अभी इच्छा का इन्टरव्युव का खत्म नही हुआ था. लेकिन ये सिर्फ इसलिए था ,कि उसे किस डिपार्टमेन्ट मे भेजा जाये .अपनी पूर्व की कम्पनी मे भले ही इच्छा रिसेप्शन पर थी पर, उसकी सीखने वाली प्रवृत्ति ने बहुत कुछ सिखा दिया था, उसे . कम्पनी से माल भेजना बिल तैयार करना.बाहर भेजने पर कितने माल के साथ कौन सा फार्म लगता है , एन्क्वाइरी , कोटेशन बनाना इत्यादि वह पहले ही सीख चुकी थी .उसकी महत्वकांक्षाओं ने उसे रिसेप्शन तक ही सीमित नही रहने दिया. वह आस्वस्त थी ,कि उसे जो भी काम दिया जायेगा वह कर लेगी.आज इच्छा का पहला दिन डी डी शर्मा जी के पास भेजा गया. "गुड मॉर्निंग सर " वेरी "गुड मॉर्निंग" क्या नाम है आपका . डीडी.शर्माजी ने पूछा. सर ,"इच्छा" . आपकी शादी हो गई है. इच्छा हैरनी से उनकी तरफ देखती हुई ."जी सर" बारह साल हो गये है सर . अब हैरान होने की बारी डी डी शर्मा जी कि थी ,उन्हे यकीन न हुआ हो जैसे .फिर उनका ध्यान , इच्छा के माथे पर लगे सिन्दूर पर गया. सकपकाते हुए ,ओके-ओके,वैसे एक बात कहुँगा अगर सिन्दूर हटा दिया जाये. तो कोई नही कह सकता आप शादीशुदा हैं.फिर तो आपके बच्चे भी होंगे ." जी हाँ दो इच्छा ने कहाँ " . फिर आप ऑफिस और घर कैसे मैनेज करेंगी ." सर , वैसे ही जैसे अभी तक जैसे मैनेज किया है. मेरी बेटी के भी दो बच्चे हैं ,उसके साथ भी बड़ी दिक्कत आती है ,लेकिन वह टीचर है ,इसका उसको लाभ मिला है .डीडी शर्मा जी ने कहा. आप के साथ तो बड़ी मुश्किल हो जायेगी साढ़े आठ घण्टे की जाब और एक घण्टा आने जाने में फिर तो आप आये दिन छुट्टी लिया करेंगी . डीडी.शर्माजी की एक खूबी यह भी थी ,कि वह बिना किसी लाव -लपेट अपनी बात सहजता से कह देते थे. बिना इस बात की परवाह किये कि सामने वाले को कैसा प्रतीत होगा. यह बात इच्छा को थोड़ी अजीब लग रही थी , किन्तु बिना दर्शाये इच्छा ने उत्तर दिया. आकस्मिक स्थिति तो हर किसी के साथ बन जाती है सर, कल क्या होना है , न आपको पता है, न मुझे .लेकिन मेरी पूर्व की कम्पनी मे उपस्थिति का रिकार्ड बहुत अच्छा रहा है . आप इससे पहले जहाँ जॉब करतीं थीं या आईं हैं, उसे किस कारण से छोड़ रहीं हैं. सर, हर कोई अपनी आवश्यकताओ से प्रेरित हो बाहर निकल कर जॉब करता है . जब वह समय से पूरी न हों तो क्या किया जाये. सर कम्पनी की कुछ अपनी मजबूरियाँ है. वहाँ सैलरी समय से नही मिलती है. इच्छा के उत्तर से डीडी शर्माजी संतुष्ट से दिखे . अब इच्छा से प्रश्न पूँछने का सिलसिला खत्म हो गया. और डीडी शर्मा जी ने अपने घर की बाते शुरू कर दी. ऐसा लग ही नही रहा था ,
कि वह आज पहली बार उनसे मिली है . आपको कम्प्युटर तो आता ही होगा, इच्छा विस्मय से देखती हुई उसे यह प्रश्न अजीब लग रहा था.क्योकि उसने तो पहले ही सब रिज़्यूम मे मेंशन कर रख्खा था. फिर वह बिना देरी के खुद ही बोल पड़े . एक्चुअली मुझे कम्प्युटर की ए बी सी डी नही आती पर आपको कम्प्यूटर पर ही कार्य करना है. इच्छा ने स्वीकृति मे सर हिला दिया. एक दिन तो पूरा बातो मे ही चला गया .लेकिन डी डी शर्मा जी का हाथ अपनी जगह पर काम कर रहा था . बात करते हुये ही उन्होने कई मैनुअल लेटर लिख डाले . वह अपने काम मे बहुत माहिर थे.
