Zee-Mail Express - 29 in Hindi Fiction Stories by Alka Sinha books and stories PDF | जी-मेल एक्सप्रेस - 29

Featured Books
Categories
Share

जी-मेल एक्सप्रेस - 29

जी-मेल एक्सप्रेस

अलका सिन्हा

29. वासना, संभोग और समाधि

यह भी अच्छा हुआ कि अभिषेक इन दिनों अपने दोस्तों के साथ देहरादून में है जिससे मैं विनीता के साथ खुलकर अपनी बात कह पाया, वरना परसों रात जिस तरह मैं फफक पड़ा था, अगर उस वक्त अभिषेक भी घर में होता तो बातें उससे भी कहां छुप पातीं और तब मैं कहां मुंह छुपाता।

एक ओर मैं जहां अभिषेक की अनुपस्थिति से निश्चिंत हुआ था वहीं दूसरी ओर उसकी कमी को भी बेतरह अनुभव कर रहा था। शायद ऐसी किसी घड़ी में हर बाप अपने बेटे का कंधा तलाशता है। क्या पता, वह मेरी स्थितियों को भांप कर मेरा सहारा बनकर खड़ा हो जाता। इस ख्याल से ही मन को सुकून मिला। मन हुआ, अभिषेक से कुछ बात करूं, उसके साथ को, उसकी निकटता को महसूस करूं। मोबाइल उठाकर ऩंबर मिलाने लगा तो हाथ ठिठक गए, क्या बात करूंगा?

...क्यों, क्या दिक्कत है, बेटा बाहर गया है, पूछ लूंगा कि सब ठीक तो है, मन ने आश्वस्ति जताई।

“किसे फोन कर रहे हो?” विनीता ने पूछा तो मेरे आवेग को झटका लगा।

“अभिषेक से बात हुई क्या? वह ठीक से पहुंच गया?” मैंने विनीता की ओर देखा।

“अरे, वो तो परसों ही पहुंच गया। आज शाम भी फोन आया था उसका,” विनीता ने बताया कि वह दोस्तों के साथ मजे में है।

सोचता हूं, विनीता कैसे घर-बाहर दोनों के बीच संतुलन बना लेती है? जबकि दफ्तर के काम के अलावा मेरी तो कोई विशेष भूमिका नहीं होती, फिर भी, मैं कितना विरक्त-सा रहता हूं।

कोई औरत किस तरह अपनी महत्वाकांक्षा के साथ-साथ परिवार के सदस्यों की जरूरतों के प्रति भी इतनी सजग रहती है! मेरे मन में पूरी स्त्री जाति के प्रति असीम श्रद्धा का भाव उमड़ आया।

विनीता किचन में रात के खाने की तैयारी कर रही थी। जाने क्यों, अभिषेक से बात करने की इच्छा फिर जोर मारने लगी। उसकी आवाज सुनने को मन मचलने लगा। मैंने फोन उठा कर नंबर लगाया। दो-एक छोटी बीप के बाद फोन के स्विच ऑफ होने की घोषणा सुनाई दी।

ऐसा क्यों? वह तो कभी सोते समय भी फोन स्विच ऑफ नहीं करता? एक पल को धुकधुकी-सी हुई, सब ठीक तो है न? फिर ध्यान आया, अभी तो विनीता ने बताया था कि शाम को अभिषेक से उसकी बात हुई है। क्या पता, वह कहीं ऊंचाई पर होगा, नेटवर्क काम नहीं कर रहा होगा या फिर फोन की बैटरी खतम हो गई होगी। मैं मन मसोस कर रह गया।

मगर एक बात मैंने महसूस की कि जिस दफ्तर के चक्कर में व्यक्ति घर-परिवार की अनदेखी करता रहता है, एक बार उससे परे होकर देखो तो मालूम पड़ता है कि शाम ढले हर इन्सान घर की तरफ रुख करता है और तब उसे अहसास होता है कि आगे की यात्रा में वही घर और उसके सदस्य उसका साथ निभाते हैं। दफ्तर की कुरसी और पद-प्रतिष्ठा तो पारी पूरी कर चुकने के बाद किराए पर लिए गए चोले-सी वहीं छोड़ दी जाती है।

आज अंतरा की भी याद आ रही है। सोच रहा हूं, साल भर से अधिक हो गया उसे घर आए। वह भी जब कभी फोन करती है, विनीता को ही करती है। मैं तो कभी रहा ही नहीं कहीं जबकि विनीता हर मोरचे पर बच्चों के साथ होती है, मेरे भी साथ होती है। मैं ही अकेला रह गया... कुछ नॉस्टैलजिक महसूस कर रहा हूं...

