Podhe se kaho, mere janmdin par phool de - 2 in Hindi Moral Stories by Neela Prasad books and stories PDF | पौधे से कहो, मेरे जन्मदिन पर फूल दे - 2

Featured Books
Categories
Share

पौधे से कहो, मेरे जन्मदिन पर फूल दे - 2

पौधे से कहो, मेरे जन्मदिन पर फूल दे

  • नीला प्रसाद
  • (2)
  • मां- बेटी के रिश्ते में जो प्रगाढ़ता दिनों- दिन गहरी होती जानी थी, उसे खत्म करने की जिम्मेदार, इस अनूठे रिश्ते की आत्मा के कत्ल की गुनहगार थी मैं!! मैं उदास हो गई. ये दास्तान कुछ अलग तरह से लिखी जा सकती थी. ऐसा बिल्कुल संभव था कि बेटी जैसे- जैसे बड़ी हो, मेरा- उसका दोस्ताना बढ़ता जाय. मैं और बेटी एक दूसरे के ज्यादा करीब होते जाएं.मेरा उससे तेरह साल, सवा आठ महीनों का नाता था- यानी जबसे वह मेरे पेट में आई, तबसे. जाने कितने तो सपने बुने , कितनी कविताएं लिखी, उसके लिए लोरियां बनाईं,.. पर बाहर एक दुनिया थी जो मेरे उसके बीच में थी. वो निरंतर पसरती दुनिया मुझे उससे एकाकार बने रहने में बाधा थी. वो दुनिया उसे और मुझे याद दिला देती थी कि वह एक बिटिया है और उसे बेटी होने के नाते एक तय ढर्रे पर जीना है..

    मैंने आंखें मूंदे सबकुछ याद करने की कोशिश की. सही है, मैं मारती रही हूं. यह जानते हुए भी कि यह हिंसा है- दण्डनीय अपराध. मैं अब भी उसे जबरन खींचती हूं, कभी गुस्से में सिर और शरीर झकझोर देती हूं जोर से.. वह जिद्दी होती जा रही है. पढ़ाई में गैर जिम्मेदारी दिखाती है और मेरे पास वक्त नहीं होता कि उसके नखरे सहूं, उसे मनाऊं.. और साथ ही नहीं होता है धीरज. पर फिर पछताती, गले भी तो लगाती हूं. उसे गुदगुदाकर, हंसा कर उसका मूड ठीक भी तो कर देती हूं. शायद खुद को सुधारने के लिए अब बहुत देर हो चुकी है. अब पानी सर से गुजर चुका है.. अब मेरे उसके रिश्ते का एक पैटर्न तय हो चुका है.. जिसमें उसके दिल से मेरे लिए प्यार गायब है?.

    अब वह किशोरी हो गई है.. उसकी दुनिया बदलती जा रही है. अब सिर्फ और सिर्फ मां उसकी दुनिया नहीं रही. उसमें इंटरनेट की दुनिया, टी.वी, दोस्त लड़के- लड़कियां, मोबाइल, जाने कितनी तो विदेशी अंग्रेजी किताबें, विदेशी सीरियल, विदेशी हीरो- हिरोइन्स, गायक.. सोशल साइट्स, अलग तरह की क्रिएटिविटी घुस आई है- मुझे बुरा नहीं लगता. बस पढ़ाई को लेकर सीरियस बने रहने को झिकझिक चलती रहती है. धीरे- धीरे उसके जीवन में बहुत कुछ या फिर सबकुछ बदल रहा है. नहीं बदले हैं तो हमारे रिश्ते, जो अब भी पहले जैसे ही है. वही गाहे बगाहे तुतलाकर एक दूसरे से बोलना, लड़ना, डांटना, चिढ़ाना- खिजाना.. और मेरा गुस्से में उसे थप्पड़ दिखाना, झकझोर देना, बाहें दबा देना, फिर तुरंत पछताना.. कभी- कभी सॉरी बोल देना. उसका आंसू टपकाना, नाराज होना, धमकियां देना, हाथ पकड़कर खींचना,चिल्लाना,फिर तुरंत हंस देना और गले लग जाना. अभी एक दूसरे को आंखें दिखाना, अभी खिलखिलाकर हंस देना.वह मेरी इकलौती है, मैं उसे बहुत प्यार करती हूं. वह मेरी इकलौती है, मेरी अपेक्षाओं पर खरी न उतरे तो तुरंत नाराज हो जाती हूं. अब अचानक लगने लगा कि जिसे सब ठीक-सा ही समझती जीती रही, उसमें कहीं कोई पेंच था. वह अपनी जिंदगी की स्क्रिप्ट मेरे द्वारा लिखे जाने की कोशिश का अंदर- अंदर विरोध करती, बदल रही थी, विद्रोह में तन रही थी. ऊपर- ऊपर तो हर्ट होने के बाद मान जाने का नाटक कर लेती थी, हंस देती थी खिलखिलाकर, पर अंदर- अंदर लगातार चोट सेती जी रही थी.

