Lavanya ek Vijeta in Hindi Moral Stories by Nirdesh Nidhi books and stories PDF | लावण्या एक विजेता

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लावण्या एक विजेता

लावण्या एक विजेता

उस दिन लावण्या मैडम जी ने अपने अंगरक्षक बलदेव को अपने घर उसका हिसाब चुकता करने के लिए बुलाया था । उसके अंदर आने पर मैडम जी ने दरवाजा बंद करने के लिए कह कर उसे अपने सामने वाली कुर्सी पर बैठने का इशारा किया और अपनी जिज्ञासा शांत करने के प्रयोजन से पूछा था, “परंतु बलदेव ये सब हुआ कैसे था अब बताओ।“

बलदेव ने धीमी आवाज़ में बताना शुरू किया,

“कुछ भी नहीं मैडम जी हम तो आधी रात को चुपचाप बड़े जतन से उनका मुंह बंद करके बिना किसी रौल - रुक्का के उन्हें उठाए, प्यार से गाड़ी में बैठाए और ले गए जंगल की ओर वहाँ जहां सबसे घुप्प, डरावना, भयंकर, जानलेवा जैसा अँधेरा रहा, छोड़ दिये वहाँ ले जाकर बिना चस्मा। ऊपर से मोबाइल की रोसनी दिखाए जिसमें थोड़ा - थोड़ा दिखाई भी देता रहा। हमारा एक पुराना जानकार रहा बलिया ओ अपने दो चार मुश्टंडे साथी ले आया था । ओ सब के सब चारों ओर से घेर कर खड़े हो गए उन्हें। किसी के हाथ में तलवार रही, किसी के हाथ में गंडासा, किसी के राइफल, एक तो ससुर का नाती ताजी कबर खोद कर नरमुंड ही ले आया रहा और उसके बाल पकड़ कर मोबाइल की उस मद्धम रोसनी में लगा नचाने उनके आगे । अब आप समझ ही सकती हैं कि का हाल हुआ होगा उनका तो । घिघिया - घिघिया कर यही बोल पा रहे थे बस, “ कौन हो तुम लोग, हमें मत मारो , हमें मत मारो, जो चाहोगे बही देंगे तुम्हें, हमे मत मारो ।“

“तुम्हें नहीं पहचाने वो?” लावण्या ने बलदेव को बीच में रोक, टेबल पर थोड़ा आगे झुककर, धीमी आवाज़ में पर तीव्र उत्सुकता से पूछा । “नहीं मैडम जी, हम कहाँ पड़े उनके सामने । किसी को ना पहचाने वो तो, उनकी तो यहीं अटक गई थी सुई, कौन हो तुम ? हमें मत मारो, कौन हो तुम, हमें मत मारो । डर और घबराहट के मारे वहीं ढेर हो गए बेचारे । आप बताए कि दिल का गंभीर दौरा पड़ा रहा उनको।“

“हाँ बलदेव उनकी मौत दिल का दौरा पड़ने से ही हुई थी, डॉ साहब ने यही डायग्नोस किया।“ लावण्या ने पुष्टि की।

“बुरा मत मानना मैडम जी सुरक्सा घेरों में रह-रह कर दिल गीदड़ का हो जात है नेता लोगन का, काम हो जाने के बाद हम तो लाए और उनको झाड़ पोंछ कर रख दिये उनके बिस्तर पर बस बाकी हँगामा तो आपका ही था, डॉक्टर- बैद बुलाना, रोना - धोना, उनकी माता जी को बुलाना, नेताओं को इकट्ठा करना बगैहरा – बगैहरा।“ बलदेव थोड़ा संकोच करते हुए बोला ।

“ठीक से कहाँ झाड़ा था तुमने, बालों में,कान में, कुर्ते पर घास के तमाम छोटे - छोटे तिनके लगे थे वो सब हमें ही करना पड़ा।“ लावण्या मैडम बुदबुदाईं । विजयी हो जाने के बाद भी भेद खुल जाने की आशंका उसे निरंतर तनाव में बनाए हुए थी, इससे बचने का तरीका भी खोजना लिया था उसने।

