पौधे से कहो, मेरे जन्मदिन पर फूल दे
नीला प्रसाद
(3)
हां, वह एक कविता ही है जिसे उसके माता- पिता मिलकर लिख रहे है. धीरे- धीरे बड़ी हो रही है यह कविता.. ज्यादा मीनिंगफुल होती जा रही है. बढ़ने, लम्बे होने के क्रम में उसमें कुछ तीती- तीखी, धारदार पंक्तियां भी जु़ड़ती जा रही हैं.. मां की दिली इच्छा कि वह एक सुखांत कविता हो -प्यारी, सुंदर, विचारों में स्पष्ट, अर्थपूर्ण- जिसे दुनिया याद रखे.. पर समझ की एक बड़ी गलती ये हो गई कि बिट्टी जैसी कविता को उसके मां- पिता अकेले ही कैसे लिख सकते हैं! उसे तो एक पूरा समाज लिख रहा है. टीवी, दोस्त, रिश्तेदार, पड़ोसी, इंटरनेट, मोबाइल, किताबें..रोज- रोज के उसके अलग- अलग अनुभव.. उसमें फूटती परिपक्वता.. उसे वो भी लिख रहे हैं जो उसके रंग रूप, सौभाग्य से ईर्ष्या करते हैं और वो भी जो उस पर तरस खाते हैं कि उसे माता- पिता का साथ नाम- मात्र को मिलता है.. जो उसे आशीषों से नहला देते हैं वो भी और जो उसका बुरा होने पर खुशी से छलक जाते हैं वो भी.. और अफसोस कि परोक्ष रूप से मेरे ऑफिस के वे लोग भी जो मुझे सख्त नापसंद हैं, जो मेरे विरूद्ध साजिशें करते, अपनी कूटनीतिक चालों से मुझे परेशान करते हैं और मैं ऑफिस की अपनी हताशा बेटी को पीट कर निकालती हूं.. वो भी जो मेरी लिटिल वन को इतना प्यार करते हैं कि उसके बीमार होते ही मुझे जबरन जल्दी घर भेज देते हैं और बाहर जाने पर अपने बच्चों के साथ उसके लिए भी उपहार लाते हैं. वो कामवालियां जो बेटी के लिए रखा फल दूध खुद खा- पी लेती हैं, उसकी कतई देखभाल नहीं करतीं, और बदले में निरंतर तीती होती जा रही मैं चिल्लाती हूं अपनी बिटिया पर,. कामवाली भाग न जाए, इसीलिए उसके बदले बेटी को डांटती हूं.. पति की वे उपेक्षाएं और महीन प्रताड़नाएं भी बेटी को लिख रही हैं ,जिनका बदला अनचाहे बेटी पर निकलता है, यह जानते हुए भी कि ये अपराध है, हिंसा है, काली करतूत है यह, जिसकी कितनी भी सजा काफी नहीं... ये सब और जाने कौन- कौन मिलकर लिख रहे हैं ये कविता .. शायद इसीलिए कविता की पंक्तियां बार- बार मां द्वारा लिखी स्क्रिप्ट से भटक जाती हैं. खो जाते रहे हैं सही शब्द और मां कविता की अगली पंक्ति को लेकर बिट्टी से जद्दोजहद करती, घबराती रह जाती हैं.
मैंने उसांसें भरी. बिट्टी दूसरी मिट्टी की बनी है, मैं उसे जानी पहचानी मिट्टी में ढालने की कोशिश कर रही हूं. वह विरोध में तनी हुई है, जीत- हार का खेल जारी है.
कितनी घटनाएं, कितने पल.. और आज कितने- कितने आंसू. कभी वह मेरे पास आकर उदास हो मेरे पेट में मुंह छुपाकर रोने लगती. “मेरी राजकुमारी को क्या हुआ. किसने उसका दिल दुखाया?”.. मैं उसे छेड़ती और गुदगुदी करने लगती तो वह रोने लगती- “बेकार के हैं सारे खिलौने. या तो उनमें जान भरो या मेरे लिए सच का बच्चा लाओ. एक और बच्चा क्यों पैदा नहीं कर सकती तुम!”. मैं लाजवाब कि उसके इकलौती होने के पीछे के किन तर्कों से उसका सामना कराऊं आखिर!
