mere laft meri kahaani - 2 in Hindi Poems by Monika kakodia books and stories PDF | मेरे लफ़्ज़ मेरी कहानी - 2

Featured Books
Categories
Share

मेरे लफ़्ज़ मेरी कहानी - 2

ग़ज़ल
1. रिवायतें
जाने कैसी कैसी रिवायतें जमाने की
कीमत है नमक ,ज़ख्म दिखाने की

हाथ जोड़े, उसके क़दमों में जा बैठें
कोई तरकीब ओर बताओे पास लाने की

कितनी बार खोया भीड़ में फिर भी
वो कोशिशें नहीं छोड़ता दूर जाने की

मैं गिरवी रख दूँ ज़िन्दगी अपनी
तुम कीमत तो बताओ उसे मनाने की

चैन सुकून तक ख़ाक हो गया अब
क्या ख़ूब सज़ा है दिल लगाने की









2. मरासिम

मरासिम टूट जाते हैं,मुसलसल आज़माने से
तस्स्वुर और हकीकत ज़ुदा है इस ज़माने से

लहू चूस लेती है यहां ये मतलबी दुनिया
कहाँ निभते हैं मरासिम बस निभाने से

हम-नफ़स थे जो, जिनके मतलब निकल गए
मुँह फेर ही लेते हैं, किसी ना किसी बहाने से

जिसने दिल ख़ाक कर तबाह कर डाला
नहीं जलते अल्फ़ाज़ वो ख़त जलाने से

एक बार सुलग जाए दिलों में गर शरर
मज़ाल क्या बुझ जाए,'जाना' वो आग बुझाने से










3. होश आएगा तो बताएँगे

कौन है हम कौन हो तुम होश आएगा तो बताएँगे
किस तरह होते हैं मदहोश होश आएगा तो बताएँगे

अभी पूछते हो क्यों डर डर के जागते हैं हम रातोँ को
इश्क़ कर लीजिये फिर ख़ौफ़ खायेगा तो बताएँगे

क्यों समझते नहीं हो मेरी उदासी की वजह
तुम्हें भी जब दर्द रुलाएगा तो बताएँगे

हमसे हंसते हो मेरे हिज़ाब लेने पर
फिर दुनियां से मुँह छिपाओगे तो बताएँगे

तोहमतें लगाते हो हम पर जाने कैसी कैसी
तुम पर भी जब जमाना उंगलियां उठाएगा तो बताएँगे











4. उम्र-ए-रवां

ये उम्र- ए- रवां है की रुकती नहीं
मैं कैसे संभालू संभलती नहीं

क्या क्या रिश्वतें मैंने पेश की है
ज़िद्दी जरा भी मचलती नहीं

रो रो के भी मैने इसे था मनाया
बेदर्द मेरे दर्द में भी सिसकती नहीं

वो किस्से बचपने के भी मैंने सुनाए
सख्त कैसी है, जरा भी हंसती नहीं

लगे हैं पर इस उम्र को शायद
तभी तो ज़रा भी ठहती नहीं










5 .रूह का हिस्सा होते हो

कभी करीब इतना कि जैसे रूह का हिस्सा होते हो
और कभी सात आब-जू से भी परे होते हो

किस तरह से समझूँ तेरी ज़ात क्या है
कभी तुम आम तो कभी सोने से खरे होते हो

ये बात तो मेरी अक़्ल से बहुत परे है
कभी तुम दिल का सुकूँ कभी हरसू पीड़ होते हो

ये तेरा इश्क़ है या दिल्लगी का दिल है
कभी जलाते हो आग से और फिर ख़ुद ही नीर होते हो

