आवाज़ों वाली गली
कहानी से हकीकत में ढले थे,
हकीकत से कहानी हो गये हैं.
(राजेश रेड्डी)
वह एक शहर था, सचमुच में कहें तो एक कस्बा. पर तब मेरा मन पूरी शिद्दत से उसे शहर ही मानता था. शहर, किसी आम छोटे शहर जैसा ही, उस शहर में एक आम मुहल्ला, मुहल्ले में एक बहुत आम सी गली. पर गली आम गलियों सी हो कर भी उतनी आम नहीं थी. कम से कम मुझे तो ऐसा लगता ही था.
वह गली रोज सुबह एक आवाज़ से जागती. पास के मस्जिद से उठती अजान की आवाज़ और फिर मुर्गे की बांग, मानो दोनों में एक होड़ हो कि कौन सबसे पहले... किसकी आवाज़ सबसे ऊपर. किसे मिलेगा उस सुबह को बुलाने का श्रेय. फिर ग्वाले का आना, बच्चों के स्कूल जाने की हड़बोंग और मर्दों के दफ़्तर जाने की अफरातफरी. ठीक इसी समय आती खड़-खड़ की ध्वनि के साथ सड़क बुहारने की आवाज़. आवाज़ झाड़ू की होती या कि सूखे पीले पत्तों की मैं कभी तय नहीं कर पाती. जब तक स्कूल जाने लायक नहीं हुई थी, मैं उसके पीछे-पीछे निकल पड़ती, आवाज़ किसकी है यह जानने की खातिर. अक्सर वह मुझे नहीं देखता, क्योंकि मैम ठीक-ठीक उसके पीछे चल रही होती. नन्हे-नन्हे कदम, बहुत ही हल्की सी पदचाप. वह अक्सर नहीं समझ पाता मेरा ठीक उसके पीछे हो जाना... पर अब लगता है वह जानता था. और वह जानकर भी न जानने का अभिनय करता था. उसे अच्छा लगता था उसका उसके पीछे-पीछे आना. उसे अच्छा लगता था किसी का उसके पीछे यूं आना. दिन गर्मी के होते तो सुबह भी तपती होती. नंगे पांव झुलसने लगते. बदन से सेंक उठने लगती. फिर भी नहीं लौटती मैं अपने आप... कभी-कभी मुझे देख कर वह चौंक जाता... जैसे परछाई देख जान ली हो उसके पीछे हो लेने की बात... बबुनी, घर जाइये. घर में सब कोई खोज रहा होगा. चले जाईये घर, हम खड़े हो कर देख रहे हैं. मैं टस से मस नहीं होती, लाख मनुहारों के बावजूद. वह इंतजार करता कि कोई दिखे, दिखे तो उसके साथ वह मुझे घर पहुंचवा दे. वह जानता था मैं ऐसे नहीं टलूंगी. मैम जानती थी वह मेरा हाथ पकड़ कभी मुझे घर छोड़ने नहीं जायेगा. हम अपनी-अपनी जिदों के साथ अड़े-खड़े रहते एक दूसरे के साथ. अब लगता है, वह जिद नहीं थी, मजबूरी थी उसकी, मुझे नहीं छूने की. अब हैरत होती है कौन सा खिंचाव खींचे ले जाता था मुझे उसके पीछे-पीछे, किस अंजान डोर से बंधी चली जाती थी मैं रोज ब रोज.
वे सूखे पीले-पत्ते मुझे अबतक परेशान करते हैं. अपनी अविरल पुकर से खड़-खड़ करते, इत-उत डोलते, अपना एक इतिहास समाये, अपनी एक कल संजोये, कल की भरी-पूरी ज़िंदगी, आज के पल अतीत... उन्हीं सूखे पत्तों को तो सुन और चुन रही हूं अभी भी.
वे सूखे पत्ते जिनके झ्ड़ जाने के बाद मैं रोज एक-एक दिन गिनती थी; कब अंखुआयेंगे पौधे में छोटे-छोटे लाल पल्लव... और किसी एक सुबह पेड़ सचमुच नन्हे-नहे पल्लवों से भर उठते थे. मन की उदासी अपने आप छितर लेती थी, नये जीवन के आगमन से. नंगे-निचाट पेड़ मुझे हमेशा परेशान करते थे. मुझे हमेशा परेशान करता था पतझड़ के मौसम में वह पेड़-पौधों से भरा-पूरा मुहल्ला...
उसी भरे-पूरे मुहल्ले में दिख जाता था वह, सुबह साढ़े सात-आठ के बीच अपनी लम्बी सी झाड़ू लिये पत्तों और कूड़े को समेटता हुआ. कूड़ा भी कुछ वैसा ही... कल तक ज़िंदगी का हिस्सा, आज बेकार-बेमतलब-बेमकसद. .. ज़िंदगी में यूं पीछे छूट जाना, बिला मकसद... नाकाबिल हो जाना.. चूस-चूस कर फेंक दिया जाना.. एक बड़ी त्रासदी, एक बड़ी दुर्घटना... एक बड़ा सच.
