Me Vahi Hu - 3 in Hindi Moral Stories by Jaishree Roy books and stories PDF | मैं वही हूँ! - 3

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मैं वही हूँ! - 3

मैं वही हूँ!

(3)

बिस्तर में देर तक करवटें बदलने के बाद मैं उठ कर बाहर आ गया था। उस समय रात के तीन बजे थे। धूसर नील आकाश में पश्चिम की ओर झुके चाँद के पास का सितारा बहुत उजला दिख रहा था। उजला और बड़ा। जैसे किसी भी क्षण टूट पड़ेगा! उसी ओर देखते हुये मैं आगे बढ़ रहा था जब मुझे सुरंग के पास कुछ अस्पष्ट-सी आवाजें सुनाई पड़ी थी।

खजाने के संधान में निकले कोई चोर-उचक्के ना हो! तम्बू से टॉर्च ले कर मैं दबे पाँव सुरंग के पास चला गया था। मेरे पास पहुँचते ही वे आवाजें कुछ देर के लिए आनी बंद हो गई थीं। मैं वही खड़ा-खड़ा आहट लेता रहा था। कुछ देर बाद मुझे सुरंग के भीतर से फिर वही आवाज आती सुनाई पड़ी थी। जैसे कोई गहरी-गहरी सांस लेते हुये फुसफुसा कर बोल रहा हो- आओ... अचानक बह चली हवा में यह आवाज सापिन-सी लहराती आगे बड़ी थी। कौतूहल के साथ मुझे डर की अनुभूति हुई थी।

कहीं आसपास फूले रातरानी की तेज सुगंध से हवा महक रही थी। फीके अंधकार में डूबे मैदान से एक टिटहरी के लगातार चीखने की आवाजें आ रही थीं।मेरी देह में अनायास कांटे उग आए थे। खुशबू से बोझिल हवा में सांस लेते हुये लगा था, गश आ जाएगा। ना चाहते हुये भी मैं नशे की-सी हालत में रीबन का घेरा हटा कर सुरंग में दाखिल हो गया था और एक हल्की फुसफुसाहट का पीछा करते हुए चलने लगा था।वह अछोर सुरंग जैसे किसी मरते जानवर की तरह लगातार लंबी-गहरी सांसें ले रही थी।गरम भाप का रेला-सा रह-रह कर आसपास से बह निकलता।

जाने कितनी दूर जाने के बाद मुझे नर कंकालों की वह ढेर दिखी थी। एक-दूसरे पर पड़ी हुई तकरीबन दस-पंद्रह कंकालें। टॉर्च की तेज रोशनी के वृत्त में चमकते हुये! यहाँ की दमघोंटू हवा में दुर्गंध फैली हुई थी। मैं एक पल के लिए ठिठका था मगर वही फुसफुसाहट फिर अंधकार में गूंजी थी और मैं मोहाविष्ट-सा उसका पीछा करते हुये खुले में आ गया था।

यहाँ चारों तरफ टॉर्च की रोशनी डालते हुये मैं समझा था, सुरंग का यह दूसरा सिरा दरअसल पुरानी बावरी में खुला था! मेरी आहट पा कर सोये हुये सारे कबूतर अचानक से भयभीत हो कर उड़ने लगे थे। उनके पंखों की फरफराहट से कुएं का सन्नाटा गूंजने लगा था। मकड़ी के घने जालों के पार आकाश का एक धुंधला टुकड़ा दिख रहा था। हर तरफ दीवार फोड़ कर निकल आए जंगलात और पत्थर थे।

अचानक जैसे मैं नींद से जागा था। मुझ पर घबराहट का दौरा पड़ गया था- यह मैं कहाँ आ गया! मुझे जल्द से जल्द यहाँ से चले जाना चाहिए। यह जगह खतरनाक हो सकता है!

जाने के लिए मैं जैसे ही मुड़ा था, मुझे बावरी के तल के बीचोबीच चमकती हुई कीचड़ में हलचल-सी दिखी थी। सुरंग की भीगी, बोसीदा दीवार से लगे मैं विस्मय और आतंक से भरा देखता रहा था, कीचड़ के कुंड से धीरे-धीरे एक स्त्री की लिथड़ी हुई आकृति निकली थी और लड़खड़ाती हुई बावरी की आखिरी सीढ़ी पर आ कर बैठ गई थी।

आकाश में पश्चिम की ओर दूर तक झुके चाँद के सामने शायद कोई बादल का टुकड़ा आ गया था। एकदम से म्लान चाँदनी स्याह पड़ गई थी। मुझे लगा था, मेरी नसों में खून जम रहा है। सीने में जकड़न महसूस हो रही थी। सांस लेने में भी जैसे तकलीफ होने लगी थी। चाह रहा था, यहाँ से भाग जाऊँ मगर पैर आवश पड़ गए थे। बड़ी मुश्किल से खड़ा रह पा रहा था।