फिर कभी किसी और दिन कहती“आज सूरज भी गुस्सा है. वह मम्मा की तरह ही है. हर वक्त गरमाया रहता है. चांद तो पापा की तरह है- उजला, ठंढा, हंसता- मुस्कुराता”. “पर चांद को तो सूरज से रोशनी मिलती है” मेरे कहने पर वह नाराज हो जाती.
तो यह तो होना ही था. मोम और गरम लोहे का साथ सधता है कहीं!.
बिटिया आशंका थी,बिटिया डर थी, बिटिया महत्वाकांक्षा थी.. बिटिया तराशे जाने के इंतजार में मिट्टी का लोंदा थी.. मैं अपनी असुरक्षा के तहत उसे पीटती थी और वह मुझसे घृणा करती थी.. फिर मैं उसे और पीटती थी, फिर वह मुझसे और ज्यादा घृणा करती थी.
मेरे दिल में अचानक से दृश्य बदला.
वह ओवरऑल पर्सनालिटी अवार्ड के बैज से नवाजी जा रही थी..मैदान में स्कूल के हजारों बच्चे तालियां बजा रहे थे और मैं, बतौर उसकी मां, मंच पर बैठी खुशी के आंसू रोक ही नहीं पा रही थी. यह तो हाल की घटना थी- याद करके मुझे बहुत अच्छा लगा. फिर मैंने उसे एक छोटा – सा मेल भेजा था और गर्व का यह पल मुझे देने को धन्यवाद देते हुए उसे असीसा था.
एक और खुशी का पल मुझे याद आया. मुझसे कभी मदद न लेने वाली वह, जब एक बार मेरे साथ प्रैक्टिस करके रेसिटेशन में जीत गई थी और सर्टिफिकेट लिए घर घुसी थी तो उसकी चमकती आंखें मेरे दिल में कई दिनों तक खुदी रही थीं.
एक और खुशी का पल.. एक और.. फिर एक और..यादों का अंत नहीं था. बड़ी होती जा रही वह, अब कविता लिखती थी, घर की साज सज्जा में राय देने लगी थी. मम्मा के लिए सूप बनाती थी, बीमार होने पर दवा दे देती थी, अकेली रहकर घर का खयाल रख लेती थी. ताला खोलकर घर घुसती और खाना खुद गरम करके खाने लगी थी. खुद पढ़ती थी.. थोड़ा पढ़कर अपेक्षाकृत अच्छे नंबर ले आती थी पर मुझे शिकायत बनी रहती थी कि वह थोड़ा और क्यों नहीं पढ़ती.. बहुत अच्छे नंबर क्यों नहीं लाती, अपना कमरा संवारकर क्यों नहीं रखती, हर एक से बात क्यों नहीं करती, बड़ों का अभिवादन क्यों नहीं करती, लेटेस्ट कपड़ों, काजल, लिपस्टिक, आई शैडो से दूर क्यों नहीं रहती.. माइली साइरस, जो जोनास, सेलिना गोमेज, डेमी लवातो और पित्जा, मैकरोनी से दूरी क्यों नहीं बनाती, पूरी तरह शरीर ढके कपड़े क्यों नहीं पहनती, छुट्टियों में सुबह वॉक पर क्यों नहीं जाती.. कभी हिंदी गाने क्यों नहीं सुनती.. क्लासिकल हिंदुस्तानी क्यों नहीं सीखती.. सीधी बात यह कि वह कोई और क्यों नहीं हो जाती! तुम्हें तो पपेट चाहिए, बेटी नहीं- ऐसा कहना बंद क्यों नहीं करती, बात क्यों नहीं मानती.. ओह नो! यह क्यों का चक्कर शायद बहुत ज्यादा खिंच गया था!