वह जो सुबह मुझे कभी घर छोड़ने नहीं आया. वह जिसने मुझसे चलते-चलते न जाने कितनी बातें की थी बचपन के उन दिनों में. वह जिसने कभी मेरी उंगलियां नहीं थामी. हम साथ-साथ चले, या यूं कहे कि समानान्तर ज्यादा. मैं उसके इशारों पर चलती बाद में, उसकी बातों की उंगली थामे रहती. ठीक से बबुनी... गड्ढा है आगे.. देखिये उधर कांटा है.. मुझे वह किसी अपने की तरह सरेयाम की तरह की बचा लेना चाहता था सारी मुश्किलों से.
वह मेरे घर भी आता था. दरवाजे से हो कर नहीं. बाड़ी-खेत से होकर घर के पिछले दरवाजे तक. हमारे घर में बनी नालियों की सफाई के लिये. वह हमारे घर में नलों को खोलने के लिये कह देता, मुहल्ले के सारे घरों में और देखते ही देखते घर की नाली, बड़ी नाली सब आईने की तरह चमक उठते. वह गर्व से देखता उन्हें, हमें भी दिखलाता और पिछवाड़े से ही निकल जाता, मुख्य सड़क की तरफ.
नहीं मैं भूल रही हूं शायद, वह कभी-कभी पिछले दरवाजे से ही आंगन में भी आता था. हालांकि हमारे शौचालय उस पुरातन व्यवस्था से कभी के निकल चुके थे पर महीने मे तीन-चर बार वह उसकी साफ-सफाई कर देता था, चंद पैसों के एवज में.
हालांकि बात आवाज़ों वाली उस गली की हो रही थी पर वह अपने आप ही चला आया मेरी कहानी में हस्तक्षेप करता, अपनी उपस्थिति दर्ज करवाता हुआ. मेरे अतीत का एक पन्ना वह भी है कि उससे भी जुड़े हैं मेरे कुछ रग-रेशे...
अब सोचती हूं तो बहुत अजीब सा लगता है. चाहे मुझे उसके पीछे जाने से बहुत बार मना किया गया हो, डांटा भी गया हो पर यकीन से कह सकती हूं कि कोई भी कभी मेरी खोज में नहीं निकला. उस बीच मेरी याद, मेरी जरूरत किसीको नहीं आई. मेरी वह क्षणिक गुमशुदगी जो बाद में इतनी प्रत्याशित हो चली थी कि गुमशुदगी भी नहीं रह गई थी और कभी किसी हो-हल्ले का वजह भी नहीं बनी. बेइंतहां भरे-पूरे उस परिवार में सबकी ज़िंदगी के इतनी उलझनें, इतने काम थे कि मेरी उपस्थिति उनके लिये बड़ी नामालूम सी थी.
उन्हीं दिनों मेरा मन अक्सर होता था और बार-बार होता था कि मैं कहीं गुम हो जाऊं और यह देखकर कि सब मेरी तलाश कर रहे हैं, मेरे लिये रो रहे हैं, फिर कहीं से प्रकट हो जाऊं. या फिर थोड़ी देर यह देख सकूं कि कौन मेरे लिये कितना रो रहा है, किसे मेरी कितनी जरूरत है. फिर क्षणिक सी यह इच्छा अपने आप दब जाती क्योंकि मरने के बाद वापस न लौट पाने की मजबूरी मुझे पसंद नहीं थी.