ये राजनीति भी एक जंगल राज ही है यहाँ या तो हिम्मत कर शिकारी से बड़ा शिकारी बन उसे मार डालो या फिर शिकार बन जाना पड़ता है उसी शिकारी का । वह किसी से छोटा शिकारी नहीं हो सकती थी । लावण्या ने मन ही मन सोचा और बोली,

“ठीक है, चलो फिर तुम जाओ बलदेव, कल टाइम पर आ जाना और अपना हिसाब भी कर लेना आज तो व्यवस्था हो नहीं सकी इतनी बड़ी रकम की । और हाँ राजू की अमरीका की टिकट भी मंगवा लेना भैरों से और हाँ वो बेंकेट हाल का क्या रहा ? जल्दी तय कर दो भई, कुछ बयाना-वयाना भी दे आओ कल ही । बाईस फरवरी का मुहूर्त निकला है बड़ी दीदी और चार मार्च छोटी दी की शादी का।“

कल माला-माल हो जाने का सुखद स्वप्न आँखों में लेकर बलदेव चला गया। पर लावण्या मैडम वहीं अपने स्टडी रूम में अपने अतीत के उतार - चढ़ाव सोचती रही ।

वो निम्न माध्यम वर्गीय परिवार में जन्मी अपने माता - पिता की तीसरी संतान थी । दो बड़ी बहनें, इकलौता छोटा भाई, माता - पिता की अंतिम और “अनमोल” संतान, के होते उसके हिस्से में खाना-पीना ओढ़ना - पहनना या माता पिता का लाड़ - प्यार कितना ही आ पाता होगा अनुमान लगाना मुश्किल तो नहीं । परंतु कोई कुंठा नहीं थी अदम्य साहसी कहें या दुस्साहस की सीमा में प्रवेश करता सा साहस रखने वाली उस लड़की में । विचित्र खुला पन था उसके व्यवहार में हंसी - हंसी में सहपाठी लड़कों की चुनौतियाँ स्वीकार लेने में वो कई बार ऐसे खतरों से खेल जाती, जिन्हें दूसरी लड़कियां सोचने का भी साहस ना जुटा पाती हों । स्कूल से लेकर मैकैनिकल इंजीनीयरिंग के फ़ाइनल ईयर तक जैबलिन थ्रो की महारथी लावण्या अनिंद्य सुंदरी भी तो थी । जब अपने चमचमाते रूप के साथ आत्म विश्वास से भरी वो लड़की स्टेडियम में प्रवेश करती तो स्टेडियम उसके गुलाबी रूप की परछाईं ले स्वयं गुलाब हो उठता, जब वो अपनी कोहनी और कंधे को जैबलिन थ्रो की आशंकित चोट से बचाती हुई अपनी तेज़ रफ्तार और लंबी - लंबी टांगों से लंबी छलांग भरकर अपनी गजब की ताकत और लचीलेपन के साथ लगभग आठ फीट के जैबलिन को फेंकती तो वह अन्य सभी प्रतियोगियों के जैबलिनों को पीछे छोड़ता हुआ अर्जुन के तीर की तरह, उसका प्रथम आने का लक्ष्य सहज ही भेद देता । प्रतियोगिता होती हमेशा दूसरे स्थान के लिए । ऐसा होता भी क्यों ना, अपने अनथक अभ्यास के दौरान वह जैबलिन की जगह हमेशा लोहे की भारी रॉड का इस्तेमाल करती । जैबलिन थ्रो के लिए आदर्श उसकी अपर बॉडी स्ट्रेन्थ उसके जैबलिन थ्रो विजेता होने का द्वार हर बार ही खोल देती । कब और कैसे फ़िनलैंड और स्वीडन के लोगों की तरह जैबलिन उस निम्न मध्यम वर्गीय परिवार की लड़की का पसंदीदा गेम बन गया, कोई नहीं जानता।