बमुश्किल ही वह लेटर की तरफ देखते किन्तु गलती रेशे मातृ की भी नही अंग्रेजी के एक-एक शब्द मोतियों के समान दिख रहे थे . इच्छा उनकी बातों को सुन, हाँ मे हाँ मिलाये जा रही थी. दोपहर एक बजे लंच हुआ इच्छा नौकरी के पहले दिन कभी लंच लेकर नही गयी थी . "मैडम" "ऊपर लंचरूम मे और भी मैडम है उनके साथ आप भी लंच कर लीजिये" डी डी शर्माजी ने कहा. सॉरी सर ,मै लंच लेकर नही आई .ओहह हो आप तो आलरेडी एम्पलोय है, तो आपको बताना चाहिए था . मै शिवप्रशाद से कह कर मंगवा देता. इत्तेफाक से इस कम्पनी के प्योन का नाम भी शिवप्रशाद ही है. इतना कह डी डी शर्मा जी चले गये .इच्छा वहीं बैठी रही थोड़ी देर बाद . दो महिलाओ का प्रवेश होता है एक लगभग पैलालिस साल की महिला और दूसरी की उम्र लगभग पच्चीस साल जिसे इच्छा ने रिसेप्शन पर देखा था. दोनो इच्छा के सामने वाले केबिन मे प्रवेश करती हैं .फिर तीनो ही इच्छा के पास आती हैं उनमे से एक "चलिए मैडम ऊपर लंच करते हैं ." मै लंच लेकर नही आई ,आप लोग कर लीजिये" इच्छा कहती है. "अरे हम लोग तो लाये हैं न, सबका काम हो जायेगा उनमे से एक बोली " इच्छा के बार -बार मना करने पर भी ,वह इच्छा को लंच के लिए तैयार कर लेतीं हैं. सब अपना -अपना टिफिन ओपन करती हैं , तभी प्योन सबके लिए प्लेट और चम्मच रखते हुए मैम जी आपका लंच आ रहा है . इच्छा को लगा वह उसी से कह रहा है पर उसने तो मंगवाया नही था तभी वह दोहराता है मैमजी आपका लंच डी डी शर्माजी ने मंगवाया है . राजू गया है लेने उस कम्पनी मे दो प्योन थे.दूसरे का नाम था राजू. सबने अपने -अपने टिफिन मे से एक-एक भाग निकाल कर एक अलग प्लेट तैयार कर दी "लीजिए मैम शुरू करिये" इच्छा को थोड़ा संकोच सा हुआ.अरे मैम आप शुरू करिये उस लंच की चिन्ता मत करिये खत्म होने से पहले वो भी आ जायेगा, तभी दूसरी तपाक से बोली हाँ,और उसका भी काम तमाम हो जायेगा . सभी एकसाथ हँस पड़े,
थोड़ी ही देर मे डी डी शर्माजी द्वारा इच्छा के लिए मंगाया हुआ लंच भी आ जाता है . लगभग पन्द्रह मिनट मे लंच खत्म करके, सारी महिलाए ग्राउण्ड फ्लोर पर इक्ट्ठी होती है. यह पन्द्रह मिनट उनका एन्जोयमेन्ट पीरियड था. यह सब इच्छा को बहुत अच्छा लग रहा था .एक ही दिन मे इच्छा सबके साथ घुलमिल गई हॉलाकि सबके विचार अलग-अलग थे मगर, सब साथ ही लंच करते .और जरूरत पड़ने पर एक दूसरे की मदद भी कर दिया करते. उस कम्पनी मे डी .डी. शर्माजी की धाक सी थी . और हो भी क्यों न एक तो उनका दीर्धकालीन अनुभव .दूसरा मालिको का उनके प्रति सम्मान भाव यहाँ तक कि जाते -जाते दिखने पर डी डी शर्मा जी के पैर तक छूते . डी डी शर्मा हमेशा सबको तू कह कर ही सम्बोधित करते यहाँ तक वहाँ के मालिको को भी तू से ही सम्बोधित करते.आप केवल बाहर से आई हुई पार्टियों के लिए सुरक्षित था. "तू" शब्द उनके अपनत्व गुण का ही प्रतीक था . वह इच्छा को भी अब तू करके ही बुलाते शुरू मे तो इच्छा को बुरा लगता हॉलाकि वह इसका कोई विरोध न करती .