शायद उसके पीछे-पीछे यूं जाने का सिरा भी गुम हो जाने की इसी इच्छा से कहीं बंधा-जुड़ा था. या कि रोज-रोज बहनों-भाईयों के द्वारा चिढ़ाये जाने वाले उस प्रसंग से, जिसमें वे बार-बार तर्क दे कर, कहानियां गढ़ कर यह बताते थे कि मैं उनकी सगी बहन नहीं हूं.. कि पापा ने एक दिन ऑफिस से लौटते हुये फलां गली में किसी घड़े में पड़ा पाया था. कि पापा को मुझ पर दया आ गई थी और वो मुझे उठा लाये थे. वे इस बात पर भी जोर देते थे कि वह फलां गली जमादारों के मुहल्ले के पिछवाड़े की थी. भाई-बहन उसे वह जगह बता-दिखला कर यह विश्वास दिलाना चाहते थे कि वह... वह इससे भी न मानती तो उनका तर्क वही पुरातन होता जो बलराम कृष्ण को देते थे... गोरे रंग यशोदा गोरी तुम कत श्याम शरीर. गोरे उजले तो नहीं पर साफ सुथरे रंगत वाले उस परिवार में वही एक सांवली थी, गहरी सांवली. हालांकि उसके पक्ष में जानेवाले कई तर्क थे पर तब तर्क-प्रतितर्क उसे कहां समझ में आते थे. वह रो देती, चीख पड़ती. मां डांटती उन्हें, बचा लेती. पर उसके मन में चलता रहता कुछ लगातार. उसके पीछे-पीछे जाने के सिलसिले का एक कारण यह भी रहा हो शायद. अपने वजूद, अपने अस्तित्व की तलाश में चल पड़ती होगी वह उसके पीछे-पीछे. उन्हीं के बीच गुम हो जाने की खातिर. बचपन में भी सुदूर बचपन के उन दिनों की तरह. मां कहती थी वे सब कलकत्ता घूमने गये थे. वह जगह विक्टोरिया मेमोरियल थी शायद. भरा-पूरा परिवार. ढेर सारे बच्चे. पिता ने अचानक पूछा था, कहां है वो... दिख नहीं रही है कहीं. सब सकते में आ गये थे. ढूंढाई होने लगी थी चारों ओर. पर मैं कहीं नहीं. मां की आंखों में आंसू थे, भरभरा कर निकल आये आंसू. गंभीर और चुप पापा जोर-जोर से डांट रहे थे सबको, चीख रहे थे सब पर. सब ढूंढ़ रहे थे मुझे. पर मैं कहीं नहीं थी तो नहीं थी. हार कर सब बाहर निकले थे. दूर कहीं कोई मेरी उंगली थामे ले जा रहा था. पिता दौड़ कर गये थे उसतक... कहां ले जा रहे हो इसे, हमारी बच्ची है यह. और मैं गीले-सूखे आंसुओं से भरा चेहरा लिये हुये हपस कर उनकी गोद में चली आई थी. सामनेवाला आदमी सकुचा सा गया था... यहीं बाहर मिली थी हमें, रो रही थी. पूछने पर कुछ बता भी नहीं पा रही थी सो हम... वह जल्दी से अपनी जान छुड़ाकर भागा था. पापा ने कलेजे से लगाकर मेरा चेहरा चुंबनों से भर दिया था... मेरी बच्ची... गुम हो जाने के खयालों का सिरा बचपन के दिनों की इस कहानी से ही कहीं जुड़ा हुआ था जहां लोग मुझे तलाशते थे, खोजते थे सब मुझे प्यार करते थे.
वे सब चिढ़ाते-छेड़ते मुझे.. प्यार तो अपने पाले हुये जानवर से भी हो जाता है अर तू तो तब गोल-मटोल प्यारी सी गुड़िया थी, ऐसी सुखंडी सी थोड़े ही थी.
मैं कहना चाहती थी उनसे बहुत कुछ पर तत्काल सिवाय रोने के मुझे कोई बात याद ही नहीं रहती... मां के द्वारा मेरे जन्म की बताई हुई जगह, मुहल्ले के वे बच्चे जो अब थोड़े बड़े हो गये थे और जिन्होंने खिड़कियों से झांक कर मुझे पैदा होते देखा था, वह नर्स जो मुझे इस दुनिया में लाई थी और जो अब भी गाहे बगाहे अब भी हमारे घर आ धमकती थी पर मुझे उन क्षणों में कुछ भी याद नहीं आता, कुछ भी नहीं.
मां अगर आकर चुप न करा दें और उन्हें डांट न लगायें तो मुझे चुप करवाने का दूसरा तरीका था उनके पास. मुझे चिंघाड़ते पाकर वे किसी आइसक्रीमवाले या कि रेहड़ी वाले को रोक लेते. मैं चुप हो जाती. वह सुबह हो या कि शाम जिसतरह उनके मुझे खिजाने का कोई तयशुदा वक्त नहीं था उसी तरह उस मुहल्ले में ठेले-रेहड़ियों वालों के आने का भी कोइ वक्त नहीं था. आवाज़ों वाली उस गली का कोना-कोना आवाज़ों से भरा गमकता हुआ रहता था. और उनकी आवाज़ें आवाज़ों के इस जंगल का एक अहम हिस्सा थीं.
सुबह जमादार के बाद दही बेचने वाला... ले... दही.... बच्चे तुकबंदी कर चिढ़ाते उसे... रात कहां रही... कोई और जोड़ देता उसमें, रात सोया घर में, दिन बेचे दही... वह चिढ़ कर बहंगी रख के उन्हें मारने दौड़ता. बच्चे भागते, छिप जाते.