उस बार राष्ट्रीय स्तर की प्रतियोगिता थी , खेल मंत्री जी पूरी प्रतियोगिता के दौरान स्टेडियम में उपस्थित रहे थे । लावण्या का लक्ष्य था स्वर्ण पदक जिसे पाने में किसी भी राउंड में उसे कोई दिक्कत नहीं आई थी । उसका रूप तो सबसे अलग था ही, उसकी बेबाकी, उसकी निडरता, और उसका आत्म विश्वास, उसे दूसरी सभी प्रतियोगियों से अलग दिखाता । खेल मंत्री जी क्या उस विजयी लावण्या के सामने कामदेव होते तो वो भी स्वयं को कमतर ही आंक पाते । सौन्दर्य का बेशकीमती हीरा, अनिंद्य सुन्दरी भाला फेंकती फिर रही है धूप के जलते समंदर में, उस पर धूप का ये अत्याचार भाया नहीं था मंत्री जी को । उनके विचार में स्त्री सौन्दर्य तो पुरुष के भोग की वस्तु है इस तरह धूप में जाया कर देने का सस्ता सामान नहीं । मंत्री जी उसके सौन्दर्य को उसका सही स्थान दिलाने के लिए व्याकुल हो उठे थे । पुरस्कार वितरण के समय झक सफेद पाजामे कुर्ते में लिपटे,अट्ठावन वर्षीय तोंदुल मन्त्री जी के काले स्याह चेहरे पर चेचक के गहरे गड्ढे ऐसे दिखाई दे रहे थे जैसे चाँद के अंधेरे हिस्से पर उसके गहरे घाव,बटन सी आँखों के ऊपर मोटी - मोटी रावण कट भंवें सवार थी, नाक कुछ ऐसी जैसे डंडा खाकर सूज गई हो, बाल कुछ इस तरह छितरे हुए थे जैसे गेहूं के पके खेत से होकर अभी-अभी तेज़ आंधी गुजरी हो, उनके आड़े तिरछे दांतों पर गुटके की न जाने कितनी रंगीन परतें चढ़ीं हुई थीं । लावण्या को पुरस्कार देते समय उनके हाथ का उसके हाथ से कई बार टकरा जाना,उनकी दृष्टि का हठी हो उसकी बिल्लौरी आँखों में धंस जाना, नीचे उतर उसके मेहनत से धधकते लाल कपोलों से फिसल कर उसके पुष्ट व सुडौल शरीर के सभी उतार चढ़ावों पर बेखटक टहलना और अंत में बेसब्र हो बदहवासी में कह जाना,

“लावण्या तुम बहुत सुंदर हो।“ अपनी भूल का एहसास होने पर खिसियाहट का उनके चेहरे पर दौड़ जाना और उनका अपने वाक्य को सुधारना,

“मेरा मतलब था कि तुम बहुत ही अच्छी खिलाड़ी हो, तुमने कहीं नौकरी के लिए अर्जी नहीं दी अभी तक ?“ यह सब उसके सौन्दर्य को वाजिब स्थान दिलाने के प्रयास की पहली सीढ़ी थी। लावण्या ने तुरंत उत्तर दिया था,

“किया तो था सर पर इस मंदी के दौर में नौकरियाँ हैं ही कहाँ?“ लावण्या का दिमाग कुछ चौकन्ना हुआ था, उसने मंत्री जी की खुद पर टपकती अदृश्य लार को साफ - साफ देख लिया था। उसी के सहारे, उनके व्यक्तिगत मोबाइल नंबर के साथ उनसे अपनी मदद का वादा भी ले लिया था उसने । मंत्री जी जैसों से डरना नहीं व्यापार करना था लावण्या को। बाजारवाद का समय है, समय से अगर मैं नहीं सीखूंगी तो और कौन सीखेगा ? मन ही मन यह सोचते हुए उसने मंत्री जी से सौदा करने का निश्चय कर लिया था । ये जानते हुए भी कि ऐसे नेता भेड़िये होते हैं। लड़कियों को ज़रूरत का सामान समझते हैं, वो भी यूज़ करके सचमुच के भेड़ियों के सामने थ्रो कर देने वाला, उनका भोजन बनाकर । सब ने भी तो यही समझाया था उसे। गंभीरता और शालीनता की प्रतिमूर्ति बड़ी बहन ने उसे समझाने की बहुत कोशिश की थी,

“क्या कर रही है लाया ? वो कितनी पहुँच वाला आदमी है, नौकरी दिलाने के बहाने वो तुझे यूज़ करेगा बस, मन भर जाने पर फेंक देगा और जिस दिन तू अपनी आवाज़ में बोलने की कोशिश करेगी वो तुझे मार डालेगा लाया, रोज़ अखवारों में कितने किस्से पढ़ते रहते हैं हम , तू नहीं पढ़ती क्या ?“