खुदा के दर जाऊं या सजदा करूँ तेरा
कभी तुम उसके बन्दे तो कभी पीर होते हो









6.मोहब्बत, इश्क़ बनती जा रही है

मोहब्बत रोज़ बढ़ती जा रही है
मोहब्बत ज़ख्म बनती जा रही है

चढ़ गयी है जो जिस्मओं जाँ पर मेरे
मोहब्बत वो पक्का रंग बनती जा रही है

रोशन इस शरार से क़ायनात सारी
मोहब्बत नूरी बनती जा रही है

खींच लेती है सहरा की ज़ानिब
मोहब्बत महज़ सराब बनती जा रही है

सर झुका, सज़दा कर, इबादत कर
मोहब्बत ख़ुदाई बनती जा रही है

कहाँ तक बचेगा, छिपेगा इस से
मोहब्बत रूह बनती जा रही है

वक़्त दर वक़्त असर बढ़ रहा 'जाना'
मोहब्बत, इश्क़ बनती जा रही है




7.तन्हाईयाँ

मेरे दिल की तन्हाईयाँ मिटती नहीं कभी
तेरी यादों की परछाइयाँ हटती नहीं कभी

बहुत फ़ासले हैं इन दो दिलों के बीच
फर्ज़ की ये दूरियाँ घटती नहीं कभी

तेरा चेहरा मेरी आँखों में समाया है
ये धुंध इश्क़ की छटती नहीं कभी

एक उम्र गुज़री जागते हुए
हिज्र की ये रात कटती नहीं कभी

करवट दर करवट और शब गुज़र गयी
सिलवटें चादर की हटती नहीं कभी










8.अलविदा कहने नहीं देती

तेरी यादें तेरी बातें, मुझे सोने नहीं देती
मुस्कुराने की कसमें, मुझे रोने नहीं देती

जिस्मों जाँ से रूह तलक बसे हो तुम
मगर मजबूरियां तुझसे ये कहने नहीं देती

मेरी मुस्कुराहट के बदले मुस्कुराते हो
तेरी शर्तें मुझे ग़म कोई करने नहीं देती

फ़र्ज़ और भी हैं तेरी मोहब्बत के सिवा
वरना गमे हिज्र ये तुमको सहने नहीं देती

मैं बेवफ़ा नहीं बस मजबूर बहुत हूँ
यकीं मानो कभी अलविदा कहने नहीं देती








9.आदत सी है मुझे

जान ले लो, सूली चढ़ाओ क़त्ल कर डालो मुझे
अजी तुर्बत में भी मुस्कुराने की आदत सी है मुझे

माना कि तेरे ही लिए हर बार तुझसे हार जाते हैं
मगर तुझको छिड़ने,सताने की आदत सी है मुझे

ए चाँद फ़िक्र ना कर की बस तन्हा तू ही है
तेरी मानिंद शब भर जागने की आदत सी है मुझे

चाहा उसे ही हर बार जो नसीब में नहीं था
क्यों क़िस्मत को मुसलसल आज़माने की आदत सी है मुझे

ख़बर है मुझे तू लौट कर ना आएगा
नादाँ इस दिल को बहलाने की आदत सी है मुझे





10. आया करना

धूप हो, छांव हो तुम साथ निभाया करना
मेरे रुख़सार पर सदा,पलकों का साया करना

नज़रें टिकी होंगी राहगुज़र पर तमाम उम्र
कभी वक़्त पर, कभी देर से मगर आया करना

डाँट देना ख़ता हो तो, कोई बात नहीं
फिर अकेले में लग कर गले मनाया करना

बड़े अजीज़ हैं खेल ये आज़माइश के
तुम चुपके से मेरी आँखों को छिपाया करना

शब भर जागना गोद मे सर रखकर
राज़ ए दिल सारे तुम मुझसे साज़ा करना

थकी हूँ जब ज़ीस्त की धूप से हार कर
तुम रखना सीने पर सर और थपकियों से सुलाया करना



11. क़ुर्बत
किसी राहगुज़र किसी मोड़, एक दिन उससे मिल जाऊँ
हो कयामत या ख़ुदा मैं उस के जैसी बन जाऊँ

वो देख सके मेरा दर्द, मोहब्बत मेरी
तो जरूरी है मैं उसकी आँखे बन जाऊँ

महका दूँ दुनियां उसकी गुलशन सी
मैं महकते गुलाब की दिलकश ख़ुशबू बन जाऊँ

आऊं जाऊँ जिस्मों जाँ में उसके
या ख़ुदा मैं उसकी साँसे बन जाऊँ

कर दूँ इस जहाँ में दौलतमंद उसे
मैं उसकी क़ीमती शोहरत बन जाऊँ

सुकूँ हो हर घड़ी भीड़ में भी उसे
ख़ामोशी सी मैं उसकी राहत बन जाऊँ

संग रहूँ रह पहर ,पल पल उसके
मैं उसकी अजीज़ क़ुरबत बन जाऊँ



















12. छोड़ दो....

मेरी आरज़ू को जाने दो,इस जुस्तजू को छोड़ दो
अदाकारी हमको भी आती है, ये झूठी हंसी छोड़ दो

तुम जानते हो ना कि मैं सब समझती हूँ
उम्र नहीं रही अब, यूँ नादानी करना छोड़ दो

वो बहुत दूर निकल चुका, जिसका इंतेज़ार तुमको
आते जाते हर किसी को ऐसे तकना छोड़ दो

किसी के चाहने से शाख़ पर सुखें पत्ते नहीं रुकते
हवा का झोंका बन मुझको उड़ाना छोड़ दो