फिर रामदानावाला... रामदाना लडुआ... लडुआ.. लडुआ... बीस पैसे जोड़ा बंबई से छोड़ा... लडुआ... लडुआ... रामदाना लडुआ.... कुछ जनाने और कुछ नमकीन आवाज़ वाला यह राइम बच्चों को खींचता अपनी तरफ बेतरह... फिर अल्यूमिनियम के पतीले में गंदे गीले कपड़े से पेड़े ढके हुये खोये और पेड़ेवाला. केले के पत्ते पर दिये जानेवाले उस पेड़े का स्वाद मेरी जुबान पर अब भी घुलता सा लगता है. फिर बीच का वक्त यानी अनाजों, फलों और साड़ी बेचनेवालों का. खाली औरतों का जमावड़ा इस पर टूट पड़ता. मोल भाव इस हद तक कि वे हार कर घाटे में सामान बेचने का दावा करते, फिर कभी भी न आने की कसमें लेते, लेकिन आते फिर-फिर. बच्चों का प्रत्यक्षत: इन सौदों से कोई वास्ता नहीं था. फिर भी वह इनके लिये मनोरंजन का साधन तो थे ही. दोपहर फिर बच्चों की हो जाती. दोपहर से शाम तक का वक्त फिर उनकी मनपसंद चीज़ों का हो जाता. हवा मिठाई, गुलाबी मिठाई, मूंगफली और चने वाले, भूंजा वाले, गुपचुप वाले, चाट और आइसक्रीम वाले.. और न जाने कितनी-कितनी चीज़ें. दिक्कत यह कि मांओं के लिये यह समय दिन भर की थकान के बाद सोने का वक्त होता. वे सो जाना चाहती चुपचाप. बच्चों को भी सुला देना चाहती. पर बच्चे तो बच्चे, हर गुजरनेवाले सामान के साथ, उसे खरीद देने की जिद, उसे पा लेने की चाहना. मांयें तरह-तरह की कहानियां सुनातीं, किस्से गढ़तीं कि बच्चे इस तरह चीज़ों पर न लपकें. लकड़सुंघा और सिरकटुये की कहानी. लकड़सुंघे तो उनके कथनानुसार भरी दुपहर तरह-तरह के वेश में घूमते हैं और छोटे बच्चों को लकड़ियां सुंघा कर ले जाते हैंं. हम बच्चे डर जाते. कुछ दिनों तक आइसक्रीम खरीदने की जिद नहीं करते. अगर उसने पकड़कर उसे अपने उसी बक्से में डाल लिया तो... पर एक दिन, दो दिन... आइअसक्रीम कुल्फी वालों की गुहार से वह डर कहीं किनारे भाग खड़ा होता. मांयें जब सो जातीं, उनके सोने की राह देखते बच्चे धीरे-धीरे उठते, बेआहट खो जाते अपनी दुनिया में. दोपहर का यह एकांत मुझे भी बहुत परेशान करता और उसी दिन खुश होती जिस दिन कोई मेहमान आ धमकाता और परिवार के लोग जगे रहते. मैं कई बार सोचती. सोये हुये भाइ-बहनों या कि मां की आंखों को अपनी उंगलियों से खोल दूं. उन्हें हिला दूं जोर-जोर से. मुझे नींद नहीं आती थी दोपहर में और आराम से सोये लोग मेरे भीतर स्पृहा जगाते थे. खिसक लेती आस पड़ोस में कहीं... धीरे से इशारों में खिड़कियों से हुई बातचीत... हम सब इकट्ठे हो कर खेलते किसी एक घर में. कुर्सियों के ऊपर चादर डाल कर बनाया गया हमारा घर, जहां खाना भी बनता, दफ़्तर भी लगते, बच्चे स्कूल भी जाते और बाकायदा प्यार और तकरार के खेल भी खेले जाते. घर कहीं सपनों में तभी उगने लगा था. घर तभी से कहीं साथ-साथ चलने लगा था. घर-घर खेलते बच्चे तभी पुरुषों और स्त्रियों में बंटने लगे थे. यह अलग बात है कि तब अक्सर पुरुषों की भूमिका भी हम लड़कियां ही संभालतीं, ठीक पारसी थियेटरों की तरह. लड़के अब हमारे साथ कम शामिल होते. उनके पास खेलने के कई और खेल थे. घरों की चाहरदीवारी उनकी सीमा नहीं थी, वे घूम सकते थे आज़ाद होकर. पर कभी-कभी वे मनबदलाव की खातिर सम्मिलित हो लेते हमारे बीच. लड़कियों की खेल में रौनक आ जाती. वे डाक्टर बनते, वे अफसर बनते, वकील बनते, बाराती बनते गुड्डे-गुड़ियों के खेल में और खेल चमक उठता, असल और नकल के खेल को अलगाता हुआ.
