Ek ajnabi se mulakat in Hindi Short Stories by Gal Divya books and stories PDF | एक अजनबी से मुलाकात..

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एक अजनबी से मुलाकात..

वो दिन बड़ा ही सुहाना सा था ,
‌‌‌‌‌‌ वो मुलाकात बड़ी सुहानी सी थी,
वेसे तो कोई रीस्ता न था पर,
वो अजनबी अपना सा था ।।

उस दिन की सुबह एसी ही थी जैसी रोज होती हैं। में उठी अर्सुस्वल लेट ही थी, रेडी होने के साथ ही ब्रेक फास्ट हो रहा था। टाइम की कमी वैसी ही थी जेसी रोज होती है।
मेने हाथ में एप्पल लिया, मा को बाय कहते बहार निकली और मा वैसे ही पागल, अपना ख़्याल रखना , कहति मुस्कुराती दरवाजा बंद कर दिया।
आेर में जल्दी से टैक्सी में बैठी आेर चली अपनी ऑफिस। लेकीन आज मेरे नसीब में वो बोरिंग ऑफिस मीटिंग कहा थी, आज तो मेरे नसीब में एक इंट्रस्टिंग अजनबी से मुलाकात थी।
पता नहीं टैक्सी को क्या मुसीबत आयी चलने में, बीच रास्ते हि साथ छोड़ दिया। फ़िर क्या था, टैक्सी को छोड़ हम आगे चले, पर रास्ता कुछ अंजाना सा था, होगा ही, 5 दिन में थोड़ी न कोई अपना बन जाता है।
हा में नई थी इस शहेर में,तो आगे तो बढ़ी पर रास्ता मालूम नहीं। बड़ी मुश्किल से दुसरी टैक्सी दिखी, लेकिन उसने तो अपना मुसाफिर पहले हि चुन लिया था।
पर कहते है ना दिल के अच्छे लोगो के साथ अच्छा ही होता है , तो मुसाफिर ने मेरा साथ मंजूर रखा ।
मुसाफिर बड़ा हि अलबेला सा था, बोलता बड़ा ही मीठा था, लड़कियों को पटाने में तो उस्ताद था, उसने तो मुझे ये जवानी है दीवानी के बनी की याद दिला दी। मुसाफिर बड़ा हि प्यारा था। फिर क्या हमारी बातो का सिलसला शुरू हुआ।
में वैसे भी लेट हों गई थी, सेलेरी अधे दिन की कटने ही वाली थी तो मुसाफिर ने एक मस्वरा दिया....
....चार कदम,
बस चार कदम,
चल दो ना साथ मेरे.........
बहुत फिल्मी है ना, सच्ची में पागल था वो... या मुझे पागल बना दिया था, पता नहीं।
फिर क्या था हम चल दिए, उसके साथ। मुसाफिर ने कहा मेरा शहेर बड़ा ही सुंदर है, चलो आज दिखा हि दु।तुम भी क्या याद करो गी । पूरा दिन हस्ते खेलते उसका शहर देख ते ही गुजर गया।
सही में उसका शहर बहुत हि सुंदर था। सच्ची में कहूं तो शहर सुंदर था या उसका साथ पता नहीं पर जो भी था बड़ा ही सुंदर था ।
दिन खत्म हो रहा था और गुलाबी शाम अपनी आेर बुला रही थी, आखिर में अलविदा कहने का समय आ ही गया। उसे रोकना तो चाहती थी पर किस हक से रोकती उसे मालूम नहीं...
फिर भी दिल तो दिल है दूसरी मुलाकात की मांग कर बैठा पर मुसाफिर बढ़ा ही अनोखा था अलविदा के साथ कहेता गया किस्मत ने चाहा तो फिर मिले गे, युही चलते चलते। अरे मिलना चाहे तो भी कैसे मिले उसे ,क्यों की ना नाम पता है ना ही काम, ना ही फोटो है उसकी ना ही कोइ निशानी... तुम ही बताओ उसे मिले तो भी कैसे मिले...
फिर क्या था,
बची ये मुलाकात इन यादों में वो ही सही,
उस अजनबी से एक ही मुलाकात वो ही सही।।