दुनिया भी कितनी अजीब है। अभी कल तक जो लोग संभोग और वासना पर चर्चा करते नहीं थकते थे, सुना वही मिसेज विश्वास, लंच के समय अपने कैबिन में ध्यान लगाने का अभ्यास कराने लगी है। उसका मानना है कि ऑफिस में छा गई नकारात्मक ऊर्जा को सकारात्मक में बदलने का यही तरीका है कि हम अपना कुछ समय ध्यान-धारणा में लगाएं। मिसेज विश्वास की दलीलों का भी जवाब नहीं! ...और मजे की बात यह, कि जहां वह भोग-संभोगवादी आधुनिक सोच की पैरोकार है वहीं, आध्यात्मिक उत्थान में भी उससे अधिक सिद्धहस्त कोई नहीं। सुना है, सोनिया भी वहां जाकर नियमित रूप से मेडिटेशन करने लगी है।

मुझे इस जानकारी से कोफ्त तो हुई मगर फिर लगा, बुरा भी क्या है? उस रोज की बहस से तो मेडिटेशन की क्लास बेहतर ही रहेगी। क्या पता, अभिनय करते-करते ही कुछ सकारात्मक परिवर्तन हो जाए। वैसे भी, हमारी बातचीत और हमारे कार्य-कलाप हमारी सोच को प्रभावित तो करते ही हैं। इसलिए सोचा, क्यों न चलकर देखा जाए, मिसेज विश्वास की मेडिटेशन क्लास का नजारा कैसा है। इसी अंतः प्रेरणा से, लंच के समय आज मेरे भी पैर मिसेज विश्वास के कैबिन की तरफ मुड़ गए।

‘‘आइए, आइए मिस्टर त्रिपाठी, यहां बैठ जाइए।’’

मिसेज विश्वास ने मुझे दरवाजे की तरफ सटी कुरसी पर बैठने का इशारा किया। उसकी मेज के सामने रखी कुरसियों पर पहले से ही अन्य विभागों के दो व्यक्ति विराजमान थे। इन दोनों व्यक्तियों ने भी कल से ही आना शुरू किया था, इसलिए मिसेज विश्वास हम तीनों पर विशेष ध्यान दे रही थी जबकि सोनिया ध्यान के चरणों को सीख चुकी थी। वह पीछे के सोफे पर इतमीनान से आंखें मूंदकर बैठी थी। उसके चेहरे पर छाया शांत भाव, मेरी उत्सुकता को और बढ़ा रहा था।

सामने दीवार पर बने बित्ते भर के रैक में गुरु मां की तस्वीर रखी थी जिसके आगे दिया जल रहा था।

‘‘श्री माताजी को प्रणाम कर आंखें मूंद लीजिए।’’ मिसेज विश्वास ने हम तीनों को आदेश दिया।

‘‘आप आत्मसाक्षात्कार के अद्भुत अनुभव को प्राप्त करने के लिए बैठे हैं... श्री माताजी से प्रार्थना कीजिए कि आपको सेल्फ रिअलाइजेशन हो सके...’’

हमने आंखें मूंद लीं और मिसेज विश्वास की बताई प्रक्रिया में शामिल होने लगे।

‘‘पहले क्लिन्जिंग कीजिए... ताकि आपका अंतस निर्मल हो सके... अपने विकारों से मुक्त होने की प्रार्थना कीजिए...’’ मिसेज विश्वास शुद्ध हिंदी में बोलते हुए, किसी विशेषज्ञ की तरह हमें नियंत्रित कर रही थीं।

‘‘बाएं भाग की नेगिटिविटी धरा सोख ले... दाएं भाग की नकारात्मक ऊर्जा आकाश में विलीन हो जाए...’’

मैं मंत्रवत्-यंत्रवत् मिसेज विश्वास के निर्देशों पर अमल किए जा रहा था।

‘‘... अब आप स्वच्छ और निर्मल मन से कामना कीजिए कि आपने सभी को क्षमा किया... खुद को भी क्षमा किया...’’

मगर मैं किसी को कैसे क्षमा कर सकता हूं? और मेरे क्षमा कर देने से ही कोई अपराध मुक्त हो जाएगा क्या? मैंने पूछना चाहा, मगर पूछ नहीं पाया, मिसेज विश्वास अगले चरण पर जा पहुंची थीं।

‘‘...अब दोनों हाथ पसारकर, मन-ही-मन प्रार्थना करें-- हमें आत्मसाक्षात्कार की अनुभूति दो मां!’’

‘‘... ... ...’’