खेल-खेल में हम लड़कियां बच्चे पैदा करतीं, चीखती-चिल्लातीं, फिर उन्हें पालतीं. लड़के आफिस जाते. रोब जमाते घर में और लड़कियों पर शासन करते. एक छोटा सा समाज हमारे भीतर भी पल रहा था, हम बच्चों के बीच. दर असल आसपास रोज न जाने कितने बच्चे पैदा हो रहे थे. वह भी बहुओं और बेटियों के संग-संग. उस मुहल्ले में एक बच्चे के हम उम्र तीन-चार और बच्चे. हम उम्र दोस्तों की कोई कमी नहीं थी हमें. हम चुन सकते थे उसमें से कोई अपने मन का दोस्त. हर घर में सात, आठ, नौ और इससे भी ज्यादा बच्चे. शायद इसीलिये सात भाई-बहनों का अपना परिवार मुझे कभी इतना बड़ा नहीं लगा. आवाज़ोंवाली गली भी आवाज़ोंवाली शायद इसीलिये थी कि बच्चों की किलकारियां, उनके शोर, रुदन, जन्म के वक्त के सोहर जैसे गूंजते रहते थे वहां की हवाओं में. मां ने मेरे बाद निषेध रेखा खींच ली थी कि अब नहीं. मां गर्व से कहती, मुझे बहुत बुरा लगता था कि दामाद और बहुओं के आ जाने के बाद भी बच्चे जने जायें, वह भी बहू-बेटियों के संग-संग.
हां तो बात लड़कों के संग-संग खेलने की थी. लड़के कभी-कभी आते हमारे संग कभी-कभी हम भी चल देतीं उनक साथ कच्चे पक्के अमरुद तोड़ने, इमलियां तोड़ने, तितलियां पकड़कर उन्हें बोतल में बंद करने. पत्थर चुनने... और घरौंदों की खातिर ईंट, एस्बेस्टस और सलेटिया पत्थर चुनने. तितलियों को पकड़कर बोतल मे बन्द करने का खेल भले ही मुझे पसन्द न था लेकिन रंग बिरंगी अपनी आज़ादी में उड़ती तितलियां कितनी सुंदर लगती और बोतल में बन्द कितनी लाचार.
लड़कों की दुनिया मुझे बहुत खूबसूरत और आबाद लगतीं. उनके सब काम वीरतापूर्ण. वे प्रदर्शित भी तो ऐसा ही करते थे. नन्हें-मुन्नी वे लड़के भी लड़कियों के आगे एक बड़प्पन, एक महानताबोध के साथ पेश आते. लड़कियां उनके लिये श्रमिक थीं. उनके तलाशे गये अनमोल खजाने को सिर्फ ढो कर ले चलने लायक. पर वे खुद खाने से ज्यादा देने में विश्वास रखते थे. इमलियां, अमरूद, टिकोरे सब लड़कियों की खातिर ही न. पर उन्हें देते वक्त दानवीरता को जो एहसास उनके चेहरे से टपकता रहता मुझे बिल्कुल नहीं भाता था. घर-घर का खेल इतना रोमांचक भले ही न हो, पर उसमें कोई हीनता बोध भी तो नहीं था. वह हमारी अपनी दुनिया थी, हमारा अपना साम्राज्य. वहां लड़के आते भी तो हमारी मर्जी से. भूमिकायें भी चुनी जाती तो हमारे मन माफिक. वहां तितलियों को बोतल से आज़ाद करवाने की चिरौरियां नहीं थी, न ही उसके एवज में किये जानेवाले सौदे. और घर लौट कर ये भी नहीं सुनना पड़ता कि लड़कियां भी कहीं ऐसे घूमती हैं, दिन-दोपहर बेहंगमों की तरह.... कुछ ऐसा-वैसा हो गया तो... कुछ ऐसा-वैसा क्या हो सकता था तब सोच कर भी नहीं समझ पाती थी और यह ‘बेहंगम’ भी. आज जिसे विहंगम से जोड़कर समझने की कोशिश करती हूं.
इसके अलावे भी ढेर सारे खेल थे जिनमें डेंगा पानी, आइस-पाइस, छुअम छूत जैसे वे खेल थे जो शायद पीढ़ियों से चले आ रहे थे, जस के तस. पर एक नया खेल हमने भी सीखा था - कर्फ्यू ऑर्डर. मैं नहीं जानती कि यह खेल कहां से आया, किसने शुरु किया पर खेल चला आया था चुपचाप हम तक. अपनी भयावहता और समय की वीभत्सता को पीछे छोड़कर खेल में तब्दील होता हुआ. डेंगा पानी और छुअम-छूत की तरह किसी अस्पृश्य की भावनाओं को परे ढकेलते हुये, सिर्फ एक खेल बनकर. मैं सोचना चाहती हूं अब कि वह समय आपातकाल या उसके बाद का रहा होगा. कर्फ्यू शब्द बच्चों तक पहुंचा होग तो कैसे. ठीक-ठीक क्या कारण होगा तय नहीं कर पाती. शब्द और विचार कहीं से कहीं प्रकट हो जाते हैं. समय-काल की सीमायें उन्हें कहां बांध पाती हैं. हो सकता है यह शब्द भी इसी तरह अपनी अवधारणओं के साथ उड़ता-पड़ता आ पहुंचा होगा हमतक.
