Kuber - 22 in Hindi Moral Stories by Hansa Deep books and stories PDF | कुबेर - 22

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कुबेर - 22

कुबेर

डॉ. हंसा दीप

22

हर कारोबारी की सफलता का सूत्र वाक्य था यह।

किसी और जगह होता तो गुस्सा रोक पाना मुश्किल हो जाता लेकिन ये स्थितियाँ अलग ही थीं। किसी को पसंद नहीं है तो नहीं है, कारण जो भी बताए जा रहे हों। आज नहीं तो कल कोई न कोई ग्राहक तो होगा जो इसे खरीदेगा तब यह मेहनत काम आ ही जाएगी। यह एक ऐसा अनुभव था जो स्थान परिवर्तन और काम परिवर्तन के बदलावों को इंगित करता था। इस प्रोफेशन में बेहद धैर्य की आवश्यकता थी। पचास मकान देखने के बाद कोई एक पसंद आ भी जाए तो ज़रूरी नहीं है कि ग्राहक उसे ख़रीद ही लेगा। उसके बाद भी मोल-भाव चलता रहेगा – “इस मकान की क़ीमत बाज़ार के भावों से अधिक है।”

“आपको अपना कमीशन थोड़ा कम करना चाहिए ताकि हमें उचित दाम पर मकान मिल सके।”

“आप इस क़ीमत में ये सारा फर्नीचर भी शामिल करवा दीजिए।”

“आप मकान के मालिक को कहिए कि छत का काम करवा कर दे।”

इन सारी बातों के अलावा पाँच से दस दिन की फाइनेंस कंडीशन और इन्सपेक्शन कंडीशन थी ही। यह थी सौदे में सामने वाले को पूरी तरह से निचोड़ लेने वाली बात कि अगर सौदा पक्का करना हो तो इन सब बातों को मानना होगा वरना सौदा ख़त्म।

अपने गुस्से को पूरी तरह नियंत्रित रखकर जिस तरह डीपी उनके साथ बगैर चिड़चिड़ाए रहा वह क़ाबिले तारीफ़ था। उसे ख़ुद पर आश्चर्य हो रहा था। हालांकि बाद में ग्राहक की पत्नी ने भी उसके धैर्य की सराहना की थी। यह स्वयं के साथ एक जीत थी। अपने गुस्से को काबू में रखने की जीत जो हर बार पराजय के साथ अनियंत्रित हो जाता था, उस गुस्से को भी अब वह जीत चुका था। यह तय था कि अब एक हद तक शायद वह अपने हर मनोभाव पर नियंत्रण पाना सीख गया है।

उम्र की लकीरों में समझने और समझाने का कौशल छुपा होता है जो हर बढ़ती लकीर के साथ निखरता जाता है।

एजेंट और ग्राहक के इतने अलग-अलग बिन्दुओं के विवाद के बाद, इतनी मशक्कत के बाद भी सौदे होने लगे थे और आराम से होते थे। डीपी के तेज़ दिमाग़ की तेज़ी रियल इस्टेट के हर अंदाज़ को पहचान रही थी। बातचीत का प्रारंभ, मौसम की औपचारिकताएँ, सौदेबाजी की कला, मीठी-मीठी बातों की कला, हास-परिहास की कला, क़ानून, क्रेडिट और हर सौदे के बाद की मुस्कान। इसके बाद अगले सौदे की तैयारी। सब कुछ इतना गतिवान था कि उसे लगा उसके जीवन को ऐसी ही गति चाहिए थी, बचपन से जिसकी ख़्वाहिश थी। अपने घर से स्कूल तक की पैदल यात्रा में लंबी सड़क पर दौड़ती हुई गाड़ियों को देखते हुए जो कुछ भी सोचा करता था वह सब कुछ आज उसके साथ था।

न्यूयॉर्क में ज़िंदगी दौड़ती है। वह तैयार हो चुका था इस दौड़ में शामिल होने के लिए। इस महानगरीय दौड़ के लिए अभी-अभी तो घुटनों के बल चलकर खड़ा होना सीखा था और चलते-चलते दौड़ने की तैयारी कर रहा था। बहुत चल लिया था, अब तो दौड़ना था उसे। मन बना लिया था यहाँ पर रहकर कुछ ख़ास करने का, इस नयी दौड़ में शामिल होने का। एक ऐसी दुनिया बनाने का जो कभी किसी बात की कमी को महसूस न होने दे।

