ऑखें पसीजने लगी थीं। दिल पर एक बोझा सा महसूस किया था जैसे अपनी आत्मलीनता में मैंने स्वयं अपने अपनो का साथ छोड़ दिया हो। जैसे उन्हे त्याग देने का कोई अपराध किया हो मैंने। मैंने सामने बैठी बुआ की तरफ देखा था...देखती रही थी। लगा था मेरी रगों में बहते बहुत सारे रक्त की बूॅदे इनके रक्त से मिलती हैं। ये मुझे कभी बहुत बहुत ग़लत लगती हैं...मुझे आहत करती हैं...कभी मन मे बहुत बहुत गुस्सा भी भरती हैं...पर ये मेरी अपनी हैं। मैं यह भी अच्छी तरह से जानती हूं कि बुआ मुझे प्यार करती हैं। अचानक मन में बुआ के प्रति प्यार उमड़ा था। मुझे यह सोच कर बहुत कष्ट हुआ था कि मैं तो बुआ के घर में कभी अपनों की तरह आती ही नहीं हूं। हमेशा ऐसे आती हॅू जैसे किसी मजबूरी में आना पड़ा है। तब हमेशा ही मेरे मन में उनके प्रति एक विरोध सा रहता है। प्रायः अकारण भी। अजब सी बेचैनी मैंने महसूस की थी। मैंने बुआ की तरफ देखा था,‘‘बुआ आपके पास कोई फैमिली एल्बम है क्या? मुझे पापा, मम्मी, बाबा,दादी सबकी तस्वीरें चाहिए। आपकी और आपके परिवार की भी।’’

बुआ मेरी तरफ देख कर अपनेपन से मुस्कुरायी थीं।

मैं नहा कर अपनी अल्मारी ठीक करने बैठ गई थी। कालेज जाने लायक कपड़े छॉट कर अलग रखती रही थी। बहुत से कपड़ों में छोटी मोटी मरम्मत करनी है...किसी में बटन और हुक टूट गए हैं। एक दो साड़ियों के फाल कहीं कहीं उधड़ गए हैं। तभी आण्टी का फोन आया था। उन्होने शाम के चार बजे आने की बात कही थी,‘‘अम्बिका चल कर अपना घर देख लो। क्या क्या रिपेयर कराने हैं ये भी देख लो। उमा से भी कह देना साथ चलने को।’’ एक क्षण को वे रुकी थीं ‘‘अच्छा उमा को फोन दो मैं बात कर लेती हूं उससे।’’

मैं ने फोन बुआ को पकड़ा दिया था। इच्छा न होते हुए भी बुआ चलने के लिए राज़ी हो गयी थीं। फोन रखते ही उन्होने दीना को पुकारा था,‘‘शाम को मिसेज़ सहगल आ रही हैं दीना। कायदे से नाश्ता बनना है। दही पकौड़ी के लिए दाल भिगो दो। इमली की चटनी तो रखी है न?’’

‘‘है’’ हमेशा की तरह उत्साहित हो कर दीना चहके थे,‘‘आप बोता दीजिए। सब बोन जाएगा।’’ दीना को मेज़ पर अपना कौशल दिखाना हमेशा उल्लसित करता है।

‘‘पर बुआ आण्टी तो चार बजे आऐंगी और हम लोगों को लेकर फौरन ही निकल जाऐंगी।’’ मैं ने कहा था।

‘‘हमें छोड़ने भी तो आऐंगी तभी बैठ कर चाय पीऐंगें।’’

‘‘फिर बुआ आप उनसे बात कर लीजिए ताकि वे उसी हिसाब से आऐं। अगर एन वक्त पर उन्होंने अपना कोई और प्रोग्राम बता दिया तो सारी मेहनत बेकार जाएगी।’’ मैं ने अपनी राय दी थी। मैं जानती थी कि वैसा हो सकता है और उस स्थिति में बुआ बहुत बड़बड़ाऐंगी और उनकी व्यस्तता के हज़ार अर्थ निकालती रहेंगी।

बुआ ने हामी भरी थी,‘‘हॉ शायद तुम ठीक कह रही हो।’’ और वे टेलिफोन की तरफ बढ़ गयी थीं। आण्टी पहले से ही यहॉ बैठने का कार्यक्रम बना कर आ रही थीं। फोन रख कर बुआ व्यंग से मुस्कुरायी थीं,‘‘मिसेज़ सहगल कह रही हैं कि उन्हें मुझसे बहुत बात करनी है। बहुत सी बातों पर राय करनी है। चलो ज़हे किस्मत हम भी तुम्हारे कुछ हैं ऐसा उन्होने सोचा तों।’’ और बुआ किचन की तरफ चली गयी थीं। फिर काफी देर तक वे व्यस्त रही थीं। आण्टी जब भी आने वाली होती हैं बुआ बहुत हड़बड़ा जाती हैं-घर की, किचन की, और बाथरूमों की सफाई, नाश्ते की व्यवस्था,क्राकरी का चुनाव, सब बहुत प्रयास से करती हैं वे। मेज़ पर लगाने के लिए क्राकरी उन्होने बाहर निकाल कर रख दी थी। कपड़े के नैपकिन भी। वे दीना को निर्देश देती रही थीं।

Sumati Saxena Lal.

Sumati1944@gmail.com