लेकिन धीरे -धीरे वह उनके स्वभाव से परिचित हो गई. नौबत यहाँ तक की, जब कभी वे उससे आप करके बोलते तो ,उसे लगता कि सर मुझसे नाराज हैं. आफिस मे डी डी शर्मा जी के अलावा बी के रावत,अकाउण्ट मैनेजर , पी के शर्मा जनरल मैनेजर , जफ़र खान मार्केटिंग हेड, श्रीनिवास और एम के त्यागी वर्कशाप मैनेजर ,आठ सुपरवाइजर कुल सत्तर लोगो का स्टाफ लगभग डेढ सौ मजदूर जो हैमर,कटिंग व सी एन सी माशीन पर कार्यरत थे. सुबह आफिस मे पहुँचते ही, डी डी शर्माजी की आफिस दिनचर्या थी, कि आफिस मे दाखिल होते ही शिव प्रशाद से फोन पर तीन चाय मंगवाना और जोर से आवज मारते हुए"ओय शर्मा ,ओय रावत इधर आ और तीनो सर इक्ट्ठा होके लगभग पन्द्रह मिनट तक गप्पे लड़ाते इसके पश्चात सब अपनी -अपनी सीट पर बैठ काम मे लग जाते . कभी ऐसा भी होता कि उन्हे कुछ गोपनीय बाते करनी होती , तो इच्छा को दूसरी तरफ भेज देते उनका भेजने का अन्दाज कुछ इस प्रकार होता, "इच्छा उठ, जा तू भी अपनी सहेलियों के पास गप-शप लड़ा कर आ" न चाहते हुए भी कुछ समय के लिए इच्छा को अपनी सीट छोड़नी ही पड़ती .वैसे ऐसा कभी कभार ही होता. बीके रावत और पीके शर्मा जी के साथ डी डी शर्माजी की तिगड़ी काफी अच्छी जमती थी. ऐसा नही की पूरा दिन मुहँ बाँध कर काम होता .सारे डिपार्टमेन्ट इस प्रकार बनाए गये थे कि हर कोई खड़े होने की अवस्था मे एक दूसरे को देख सकता था. एक बड़े से हाल को एलमूनियम शीट व प्लाई द्वारा डिवाइड कर केबिन मे परिवर्तित कर दिया गया था. कोई भी व्यक्ति एक जगह खड़े होकर सब पर नजर मार सकता था. डी डीशर्मा जी अपनी सीट पर बैठे हुये ही किसी न किसी को सम्बोधित कर कुछ न कुछ बोलते रहते परिणाम स्वरूप दूसरी तरफ के प्रतित्युत्तर से सारा डिपार्टमेन्ट हँसी ठहाको से भर जाता.
सारा दिन काम के साथ हँसी मजाक चलता रहता. कभी -कभी तो इच्छा से अपनी कम्पनी मे बीती पुरानी बातो को दुहराकर याद ताजा कर लेते . कभी कम्पनी की पीडियों की बाते करते . वहाँ जितने स्टाफ मे थे ,उनके अलावा जो कम्पनी छोड़ जा चुके ,उनके बारे मे भी इच्छा डी डी शर्मा जी से जान चुकी थी. इच्छा के लिए डी डी शर्माजी केवल उसके बाँस नही एक टीचर और एक पिता की तरह थे . वह भी इच्छा को अपनी बेटी की तरह प्यार करते. डी डी शर्माजी अक्सर या लगभग रोज ही खाने पीने की चीज लाते और पूरे स्टाफ को बाँटते उनकी चीजो मे टाफियाँ भी शामिल थी. यही नही ,उस मौके पर यदि वहाँ के मालिक गुजरते दिखे तो ,उन्हे भी अवाज मारकर पास बुला हाथ मे दो टाफी पकड़ा देते . यहाँ के मालिक भी उसे प्रशाद की तरह धन्यवाद देते स्वीकार करते. यह हौसला डी डी शर्माजी के अलावा किसी मे न था. वह जो भी खाने की वस्तु लाते इच्छा को औरों से अधिक देते, यह उनके इच्छा के प्रति प्रेमभाव को प्रदर्शित करता है. मैनेजरों की जुगलबन्दी से पूरे स्टाफ मे भी प्रेम और सहयोग की भावना