दादा की, नैन की बहुत याद आती थी ऐसे समय जब कोई भी बदलाव आता। बड़े फैसलों को लेने के लिए उसका बड़ा सपोर्ट वे दोनों ही थे। नैन से तो अपने जीवन पर्यन्त साथ निभाने का वादा किया था। समय का एक खूबसूरत अंश नैन उसे तोहफ़े में दे कर गयी है जिससे जीवन का एक आवश्यक पहलू अपना आकार ले पाया। कभी नहीं लगा कि उसकी शादी नहीं हुई है या उसका कोई परिवार नहीं है। वह हर क़दम पर साथ ही थी। क़दम-क़दम पर लगता कि जैसे उसकी चिर-परिचित मुस्कान उसके साथ चल रही है। ऐसा लगता जैसे वह मुस्कान उसे आगे बढ़ने के लिए प्रोत्साहित कर रही है। एक ऐसा संबल जो उसे कभी रुकने नहीं देता। “चलते रहो” के अंदाज़ में आगे-आगे चल कर उन रास्तों से नये रास्ते बनाता। न्यूयॉर्क की सड़कों पर घूमते हुए लगता कि नैन हर कहीं है उसके साथ, उसके मनोमस्तिष्क में, उसके ख़्यालों में, उसके शरीर के हर स्पन्दन में।

क्योंकि नैन को सैर सपाटे का शौक था, उसके साथ समय बिताते हुए उसे भी घूमना अच्छा लगने लगा था। उसकी यादों में खोते हुए डीपी वे सारे काम करना चाहता था जो अगर नैन होती तो ज़रूर करती। इस तरह वह दिन के उन पलों में जब थोड़ा सुस्ताने का समय होता तो नैन के अदृश्य नैनों में खोने लगता। उसकी इस मनोयात्रा में वह होता और उसकी अपनी नैन होती। मनों का मिलन होता और फिर से काम करने की ऊर्जा मिलती और काम के लिए पूरा समर्पण भाव उसके साथ-साथ चलता। ऐसा होता है उदात्त प्रेम, प्रेम को किसी की भौतिक उपस्थिति नहीं चाहिए, शब्द नहीं चाहिए। एकाकी होकर भी प्रेम की तीव्रता वह अपने भीतर कहीं बहुत दूर तक महसूस करता।

फ्लशिंग में अपने अपार्टमेंट में जाते हुए वह अक्सर भाईजी जॉन के घर चला जाता, जहाँ वे अपनी पत्नी और दो बच्चों के साथ रहते थे। भाईजी के परिवार का एक अहम् हिस्सा बन गया था डीपी। वहाँ आने-जाने से बच्चों के साथ खेलने से उसे जो अपनापन मिलता था वह एक हद तक मैरी की कमी को पूरा करता था। बच्चे के जन्मदिन पर या किसी ख़ास मौक़े पर डीपी का नाम सबसे ऊपर होता। वह भी अपनी ज़िम्मेदारी को समझते हुए कई व्यवस्थाएँ अपने हाथ में ले लेता। बच्चों के लिए अंकल डीपी उनके एक हमउम्र दोस्त की तरह थे जो हमेशा उनके साथ उनके पसंदीदा खेलों में जी भर कर खेलते और जी भर कर मस्ती करते।

भाईजी जॉन की पत्नी से देवर-भाभी का एक स्नेहिल रिश्ता था। भाभी भी अपनी भारतीयता के बगैर भारतीय बनने-रहने की कोशिश करतीं जो डीपी के लिए एक सीख थी कि राष्ट्रीयता, भाषा, धर्म, संस्कृति, व्यापार से परे है प्यार की भाषा, इज्ज़त की भाषा और समान विचारों की भाषा। इस देश में आकर ऐसे कई पाठ पढ़ चुका था वह जिनके बारे में भारत में रहते बहुत सोचने की आवश्यकता ही नहीं पड़ी थी।