अतीत के दरवाजों से इतर, दिल की इन गांठों के दरवाजे एक के अंदर दूसरे बसे थे और सारे बंद थे.
मैं रो रही थी. उपहार की तो खैर कोई बात नहीं थी. लगा ही नहीं कभी कि वह इतनी जल्दी मुझसे ऐसे विमुख हो जाएगी.. मुझे इलाज की जरूरत थी. मैं एक मानसिक रूप से बीमार मां थी.. उससे एक ओर तो बहुत प्यार करती थी, दूसरी ओर उसके साथ हिसा करती थी. मेरा उसका एक ही रिश्ता था- या तो बहुत प्यार या बहुत गुस्से का. मेरा दिमाग सुन्न हो गया. मैने अपने शरीर से निकलकर खुद को और सारी घटनाओं को देखा. सबकुछ बहुत बुरा लगा और मैं अफसोस से भर उठी. क्या वह फिर से छोटी नहीं हो सकती.. क्या जो हुआ, वह अनहुआ नहीं हो सकता!. क्या जिंदगी फिर से, री- स्क्रिप्ट करके जी नहीं जा सकती?.. मै रो रही थी, खुद पर शर्मिंदा थी.. अंधेरा मन को छा चुका था…और उस कालिमा में किसी भी तरह रंग भरना नामुमकिन लग रहा था.
किसी ने मुझ पर बहुत धीरे से हाथ रखा. पति होंगे- मैंने सोचा. अब इनसे क्या कहूं, अपनी शर्मिंदगी की कथा.. मैं निश्चल पड़ी रही. पर जैसे ही हाथ ने मेरा पूरा स्पर्श किया, मैं समझ गई कि ये हाथ किसी और का था.
‘मम्मा..’, मेरी बिट्टी ने कोमलता से कहा. “सॉरी बिट्टी. मैं तुम्हारी मां होने के काबिल हूं ही नहीं.” मैंने तुरंत कह दिया. वह चौंकी. “वैसे तो मैं तुम्हें बहुत प्यार करती हूं पर तुम्हारी चिंता के मारे तुम्हारे जीवन को एक ढर्रे, एक लीक पर लाने की कोशिश मे हताश, तुम्हें दुख देती, मारती- पीटती रही हूं. वो सारी हिंसा, सारी डांट- मार बहुत शर्मनाक थी. अभी मैं तुम्हारा बचपन याद कर रही थी- कितनी प्यारी, मनोहारी, कोमल, कल्पनाशील, नाजुक बच्ची थी तुम और कितनी कठोर, कितनी हिंसक, कितनी क्रूर थी मैं.. अगर तुम्हें लगता है कि मैंने तुम्हें कभी प्यार किया ही नहीं, तो शायद यही सच हो. अगर तुम्हें लगता है कि मै एक डिक्टेटर हूं तो शायद यही सही है. प्यार का तो ऐसा है बिट्टी कि जिसे दिया, अगर उसने महसूस लिया तो प्यार,प्यार है, वरना नहीं है- अहसासों का मामला है न!’ उसके हाथ को मैंने अपने हाथों मे ले लिया. ‘तुम तो बचपन से एक प्यारी बच्ची थी बिट्टी. फूलों की नाजुक पंखुड़ी, बादल का टुकड़ा, कविता की पंक्ति, संवेदना की सियाही - और मैं? मैं ठहरी एक दुनियादार मां, जो बेटी की संवेदना को कुछ ऐसे ढालना चाहती रही कि मेरी बेटी, मेरे मरने के बाद भी मां के बिना कोई असहाय जीवन न जिए.. भीड़ में अकेली ख़ड़ी रोती हो मेरी इकलौती और कोई आंसू पोंछने वाला न हो.. तब मां की आत्मा रोती हो कि एक नरम नाजुक रूई के फाहे को, पिघलती धूप को, गलती मोम को ठोस बनाए बिना ही कैसे छोड़ दी दुनिया मैंने. उसे ठोस बनाकर कुछ चोट खाने लायक बनाकर दुनिया की क्रूरता सहने लायक बना देती, तब छोड़ती न दुनिया.. तो मैं लोहा समझकर मोम पर चोट करती रही... चादर समझकर फूल की पत्ती निचोड़ती रही...’.
