मैं वही हूँ!
(4)
“दीपेन! तुम्हें मेरा नाम किसने बताया? मेरा सर चकराने-सा लगा था। वह अचानक पलट कर देखी थी, उस समय उसकी नश्वार पुतलियों में हंसी की सुनहली झिलमिल थी- क्यों, तुम्हीं ने तो मुझे वेनिस में बताया था... भूल गए लिजा को इतनी जल्दी? लिजा...! यह नाम सुनते ही मेरी आँखों के सामने उस ब्राजिलियन लड़की का चेहरा घूम गया था जिससे मेरी कुछ ही दिनों में गहरी दोस्ती हो गई थी। “तो क्या तुम ही...” मेरे प्रश्न को अनसुना कर वह पहाड़ी के किनारे जा खड़ी हुई थी और नीचे झाँकने लगी थी- तुम जिससे भी मिलो दीपेन-यहाँ, वहाँ,मिलोगे मुझसे ही! हर रूप, रंग, देह में एक ही औरत होती है!
मैं अपनी दोनों कनपट्टियों की धप-धप सुनते हुये चुप बैठा रहता हूँ। हर पल वह एक अलग किरदार होती है। चेहरे के साथ आँखों का रंग, लहजा, आवाज-सबबदल जाती है। थोड़ी देर पहले वह कोई थी, इस वक्त कोई और है! कभी पूछने पर कहा भी था उसने, मैं पुरुष- तुम्हारे- मन की ग्लानि हूँ, उसी के अनुसार रूप धरती हूँ!इस क्षण मैं वही हूँ जिससे तुम भागते फिर रहे...
शाम गिरते-गिरते उस चर्च का घंटा किसी अदृश स्पर्श से बज उठता था। उसकी गंभीर आवाज दूर-दूर तक हवा में विषाद घोल देती थी जैसे। धूसर क्षितिज पर अपने घोंसलों को लौटते पंछियों की साँवली कतार,धीरे-धीरे इस्पाती होता नदी की सतह पर प्रतिबिम्बित आकाश, सब उदास, अनमन प्रतीत होते। ऐसे में मैं प्रार्थना कक्ष मेंउसे चुपचाप बैठी हुई देखता और सोचता, उसकी प्रार्थनाओं में कौन होता होगा!
चर्च के पिछले अहाते में भी कई टूटी हुई कब्रें थीं। पत्थर की बिखरी ढेरों पर दूब उगी हुई थी। एक बार उन्हीं की तरफ देखते हुये उसने कहा था- जॉन कीट्स लिखते हैं, द पोएट्री ऑफ अर्थ इज़ नेवर डेड! कितना सही कहा है ना? सुनना कभी ध्यान से धरती का गीत, जब आषाढ़ का श्यामल आकाश भर संध्या झरे, पगलाई नदी दौड़े उफन कर समंदर की ओर, दोपहर के एकांत में कोई पंछी रूक-रूक कर बोले... तितली के परों की नर्म फरफराहट, पारिजात की टप-टप, गिरती ओस की आवाज- सब संगीत ही तो है! नहीं?
मैं उसे कह नहीं पाता कि प्राचीन इमारतों और मलबों के स्तूप से जूझते हुये मुझे इस रूमानियत के लिए वक्त नहीं मिलता। मेरी आँखों में वह मेरी बात पढ़ती है और कहती है- ये मन के गोपन गीत सुनाई नहीं देते,बस आँखों से,सारे वजूद से सुगंध के झोंके की तरह चुपचाप निसृत होते है- केवल अपने प्रेम के लिए!कोई दूसरा इन्हें सुन नहीं सकता। कान से तो हरगिज नहीं!
मेरा जी करता है कि उससे कहूँ, ठीक उसी तरह ना जैसे तुम्हें मैंने छू कर महसूस नहीं किया है, मगर जानता हूँ कि तुम हो, मेरे अनुभव में, मन में...
उस समय ढलते दिन की धूप सुनहलीचादर-सी लिपटी हुई थी पूरे परिदृश्य से। दूर नदी के किनारे जल पंछियों का उदास शोर था। पहाड़ी से टकराती हवा में ऊंची घास की फूंगियाँ निरंतर काँप रही थीं।
मेरा अनकहा सुन जैसे पराजित-सी वह चर्च की टूटी दहलीज पर बैठ गई थी- यह मुझसे कभी मत कहना दीपेन! जब मैं यह शब्द सुनती हूँ, मुझे दो लाल, तराशे हुये होंठ और एक सांद्र आवाज़ सुनाई देती है! वो आवाज़ जो दुनिया का सबसे बड़ा झूठ सबसे सुंदर अंदाज में बोलती थी... प्रेम शब्द सुनते ही मेरे कलेजे में फांस-सी पड़ जाती है।किसी भी औरत से पूछ लेना, प्रेम से बड़ा भ्रम, झूठ कुछ भी नहीं!