लावण्या ने पल गँवाए बगैर लापरवाही से उत्तर दिया था बहन को,

“अरे हाँ - हाँ, किस्से - विस्से सब पढ़ती हूँ । उसके बदले मैं भी तो यूज़ ही करूंगी उसे, मैं कौन सा मीरा सा निःस्वार्थ प्रेम लेकर खड़ी रहूँगी उस मनोहर के लिए। फिर मुझे तो कोई गुरेज नहीं यूज़ किए जाने से, गुरेज अगर है तो थ्रो होने से है,कितना ही पहुँच वाला सही, थ्रो तो मुझे कर नहीं पाएगा वो, और हाँ सिर्फ नौकरी नहीं चाहिए मुझे उससे, बहुत कुछ चाहिए होगा । फिर बहन के कान के एकदम पास आकर, धीरे से बोली अभी तो तूने मेरे हाथ के भाले का निशाना देखा है, जब दिमाग के भाले का अचूक वार देखेगी न, तो दांतों तले उँगलियाँ न दबा ले तो कहना । फिर थोड़ी तेज़ आवाज़ में बोली और तू इकत्तीस साल की हो गईं, पापा आज तक तेरी शादी नहीं करा सके हैं........।“

“शादी नहीं हुई तो बिकने के लिए बाज़ार में जाकर बैठ जाना चाहिए तेरे हिसाब से ?” बड़ी बहन उसकी बात बीच में ही काटते हुए गुस्से में भरकर बोली थी ।

लावण्या ने शांति से उत्तर दिया,

“अरे नहीं-नहीं, तू तो राम जी की माला जप, शिवजी के व्रत रख, बुढ़ापे तक अच्छा वर मिल ही जाएगा तेरे लिए । मैं तो अपना जानती हूँ । मैंने दसवीं क्लास से ट्यूशन किए हैं तब कहीं जाकर अपनी फीस दे पाई हूँ । तेरी तरह सोचती तो प्राइवेट बी॰ ए॰ करके घर का झाड़ू पोंछा ही कर रही होती,राष्ट्रीय स्तर पर ये पहचान न बनी होती मेरी । तू मेरी चिंता मत कर दीदी, मुझे कुछ नहीं होगा उस मंत्री का तो बाप भी मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकेगा।“

“तू बदनाम हो जाएगी तो हम समाज में क्या मुंह दिखाएंगे फिर तो इन दोनों लड़कियों के ब्याह कभी हो ही नहीं पाएंगे।” माँ गुस्से से चिल्लाई थी ।

“वो तो मेरे बदनाम हुए बिना भी नहीं हो रहे माँ । शायद तब मैं कुछ मदद कर भी पाऊँ।“ प्रत्युत्तर में उसने सिर झटक कर कहा । उसके इस उत्तर से मझली हल्की सी मुस्कुराई, कदाचित उसकी मूक सहमति तो लावण्या को मिल गई थी । पिता तो बेचारा परिवार के लिए कुछ विशेष कर नहीं पाया था सो उसके अपने ही अवसाद उसे इस कदर घेरे हुए थे कि वो कोई विशेष विरोध कर ही नहीं सका। छोटा सा भाई राजू अभी कुछ बोलने योग्य था ही नहीं, वो तो घर के इस द्वंद में डरा-सहमा सा रह गया था बस ।