“ओह छोड़ो भी मम्मा..फिर भाषण देने लगीं. तुम कहीं प्रोफेसर होती, वही ठीक था. जब देखो तब शुरू कर दिया बोलना- ब्ला, ब्ला,ब्ला... “ वह हंसने लगी. “मैं तो मजाक कर रही थी कि तुम मुझे प्यार नहीं करती. मैं जानती हूं कि तुम करती हो और तुम भी जानती हो कि मैं तुम्हें कितना चाहती हूं. तुम प्यार नहीं करती होती तो मुझे मारकर फिर रोने क्यों बैठ जाती. मुझे गालियां देकर तुम्हें नींद क्यों नहीं आती.. अपनी कोई चिंता किए बिना, दिन- रात सिर्फ मेरे लिए ही चिंता.. ये पका दूं, ये खिला दूं, ये सिखा दूं, गलत खिला कर तेरा फिगर न बिगाड़ूं..तू बड़ी हो जाए तो ये करूं, वो करूं.. फिर हम दोनों मिल कर ये करें, वो करें..तुम्हारी पढ़ाई के लिए पैसे बचाएं, तू बड़ी होकर ये नहीं, तो वो बन जाना..और अब तो सिर्फ मेरी नहीं, मेरे बच्चों की भी प्लानिंग होने लगी है तुम्हारे मन में.. ‘, वह खिलखिलाती बोली ”लगता है, अपनी बड़ाई सुनना चाहती हो कि मैं कितनी अच्छी मम्मा हूं, तुम्हारी इतनी केयर की, इतना कुछ छोड़ा, सहा तुम्हारे कारण..बिना मांगे तुम्हारी जरूरतें पूरी कर दीं.. इतने आंसू बहाए, जब जब तुम्हारा कुछ बुरा हुआ...सुनना चाहती हो बिट्टी से कि आई ऐम वंडरफुल मॉम... यही न?” वह नाटकीय अंदाज पर उतर आई.
“हैं?” मैं उठ बैठी. “पर तुम्हे तो शिकायत है न कि मै तुम्हें पीटती हूं- और मैं खुद भी महसूसती हूं कि..” “ओ.के.. ओ.के मालूम है- क्या कहोगी. तुम्हारी चिंता है तो परेशान होती हूं. इतना डूबी रहती हूं तुममें कि तुम्हारे लिए कविता लिखती हूं.. तुम्हें तरह तरह से पैम्पर करके बरबाद करती हूं, फिर जब तुम पैम्पर्ड चाइल्ड की तरह बिहेव करती हो तो चिल्ला -चिल्ली करती हूं. तुम्हें सबसे अलग तरीके से, अलग विचारों के साथ पालती हूं. एक ओर कहती हूं कि ऐसी बनो कि धारा के विरूद्ध बह सको पर दूसरी ओर चाहती हूं कि तुम एक आम लड़की की तरह आज्ञाकारी, पढ़ाकू, रन ऑव दि मिल बनो.. दुनिया घुमाती रहती हूं, दुनिया भर की चीजें ले देती हूं पर इंडिकेशन ये देती हूं कि लाइफ इज अ स्ट्रगल..सिर्फ एन्जॉय मत करो या कि एंज्वॉय करो ही मत. कभी कहती हूं कि तू तो मेरी इकलौती, लाडली है तो तू मजे नहीं करेगी, तो कौन करेगा.. फिर अगले दिन ये कि दिन भर मस्ती करती है, पढ़ेगा कौन- तेरा भूत!? फाइन. यू आर ग्रेट. अब आप उठ बैठेंगी प्लीज, अपना गिफ्ट ले लेंगी प्लीज!” मैं मारे खुशी के सन्न रह गई. “अले, मम्मा तो उदाछ हो गई. लूथ गई. अब मम्मा को बित्ती कैते मनाएगी? तलो, उतो, नईं तो..” वह मुझे गुदगुदी