    अतीत में कुछ- कुछ तो बहुत ही कड़वा था.

    मैंने हिम्मत करके एक दूसरे दरवाजे को सरकाकर अंदर झांका.

    दिनभर की चिकचिक के बाद लेट हो गई चार्टर्ड बस से उतरकर एक मां को घर घुसते देखा. मां को दरवाजे के पीछे छुपी बेटी ने कमरे के अंदर कदम रखते ही पीछे से लिपटकर बाहों से घेर लिया. मां के पेट को अपनी नन्हीं हथेलियों से कस अपना सर मां की कमर पर लादकर बेटी ने दुलार से कहा – ‘मम्मा,मेली मम्मा..’ मां ने उसे खींचकर सामने किया, खुद से सटाया पर उसके चेहरे, बालों , कपड़ों और पैरों की ओर नजर पड़ते ही झटका खा गई. दिल्ली की ठिठुरानेवाली मारक सर्दी में बेटी बिना स्वेटर, नंगे पांव खड़ी है. सर पर उगे, छोटे छोटे बिखरे- बिखरे से बाल और दोपहर में खाया खाना होठों के गिर्द चिपका . ‘’यह क्या बिट्टी, फिर वही...’’, मां ने हताशा से कहा . ‘आओ, जल्दी से स्वेटर पहनो. खाना खाकर मुंह क्यों नहीं धोया?’. ‘’मैं अंदर से स्ट्रांग हूं- च्यवनप्राश खाती हूं.’’ दोनों पतले- पतले हाथों को हवा में लहराकर, नाक बहाती हुई बेटी बोली. ‘’अच्छा, अच्छा.. स्ट्रांग है तो स्वेटर नहीं पहनते ही नाक क्यों बह रही है तेरी?’” “मुझे तो सरदी में भी गरमी लग रही है. मैं स्वेटर नहीं पहनूंगी”. बेटी जिद पर अड़ गई. उसे ठंढ लगने के अहसास से सराबोर होती मां बोली – “जिद मत कर, जल्दी से पहन ले स्वेटर. बुखार आ जायेगा.” “और नहीं पहनूं तो?” “वह चुनौती देती बोली. “तो, दूंगी दो थप्पड़ खींच के और उठा के बाहर फेंक दूंगी. फिर शुरू कर दिया तुमने वही सब- हर बात में ना बोलना, बात नहीं मानना, अपना ही अहित करना..” . “मुझपर चिल्लाओ मत.” वह चीखकर बोली. “और अबकी मुझ पर हाथ उठा के दिखाना. देखना क्या गत बनाती हूं-“ उसकी बोली में हिंसा भर गई.