दोपहर के बीतते-बीतते वह घर जाग और जी उठता. वह घर ही क्या आस-पड़ोस सब जीवन्त हो उठते. रात में घर का कोना-कोना बस जाता. चौकियों-पलंगों के अलावा नीचे भी बिछावन लगते. ढेर सारी मुंडियों के बीच इने-गिने तकियों को लेकर मारामारी. तकिये जल्दी मेरे हिस्से नहीं आते. यहां तक कि हमें बहलाने के लिये मां के द्वारा बनाई गई कपड़ों की पोटलियां तक भी. मुझे कभी जरूरत भी महसूस नहीं हुई. मैं अपने बायें हाथ को सिर के नीचे रख लेती और सो जाती खूब गहरी नींद.
बिछावन... शुरु में मैं मां के साथ सोती थी, फिर बहन के साथ. फिर घर के एक मात्र सोफे पर अपना अधिकार जमा लिया था. हालांकि इसके दावेदार भी कई थे. पर पता नहीं कैसे इस एक मोर्चे पर मैं योग्यतम की उत्तरजीविता के सिद्धांत को पुष्ट करती.
तकियों के अलावे जिस दूसरी वस्तु के लिये मारामारी मचती, वे थीं चप्पलें. आप ढूंढते रहो, ढूंढते जाओ, वे यहां वहां की सैर करके लौट आती. वे एक पांव से दूसरे पांव की दूरियों को यूं तय करती जैसे घड़ी की सेकेंड की सूईयां.
पेटीकोट और सलवार जब भी उठाता कोई नाड़ाविहीन ही पाता. फिर जासूस लगते, खानातलाशियां होती.
आवाज़ों वाली गली के उस आवाज़ों वाले घर में कुछ गरिमापूर्ण भी था, अजीब परंतु सच की तरह. पापा की उपस्थिति घर में गांभीर्य और गरिमा भर देती. उनका चलना बोलना, उनकी हंसी, उनकी किताबें, उनकी मेज, उनकी कुर्सियां , उनका बिस्तर, उनका सिगार, उनका पद... उनकी उपस्थिति भर से जैसे चीज़ें अपनेआप व्यवस्थित दिखने लगतीं, वह घर भी. बैठक सजने लगता, लोग आते-जाते रहते. चाय बनती तो बनती ही जाती.
पापा असहज नहीं थे. बच्चों से गहरे तक जुड़े हुये थे. उन्हें वक्त मिलने पर पढ़ाते. पढ़ी हुई किताबों के अंश चुनकर सबको सुनाते और मां द्वारा सिगरेट पीने के लिये मना करने और इस खातिर खुले पैसे ले लिये जाने पर बच्चों को इशारे से मना करते हुये मां की आंचल के खूंट में बंधे हुये पैसे को खोलते पापा. पकड़े जाने पर बच्चों की तरह ही खुल कर हंस देते. पापा की हंसी में कुछ खास था. आवाज़ में कुछ और खास. इतवार को अक्सर वे बाइसकोप वाले को बुला लेते. मैं खुश होती. पापा मुहल्ले के सारे बच्चों को बाइस्कोप देखन एके लिये बुला लेते. मैं दुखी होती. पापा तो सिर्फ मेरे पापा हैं फिर सबको क्यों... बाइस्कोप वाला बाइस्कोप चलाने के साथ गाता रहता...
अरे देख ल हो बाबू लोग देख ल. अब खेला शुरु बा देख ल.
इ इंदिया गेट बा देख ल. इ बंबई के सागर देख ल.
इ राजा रामचन्द्र के देख ल, इ उनकर राजकाज देख ल.
इ मोटकी धोबिनिया के देख ल, इ कमर लचकाव तिया देख ल...
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अरे देख ल हो बाबू लोग देख ल, अब खेला खतम बा देख ल.
आंखें उस छेद पर जमाये हमसब आंखे फाड़-फाड़ कर देखते, देखते रहते. हर बार उसे श्लाघा के साथ. अलग-अलग दृश्यों के साथ, अलग-अलग बाइस्कोप वालों के अलग-अलग वर्णन. बाइस्कोप खत्म होने पर पापा किसी एक बच्चे को पकड़ लेते वही गीत सुनने की खातिर. खास कर रेमी को. वह सस्वर सुनाती, उसी आरोह-अवरोह, पर एक नई ताज़गी के साथ... अरे देख ल हो बाबू लोग देख ल, इ बाइस्कोप बा देख ल...