करने लगी. “जानती हो मम्मा, मेरे साथ के लड़के- लड़कियां भी पिटते रहे है. आज भी जब उन्हें गालियां पड़ी होती हैं पेरेन्ट्स से, तो स्कूल आकर कहते हैं- कल भी खूब बड़ाई हुई मेरी. तो मेरी तो बचपन से हो रही है.. बड़ाई.. ”. वह मुझे छेड़ रही थी और मैं अंदर – अंदर कट रही थी. “और यह देखो, ये क्या बात हुई कि जो पौधा बचपन से मेरे जन्मदिन पर एक फूल के लिए मुझे तरसाता रहा, आज मदर्स डे पर उसने तुम्हारे लिए फूल दे दिया? यह रहा लाल गुलाब मेरी मम्मा के लिए.. बोलो गलत बात है न! अब हर बार वादा करके भी फूल नहीं देने की क्या सजा दूं पौधे को? बाई द वे, अपना लैपटॉप खोल कर मदर्स डे का वो स्पेशल म्यूजिकल कार्ड देख लेना, जिसे बनाने में मैं सुबह से बिजी थी..”. मैं उठकर बिस्तर पर बैठ गई - खुशी और गम के घालमेल से गुजरती. पर मेरी आंखें रोई हुई आंखें थीं. उसने पकड़ लिया. “ओह मम्मा, तुम रोती बहुत हो. बचपन से लेकर आज तक जब भी मेरा दिल दुखाया, मुझे मारा, लगी रोने.. जागी रही रात भर.. मुझे पता है, मैं बुरी मम्मा हूं. बहुत पीटती रही हूं तुम्हें, पर अंदर से तो तुम्हें..इटीसी, इटीसी...” मैं पिघल गई और फिर से रोने लगी. “तल, उत, खली हो दा औल हंस दे.. बत हो गया गुत्ता खतम..” वह मुझे दुलराने की खातिर तुतलाती हुई गा-गाकर बोलने लगी, जैसे मैं करती रही हूं..
मैने फूल ले लिया. सुर्ख लाल गुलाब - मेरी बेटी का दिल. ”मम्मा, आई ऐम सीरियस. उस गुलाब के पौधे से कहो, उसे मेरे अगले बर्थडे पर फूल देना ही होगा. उसने मुझसे इतनी बार वादा किया पर कभी मेरे बर्थडे पर फूल नहीं दिया.” वह ठुनकी.
“ बिट्टी, अगर तुम्हारे अगले जन्मदिन पर उस पौधे ने फूल नहीं दिया तो मैं उसे घर से फेंक दूंगी.. यह क्या बात हुई कि मेरी जान, मेरी डियरेस्ट को तो हर बार धोखा दिया और फूल दिया मदर्स डे पर..” मैंने अंसुआई आंखों से खुश होने की कोशिश करते कहा. “हां, मम्मा, पौधे से कह दो मेरे हर जन्मदिन पर फूल दे.” मेरी तेरह साला इतराई हुई, मुंह फुला कर बोल रही थी. मेरी ओर पीठ करके छेड़ती हुई कह रही थी- “आई लव यू ऐंड हेट यू मम्मा..” “क्या.?”. मैंने आंखें तरेरीं, तो वह खिलखिलाई और आकर मुझसे लिपट गई. ”लव यू एंड ओनली लव यू.. अब ठीक?”
हां, अब तो सचमुच सबकुछ ठीक लग रहा था.
गुलाब का पौधा उसके हर जन्मदिन पर फूल दे और आज मेरे अंदर जो एक नया पौधा उगा वो भी खिले, बढ़े, लहलहाए... और उसकी गोदी फूलों से भर दे. आमीन.
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(परिकथा, जुलाई-अगस्त 2010)