मैं उसे देखता हूँ, कुछ कहने का सामर्थ्य नहीं मुझ में। जाने कितने वजूद, बेचैन रूहों का बसेरा है उस में! इस समय उसे देखते हुये मुझे वह दुबली-पतली किशोरी की याद आई थी जिसे देह के छोटे-छोटे सुखों के लिए वर्षों पहले ठग आया था! तब मैं भी एक युवा था। बीस-बाईस साल का! मैं खुद को ही सफाई-सा देता हूँ।
उसकी खुली पीठ पर उतरते दिन का तापहीन सूरज था उस समय। मुरझाते चाँपा की तरह हल्का पीला। देख करमन किया था, धूप की उस उजली नदी में हथेली डूबो कर आकाश पर चमकीले छापे डाल दूँ… आजकल मेरी सोच में उन्माद भरा है। मुझे खुद से डर लगने लगा है।
मगर मेरी सोच को उसकी आवाज के ठंडे, सख्त इस्पात ने परे कर दिया था एकदम से। वह कह रही थी रुकते हुये, जैसे कि अनिश्चय में हो- प्रेम शब्द एक चारा है! औरतों को अपने वश में करने, फाँसने के लिए हमेशा का अचूक चारा! औरत कितनी भी ज़हीन हो, कभीना कभी जरूर इसे निगलती है। यह सच हर मर्द जानता है।... कहते हुए उसका सीधे मेरी आँख में देखना एक खुला इल्जाम था जिसका कोई जवाब फिलहाल मेरे पास नहीं था। उसके तंज कटार-से लगते थे!
पूछा था प्रसंग बदलने के लिए- कहाँ है तुम्हारा घर? किस देश की हो? सुन कर वह मुड़ी थी- सच बताओ तो, औरत का भी कोई घर होता है? लोग कहते हैं, लो, यह तुम्हारा घर! तुम इस घर की मालकिन! और बस वह मालकिन होने के भ्रम में हमेशा के लिए उस घर की दासी बन कर रह जाती है।होश तो तब ठिकाने लगता है जब किसी निर्णायक घड़ी में उससे कहा जाता है- निकल जाओ मेरे घर से! एक झटके में उसकीसालों की मेहनत, स्वप्न, उम्मीद से बनाया घर हवा में विलीन हो जाता है। समझ आता है,वह तो घर के भ्रम में हमेशा से रास्ते पर थी!
लगातार बोलते हुये वह अचानक रूक गई थी, जैसे गहरी थकान में हो, फिर रूक-रूक कर बोली थी- औरत सबका आश्रय बन सकती है मगर उसका अपना कहीं घर नहीं होता! वह हमेशा की रिफ्यूजी है!
मेरा मन करता है उससे कहूँ, दर्द जरूरी है। सुख के आस्वाद को समझने ले लिए! मगर खुद को रोक लेता हूँ। किसी औरत से यह बात शायद नहीं करनी चाहिए। सुख का प्रलोभन दे कर खुद मैंने कितनों को अथाह दुख दिये हैं अबतक! आजकल मैं अक्सर उसके साथ मन ही मन संवाद में होता हूँ, कहता हूँ उससे वह सब जो आमने-सामने कर नहीं पाता, वह सुन-समझ रही है, इस अहसास के साथ।
सुन कर जैसे वह निःशब्द हँसती है- चाकू की फाल-सी धारदार हंसी! मैं देखता हूँ अपने आस-पास अशर्फियाँ झरते हुये और सहम जाता हूँ। इन असतर्क क्षणों में वह कितनी निर्मम दिखती है! एक हद तक हिंसक भी। बड़ी-बड़ी नश्वार पुतलियों में कटार-सा चमकता तंज और उपहास- किसी वधिक की तरह!