अरे! कमाल हो गया, मैंने अपनी पीठ की तरफ, रीढ़ की हड्डी पर एक सिहरन-सी महसूस की। लगा, एक सरसराहट ऊपर को बढ़ रही है। अद्भुत! पहले ही दिन का ऐसा परिणाम!! मैं अभिभूत हो गया, मगर अगले पल मेरा अंतर्मन तर्क करने लगा, वह इस पर विश्वास करने को राजी न था। उसका मानना था कि यह स्फुरण आंतरिक स्तर पर नहीं बल्कि लौकिक देह पर हो रहा था... फिर यह रोमांच एकाएक ही थम गया। मैंने बिना आदेश ही धीरे से अपनी आंखें खोल दीं। मैंने देखा, मिसेज विश्वास आगे बैठे व्यक्ति की पीठ पर अपने हाथों को गोल-गोल घुमाती हुई ऊपर की ओर उठाती जा रही हैं... मैं कुछ समझ नहीं पा रहा था कि ये क्या हो रहा है, मगर वे अपने काम में तल्लीन थीं। अब वे तीसरे व्यक्ति की तरफ घूम गईं, मेरी तरफ उनकी पीठ हो गई, मगर मैं देख पा रहा था कि उसकी पीठ पर भी वे उसी प्रकार अपना हाथ गोल-गोल घुमाते हुए ऊपर की ओर उठाती रहीं। मैं समझ सकता था कि इस वक्त उस व्यक्ति को कैसी अनुभूति हो रही होगी।

मोबाइल फोन से सितार की बड़ी शांतिप्रिय धुन लगातार बज रही थी और वातावरण एकदम नैसर्गिक बन पड़ा था...

लगभग आधे घंटे बाद संगीत थम गया। सभी ने श्री माताजी को धन्यवाद करते हुए अपनी आंखें खोलीं।

‘‘कुछ अनुभूति हुई? कुछ इक्सपिरियंस मिला?’’

जवाब में सभी सम्मोहित-से मिसेज विश्वास की ओर देख रहे थे।

अपने भीतर उठ रही सिहरन की वास्तविकता का आकलन करता मैं, एक अनूठे अहसास के साथ अपनी सीट पर वापस आ गया। सोचता रहा, लोग बाबाओं के शरण में क्यों भागते हैं? कोई तीर्थ-यात्रा पर जाता है तो कोई सत्संग में जा बैठता है। क्या इन सभा-सम्मेलनों में शांति मिल जाती है? बड़े-बड़े उद्योगपति भी इन माताओं और बाबाओं का आशीर्वाद लेने भागते फिरते हैं, यानी पैसों से ये शांति हासिल नहीं की जा सकती? यानी दुनियावी सुख-सुविधाओं के बाद भी एक रिक्तता है जो सालती रहती है... अगर यह अभाव गैर-दुनियावी है तो इसकी भरपाई दुनियावी साधनों से कैसे की जा सकती है?

मेरे जहन में क्वीना की तस्वीर उभरने लगी, वह भी तो फेथ में जाने लगी थी। वहां दूसरों के लिए कामनाएं करते हुए वह कितनी बड़ी दुनिया का हिस्सा बन गई थी।

उस रोज तहकीकात के दौरान क्वीना से हुई मुलाकात जहन में ताजा होने लगी। क्वीना की कहानी का वह हिस्सा दृश्य लेने लगा जो मैंने उसी समय जल्दबाजी में रचा था। अगर समय होता तो मैं तसल्ली से क्वीना के साथ फेथ की सभाओं में जाता, उसके जाप में शामिल होता...

मैं देखता कि किस तरह क्वीना के व्यक्तित्व का परिष्कार होने लगा है... उसका परिवार एक वृहद्तर दुनिया में विस्तार पाने लगा है... अनजान दुनिया के स्वरचित संबंध पारिवारिक आत्मीयता में ढलने लगे हैं...

मैं देख रहा हूं, पद्मासन में बैठी वह किसी की नौकरी के लिए प्रार्थना कर रही है, किसी निस्संतान के लिए उसके बच्चे की कामना कर रही है, एक्सीडेंट में अपनी दोनों टांगें गंवा चुके उस नवयुवक के लिए भी याचना कर रही है जो अपने परिवार का एकमात्र सहारा था...

मैं महसूस कर रहा हूं, क्वीना की प्रार्थनाएं सुनी जा रही हैं, उसकी इच्छाएं पूरी हो रही हैं, वह खुश हो रही है, आह्लादित है...

हैरान हूं, क्या ऐसे भी खुशी हासिल की जा सकती है? क्या संभव है कि हम अनजान लोगों के लिए प्रार्थना करें और पूरी होने पर सुख का अनुभव करें?