न्यूयॉर्क की भागमभाग भरी ज़िंदगी उसे ख़ुद के अधिक पास ला रही थी। ऐसा नहीं था कि वह आत्मकेंद्रित होता जा रहा था पर यहाँ लोगों के साथ कामकाजी रिश्ते ही बन रहे थे। वह सब से क़रीबी और आत्मीय रिश्ते बनाना चाहता था पर एक सीमा पर आकर दोस्ती ठहर जाती थी। शायद इस कारण भी नैन के साथ माँ-बाबू, दादा हमेशा उसके ज़ेहन में ही रहते उनकी उपस्थिति तो उसकी धमनियों में बहते ख़ून की तरह थी। कुछ रिश्तों के विकल्प होते ही नहीं हैं। विकल्प तलाशने की कोशिश भी बेकार है।

जीवन में किसी ताम-झाम की उसे ज़रूरत नहीं थी पर यहाँ के जीवन से गति मिला कर तो चलना ही था। कार ख़रीदी, बिज़नेस सूट खरीदे। एक जमा पूँजी थी मन में दादा की दी हुई कि – “सब अपने हैं, सबका दु:ख अपना है, सबकी ख़ुशी अपनी है।” जिस शहर में ‘अपना’ भी ‘अपना’ नहीं होता उस शहर में डीपी के इस बर्ताव ने उसे सबका चहेता बना दिया था। हर किसी की समस्या उसकी अपनी होती, हर किसी की ख़ुशी उसकी अपनी होती। जहाँ लोग दूसरों के ग्राहकों को खींचने के लिए जी-जान एक कर देते, वहीं डीपी दूसरों की मदद के लिए अपने ग्राहकों को भी उनकी सिफारिश करता। लोगों की विशेषज्ञता को पहचानना और यथासमय उनसे काम लेना, यह एक ऐसा गुण था डीपी में जो उसे दूसरों से अलग करता था।

इस सहायक भाव की प्रवृत्ति से उसकी एक टीम बनने लगी। वक़्त-बेवक़्त के ऐसे काम जो और कोई नहीं कर पाता डीपी उन सब कामों के लिए हाजिर होता। उसकी कोशिश होती कि अपनी टीम में वह ऐसे लोगों को जोड़े जिनका वह दीर्घकालीन साथ चाहता है। क्षणिक या किसी शीघ्र लाभ कमाने वाली योजना का हिस्सा बनकर वह लालची और स्वार्थी नहीं बनना चाहता था। उसके ग्राहक किसी ख़ास बिक्री या ख़रीदी के लिए, बिना किसी उचित कारण के, अति उत्साहित हो जाते तो उनकी सोच पर ब्रेक लगाने का काम डीपी का होता। जब इस ठहर जाने के परिणाम ग्राहकों के पक्ष में आते तो उसकी विनम्रता और स्वयं श्रेय न लेने की प्रवृत्ति उस ग्राहक को ज़िदगी भर के लिए अपना बना लेती। अब लोगों पर उसका विश्वास जमने लगा, काम जमने लगा और नाम भी जमने लगा।

क्लाइंट बढ़ने लगे थे, उसके आत्मविश्वास को सबल बनाने के लिए यह ज़रूरी था। भाईजी जॉन की मार्गदर्शक योग्यता उसे नये आयाम खोजने को बेताब करती। डीपी की जीत, जॉन की बड़ी जीत होती थी, मन की भी, धन की भी, पर अब यह समूची टीम की जीत होती। जॉन को इस बात की ख़ुशी थी कि डीपी ने टीम संस्कृति की शक्ति पहचानी थी और उसकी ब्रोकरेज टीम को डीपी ने अपने अनुभवों से समृद्ध किया था।

अब जॉन को डीपी के लिए एजेंट का काम छोटा लगने लगा। उसे बढ़ावा दिया कि वह अपने सौदे शुरू करे – “डीपी अब ख़ुद अपने सौदे शुरू करो ताकि कुछ सालों में अपने निवेश पर तुम अधिक मुनाफ़ा कमा सको।”

“क्या ख़रीदने में फोकस करूँ भाईजी, कांडो फ्लैट या टाउन होम या फिर बड़े मकान?”

