swadharm in Hindi Mythological Stories by Arjit Mishra books and stories PDF | स्वधर्म

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स्वधर्म

हम सभी बचपन से ही रामायण की कहानी पढ़ते आये हैं, जिसमे मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम अहंकारी रावण का वध करते हैं| अभी हाल में ही टीवी पर रामायण धारावाहिक का पुनः प्रसारण शुरू हुआ, जिससे नयी पीढ़ी को इस राम कथा को देखने का अवसर मिला| इस धारावाहिक के कुम्भकरण के प्रसंग ने कुछ मन को विचलित सा कर दिया| कुछ अनुत्तरित से प्रश्न मस्तिष्क में कौंधने लगे| विशेषकर रावण-कुम्भकरण संवाद और कुम्भकरण-विभीषण संवाद| इन दोनों संवादों में एकरूपता भी है, जैसे एक में कुम्भकरण रावण को समझाने का प्रयास कर रहे हैं तो दूसरे में विभीषण कुम्भकरण को किन्तु अंत में दोनों ही नहीं समझा पाते, और विभिन्नता भी है क्योंकि एक में धर्म अहंकार को समझा रहा है और दूसरे में धर्म धर्म को ही समझा रहा है क्योंकि कुम्भकरण और विभीषण के धर्म की परिभाषा पृथक है|

रावण-कुम्भकरण संवाद में कुम्भकरण राजपरिवार के सदस्य और राजा के भाई होने के नाते उन्हें इस बात का आभास कराते हैं कि उन्होंने अनुचित कार्य किया है और सुधार कर लेने के लिए मनाने का प्रयास करते हैं| इस प्रकार कुम्भकरण स्वयं को एक महाज्ञानी, प्रजापालक, सत्पुरुष और राजा को उचित सलाह देने वाले के रूप में स्थापित करते हैं| किन्तु जैसे ही बात बड़े भाई की आज्ञा और उसके हित की आती है, कुम्भकरण एक अनुज के रूप में परिवर्तित हो जाते हैं जहाँ अपने भाई की समस्या का निदान करना उनका परम कर्त्तव्य है|

इसी प्रकार कुम्भकरण-विभीषण संवाद में कुम्भकरण ये जानते हुए की श्री राम रूप में साक्षात् नारायण के समक्ष युद्ध में उनकी मृत्यु निश्चित है, युद्ध से हटने को तैयार नही होते| ये जानते हुए भी की उनके भाई से अक्षम्य अपराध हुआ है कुम्भकरण अपने भाई की रक्षा के लिए मृत्यु का आलिंगन करने के लिए तैयार हैं|

यही सब सोंचते हुए कब नींद आ गयी पता ही नही चला| स्वप्न में मैंने देखा की विभीषण की मृत्यु के बाद एक बार तीनो भाई – रावण, कुम्भकरण और विभीषण भगवान चन्द्रगुप्त के दरबार में मिले| कुम्भकरण के केस की सुनवाई चल रही थी| सबसे पहले रावण ने अपना पक्ष रखना शुरू किया|

रावण ने कहा “भगवन, मैंने जो कुछ भी किया, अज्ञानतावश या अहंकारवश, आप मुझे उसका जो चाहे दण्ड दें| किन्तु मेरे कुम्भकरण को क्षमा कर दें क्यूंकि ये निरपराध है| इसने मुझे बहुत समझाने का प्रयास किया किन्तु मैं अहंकार की आंखों पर पट्टी लगाये कुछ देख ना सका| अपने भाई की रक्षा करते हुए इसने अपने प्राण गवाएं है, भाई के प्रति अपने धर्म को निभाने का उच्च आदर्श समाज के सामने प्रस्तुत किया है| अतः इसे क्षमा करते हुए अनंत काल तक इसको भ्रातृ-धर्म के सर्वोच्च उदहारण के तौर पर स्थापित किया जाये”|

