Bahikhata - 38 in Hindi Biography by Subhash Neerav books and stories PDF | बहीखाता - 38

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बहीखाता - 38

बहीखाता

आत्मकथा : देविन्दर कौर

अनुवाद : सुभाष नीरव

38

रजनी

लंदन में एक कवि रहता था - गुरनाम गिल। उसका मुम्बई में आना-जाना था। यह सोचते थे कि शायद वह इनकी स्क्रिप्ट पर फिल्म बनाने में कोई मदद कर देगा। इन्होंने उसके संग दोस्ती गांठ ली। दोस्ती तो खै़र पहले भी होगी, दोनों ही पुराने व्यक्ति थे। उसके साथ यह मुम्बई जाने का प्रोग्राम बनाने लगे। प्रोग्राम बनाने क्या लगे, ये चले ही गए। मैं घर में अकेली रह गई। अकेली तो मैं पहले भी कई बार रही थी। जब कभी भी दिन-त्योहार होता तो यह अकेले ही कहीं खिसक जाया करते थे। क्रिसमस पर यह अलका के पास चले जाते तो मैं घर की दीवारों के साथ बातें करने लायक ही रह जाती। एकबार क्रिसमस पर यह मुझे अलका के घर लेकर जाने लगे। अभी राह में ही थे कि गाड़ी साउथाल की ओर मोड़ ली। पता नहीं दिल में क्या आया कि मुझे कुलवंत ढिल्लों के घर छोड़कर स्वयं अलका के पास चले गए। अब मैं यह सब सहन करती जा रही थी क्योंकि इस मुसीबत को मैंने खुद खरीदा था। एड़ियाँ उठाकर फांसी लगाने की तरह। मेरी एक सहेली थी - जसबीर। वह अमेरिका में रहती थी। जसबीर इंग्लैंड में दो बार मेरे पास भी आ चुकी थी। एकबार जब मेरे फ्लैट में जब मैं अकेली रहती थी और एकबार तब जब चंदन साहब के साथ रहती थी। उसके साथ मेरी मित्रता अमृता प्रीतम के माध्यम से हुई थी। अब वह मेरे साथ अधिक ही जुड़ गई थी। वह मुझे अमेरिका आने का निमंत्रण देती रहती थी। वह आमतौर पर कहानी और कभी कभी कविता लिखती थी, परंतु उसको साहित्य की खूब समझ थी। जब हम आपस में बातें शुरू करतीं तो खत्म होने में ही न आतीं। मैंने उसे फोन करके बताया कि चंदन साहब मुम्बई फिल्म नगरी में बैठे हैं और मैं अकेली दीवारें ताक रही हूँ। वह मजाक में कहने लगी कि अपने आप मुसीबत सहेजने वाले को भला कौन बचा सकता है। हालांकि चंदन साहब के उपन्यास ‘कंजकां’ की वह इतनी प्रशंसक हुई कि उसने अपनी एक अन्य सहेली को वह उपन्यास पढ़वाया था। दोनों को यह उपन्यास इतना पसंद आया कि उसकी सहेली ने कहा कि जब भी चंदन साहब कभी अमेरिका आएँ तो वह उन्हें अपने घर में बुलाना चाहेगी। इस प्रकार कुलवंत ढिल्लों भी हर कान्फ्रेंस के समय हमारे घर में पहले ही आ जाती और बाद में जाती। यह चंदन साहब को बाई कहकर बुलाती और चंदन साहब भी मुँह पर उसके साथ प्रेमपूर्वक पेश आते, लेकिन उसके चले जाने पर उसको कई गालियाँ बकते। ऐसा ही व्यवहार वह मेरी कई अन्य सहेलियों के संग भी करते। इसी प्रकार पोलैंड से जब कभी भी अन्ना हमारे पास आती, खाने की मेज़ पर साहित्य की बातें बहस में बदल जातीं और अन्ना की मज़बूत शख़्सियत उन्हें कभी अच्छी न लगती। जब कभी किसी साहित्यिक महफिल में कोई मुझे अध्यक्ष बनाकर बिठा देता तो घर आकर अवश्य झगड़ा होता। एकबार मैंने बरमिंघम में किसी हिंदी सभा में ‘पिंजरे’ नज़्म पढ़ी जिसकी कुछ पंक्तियाँ इस प्रकार हैं -

हर बार वह करती रही

सफ़र पिंजरे से पिंजरे तक

कभी कभी चाहती

सब पिंजरे तोड़ दे

लगाये आकाश में ऊँची उड़ान

भर ले ताज़ी हवा की खुशबू

पर पता नहीं क्यों

पिंजरों का झुंड

उसका मुँह चिढ़ाने लगता

और वह...