“बड़े मकान को छोड़कर दोनों निवेश तो अच्छे होंगे क्योंकि ये किराए पर उठ जाएँगे और अच्छा किराया इनके सारे ख़र्च को वहन कर लेगा। इस तरह एक बार निवेश करो और बाकी सारे ख़र्चों का बंदोबस्त यूनिट ख़ुद ही कर लेगी।”

“बड़े मकान में किराएदार मिलना भी मुश्किल होगा।”

“हाँ, बड़े मकान में इस तरह का ख़तरा रहता है क्योंकि सामान्य आमदनी वाले तो इन्हें अफोर्ड नहीं कर पाएँगे।”

“ऐसे बड़े पुराने मकानों को ख़रीदकर दो-तीन किराए की यूनिट बनायी जाए तो कैसा रहेगा भाईजी?” डीपी की रूचि इस बात में ज़्यादा थी कि पुराने घरों को ख़रीद कर उनको ध्वस्त कर आधुनिक सुविधाओं के साथ पूरी तरह से नया बना कर बेचा जाए। इस प्रक्रिया में यदि वह कुछ बड़े-बड़े मकानों को कम आकार वाले पर अधिक सुविधायुक्त बना सके तो न केवल वे ज़्यादा यूनिट्स बना सकेंगे, बल्कि रो-हाउस या टाउन होम्स जैसे अपेक्षाकृत सस्ते घरों के लिए नई माँग और नया बाज़ार बना सकेंगे। वे उन्हें लागत से कई गुना ज़्यादा क़ीमत पर बेच पाएँगे। मगर अब यह सब उसे भाईजी जॉन के साथ या उनका कर्मचारी बनकर नहीं अपितु, ख़ुद अपने लिए और अपनी कंपनी के लिए करना है।

“विचार अच्छा है पर उसके लिए कन्स्ट्रक्शन की पेचीदगियाँ परेशान कर सकती हैं। मैंने की थी यह कोशिश पर बहुत झमेले में पड़ गयी थी वह प्रॉपर्टी। कभी फर्श लगाने वाला नहीं आ रहा है, तो कभी प्लम्बर ने काम ठीक से नहीं किया है, कभी इलेक्ट्रिशियन की ग़लती से कनेक्शन की परेशानी हो रही है, तो कभी फिनिशिंग अव्वल दर्ज़े की नहीं है। उस ख़राब अनुभव के बाद फिर यह कोशिश नहीं की मैंने। बहुत तंग आ गया था, जैसे-तैसे करके उससे बाहर आ पाया और फिर इस इरादे को वहीं छोड़ दिया।”

भाईजी का सालों का अनुभव उसे अपना रास्ता चुनने में मदद कर रहा था।

बूँद-बूँद से सागर भरना था। बूँद-बूँद इकट्ठा कर रहा था डीपी। शायद अपने सागर में समाने के लिए सारी बूँदें भी बेताब थीं। जिस तरह एक-एक क़दम आगे बढ़कर वह एक सफल न्यूयॉर्कर में तब्दील हो रहा था, वह उसकी मेहनत थी जो नयी ज़मीन में नया पौधा रौपकर, नया पेड़ बनाने की हर संभव चेष्टा में थी।

अब डीपी के लिए भाईजी जॉन के फ्लशिंग के अपार्टमेंट से निकल कर कहीं और जाने का समय था। भाईजी के दिए आशियाने को उन्हें वापस सौंपकर अपने लिए एक कांडो फ्लैट ख़रीदना था भारतीय बाज़ार के पास, जैक्सन हाइट्स के नज़दीक। एक मकसद था वहाँ रहने का। एक तो भारतीय खाना आसानी से उपलब्ध हो जाता, दूसरा कई भारतीय लोगों से बातचीत होती जो उसके अपने काम को फैलाने में मदद कर सकती थी।

अपना काम आगे बढ़ाने के लिए उसने कई लोगों से संपर्क करना शुरू किया। भारतीय दुकानों पर अपना परिचय देता। प्रतिस्पर्धी कमीशन के साथ अपनी उपलब्धियों की चर्चा करता, अंग्रेज़ी में भी और हिन्दी में भी। सामुदायिक आयोजनों में उसकी हिस्सेदारी महत्त्वपूर्ण बनने लगी। इससे सबसे बड़ा फ़ायदा यह हुआ कि लोग उसे जानने लगे, पहचानने लगे। डीपी को बिज़नेस मिले न मिले, उसके आने-जाने से उन लोगों को तो बिज़नेस मिल ही रहा था। साथ ही जीवन-ज्योत का भी प्रचार-प्रसार करने की कोशिश होती ताकि डोनेशन के लिए लोगों को प्रेरित किया जा सके लेकिन अभी तक यह कोशिश नाक़ामयाब ही रही थी।

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