कभी-कभी पापा गुब्बारेवाले को रोककर उसके सारे गुब्बारे खरीद लेते और एक-एक कर बच्चों को बुलाकर उन्हें थमा देते. बच्चे गुब्बारा पा कर फूले नहीं समाते. गुब्बारेवाला एकमुश्त गुब्बारे बिक जाने पर पापा को दुआयें देता. मैं सोचती और हमेशा सोचती जितना बचा वह सब तो मेरा होगा. पर मेरे हिस्से एक और वही एक गुब्बारा. अगर बच भी गये गुब्बारे तो पापा उसे हवा में छोड़ देते. क्यों, मैं आजतक नहीं समझ पाई. गुब्बारा आकाश में दूर कहीं दूर गुम हो लेता, न जाने किस दुनिया में. क्या उस दुनिया में जहां पापा कि जल्दी ही जाना था.. क्या किन्हीं उन बच्चों की खातिर, जो गुब्बारों की चाहना करते-करते कच्ची उम्र में ही कहीं चले गये थे.
वह रात भी आम रातों की तरह ही आई थी. मैं सो चुकी थी आम दिनों की तरह ही, खेल-खेल कर, थक हार कर. शायद भूखी ही. मुझे पता नहीं खाने के लिये जगाया गया था या नहीं. पता नहीं किसी को मेरी याद आई थी या नहीं. देर रात जब भूख से नींद टूटी तो पपा के इर्द-गिर्द भारी भीड़ थी. घर के लोगों की भी, पड़ोसियों की भी. मुझे कुछ समझ नहीं आया था फिर भी, सिवाय अपनी भूख के. मैं ने कहा था भूख लगी है मुझे. किसी ने डांट लगाई थी, पापा की तबीयत इतनी खराब है, तुम्हें दिख नहीं रहा. मैंने पापा के पसीने से तर ब तर चेहरे को देखा था. किसी तरह ताकत बटोरकर कह रहे थे.. मेरा खाना टेबल पर पड़ा है, इसे दे दो, बच्ची है भूख लगी होगी. मैंने वहीं बैठकर पापा के जुठाये हुये पराठे और सब्जी को खाया था. खाना जस का तस था. बस एक पराठे में एक-दो ग्रास तोड़े जाने के चिह्न. तो क्या पापा को तभी दर्द शुरु हो चुका था... तो क्या दर्द के मारे वे पूरा खाना भी नहीं खा चुके थे... रेलवेवाले डाक्टर आते-जाते रहे थे और सुबह के आते-आते घर में कोहराम मच चुका था. पापा अब नहीं रहे थे. पर मुझे इस बात का मतलब समझ में नहीं आ रहा था. हर आने-जाने वाले और रिश्तेदारों के सस्वर रुदन से मेरा दिल बैठने लगता. कितना रोयेंगे सब. पापा को क्या हुआ है.. कहां गये वे...
हर आनेवाला सख्स मुझ पर प्यार की बौछार कर देता, मुझे अच्छा लगता. जीवन में इतना सारा प्यार कभी इक्ट्ठे नहीं पाया था. मुझे अच्छा लगता सबका ध्यान मेरी ही तरफ है. घर में सबलोग उपवास पर हैं. पर मुझे जो-सो पकड़ कर ले जाता. हर घर में मना करने के बावजूद जबरन कुछ खिला दिया जाता. मना करने की समझ, तमीज शायद मुझमें कभी रही ही नहीं. कड़ा प्रतिरोध करना कभी मुझे आया ही नहीं. खाते-खाते मेरा पेट चलना शुरु हो गया था. पुरानी बीमारी पेचिस उभरी तो ऐसी उभरी कि मां को रोना-गाना सब भूलना पड़ा. मैं बेसुध पड़ी रहती, पेट खुद ब खुद चलता रहता और मां साफ सफाई में जुटी रहती. वही मां, जो आम दिनों में मेरी टट्टी हाथ से धोने की बजाये, लकड़ी से, चैले या कि मकई के लेढ़े से साफ करती थी.
मुझे बीमारी का कोई दुख नहीं था. दुख था तो इस बात का कि इस निस्सहाय अवस्था में मेरे हाथों से वह चवन्नी खो गई थी जो पापा ने उस दिन स्कूल जाते वक्त दी थी और संयोगवश जिसे मैं खर्च नहीं कर पाई थी. बहनें मुझसे बार-बार कहती थीं पापा अब नहीं आयेंगे कभी और मैंने सोचा था इस चवन्नी को हमेशा संभाल कर रखूंगी.
मुझे लगता, पापा मुझसे नाराज़ हो कर चले गये हैं कि उनके बीमार होने की वजह मैं ही थी शायद. कि इसी से वह चवन्नी भी खो गई.