निरन्तर बनी रहती . कोई भी खुद को दूसरो से बढ़ चढ़ कर दिखाने की कोशिश न करता. डी डी शर्माजी हमेशा से ही एक लीडर की भूमिका मे रहे , यह वर्तमान स्थिति और डी डी शर्मा जी की कहानियो से झलकता था ,जो वे इच्छा को सुनाया करते थे. वैसे तो डीडी शर्मा जी कभी छुट्टी न लेते थे, पर कभी अति आवश्यक कार्यवश आफिस न आ पाते ,तो पूरे स्टाफ का दिन कटना मुश्किल सा हो जाता . हर किसी के मुँह से कई -कई बार उनका नाम निकलता था . ऐसा लगता मानो पूरा स्टाफ ही खाली हो गया हो . वैसे, डी डी शर्मा जी की अनुपस्थिति मे इच्छा उनका पूरा काम संभाल लेती . डी डी शर्माजी के अलावा अन्य डिपार्टमेन्ट के मैनेजरों का व्यवहार भी इच्छा के प्रति अच्छा था. इच्छा मे सीखने की प्रवृत्ति ने उसके व्यवहारिक गुणो को और मजबूत कर दिया था. जहाँ वह कभी किसी के काम को कभी मना न करती वही दूसरी तरफ डी डी शर्मा जी को यह ज्यादा पसन्द न था. उनके सामने यदि इच्छा को कोई अतिरिक्त काम देता ,तो वे किसी न किसी बहाने उन्हे मना कर देते. या किसी अपने डिपार्टमेन्ट के ही कार्य मे बिजी कर देते. खैर ,इच्छा इस बात को समझने लगी थी, इसलिए उनके सामने कोई किसी कार्य को लेकर आता तो हाँ करने से पहले उनसे आग्या जरूर लेती ताकि उन्हे बुरा न लगे. इच्छा को आफिस घर जैसा लगता. यह बात और है कि उसका अपना घर जो समान्य अवस्था मे लोगो के लिए सुकून का विषय समझा जाता .जहाँ लोग अपने पूरे दिन की थकान व आफिस का तनाव मिटाते, इच्छा के साथ यह उल्टा ही था . वैसे तो इच्छा कभी अपने बास डी डी शर्मा जी की बात का जवाब न देती, किन्तु डी डी शर्माजी तो , डी डी शर्मा ही ठहरे वह न तो खुद शान्त बैठते,और न अपने आस पास के लोगो को मौन रहने देते. जो जितना शान्त व्यक्तित्व का होता, वह उतना ही उनके निशाने पर , रोज कोई एक विषय पर चर्चा होती .अपना पक्ष रखने के बाद डी डी शर्माजी इच्छा के विचार जानने की कोशिश करते पहले तो इच्छा यह कहकर तटस्थ होने की कोशिश करती "सर ,मुझे इस बारे मे कुछ नही पता, किन्तु उसकी यह तरकीब काम न आती, और उसे मैदान मे उतरना ही पड़ता. डी डी शर्माजी के अनुभव इतने परिपक्व थे ,कि हर किसी को वे निरूत्तर कर देते. यह जानते हुए कोई भी उनके बहस मे शामिल न होता. जबकि वह आवजे मार मारकर सबको मौका देते.लोग मौन रह मुस्कुराकर ही जवाब देना ज्यादा बेहतर समझते. लेकिन इससे छुटकारा न मिल पाता, फिर तो सुबह से शाम हो जाती उस एक विषय पर बहस करते हुए . डी डी शर्माजी के तर्क बहुत पुख़्ता होते ,किन्तु इच्छा भी अपनी चतुराई से उसे भेद डलती . डी डी शर्माजी का पुरूषबोध, इच्छा की जीत स्वीकार न कर्ता वहीं, इच्छा भी हार मानने को तैयार न होती . वितर्क की कोई काट न मिलने, और साथ ही ,बढ़ती उम्र की झुंझलाहट , कभी -कभी इच्छा के प्रति नाराजगी मे, तब्दील हो जाती थी. लेकिन यह क्षणिक ही होती . कुछ समय बाद सब सामान्य हो जाता. क्रमशः..