Kuber - 23 in Hindi Moral Stories by Hansa Deep books and stories PDF | कुबेर - 23

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कुबेर - 23

कुबेर

डॉ. हंसा दीप

23

भारतीयों के इस बाज़ार को देखते भारत की बहुत याद आती। हालांकि इन सब नयी व्यस्तताओं के बीच भी मैरी से बात बराबर हो रही थी। जीवन-ज्योत के बारे में हर छोटी-बड़ी जानकारी उसे मैरी से ही मिल पाती थी। बात तो चाचा से भी बराबर होती थी पर मैरी की बातों के टॉनिक से डीपी का मनोबल बना रहता। वह हर बात को पूरे विस्तार से बताती जैसे भाई सामने ही हों और वह बातें कर रही हो। बात ख़त्म कर फ़ोन रखने के बाद होम सिकनैस परेशान करने लगती।

“क्या बात है डीपी, किन ख़्यालों में खोए हो?”

“वैसे ही भाईजी, भारत की, मैरी की याद आ रही है।”

“मैरी को कुछ दिनों के लिए यहाँ बुला लो, उसे भी अमेरिका की यात्रा करने में आनंद आएगा और तुम भी बहन के साथ समय बिता पाओगे।”

“यह तो बहुत अच्छा विचार है भाईजी, मैंने क्यों नहीं सोचा इस बारे में!”

तुरंत फ़ोन लगाया मैरी को और न्यूयॉर्क आने के लिए पूछा तो वह ख़ुश हो गयी। भाई से मिलने का मौक़ा था और न्यूयॉर्क देखने का भी। उसकी “हाँ” से एक नये उत्साह का संचार हुआ। जोसेफ से बात की लेकिन अपने काम की वजह से वह नहीं आ सकता था। मैरी और बच्चों को भेजने में उसे कोई एतराज़ नहीं था। अब एक नया काम करवाना था भारत में मैरी और बच्चों के पासपोर्ट बनवा कर वीज़ा लेने का। जोसेफ ने तुरंत कार्यवाही शुरू कर दी और न्यूयॉर्क कुछ दिनों के लिए भेजने के प्रबंध करने की प्रक्रिया शुरू की। भारत में मैरी और बच्चों के पासपोर्ट बनने में दो महीने लग गए और फिर वीज़ा के लिए आवेदन किया।

इस दौरान डीपी को अपने घर में उतनी व्यवस्थाएँ भी करनी थीं। बच्चों के सोने की, खेलने की, खाने की। अभी तक तो वह अकेला था, कहीं भी, कुछ भी खा लेता था। अब दो बच्चे, मैरी और डीपी चार लोग दो सप्ताह तक साथ रहेंगे तो कई चीज़ों की ज़रूरत पड़ेगी। मैरी से पूछकर कुछ चीज़ें तो खरीदीं और कुछ उनके आने के बाद ख़रीदने के लिए शेष रहीं।

जब मैरी बच्चों के साथ लैंड हुई तो लगा जैसे पुराने दिन फिर से लौट आए हों। घर, घर लगने लगा था। इतना जीवंत, इतना रौनकमयी घर पहले कभी नहीं लगा था। दोनों बच्चे अयान और देवान मामा-मामा कहते नहीं थकते और मामा को एक नया संबल मिलता रहा।

मैरी से रोज़ देर तक बहुत बातें होती थीं। जोसेफ के साथ उसकी नयी ज़िंदगी के बारे में, एक माँ के रूप में भी और एक पत्नी के रूप में भी। वह ख़ुश थी जोसेफ के साथ। घर में किसी बात की कोई कमी नहीं थी। बच्चों के आने के बाद उसकी व्यस्तताएँ बढ़ी थीं। बाहर काम करना बंद कर दिया था। हाँ, एक नियम उसने बनाया था जिसका पालन अच्छी तरह से हो रहा था, वह था पूरे परिवार के साथ रविवार को जीवन-ज्योत जाना और वहाँ पर जितनी हो सके, मदद करने की कोशिश करना।

मैरी के यहाँ रहते जीवन-ज्योत में सबसे लंबी-लंबी बातें हुईं। सुखमनी ताई से, बुधिया चाची से और प्रबंधक समिति के कई सदस्यों से भी। वे बहुत ख़ुश थे कि कुछ दिनों के लिए मैरी अपने भाई के पास है। दादा के बाद जितना काम हुआ जीवन-ज्योत में उसकी संक्षिप्त जानकारी भी मैरी से मिली। बहुत तसल्ली हुई डीपी को। अपने जीवन-ज्योत से दूर होने का अपराध बोध थोड़ा कम हुआ।