... उस दिन मैने घर में सुना था कि वीणा दी ससुराल से आने वाली हैं, उनके साथ उनकी छोटी सी बच्ची भी. मैंने चाहा था मैं स्कूल न जाऊं. कई बहान भी किये पर कुछ कारगर न हो सका था. मुझे स्कूल भेज दिया गया था जबरन. मैं स्कूल पहुंची तो थी पर छोड़ जानेवाले के पीठ फिरते ही गेट से लौट ली थी. मैं स्टेशन की तरफ चल पडी थी. दीदी वहीं तो आयेंगी ट्रेन से. मैं स्टेशन पर खड़ी रही थी सुबह से दोपहर तक. फिर थक कर बैठ गई. कई ट्रेनें आईं, कई गईं, दीदी नहीं आई थीं. दिन ढलने-ढलने को हो आया था. मुझे रोना आ राहा था.. घर में सब खोज रहे होंगे...
कुछ देर बाद मुहल्ले की एक चाची जरूर दिखी थीं. संयोगवश उन्होंने भी देख लिया था मुझे इस भीड़ में और घर लेती आई थीं. मैं पिटी थी, खूब पिटी थी. बहनों से. उन्हीं में से किसी ने कहा था पापा आज तुम्हारे स्कूल जानेवाले थे. मैं घबड़ा उठी थी. पापा स्कूल गये होंगे और मुझे नहीं देखा होगा. खैर पापा के आने तक मैं सो चुकी थी हमेशा की तरह. दीदी दूसरे दिन आई थी और पापा तो खुद चल दिये थे कुछ दिनों बाद. इसीलिये मुझे लगता और हमेशा लगता पापा मुझसे नाराज हो कर चले गये थे चुपचाप.
मैं सोते वक्त पापा को जरूर याद करती. मैं, मा-पापा और छोते भैया सब साथ सोते थे. मुझे खाली बदन सिर्फ धोती पहन कर लेटे पापा याद आते. सांसों की वह खर्र-खर्र आवाज़ जिसकी लय में मैं निश्चिंत सोती थी. पापा के उभरे पेट पर गहरे लाल रंग का वह तिल जो हमेशा मेरा ध्यान अपनी ओर खींचता था. जिसे छू लेने की इच्छा को मैं हमेशा मन में दबा लेती थी, पापा की नींद टूट जाने के भय से.
मैं सोचती हूं अब उम्र के इस पड़ाव पर अचानक वैसा ही तिल उसी ठौर मुझमें क्यूं आ उगा? क्या पापा के हिस्से की अंतिम रोटी खाने के कारण? मैं उसे छूती हूं, छू-छू कर देखती रहती हूं, कभी-कभी बढ़ी उंगलियां ठिठक जाती हैं... पापा जाग जायेंगे सोते से.
मैं घर के दरवाजे की सीढि़यों पर बैठ कर सोचा करती, पापा कहां गये होंगे आखिर.. उन्होंने क्या खाया होगा.. आफिस गये होंगे या नहीं.. सोचते-सूचते सांझ का सूरज डूब चलता.. अंधियारा छाने लगता चारों ओर पर मैं नहीं उठती. मैं सोचती सूरज तो रोज डूबता है, रोज चला आता है... पापा क्यों नहीं आते...
मुझे पता नहीं कब और कहां से सुना था यह गीत पर उस दिन न जाने उस वक्त कैसे वह मुझे खूब-खूब याद आया.. मैं लेटे-लेटे गा रही थी.. सात समंदर पार से, गुड़ियों की बाज़ार से, अच्छी सी गुड़िया लाना.. गुड़िया चाहे ना लाना... पापा जल्दी आ जाना... पापा जल्दी आ जाना... मां ने कहीं से सुन लिया था. दौड़ कर आई थी और सीने से लगा कर फफक-फफक कर रो पड़ी थी.
हालांकि मैं यह बिल्कुल नहीं समझ पा रही थी कि पापा के नहीं होने से क्या हो रहा है या क्या कुछ हुआ. सिवाय एक पापा के नहीं होने से सबकुछ पूर्ववत लगता बल्कि पहले से भी बेहतर. आते जाते लोग हमारे परिवार का हाल चाल पूछते.. सौदा सुलूफ लाने को तत्पर रहते. घर में आने जाने वालों की संख्या पहले से ज्यादा ही होती. फिर भी घर उदास लगता. गरिमाविहीन. घर गली सब सुनसान. आवाज़ें भी जैसे मर गई हों पापा के साथ-साथ. मैं सन्नाटा गिनती रहती अपनी पसंदीदा उन सीढ़ियों पर बैठकर, जहां बैठे ही बैठे मैने सुना था मां को किसी से धीमी आवाज़ में यह कहते हुये कि अब इस सरकारी क्वार्टर को छोड़कर जाना होगा. मैं सोचती चुपचाप क्या अपनी इस पसंदीदा जगह को भी छोड़कर...? आवाज़ोंवाली इस गली को छोड़कर...? आखिर जायेंगे कहां हम...?
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