शिद्दत से चाहो तो हर शय मिल ही जाती है
मेरे हमदम क़िस्सों पर यक़ीन करना छोड़ दो

कितनी थकी सी, तरसती सी हैं तेरी आंखे
यूँ बेज़ार रात भर जुगनू से, जगना छोड़ दो


13. ख़ुदको बदलना होगा
बदलते वक़्त के साथ ख़ुदको बदलना होगा
नए साँचे में नए ढंग में मुझको ढलना होगा

घात लगाए बैठें हैं कि, कब टूट कर बिखरुं
ऐसे हम नफ़स बहरूपियों से अब बचना होगा

गटकने होंगे चुपचाप मुझे ग़म सारे के सारे
लगा कर आँसुओं पर काज़ल, संवरना होगा

कहते हैं लोग ख़ुदको मेरा दर्द बाँटने वाले
ऐसे दोस्तों से मुझे बचकर निकलना होगा

आज ये वक़्त नहीं किसी से सच कहा जाए
प्याला ये ज़हर का अकेले ही निगलना होगा

हाथ थामे और चलना सिखाये ये भूल जाओ
मुझे अब आप ही गिर गिर कर संभलना होगा

दिल का हाल क्या, उसका जिक्र तक नही
हर वक़्त लबों पर अपने हाथ रखना होगा

14. बात पहले सी नहीं है

दिलों के दरमियाँ वो बात पहले सी नहीं है
मेह्ताब वही मगर रात पहले सी नहीं है

जला करती थी और जलाया करती थी
दिलों में वो आग अब लगती नहीं है

एक ही दोस्त हुआ करती थी करीबी सबसे
मेरी परछाई भी अब बातें मुझसे करती नहीं हैं

वो तो बस बचपन था जो इतना खूबसूरत था
आज कल तो कोई रंग भी, रंगी नहीं है

दीवारें सटी हुई हैं बस मकानों की
औरतें गलियों में लेकिन मिलती नहीं हैं






15. तुझको रब सोचा

तुम्हें सोचते हुए जब सोचा
आम इंसाँ नहीं तुझको रब सोचा

महलों अटारों की चाह नहीं
तेरे साथ छोटा सा घर सोचा

किस तरह कटते हैं दिन पूछो
तुझे ही इक इक पहर सोचा

जमीं से लेकर मेरे आसमानों तक
तुझे परवाज़ तुझे ही पर सोचा

महफूज़ सा महसुस करती हूं
दिल तेरा ख़ुदा का दर सोचा

कभी आँसू और कभी मुस्कुराते हुए
संग तेरे ज़िंदगी का सफ़र सोचा



16. बात बढ़ चुकी है


ए दिल होश में आजा, कि रात ढल चुकी है
ज़रा सा संभल ए दिल,अब बात बढ़ चुकी है

समझाया था नज़दीकियां अच्छी नहीं इतनी
अब पछताते हो कि सब दूरी घट चुकी है

दिखने लगा है अब दूर तक साफ मंज़र
जो धुंध थी आँखों मे अब छट चुकी है

बिन पर्दे निकलते हैं हर इतवार घर से
खैरात आज फिर गरीबों में बंट चुकी है

कभी चुप ,कभी मदमस्त लहर दर लहर
जैसी भी थी मेरी जीस्त, अब कट चुकी है





17. ज़रा देखिए

किस तरह लेती है इम्तेहान ज़रा देखिए
मौत उस जिंदगी से आसान ज़रा देखिए

मौका तक नही मिलता झोली भरने का
कहाँ कीमती साज़ो सामान ज़रा देखिए

कबसे देखती हूँ बड़े गमगीन बैठे हो
खोई कहाँ मासूम मुस्कान ज़रा देखिए

सोचते तक नहीं कुछ भी बोल देते हैं
लंबी हो गयी लोगों की ज़बाँ ज़रा देखिए

कुछ भी काम नहीं होता इनसे
बुज़ुर्ग हो गए शहर के जवां ज़रा देखिए






18. मेरा नाम तुझसे रहे

ना ख़त लिखूँ ना क़लाम तुझसे रहे
हर ख़ामोशी का ये काम तुझसे रहे

रहे बस इतना सा तज़बूब बाकी
इस तरह दुआओ सलाम तुझसे रहे

ना रिवाज़ों में बंधा, ना रिवायतों में जकड़ा
बस इक रब्त ए मुसलसल मेरा नाम तुझसे रहे