जोसेफ का फ़ोन तो रोज़ ही आता था। अच्छा लगता था डीपी को कि जोसेफ मैरी का बहुत ध्यान रखता है। मैरी भी जोसेफ के फ़ोन का इंतज़ार करती है। यह उन दोनों के सुदृढ़ रिश्ते का संकेत था। मैरी को ख़ुश देखकर, उसे सबसे अच्छे संबंध बनाए रखते देखकर डीपी को एक नयी ऊर्जा मिलती। अपनी बहन मैरी की ख़ुशी, उसके परिवार की ख़ुशी उसके लिए बहुत मायने रखती थी।

एक दिन भाईजी जॉन भी आ गए थे मैरी से मिलने। बच्चों के लिए ख़ूब सारे तोहफ़े लेकर जब वे डीपी के घर आए तो मैरी को बहुत अच्छा लगा। इतने अच्छे भाईजी के रहते अब भाई डीपी की तो उसे चिन्ता करने की कोई ज़रूरत ही नहीं थी। रिश्ते की डोर से और रिश्ते जुड़े।

यहाँ रहते हुए मैरी और बच्चों के साथ रोज़ तीन बजे के बाद घूमने का समय तय होता। शहर में ही इतने सारे आकर्षण थे कि शहर के बाहर जाने के बारे में सोचने का तो सवाल ही नहीं उठा। उनके साथ स्टेच्यू ऑफ लिबर्टी देखने गया तो एक और रोमांचक अनुभव हुआ। जैसे हाथों में मशाल लिए स्वतंत्र विचारों के स्वतंत्र देश की देवी दुनिया का प्रतिनिधित्व करने के लिए तत्पर खड़ी हों। ऐसे बेमिसाल स्मारकों को देखते हुए आँखों की भूख कभी हल्की नहीं होती और अधिक, और अधिक देखने की लालसा बढ़ती जाती। वही हुआ, शहर में और भी बहुत कुछ देखने और समझने की लालसा बढ़ती रही। मैरी के साथ घूमने का यह एक बेहद यादगार समय रहा।

इस तरह शहर के साथ समय बिताते अब यह शहर उसे अपना-सा लगने लगा था। उसके दिमाग़ की तेज़ दौड़ से मेल खाता यह शहर उसे अब सपनों की दुनिया में ले जाने लगा था। उसके सपनों में वह स्वयं कहीं नहीं होता। दादा होते और जीवन-ज्योत होता। ऐसे सपने जिनमें जीवन-ज्योत दुनिया की सबसे अच्छी संस्था के रूप में स्थापित होता। उन हज़ारों बच्चों के पेट की भूख को शांत करने, उन्हें अच्छे जीवन की बुनियाद देने के सपने जो धन्नू की अपनी दुनिया के उसके साथी थे।

एक अपना आधारभूत विचार गहरे तक था, वह यह कि – “जो भी हो पेट की भूख के सामने हर भूख छोटी ही लगती है।”

यह पेट की भूख ही थी जो उसके जैसे गुस्सैल बच्चे को इतना कामकाजी और विनम्र बना गयी। आज के डीपी को देखकर कोई नहीं कह सकता कि यह वही धन्नू है जो हाथों में बेंत की मार खाकर घर छोड़ कर भाग गया था। उस गुस्से ने सिर्फ़ उसे आत्मनिर्भर ही नहीं बनाया बल्कि एक ऐसा महत्वाकांक्षी व्यक्ति बनाया जो जीवन के हर नये मोड़ को पूरी कर्मठता से स्वीकार कर आगे बढ़ रहा है। आज सिर्फ़ अपना ही नहीं, कई पेट को भरने का दायित्व है उस पर। उसका अपना जीवन-ज्योत का बड़ा परिवार है। उसे लगता था कि दादा और नैन ने उसको जीने की सार्थक वजह दी है।

मैरी से भी यहाँ रहने के बारे में पूछ चुका था वह – “भारत से बाहर जाने का कोई इरादा हो तो मैं हूँ यहाँ, मैरी। यदि तुम्हें यहाँ रहना अच्छा लगे तो तुम विचार कर सकती हो।”

“नहीं भाई, मैंने और जोसेफ ने विदेश में रहने के बारे में नहीं सोचा। वैसे भी वहाँ जोसेफ का काम काफी फैला हुआ है इसलिए कोई बदलाव की ज़रूरत नहीं लगती।”

“काम तो यहाँ भी फैल जाएगा।”