बस, फिर क्या था, घर आते ही वह घमासान मचा कि ईश्वर का नाम लो। कहने लगे, “तुझे कौन पिंजरों में कैद करता है, तोड़ के पिंजरा उड़ क्यों नहीं जाती।” दरअसल, यह तो एक बहाना था, वह चाहते तो यही थे कि मैं खुद ही इन्हें छोड़ जाऊँ।

मुम्बई जाकर इन्होंने पहले तो एक-दो फोन किए, पर फिर फोन करना बंद कर दिया। मुझे पता था कि यह इनकी आदत थी। महीने भर बाद यह वापस आ गए। मैं इन्हें लेने गई। इन्हें देखकर तो मेरी आँखें फटी रह गईं। पहले वाले चंदन तो यह रहे ही नहीं थे। यह तो कोई नौजवान स्वर्ण चंदन था। काफ़ी अरसे से इन्होंने बाल रंगने छोड़ रखे थे। अब इन्होंने बाल रंग रखे थे। दाढ़ी भी फ्रैंच कट बना ली थी। मैंने पूछा -

“आपको किसी फिल्म में रोल तो नहीं मिल गया ?”

मैं हँस रही थी, पर यह गंभीर थे। बोले -

“बात ज़रा बैठकर करने वाली है, पर है बहुत ज़रूरी।”

मैंने गाड़ी चलाते हुए इनकी तरफ ध्यान से देखा और कहा -

“आप अभी कर लो, जो भी करनी है।”

“इन फैक्ट, आय एम इन लव। मुझे प्रेम हो गया है।”

मेरी ज़ोर से हँसी निकल गई, पर यह अभी भी उसी तरह गंभीर थे। इनकी तरफ देखकर मैं भी चुप हो गई। घर पहुँचे तो यह बोले -

“देख, तू समझदार औरत है। सारी बात समझती है। अपना तो पति-पत्नी वाला कोई रिश्ता है ही नहीं। अब यदि मैं कहीं और संबंध बना लूँ तो तुझे कोई एतराज़ नहीं होना चाहिए। मेरे संबंध रीमा नाम की एक लड़की के साथ बन गए हैं।”

मैं शांत रही। यह ऐसे नाटक पहले भी करते रहे थे। दिल्ली में तो इन्होंने कोई वेश्या नहीं छोड़ी थी। पता नहीं बाहर क्या करके आते थे, पर घर आकर मसाला लगा लगाकर यूँ बातें सुनाते थे ताकि मैं अंदर ही अंदर मर जाऊँ। मैं तब भी साबुत रही थी। प्रेम करना चंदन साहब के लिए मजाक-सा था। इनके लिए प्यार की एक ही परिभाषा थी - शारीरिक संबंध। अब वही पुराने चंदन साहब जाग उठे थे। मैं जानती थी कि यह मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकेंगे। बल्कि इनकी ये बात सुनकर मेरा इनके संग न सोने का फैसला मुझे बहुत ही सही लगा। पति के साथ सोने को किसका दिल नहीं करता, पर कोई पति हो भी जो प्रेम से तुम्हें अंग लगाये। मुझे भी कोई ऐसा चाहिए था जो मेरी भावनाओं, मेरे अहसास की कद्र करने वाला हो, वहिशी नहीं बल्कि कोई प्रेमपूर्वक पेश आने वाला हो, औरत को महज जिस्म नहीं इन्सान समझने वाला हो, दुख-सुख में आपकी बांह पकड़ने वाला हो, पति-पत्नी के संबंधों का आदर करने वाला हो। फिर चंदन साहब को तो किसी भी संबंध को पब्लिक में नस्र करने के सिवा और कुछ आता ही नहीं था। पति-पत्नी के बीच के सभी भेद वह अपने मित्रों में बयान कर देते। ये बातें धीरे धीरे मुझे तकलीफ़ देने लगीं और मैं चंदन साहब से अहसास के स्तर पर दूर होती चली गई। खै़र, इन्होंने बैग में से कुछ वस्तुएँ निकालीं। कुछ पाउडर-से और कुछ और छोटा-मोटा सामान जो उस औरत ने मेरे लिए भेजा था। चंदन साहब के लिए राधा-कृष्ण की एक मूर्ति थी। मैंने देखा कि इन्होंने वह मूर्ति बड़े प्यार से अपनी कपड़ों वाली अल्मारी में सजा ली थी। मैं विस्मित थी कि एक नास्तिक व्यक्ति यह क्या कर रहा था। फिर सोचती कि शायद सच ही किसी को प्रेम करने लग पड़े हों। शायद इंग्लैंड देखकर कोई पीछे लग गई हो। मैंने उस औरत द्वारा दी हुई वस्तुएँ एक तरफ रख दीं। मैं गुस्से में थी कि उसने क्या समझ कर मुझे ये वस्तुएँ भेजी हैं, इन्हें लेकर उसे अपनी सौतन मंजूर कर लूँ ? मुझे क्रोध भी आ रहा था और चंदन साहब की नादानी पर हँसी भी। साथ ही दुख भी हो रहा था।