भीतर-ही-भीतर मैं भी ‘नम-म्योहो-रेंगे-क्यो’ का जाप करने लगा। यही वह लोटस सूत्र था न, जिसने क्वीना को ऐसी खुशी का हिस्सेदार बनाया? इसी मंत्र का जाप करते हुए उसने अदृश्य के प्रति अपनी असीम आस्था समर्पित की थी न? मिसेज विश्वास जिस साक्षात्कार का प्रयास करा रही थीं, वह भी इसी यात्रा का एक मार्ग नहीं था क्या? खुशी का यह अहसास ही जाप और साक्षात्कार का असल मकसद नहीं है क्या?

मेरी आंखों में एक नई तरह की दुनिया आकार लेने लगी। जहां हर किसी के इतमीनान लायक काफी जगह है, कोई किसी को रौंदता नहीं। जहां सभी लोग मिलजुलकर रहते हैं... सभी खुश हैं, संतुष्ट हैं, महत्वपूर्ण हैं।

मैं महसूस कर रहा हूं कि यह पृथ्वी एक बड़ा वृत्त है, हर व्यक्ति जिसके केंद्र में है... केंद्रीय पात्र है, सबसे अहम, जिसके इर्द-गिर्द ये वृत्त घूमता है... सभी अपनी कथा के नायक हैं... सोनिया, गीतिका और पूर्णिमा भी... विनीता, क्वीना और निकिता भी... धमेजा, चरित और मैं भी...

हां, यह कहानी मेरे भी इर्द-गिर्द घूमती है और मैं भी इसका मुख्य पात्र हूं।

मैं बहुत अच्छा अनुभव कर रहा हूं। इस अनुभव को किसी से बांटना चाहता हूं, मगर किससे? मेरा तो कोई दोस्त भी नहीं। फिर मेरी अनूठी दुनिया की ये बातें हर किसी की समझ भी कहां आएंगी?

मन थोड़ा मायूस हो गया। अपनी ही खिल्ली उड़ाने लगा, कैसे हीरो हो तुम यार? मगर अगले ही पल कंप्यूटर की विंडो से मित्र गूगल ने आश्वस्त किया, ‘‘मुझसे कहो, मैं हूं न तुम्हारे साथ!’’

उंगलियों ने टाइप किया, ‘नम म्यो हो...’

स्क्रीन पर विकल्पों की ऋंखला उतरने लगी...

सोका गकाई इंटरनेशनल...

क्या है बुद्धिज्म...

क्या है नम म्यो हो रेंगे क्यो...

अरे, यह तो मुझसे इत्तेफाक रखता है, बल्कि मेरी उंगली पकड़ मुझे इस अनूठी दुनिया में लिए चलता है... मैं हैरानी से भरा पढ़ रहा हूं--

‘हर किसी के भीतर बुद्धत्व को प्राप्त करने की अद्भुत क्षमता है, कोई अपवाद नहीं...’

‘इसका जाप ब्रह्मांड को प्रचालित करने वाली रहस्यमयी शक्तियों के प्रति हमारी आस्था को सुदृढ़ करता है...’

‘यह आत्मा के दृढ़ संकल्प की अभिव्यक्ति है...’

कंप्यूटर-स्क्रीन की एक तरफ ऑडियो-विजुअल में कुछ संकल्पनाएं दिखाई दे रही हैं-- गोंग्यो, दायमकू, जदनकाय...

दूसरी तरफ कोसन रूफू, शॉटन जिन-जिन जैसे शब्दों की भाषिक व्याख्यायें हैं...

यानी सच में ऐसी कोई दुनिया है?

यानी ये कोरी किताबी बातें नहीं हैं...

कई सारे शब्द, जिनके बारे में क्वीना ने अपनी डायरी में लिखा था, आज मेरी भी उनसे मुलाकात हो रही है... हम एक-दूसरे के लिए अपरिचित नहीं रहे...

अनूठे उत्साह के साथ मैंने मॉर्निंग गोंग्यो पर क्लिक किया...

घंटे की अनुगूंज के साथ सामूहिक स्वर में इसका मौलिक पाठ गुंजार कर उठा... एक विशेष प्रकार की लय के साथ मैं अपना परिमार्जन अनुभव कर रहा हूं... मैं अपने भीतर उठ रहे आनंद के अतिरेक को संभाल नहीं पा रहा... जल्दी से कंप्यूटर की आवाज कम करता हूं, मगर आवाज मेरे भीतर से आ रही है, उसका स्वर मेरे आसपास के शोर-शराबे से बहुत ऊपर है... मैं बहुत हलका महसूस कर रहा हूं... हलकेपन का ये अहसास कितना अनूठा और नायाब है...

आज विनीता को इसके बारे में बताऊंगा, उसे भी ये सुख हासिल होना चाहिए।

(अगले अंक में जारी....)