लावण्या का आत्मविश्वास, उसका अदम्य साहस उसे हर डरावनी राह, हर भयावह रात से अकेले गुज़र जाने को उकसाता रहता । मन्त्री जी वह भयावह रात ही तो थे, जिससे डरने की बजाय उसके अंधेरे और भयावहता से लाभ उठाने की जुगत सोचनी थी लावण्या को। उसने मन्त्री जी की आंखों की व्यवसायी भाषा को ठीक - ठीक पढ़कर, समझ कर उनसे मोल-भाव करने का अंतिम निर्णय ले लिया था । मन्त्री जी का उसके सौन्दर्य को उसके राष्ट्रीय विजेता होने से ऊपर रखना उसे बिलकुल बुरा नहीं लगा था । यूं भी ना जाने कितने राष्ट्रीय पदक विजेताओं की भुखमरी देख कर यह तो वो जानती ही थी कि राष्ट्रीय पदकों और दो कौड़ी की नौकरी की तुलना में मन्त्री जी से कहीं बड़ा लाभ कमाया जा सकता था । जल्दी ही उसने मन्त्री जी से गुपचुप डील कर ली, नौकरी से बहुत बड़ी डील । जिसमे रुपया-पैसा, घर, कुछ खेती की ज़मीन के साथ – साथ, मंत्री जी के साथ छोटी बड़ी सभी सभाओं में जाना, मंच से उसे अपनी बात कहने देना भी शामिल था । मन्त्री जी ने बेखटके सारी शर्तें मान लीं थीं, उन्हें क्या डर जब तक चाहेंगे चलने देंगे उसकी, किसी तरह का खतरा होने पर फिंकवा देंगे, मरवा - कटवा कर किसी दरिया, किसी जंगल में । नौकरी और जैबलिन थ्रो के लिए मन्त्री जी ने मना ही कर दिया यह कहकर कि, “नौकरी ससुरी का देगी आपको ? और भाला-वाला छोड़िए, अब राजनीत का भाला देखिये हमारे साथ रहकर।“ वो सहज ही मान गई थी, यही तो चाहती थी वो खुद भी । मन्त्री जी के साथ उसका तय व्यापार जल्दी ही आरंभ हो गया, सौन्दर्य की सीढ़ी पर चढ़ समृद्धि का व्यापार । खान - पान के दुरुस्त होने और ऐशो - आराम में रहने ने सौन्दर्य को और भी निखार दिया और उसके उपभोग ने शरीर को सलीके से भर दिया । अब उसका पहनावा बदल गया था, सस्ते - बदहाल जींस टॉप या सलवार कुर्तों की जगह महंगी बेहतरीन साड़ियों ने ले ली थी । अब उसके माथे पर राजयोग छपा दिखाई देने लगा था । मंच पर शब्दों की आरंभिक लड़खड़ाहटों की जगह जल्दी ही आत्म विश्वास भरे भाषणों ने ले ली । उसके मंच पर जाते ही उपस्थित भीड़ जैसे मंत्र मुग्ध हो जाती । शुरू – शुरू में जिसका लाभ मंत्री जी को मिला । धीरे - धीरे पार्टी और जनता दोनों पर उसका खुद का प्रभाव जमने लगा और उसका लाभ भी उसी के खाते में जमा होने लगा । मन्त्री जी कुछ पिछड़ते से जा रहे थे । यहाँ तक कि उनके अंगरक्षकों को भी मैडम जी की सुरक्षा ज्यादा महत्व पूर्ण लगने लगी थी। लावण्या मन्त्री जी के सभी सहयोगियों, करीबियों से विशेषकर अंगरक्षकों से खूब सामंजस्य बना कर रखती, उनमें भी विशेषकर छह फीट दो इंच लंबा खूबसूरत कद काठी का बलदेव उसका कुछ अधिक ही कृपा पात्र रहता, उससे वो खूब हंस-हंस कर बात करती । इस पर मन्त्री जी ईर्ष्या में डूब कर अकसर कह उठते, ‘इस ससुरे बलदेव बाडीगार्ड को तो ठिकाने लगवाना ही पड़ेगा, कैसे आपकी ओर टुकुर - टुकुर देखत है, और आप कुछ दूरी तो बनाकर चलिये इस भांड से ।“ चतुर मैडम जी बात को हँसकर टाल देतीं और अपनी मोहिनी मुस्कान बलदेव पर फेंके बगैर न रहतीं, इस पर नेता जी और भी बलबला जाते ।