“भाई, मैं जानती हूँ कि नैन नहीं है अब आपके साथ, मुझे आपके साथ रहना चाहिए। मैं भी आपके पास रहना चाहती हूँ मगर मैं यह भी नहीं चाहती कि जोसेफ को फिर से संघर्ष करना पड़े अपना काम जमाने के लिए।”

“बिल्कुल ठीक कहा तुमने मैरी।”

मैरी के लिए ऐसा कोई निर्णय लेना और अधिक कठिनाइयाँ पैदा करता इसीलिए वह यहाँ रहने के बारे में सोचना भी नहीं चाहती थी। जोसेफ का काम अच्छा चल रहा था इसलिए मैरी का वहीं भारत में रहना ही ठीक था। कुछ दिन रहकर बच्चे जब गए तो कई तोहफ़ों और वादों की टोकरी साथ में थी। बच्चों ने भी मामा से कई वादे लिए - मामा से हर छ: महीने भारत आने का वादा, हर सप्ताह फ़ोन करने का वादा, अपनी सेहत का ध्यान रखने का वादा औऱ ज़्यादा काम न करने का वादा।

मैरी के न्यूयॉर्क में रहते दोनों ने नैन को बहुत याद किया। आज वह साथ होती तो दादा की अनुपस्थिति में भी भाई-बहन दोनों का परिवार तो होता। नैन के नाम से ही मैरी भी उदास हो जाती थी – “भाई, काश आज नैन भी हमारे साथ होती!”

“वह साथ ही है मैरी, कहीं नहीं गयी वह।”

भाई का यह कथन उसे और उदास कर देता। वह अच्छी तरह जानती थी कि नैन की अनुपस्थिति के उस रीतेपन को भाई हर क्षण महसूस करते होंगे और सोच कर गर्व भी होता कि उस रीतेपन से जूझते भाई ने आगे बढ़ने का एक नया मार्ग चुना है। जानती थी वह कि भाई को जितनी प्यारी थी वह, उतनी ही प्यारी थी नैन को भी। उसके जाने से सिर्फ़ भाई के जीवन में ही रीतापन नहीं आया था बल्कि मैरी ने भी उसकी अनुपस्थिति को हर क़दम पर महसूस किया था।

कुछ रिश्ते ऐसे होते हैं जिन्हें बनाना नहीं पड़ता स्वत: बन जाते हैं। कुछ यादें भी ऐसी होती हैं जिन्हें याद करना नहीं पड़ता वे सदा ज़ेहन में बनी रहती हैं।

भाई डीपी को छोड़कर जाते हुए मैरी सिसक-सिसक कर रोई थी। भाई का अकेलापन मैरी को बहुत कचोटता था। यह भी जानती थी वह कि काम के लिए उसका ज़ुनून इस दर्द से लड़ने में उसकी सहायता करेगा। डीपी ने नैन के प्रति अपने असीम प्यार को सारी दुनिया में बाँटने के लिए ख़ुद को तैयार कर लिया। प्यार का ऐसा रचनात्मक हो जाना ही प्यार की सार्थकता है। डीपी ने यही सांत्वना दी थी मैरी को कि – “तुम्हारा भाई कमज़ोर कभी नहीं पड़ेगा” तब मैरी मुस्कुरा दी थी गर्व से और उसी मुस्कान के साथ चली गयी थी।

मैरी और बच्चों के आने से घर भर गया था। चहल-पहल हो गयी थी घर में भी और घर के बाहर भी। उनके भारत लौट जाने के बाद बहुत खाली लगा लेकिन बच्चे और मैरी घर के कोने-कोने में जो ख़ुशबू भर गए थे वह उसे हमेशा तरोताज़ा रखती थी। साथ ही उसे ख़ुशी भी थी इस बात की कि मैरी अपने परिवार के साथ बहुत ख़ुश है।

अपने-अपने रिश्तों की नजदीकियाँ इंसान को एक अनजानी सी तृप्ति दे देती हैं। जिनके कोई ‘अपने’ नहीं होते, वे ‘अपने’ बनाने की कला में निपुण हो जाते हैं। डीपी को इस बात का संतोष था कि वह सबके बहुत क़रीब था, जॉन के परिवार के, मैरी के परिवार के। जीवन-ज्योत में उसके साथ जो भी काम करते थे उनके परिवार के भी। अपने घर से दूर तो बहुत पहले हो चुका था, अब घर से दूर उसके कई घर बनते जा रहे थे। उसके अपने माँ-बाबू, उसका गाँव, अपने लोग, अपने पास न होने का अहसास दिलाते तो इन रिश्तों की मिठास उसकी पूर्ति कर देती।

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