यह हर शाम ही रीमा की बातें करने बैठ जाते। नशे में रीमा को फोन करते। बहुत ही चबा चबाकर हिंदी बोलते। अपने प्रेम का इज़हार भी करते। उसे यह भी कह देते कि शीघ्र ही वह मुझे तलाक देकर उसको बुला लेंगे। मुझे तलाक देने की बातें मेरे सामने ही करते। मुझे पता भी होता कि यह जानबूझ कर मेरे अस्तित्व को ज़ख़्मी कर रहे हैं, पर मैं खामोश रहती। कोई विरोध, कोई प्रतिक्रिया प्रकट न करती। मैं हँस भर देती। मुझे समझ में आने लग पड़ा था कि शायद अब यह मुझे घर में से निकालने की योजना बना रहे हैं। कभी मुझ पर यह दबाव भी डालने लगते थे कि अलका अब स्थायी तौर पर वुल्वरहैंप्टन रहने के लिए आ रही है। यह जानते थे कि अलका की लड़ाई से मैं डरती थी, पर मुझे यह भी पता था कि यह केवल मुझे भयभीत करने या घर से भगाने के लिए कहानी घड़ रहे हैं। मैं एक कान से सुनकर दूसरे कान से निकाल देती। यदि मैंने वापस आने की बड़ी गलती की थी तो अब अंत तक भी रहना चाहती थी। बार बार मैं जग हँसाई नहीं करवाना चाहती थी। यूँ भी मुझे अपने साहित्यिक भाईचारे का लिहाज मारता था। हमारे सभी मित्र साझे थे। इस साहित्यिक दायरे ने ही मुझे चंदन साहब के साथ रहने के लिए विवश किया हुआ था। मैं अपने साहित्यिक मित्रों के सामने शर्मिन्दा नहीं होना चाहती थी। साहित्यिक मित्रों द्वारा मिल रहे प्यार-आदर को मैं कायम रखना चाहती थी। मैं अपनी ओर से ऐसा कोई कदम नहीं उठाना चाहती थी। लेकिन चंदन साहब एक दिन मुझे कहने लगे -

“अब रीमा आ जाएगी, तुझे दूसरी किसी जगह रहने का इंतज़ाम करना ही पड़ेगा। अगर कहे तो मैं तेरे लिए कहीं दूसरा इंतज़ाम कर देता हूँ।”

मैंने अपने आप से कहा, ‘हियर वी गो अगेन देविंदर कौर ! फिर से उन्हीं राहों पर चलना पड़ेगा। अब सच में तुझे बचाने वाला कोई नहीं !’

इन्हीं दिनों इनका सुक्खा नाम का कोई रिश्तेदार कुछ दिन हमारे यहाँ रहकर गया। पता नहीं इन्हें उससे कोई काम था या उसको इनसे था, पर इनमें कुछ चक्कर-सा अवश्य था। वह चला गया। यह उसके बारे में फोन पर किसी अन्य से बात करते हुए बोले -

“देख भाऊ, हमने उसको जितना इस्तेमाल करना था, कर लिया, अब उसकी कोई ज़रूरत नहीं थी, सो मक्खन में आए बाल की तरह निकाल कर बाहर फेंक मारा।”

मैं हैरान सी इनकी बात सुन रही थी। इसका अर्थ कि मैं भी इस्तेमाल होने वाली ही वस्तु हूँ। मुझे इस्तेमाल कर लिया, मेरा फ्लैट बिकवा दिया, दिल्ली वाला प्लाट बेच लिया, पैसे जेब में डाल लिए और अब मक्खन के बाल की तरह बाहर निकालने के लिए तैयार थे। जब एक्सीडेंट ने इन्हें लाचार बना दिया था और मैं इनकी देखभाल कर रही थी, इनके ज़ख़्मों पर पट्टियाँ कर रही थी तो यह मेरी सारी बातें मानने को तैयार थे। मुझे बार बार कहते कि तू मेरी रजनी है। इन्हें पत्नी की नहीं अपितु एक केयरर की ज़रूरत थी। सेहत ठीक हो गई तो अब केयरर से क्या करवाना था।

(जारी…)