उस दिन घर लौटा था एक प्रच्छन्न विषाद के साथ। अवचेतन में दबी जाने कौन-सी बातों का जखीरा जीवित हो कर कभी परछाई तो कभी आवाज की शक्ल में मेरे पीछे लग गई थी। इनसे छुटकारा अब शायद संभव नहीं था। बहुत अकेला और असहाय लग रहा था। कोई ऐसा नहीं था जिसके पास ऐसे में जाया जा सकता था। आजादी और सुख की मरीचिका ने एकदम निसंग कर दिया था मुझे।
शाम मंगल और उसके माँ के जाने के बाद उस घर में मरघट का-सा सन्नाटा पसर जाता था। फिर मैं होता था और होती थी वह रोती-सिसकती परछाइयाँ! मुझे लगने लगा था, यह परछाइयाँ मुझे निगल लेंगी।
बार-बार तय किया,उस खंडहर में अब कभी नहीं जाऊंगा। मगर कई दिन घर में पड़े रहने के बाद समझा था, यह खंडहर कहीं और नहीं,मेरे भीतर है। इससे छुटकारा नहीं। सप्ताह भर निरंतर बारिश के बाद आकाश साफ हुआ तो मैं एक बार फिर नींद में चलने की तरह घर से निकल खंडहर की तरफ चल पड़ा।
उस दिन दोपहर बाद वह आई थी, हमेशा की तरह थकी-थकी और उदास। पूछने पर अनमनी-सी बोली थी, कितने देश,समंदर और सरहदें... ऊपर से यातना और स्मृतियों का दुसह्य बोझ! आसान है क्या हम औरतों का सफर! थक जाती हूँ।
मैं उसके बगल में जा बैठा था- सब मन में लिए बैठी हो! भूलना सीखो, माफ करना सीखो…सुन कर वह बुदबुदाई थी- दुश्मनों को माफ कर दूँ, मगर दोस्तों को कैसे! फिर जैसे खुद से ही बोली थी- टूटने-बिखरने का सिलसिला प्यार के साथ शुरू होता है। प्रेम एक ग्लानिकर अनुभव है दीपेन !यह भीरु बना देता है! एक प्रेमी से ज्यादा डरा और आतंकित मनुष्य कोई नहीं होता...
उसकी हर बात के निशाने पर मैं खुद को पाता हूँ। जाने यह मेरा भ्रम है या कुछ और। मगर इतना समझने लगा हू,मर्द होना इल्जाम में होना है। इसीलिए अपने ही अनजाने शायद डिफेंसिव भी होता जा रहा हूँ।
मेरी सोच से अंजान वह अब भी बोल रही थी- हत्या सिर्फ घृणा से नहीं, प्रेम से भी होता है। सच जानो, प्रेम के हाथों मरना अधिक कष्टकर होता है हमारे लिए। मैंने गौर किया था, वह खुद के लिए अक्सर‘मैं’ की जगह ‘हम’ शब्द का प्रयोग करती थी- औरत की लाश के पास हमेशा मर्डर वेपन नहीं मिलते। ये हथियार अदृश्य होते हैं- झूठ, फरेब, उपेक्षा के...
एक लंबे मौन के बाद वह अचानक बोली थी,जानते हो सबसे बड़ा अपराध क्या है?... किसी के यकीन को खत्म कर देना! यह किसी के साथ घटने वाला सबसे बड़ा नुकसान है!
उस दिन जाते हुये उसने एक बार भी मुड़ कर नहीं देखा था। सीढ़ियाँ उतर कर जंगल के काही अंधेरे में ओझल हो गई थी। पीछे रह गयी थी लंबी सांस-सी चलती हवा और दूर गूँजता जल पंछियों का शोर।
उस क्षण कहने की इच्छा हुई थी- ये सारे जंजाल उतार फेंको और एकदम नई-कोरी हो मेरे पास चली आओ! मगर कह नहीं पाया था! किस मुंह से कहता! मेरे खुद के भीतर दुहाई देते हुये मासूम चेहरों का जमघट और उनका अनवरत शोर था....