    “मम्मा से ऐसे बोलते हैं? चलो इधर आओ, तुरंत.” मां पर, जो उसकी चिंता से अंदर- ही- अंदर मर रही थी, वो कामकाजी महिला हावी हो गई, जिसकी छुट्टियां खत्म हो चुकी थीं और जो इस महानगर में सड़कों पर जिंदगी फेंकती, बेटी के फिर बीमार हो सकने की आशंका से आतंकित, ऑफिस की पॉलिटिक्स से बेजान, अंदर से दुखी- दुखी जीती थी. बिट्टी बॉल उठाकर डाइनिंग टेबल के चारों ओर घूमती खेलने लगी. मा बेडरूम में इंतजार में खड़ी रही कि बेटी को स्वेटर पहना ले तो खुद कपड़े बदले, हाथ मुंह धोए और भूख से तड़पते पेट में अन्न डाले. फिर इंतजार करते चुक चुके धीरज और चिड़चिड़ाए स्वर से मां बोली.. “तुम आ रही हो या आऊं मैं?’- पीटने की धमकी बेटी ने समझ ली और बोली. “नहीं आ रही, बस.” उसके इत्मीनान से मां को गुस्सा आ ही गया. वह लपकी हुई गई और बेटी का हाथ झटके से अपनी ओर खींचा. गड़बड़ा गए संतुलन से बेटी आगबबूला हो गई.”कह दिया नहीं आ रही-“ वह चीखी. “मैं बता रही हूं न, कैसे आते हैं.” उसकी दोनों बाहें कंधे के नीचे से पकड़ इतनी जोर से दबा दी गईं कि दोनों हाथों की पतली- पतली हड्डियां मां को महसूस होने लगीं “नहीं आयेगी तो हाथ तोड़ दूंगी-“ मां ने खुद को कहता पाया. यह तो सरासर गलत है- भाषा भी, व्यवहार भी - मां के मन में आया. ” भिंचे हुए दांत, कर्कश आवाज, बढ़ी हुई धड़कन और बेटी को लगातार झकझोरते हाथ..”चल तुझे घर से बाहर करती हूं. आधी रात को पापा के साथ अंदर आना.” बेटी अपमानित महसूस करती रोने लगी. “छोड़ो मुझे, छोड़ो मुझे..” वह बोली. ”तुम्हें हर समय बस मांगना आता है- ये ले दो, वो ले दो.. पर न बात मानना, न पढ़ना.. दूसरों के घर बरतन मांजेगी बड़ी होकर.. कमरा बिखरा, खुद गंदी, पढ़ाई बरबाद.. क्या करना चाहती है तू जिंदगी का आखिर..” अधिकतम ताकत से झकझोरती मां के दिमाग में अचानक कुछ कौंधा और दिमाग सुन्न हो गया. अखबार में पढ़ी वो खबर याद आ गई कि निर्ममता से झकझोरे जाने से एक बच्चा ब्रेन फेल होने के कारण मर गया. मां ने उसे झटके से छोड़ दिया. “क्या इसने दूध पी लिया है?” “.नहीं”. सजी- धजी, चाय पी चुकी नौकरानी हमेशा की तरह बेपरवाह बोली. “इसने कहा, मम्मा के आने पर पीऊंगी”. “दे दो जल्दी से-“ घड़ी में साढ़े सात. “ओ बिट्टी, कब तू दूध पियेगी, कब होमवर्क करेगी, कब रात का खाना खायेगी, कब सोयेगी?.. जल्दी से पांच मिनट में दूध खतम कर”. मां के स्वर की नरमाई भांप बेटी बोली. “क्यों, छह मिनट में क्यों नहीं पी सकती?”. “वैसे तो तेरी उमर के बच्चे दो मिनट में पीते हैं पर तू आलसी और बेवकूफ है तो छह मिनट ही सही”. गुस्सा दबाकर कपड़े बदलती मां ने कहा . दस मिनट बाद तक दूध टेबल पर जस- का- तस रखा और सोफे पर पसरी जम्हाइयां लेती बेटी. “अब क्या हुआ महारानी?”. मां फिर से गुस्सा. ”पहले टी वी चलाने दो- फिर टी वी देखती हुई पीऊंगी.” बेटी का जवाब “यानी आधे घंटे में. समय देखा है? आठ बज चुके हैं. फिर कब होमवर्क करेगी, कब खाना खाकर सोयेगी- रात के बारह बजे?” “हां, क्यों नहीं?. मैं आधी रात तक जाग सकती हूं.” “पर फिर अगली सुबह जल्दी तो नहीं उठ सकती न. स्कूल नहीं जाना?. बेकार की बहस कर रही है.” ”मैं अगली सुबह जल्दी भी उठ सकती हूं. रात के दो बजे सोए, फिर छह बजे उठ गए- जैसे पापा करते हैं.” पर पापा तो तुम्हें स्कूल पहुंचाकर, घर आते ही फिर