लोक सभा चुनाव निकट आ गए थे, जनता और आला कमान दोनों के दिलों में लावण्या ठीक ऐसे ही घुसती जा रही थी जैसे स्टेडियम की भुर-भुरी हल्की गीली ज़मीन में उसका अचूक जैबलिन घुस जाता था । मन्त्री जी ने कदाचित ठीक नहीं किया था उसका जैबलिन थ्रो छुड़वा कर । अगर वो स्टेडियम कि जमीन का सीना छेदता रहता तो, मंत्री जी बचे भी रह सकते थे उसके विजयी वार से और उसके विजेता होने की लत को भी पोषण वहीं मिलता रहता । परंतु अब तो उसे निशाना भी राजनीति में ही साधना था और विजेता भी राजनीति में ही बनना था । मन्त्री जी उसके जनता से लेकर आला कमान तक पसरते पंखों से भय खाने लगे थे । उसके सौन्दर्य से भी तो अब मन भरने लगा था उनका। प्राप्य वस्तु साधारणतम लगने का सिद्धांत सिद्ध हो रहा था। मन ही मन सोचते, ये तो उस सुमन की तरह पाँव पसारने लगी है, ससुरी का एक हाड़ तक भी तो हाथ नहीं लगा किसी को, इसे पता कहाँ है अभी। लावण्या की तीसरी आँख मंत्री जी के भीतर तक झांक कर मन ही मन एक विष बुझी मुस्कान मुसकुराती और उसके अपने भीतर का विजेता, विजय पाने को अकुला उठता । टिकटों के बँटवारे से पूर्व ही मन्त्री जी लावण्या से छुटकारा पाने की जुगत में लग गए । परन्तु होनी को तो कुछ और ही मंजूर था। अभी चुनाव घोषणा पत्र पर चर्चाएँ शुरू ही हुईं थीं, टिकटों के लिए नामों पर विचार होने ही जा रहे थे कि अकस्मात ही माननीय मन्त्री जी को दिल का घातक दौरा पड़ा और उनका देहावसान हो गया। पार्टी के घोषणा पत्र का तय किया जाना टिकटों के बँटवारे की खींचा तानी, विज्ञापनों की होड़ की अफ़रा-तफरी भरे माहौल में अधिक देर शोक मनाने का समय नहीं था पार्टी के पास, अतः मन्त्री जी का क्रिया-कर्म जल्दी ही निपटा दिया गया । लावण्या मैडम जी मन्त्री जी की प्रिय शिष्या भी थीं और पार्टी की चमत्कारी युवा नेत्री भी अतः बिना किसी विरोध के मन्त्री जी की जगह उन्हें ही टिकट दे दिया गया । इस बार उनकी पार्टी पूर्ण बहुमत लेकर विजयी हुई थी। ज़ाहिर है केंद्र में भी उसी की सरकार बनी । पार्टी आला कमान लावण्या मैडम जी से खुश थे ही सो इस बार उन्हीं को मंत्री जी की जगह खेल मन्त्री बना दिया गया था।

अपनी योग्यता पर किसी तरह का कोई संदेह तो नहीं था लावण्या को परंतु अपना मनोरथ इतनी शीघ्र और इस कदर चमत्कारिक रूप से सिद्ध हो जाने पर वो स्वयं हैरान थी। कैसे कर दिखाया था अंगरक्षक बलदेव ने यह सब इतनी जल्दी, इतनी सफाई से ? अभी पंद्रह बीस मिनिट पहले ही गया था वो,सारी घटना का क्रमवार वर्णन कर, लावण्या की इस हैरानी को हल करके । उसके जाने के बाद अभी तक लावण्या वहीं बैठी – बैठी अपने विगत समय का सिंघावलोकन कर रही थी कि लैंडलाइन फोन की घंटी घनघना उठी, किसी पार्टी कार्यकर्ता का फोन था, बड़ा घबराया हुआ बोल रहा था “मैडम जी अभी-अभी बलदेव को किसी ट्रक ने कुचल दिया।” लावण्या एक हल्की सी विष बुझी, विजेता मुस्कान मुस्कुराई और थोड़ी तेज़ आवाज़ में हड़बड़ाहट घोलकर बोली कैसे हुआ ये सब पता करो, बलदेव को हॉस्पिटल लेकर जाओ जल्दी ...........?”

निर्देश निधि, द्वारा – डॉ॰ प्रमोद निधि, विद्या भवन, कचहरी रोड, बुलंदशहर, (उप्र) पिन – 203001

मोब - 9358488084,

ईमेल – nirdesh.nidhi@gmail.com