लगता नहीं यूँ तो बज़ाहिर कुछ भी
ये जमीं वो सारी कायनात तुझसे रहे

यहीं रहे तेरी रूह, जिस्मों जाँ 'जाना'
मेरी हर शामें एहसास बरकरार तुझसे रहे






19.उम्र की रवानी देख

हवा सा गुज़रा बचपन, लड़कपन, जवानी देख
रुकती नही रोके इस उम्र की रवानी देख

अपनापन आँखों में, ज़बाँ पर फिक्र मेरी
उस नए रहज़न की ये सारी निशानी देख

रोज़ बदल लेते हैं किरदार जगह अपनी
किसी मक़ाम पर जाएगी ये कहानी देख

हर बार चोट खाती हूँ नए यकीं के साथ
होती है क्या कहीं, मुझ सी दीवानी देख

मुद्दा ये नहीं कि मेरी मुद्दआ क्या है
किस तरह मिलती है सारी परेशानी देख

भरी हैं जेबे, खरीदता नहीं कुछ भी
ज़िगर से बखील की बे-सरो-सामानी देख


20. बात जो भी थी

कट गयी वक़्त से पहले, रात जो भी थी
भूल जाओ सारी निहाँ बात जो भी थी

अब तो दूर तलक बस सहरा ही सहरा
गुज़र गयी सुहानी वो, बरसात जो भी थी

अब तो कुछ धुंधला सा ज़हन बाकी
थी हक़ीकत की सराब जो भी थी

आदत है मर्ज़ से पहले दवा ले लेती हूँ
मेरी नासमझी या ज़हानत जो भी थी

अपने घर में रह मुझ पर शहशांही ना कर
मुझे ख़ौफ़ नहीं तेरी ओकात जो भी थी






21. बात दिल की


कोई बात दिल की दिल में नहीं रखती
किसी से हद से ज्यादा मरासिम नहीं रखती

खंज़र से भी गहरे ज़ख्म देती है इसीलिए
ज़बाँ पर मैं कभी तल्खी नहीं रखती

लगा देते हैं पहलू में शरर पीठ पीछे से
ऐसे आतिश-जनों को अपना करीबी नहीं रखती

छोटे छोटे सपने, मामूली सी ख़्वाहिशें मेरी
तुम्हारे जैसे शौक नवाबी नहीं रखती

जीती हूँ लम्हा जितना जिया जा सकता है
ज़ीस्त को अपनी इतनी हिसाबी नहीं रखती






22. मासूम बचपन

मासूम था बचपन,हर कहानी सच्ची लगती थी
बस वो ही वक़्त था जब हर शय अच्छी लगती थी

दिल मे चाह रखते हैं हर शक्स देखा करे
बात वो ओर थी जब सादगी अच्छी लगती थी

भरी गर्म दुपहरी अपने आँचल में छिपाया
मेरी वो मिट्टी की गुड़िया अच्छी लगती थी

ढेरों दोस्त, लम्बी रिश्तेदारी, बहुत लेना देना
जाने किन कामों में मसरूफ़ जिंदगी अच्छी लगती थी

धोखे, फ़रेब से तो पहचान तक ना थी
उम्र की ये ही बात मुझे सबसे अच्छी लगती थी





23. जैसी भी हूँ...

तुम्हारी हूँ तो सही, जैसी भी हूँ
काम तो चल जाएगा ना,जैसी भी हूँ

मुझसे होता नहीं हर बात पर मिन्नतें करना
अच्छी हूँ या बुरी, जैसी भी हूँ

क्या रंज करूँ ज़माने की बातों का
वो तो कहते हैं गलत,जैसी भी हूँ

तुम ही हो सवाल तक नहीं करते
मान लेते हो बातें कहती ,जैसी भी हूँ

रखती हूं सारे हिसाब खरे खरे
उधार कोई रखती नहीं, जैसी भी हूँ







24. तेरे आग़ोश में..

तेरे आग़ोश में , ग़मो निशान भूल जाते हैं
तेरे साथ हैं, सारा जहाँ भूल जाते हैं

खो जातें हैं खुशनुमा ख़्वाबों के जहाँ में
अपनी हक़ीकत, अपना मुक़ाम भूल जाते हैं

निकल पड़ते दूर आफ़ाक़ की ज़ानिब
फ़र्क क्या जमीं आसमाँ भूल जाते हैं

दानिस्ता करने लगते हैं शरारतें बच्चों सी
अपनी उम्र संजिन्दा, भूल जाते हैं

बेजवाज़ हँस देती हूं बिना सोचे समझे
तेरी क़ुर्बत में फुजूल रुकावटें, भूल जाती हूँ






25. रात होती गयी...

बेवाक़िया सी राहें होती गयी
जिंदगी दश्ते जुनूँ होती गयी

ख़ुमार किस्मत पर ख़ुलूस का तेरे
तुम गए तो ज़र्द होती गयी

रोशन हुआ करता था आफ़ताब चारसू
उसी शहर में हर पहर रात होती गयी

लोग आते जाते तेरे नाम का ताना देते
बात ये बड़ी आम होती गयी

तुम थे तो लू में नहीं जलता था बदन
आज सर्दियां भी आग होती गयी