उन्हीं दिनों माँ की चिट्ठी आई थी,एक बार फिर शादी का आग्रह लिए। उन्होंने कोई लड़की देखी हुई थी। नाम रीना। फ्रीलान्स रिपोर्टर। कुछ दिनों बाद छुट्टी में इसी रास्ते से हो कर अपने घर जाने वाली थी। उन्होंने कसम दे कर कहा था, मैं एक बार उससे मिल लूँ।
माँ के लिए दुख हुआ था। वह भी शायद प्यार की ही सजा ताउम्र पाती रही! सोचा था, उनका मन रखने के लिए मिल लूँगा। वैसे शादी का मेरा कोई इरादा अब भी नहीं था। अपनी यायावरी में खुश था। और इस यायावरी में पंखुरी का चेहरा अपने तमाम सवालों के साथ लगातार मेरे साथ बना हुआ था! अब तो वह अनामा भी आ जुड़ी थी उसके साथ।
रीना से मिलने से एक दिन पहले मैं गया था उस खंडहर में। उस दिन वह पहले से ही बैठी थी वहाँ, शायद मेरे ही इंतजार में। जाने क्या कुछ अपने आसपास फैलाये हुये। पूछने पर अनमनी-सी मुस्करायी थी- रद्दी ही समझो! कसमे-वादे, सपने, उम्मीदें... तुम्हारे दिये हुये! कई जन्मों के... मैं देखता हूँ, सब पहचाने हुये-से- घरौंदे, फूल, चिट्ठियाँ... शब्द, शब्द और शब्द... “इनके अर्थ ढूँढने में सदियाँ बिताई, अब जानती हूँ, वे कभी थे ही नहीं!” वो मुस्कराती हुई कागज की चिन्दियाँ उड़ाती है- तुम्हारे प्रेम पत्र! मैं बिना कुछ कहे वहाँ से उठ कर चला आया था। पीछे हवा में उड़ते कागज पर कटे पंछी-से फरफराते रहे थे।
उस रात सपने में बस विध्वंस था। टूटा चर्च कच्ची दीवार-सा पूरी तरह जमीन पर बैठ गया था। पहाड़ी के काले, अनगढ़ पत्थर सुलगते हुये लावे की तरह हवा में उछल रहे थे। कब्र की मिट्टी हटा कर सैकड़ों जर्द छायायें बाहर निकल आई थीं, हँसते हुये, रोते हुये,चीखते हुये! उन सबके बीच मैं पागलों की तरह उसे- उस अनामिका को ढूँढता रहा था। और अंत में मैंने देखा था,टूट कर गिरे पीतल के भारीघंटे के नीचे से निकला हुआ एक लहूलुहान हाथ! उसमें दबे छटपटाते, तड़पते अनगिनतशब्द, फूल, सपने... सब मेरा नाम ले रहे थे! चीखते हुये मेरी नींद खुल गई थी और मैं देर तक बिस्तर पर बैठा थरथराता रहा था।
उस दिन रीना तीन बजे के ट्रेन से आने वाली थी। उससे पहले मुझे अनामिका से मिलना था। चेहरे पर पानी छपक कर मैं घर से निकल पड़ा था। तब तक मंगल और उसकी माँ नहीं आए थे। रास्ते में किसी ने बताया था, खुदाई में निकली सुरंग और पुरानी बावरी धंस गई!। सुन कर जाने क्यों मुझे हैरानी नहीं हुई थी।
मगर ढलान तक पहुँच कर मैं सन्न रह गया था। पहाड़ी के माथे पर पसरा वह परित्यक्त शहर कहीं नहीं था! चारों तरफ जंगल की हरहराहट और भायं-भायं करते सन्नाटे के सिवा कुछ नहीं था वहाँ। जैसे यकायक स्वर्ग से दो उजले पंख उतरे थे और किसी अनजाने देश से आ कर युगों से इस उजाड़ में पड़ा हुआ वह पंख टूटा राजहंस उन्हें फैला कर आकाश की नीलिमा में खो गया था। तो मुक्ति इसे भी मिल गई!
वहाँ किसी उठ गए मेले का-सा दृश्य था- बिखरे हुये फूल, चिट्ठियाँ, सपने, शब्द... एक लंबे समय से बारिश नहीं हुई थी मगर पहाड़ के काले, अनगढ़ पत्थर धूप में गीले-गीले चमक रहे थे। मैं देर तक चीखते हुये इधर-उधर भागता रहा था- श्वेतांबरा! अनामिका! और फिर सुध-बुध खो कर जाने कब तक वहाँ पड़ा रह गया था।
कुछ होश आने पर घड़ी देखी थी। रीना के आने का समय हो चला था। गिरते-पड़ते जब स्टेशन पहुंचा, ट्रेन प्लेटफार्म पर लग चुकी थी। थोड़ी ही देर में उतरते मुसाफिरों की भीड़ के बीच से निकल कर अनामिका मेरे सामने आ खड़ी हुई थी- हॅलो! मैं रीना! मेरे भीतर एकदम-से सब गडमड हो गया था- तो... उसमें यकीन अब भी कहीं बचा है!
मेरी सोच को सुनती हुई-सी रीना च्यूंगम चबाती मुस्कराई थी- जिंदगी को एक और मौका देना चाहती हूँ दीपेन! हर तरह से हारना नहीं चाहती! वॉट अबाउट यू? आज वह अदम्य आशा, जिजीविषा बन कर मेरे सामने आ खड़ी हुई थी और मैं सोच रहा था, उसे किस नाम से पुकारूँ। एक बार फिर मेरी सोच सुनती हुई-सी वह मुस्कराई थी- कम ऑन, व्हाट्स इन अ नेम! मैं वही हूँ...
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