से सो जाते है.. सिर्फ चार घंटे नहीं सोते.” “मैं तो चार घंटे ही सोऊंगी.. और वैसे भी मैं बड़ी होकर तुम्हारी तरह अफसर नहीं बनूंगी. पापा की तरह जर्नलिस्ट बनूंगी.” “जो चाहे सो बनना. अभी दूध खतम कर और जल्दी से पढ़ने बैठ. नहीं तो चपरासी भी नहीं बन पाएगी”. दूध का गिलास उसके होठों से लगा दिया गया. उसने घूंट नहीं लिया. थप्पड़. दूध फेंककर रोती बेटी. पीटती मां. बेटी का ऊंचा होता सुर.. फिर ठंढी जमीन पर लोट जाना- बिना स्वेटर. “तुम्हें मेरी बॉ़डी की कोई परवाह नहीं है. मेरे हाथ टेढ़े हो सकते हैं, मेरा शरीर टूट भी जा सकता है.” अपनी हथेली ललाट पर दे मारती और रोती मां “मैं पागल हो जाऊंगी, दिल का दौरा पड़ेगा मुझे. फिर मर जाऊंगी- तब करना अपने मन की. दिन भर टीवी से आंखें फोड़ना, खेलना, बीमार रहना.. हॉस्टल में रहना.. बल्कि अभी ही क्यों न हॉस्टल में फेंक आया जाय तुम्हें??” हताश हो गई ,भूख से तड़पती मां ने कहा. “मुझे अपना चेहरा मत दिखा, मेरे पीछे मत आ.” और बिस्तर पर भूखी ही जा गिरी. आंखें मूंद लीं और पछताई. गलती मेरी थी- पूरी तरह मेरी. अगर गुस्से पर काबू कर लिया होता तो..वह प्यार से जरूर मान जाती. डांटने के बदले उसे गालों पर चुम्मी करके भी स्वेटर पहनने के लिए कह सकती थी.. और इतनी डांट के बाद उस भूखी को दूध पीने को नहीं कह के कोई पसंद की चीज खाने को दे देती..अब होम वर्क तो नहीं ही होगा, क्या पता खाना भी खायेगी या नहीं!यही है मैनेजमेंट में की गई मनोविज्ञान की पढ़ाई का नतीजा? घड़ी में पौने नौ. पूरी शाम बहसों, डांट मार और रोने में समाप्त. बिटिया से फोन पर दोपहर में बात हुई तो उसने कहा था- तीन होमवर्क हैं. मां स्वचालित ढंग से उठी. उसके स्वेटर, मोजे, स्कार्फ उठाए. सोफे पर गुस्साई बैठी, जम्हाइयां ले रही और बीच- बीच में सुबक रही बेटी को एक शब्द कहे बिना मां ने स्वेटर पहनाना शुरू कर दिया. बेटी ने हाथ ऊपर करके स्वेटर पहन लिया. मां ने पांव में मोजे डाले तो उसने स्कार्फ खुद बांधना शुरू किया. चल गरम पानी से मुंह धो लें- मां ने कहा तो वह आज्ञाकारी बच्ची की तरह उठ खड़ी हुई. “मैं तुम्हें बहुत दुख देती हूं न. मारने वाली बुरी मम्मा हूं मैं-“ गीली आंखों से मां ने कहा. “पर तुम्हें भी तो मम्मा की बात माननी चाहिए न. मम्मा थककर घर आए तो उसे सताना नहीं चाहिए न”.” उसे बिस्तर पर खड़ी करके गीले तौलिए से उसका मुंह पोंछती मां बोली. बेटी ने एक क्षण मां की गीली आंखों को देखा और झटके से लिपट गई. “ऐसा मत बोलो मम्मा कि तुम पागल हो जाओगी, मर जाओगी. फिर तो मैं भी मर जाऊंगी.” वह सुबक- सुबक कर रोने लगी. “सॉरी मम्मा, सॉरी. रोओ मत मम्मा.” उसने जोर से मां को खुद से चिपका लिया. ““मैं अच्छी बनना चाहती हूं, पर बन नहीं पाती.. तुम्हारे बिना तो मैं रह ही नहीं सकती. रात को सो नहीं सकती.. तुम्हारे बिना रात को नींद कैसे आएगी. सिर्फ पापा के साथ मैं नहीं रह सकती. मैं मम्मा की हूं और मम्मा मेरी है. और किसी की नहीं. मैं तुम्हारी हूं मम्मा.. “ उसकी हिचकियां तेज होने लगीं. मां की बाहों में एक झरना बहने लगा.उसकी फुहारें, उन फुहारों से उठती बूंदें, झरने का वेग, उसका उद्दाम सब उसे छूने, भिंगोने लगे - आहिस्ता, आहिस्ता.. फिर यह आहिस्ता, आहिस्ता बहुत तेज हो गया और उसमे मां- बेटी पूरी- की- पूरी समा गईं.