फिर विभीषण ने पक्ष रखा “भगवन, ये सत्य है की अग्रज कुम्भकरण हम दोनों ही भाईओं से अगाध स्नेह करते हैं, ये भी सत्य है की उन्हें सीता हरण की कोई जानकारी नही थी, ये भी सत्य है की उन्होंने भाई रावण को समझाने का बहुत प्रयत्न किया| किन्तु अंत में उन्होंने धर्म का अनुसरण नही किया| प्रत्येक प्राणी के जीवन में एक समय आता है जब उसे सत्कर्म और दुष्कर्म में से अथवा सदाचारी और दुराचारी में से एक को चुनना होता है | भाई कुम्भकरण के समक्ष भी यह अवसर था, वे यदि चाहते तो सदाचारी श्री राम के साथ आ सकते थे किन्तु उन्होंने रावण को चुना| यही उनका अपराध है क्यूंकि किसी के लिए भी सत्य को नही छोड़ा जा सकता|

इस पर कुम्भकरण ने पूछा “ये माना की तुम्हे भाई रावण ने लंका से निकाल दिया था किन्तु तुम कहीं अन्यत्र भी जा सकते थे, तुम शत्रु से ही जाकर क्यूँ मिले?”

विभीषण ने उत्तर दिया “भैया, गुरुजनों से विमर्श करके ही मैंने यह निर्णय लिया था कि मैं यदि श्री राम के साथ रहूँगा तो लंका की निर्दोष जनता की सुरक्षा कर पाऊँगा और शायद युद्ध भी टाल सकूँ|

कुम्भकरण ने क्रोधित होते हुए पूछा “यदि तुम जनता की सुरक्षा और युद्ध टालने के लिए श्री राम के पास गए थे तो तुमने भाई रावण के वध के लिए नाभि पर तीर चलाने को श्री राम को क्यों कहा| जबकि मंत्रियों के भारी विरोध के बीच भाई रावण ने तुम्हे जीवित ही लंका से निकलने का अवसर दिया था तब भी तुम अपने भाई की मृत्यु का कारण बने”|

अंत में कुम्भकरण ने कहा “भगवन, मुझे लगता है मैंने अपने सभी धर्मों का निष्ठा पूर्वक पालन किया है| सबसे पहले राजपरिवार का सदस्य और राजा का भाई होने के नाते मैंने भाई रावण को इस बात का आभास कराया की उन्होंने अनुचित कार्य किया है और सुधार कर लेने के लिए मनाने का प्रयास किया| उन्हें यह भी समझाया की उन्हें चापलूस मंत्रियों की राय से कोई कार्य नही करना चाहिए| जब उन्होंने भाई के कर्त्तव्य को पुकारा तो मैं सर्वस्व बलिदान करने को तैयार हो गया| मैंने सोंचा की शायद भगवान श्री राम के हाथों मेरा वध हो जाने से भाई रावण ये समझ जायेंगे कि श्री राम अपराजेय हैं और समर्पण कर देंगे| इस प्रकार मेरे भाई, मेरे कुल, लंका के निवासियों सहित सम्पूर्ण राक्षस जाति की रक्षा हो जाएगी| मैंने युद्ध भूमि में विभीषण, सुग्रीव, अंगद इत्यादि का वध भी नही किया अपितु विभीषण से यह कहा की उसे ही हम सबकी अंतेष्टि करनी है क्यूंकि वही जीवित रहेगा| और अंत में मैं श्री राम के हाथो से मृत्यु को प्राप्त हुआ| इस प्रकार मैं मानता हूँ की मैंने स्वधर्म का पालन करते हुए युद्ध भूमि में वीरगति प्राप्त की है| अब यदि मुझे मेरे भाई के साथ अनंत काल तक जलाये जाने का दण्ड भी मिलता है तो मुझे सहर्ष स्वीकार है|

तभी मेरी नींद खुल गयी, मेरे दिमाग में अभी भी वही चल रहा था कितना कठिन है ये समझना की विभीषण और कुम्भकरण में से किसका स्वधर्म उचित है| ये सही है की कुम्भकरण चूँकि रावण की तरफ से युद्ध किये थे सो कथा में वे खलनायक की श्रेणी में हैं लेकिन श्री राम के साथ होने के बाद भी विभीषण कभी नायक की श्रेणी में ना दिखे| यदि आज हजारों साल बाद भी कुम्भकरण को रावण के साथ जलाया जाता है तो आज भी घर का भेदी विभीषण ही कहा जाता है|