    लगभग इसी तरह की घटना उन दिनों बार- बार हुई. मैं बार- बार रोई, वह बार- बार रोई. फिर हर रोज हममे दोस्ती हो जाती रही और मेरे जाने, उस पीटने- मनाने से परे हम दोस्त होते गए.. पर मैं शायद गलत थी. हर एक घटना हममें अलगाव पनपा, बढा़ रही थी.

    पर वह जैसे- जैसे बड़ी हुई मुझे उससे डर लगने लगा. वह मेरी चालाकियां समझने, उघाड़ने और नाकामयाब करने लगी थी. कभी- कभी तो ऐसा लगता थी कि वह मेरी होते हुए भी मेरी थी ही नहीं. मैंने तो बस उसकी मां होने के नाते मान लिया था कि वह मेरी है और मेरी ही रहेगी- वैसी ही, जैसा मैं चाहती रही हूं. मैं उसकी दुनिया नियंत्रित करना चाहती थी, वह मेरी. हर मां की आदिम इच्छा कि बेटी अपने वैल्यू सिस्टम की हो. हर बेटी की आदिम इच्छा कि उसे उसकी तरह होने दिया जाय.

    एक और दरवाजा खुल गया.

    मैं नम आंखों से और मैं पीछे चली गई. मेरी नरम दिल कल्पना की दुनिया में जीती बिट्टी के कमरे में आसमान छत से चिपक गया था. टिमटिमाते तारे, सूरज और चांद एक साथ उसे नजर आ रहे थे .. मम्मा के गुस्से से सूरज पिघलकर कमरे की हवा में मिल गया था और वह रो रही थी कि तुम्हारे गुस्से के कारण ही चंद्रमा गायब हुआ .. अभी तक तो मुझसे बातें कर रहा था. पिछले दिन वह छत पर गई तो चांद उसे खा गया था. वह बड़ी मुश्किल से उसके पेट से निकल कर आ पाई थी...पीटती मां को अपनी मीठी आवाज में कह रही थी- “मम्मा तुम गंदी हो. क्या तुम्हें स्कूल में यही सिखाया गया था कि बच्चों को पीटो. मुझे पता है पीटोगी, फिर पछताओगी और रात को सो नहीं पाओगी. तुम्हें सारी रात गंदे सपने आएंगे.. और मै बड़ी होऊंगी तो तुम्हारे लिए कुछ नहीं खरीदूंगी.. रोती रहना तब.” मेरा हाथ रूक जाता. पूछती- “पढ़ोगी ही नहीं तो नौकरी कैसे पाओगी. कमाओगी नहीं, तो खरीदोगी कैसे?” “क्यों नहीं पढ़ूंगी. तुम प्यार से कह कर तो देखो..” दुबली- पतली वह रोती हुई कह रही थी. “अच्छा, चल शुरू करें-“ मैं एकदम नरम पड़ गई. “पहले चुप कराओ. मैं चुप नहीं हो पा रही-“ गालों पर बहती आंसुओं की धार अपनी छोटी सी हथेली मे समेटने की कोशिश करती वह जब भी ऐसा कहती, मेरा कलेजा उमड़ आता और अपनी सिसकी रोकती मैं बाहें फैला देती- “आ जा मेरी जान. मैं तो तुम्हें मजबूरी मारती हूं- जब तुम पढ़ती ही नहीं. देखो तुम तो होमवर्क तक नहीं करती. फिर मम्मा को स्कूल में सुनना पड़ता है. चिंता होती है, बड़ी होकर क्या करेगी तू.? तुम्हें पता है न, कि मम्मा तुम्हें बहुत प्यार करती है.” वह मेरे सीने से लग जाती और गालों पर चुम्मी देती हुई कहती- “मैं भी तुम्हे् बहुत प्यार करती हूं मम्मा.” हम दोनों के दिलों में चंद्रमा की शीतल रोशनी भर जाती. बिट्टी की आंखों में तारे झिलमिलाने लगते. मैं कहती तू तो मेरे ख्वाबों में लिखी जा रही कविता है बिट्टी, और बिट्टी बिना समझे हंस देती.

    क्रमश..