थोड़ी देर चारों तरफ एक भयानक सन्नाटा पसरा रहा था और फिर तेज फुसफुसाहट की तरह वह आवाज फिर गूंजी थी- आज अमावश्या नहीं मगर निकलना पड़ा... तुम अचानक से जो आ गए! साँप-सी हिसहिसाती वह आवाज सुन मेरी रीढ़ में जैसे बर्फ घुल गई थी। किसी तरह हकलाते हुये कहा था- अ...आप कौन? मेरे सवाल के जवाब में वह परछाई पहले हल्के से हंसी थी और फिर गहरी सांस ले कर बोली थी- वही- भीमाजी राव का खजाना! युगों से इस अंधे कुएं में दबी पड़ी हूँ, इस इंतजार में कि एक दिन तुम आओगे और मुझे मुक्त करोगे...

उसकी बात सुनते हुये मैं थोड़ा सहज हो आया था। इस पूरे रहस्यमय माहौल के बावजूद वह किसी साधारण मानवी की तरह बात कर रही थी। हिम्मत कर उससे कुछ दूरी पर बैठते हुये अब मैंने उसे देखने की कोशिश की थी। मिले-जुले रोशनी और अंधकार में उसका माथा रह-रह कर चमक रहा था मगर आँखें अधेरे में डूबी हुई थीं। जब शायद वह चेहरा उठाती, अंधकार में दो आग की कनी-सी कौंध उठतीं!

देर तक चुप रहने के बाद मैंने फिर पूछा था, आप यहाँ कैसे आई? उसने कोई जवाब नहीं दिया था। मैंने कई बार अपना सवाल दोहराया था और आखिर में वह बोली थी- वही- जैसे हाड़-मांस के खजाने ऐसी जगहों में हमेशा से लाये जाते रहे है। फिर एक गहरी सांस ले कर बोली थी,एक जमाना था जब अधिकतर मर्द युद्ध में लड़ते हुये मरते थे और औरतें प्रेम में...

उसकी बात मेरी समझ में नहीं आई थी। भीमाजी राव और किसी रजिया बानो की एक प्रेम कहानी यहाँ के लोगों में प्रचलित तो है मगर उसका कोई प्रमाण इतिहास में शायद नहीं मिलता। रजिया एक तवायफ थी। असमंजस से भरा मैं सुरंग के मुहाने की तरफ देखता रहा था। घने कुहासे की तरह वहाँ अंधकार जमा था। चारों तरफ से उठने वाली बदबू अब बहुत तेज हो गई थी। मैंने संकोच से पूछा था- सुरंग में पड़े ये...

मेरे पूछते ही सुरंग के दरवाजे पर ढेर-से हड्डियों के ढांचे एक साथ चमक उठे थे। उसके साथ ही तेज शोर। जैसे कोई नकिया के हंसरहा हो। हाईना जैसी आवाज! शोर उठते ही सामने बैठी वह परछाई सनसना के उठी थी और कीचड़ के उस कुंड में कूद कर अदृश्य हो गई थी।मकड़ी के जाले-सी चमकती चाँद की महीन किरणें उसकी सतह पर देर तक गडमड होती रही थी। देखते हुये मेरा सर घूम उठा था। तरल, लिजलिजे अंधकार में डूबते हुये सुना था, झांझर-सी बजती हुई हड्डियों के साथ फटी और घरघराती आवाज की कर्ण भेदी चीख- मुझे निकालो यहाँ से...

होश आने पर लोगों ने बताया था, सुरंग के मुहाने पर मुझे अचेत पा कर कुछ लोग उठा लाये थे। मेरी हालत खराब थी। तेज बुखार में जल रहा था। सबने मुझे कुछ दिन घर जा कर आराम करने की सलाह दी थी। सुरंग के पास मेरे अचेत पाये जाने से लोग डरे हुये थे। चारों तरफ तरह-तरह की अफवाह फैल रही थी। मजदूर आगे की खुदाई करने से मना कर रहे थे। कुछ भाग भी गए थे।

अपने किराए के मकान में लौट कर मैं कई दिनों तक बुखार ले कर पड़ा रहा था। मंगल की माँ मेरी देखभाल करते हुये बड़बड़ाती रहती- कितना मना किया था पुरानी बावरी की तरफ जाने से! मगर पढे-लिखे लोग हमारी क्यों सुनने लगे! अब भुगतो... मंगल ने फिर अपनी माँ को डपट कर चुप कराया था।

मेरे यह कुछ दिन अजीब-सी मनःस्थिति में गुजरे थे। लगता था जैसे गहरी नशे में हूँ। चेतना पर हर वक्त कोहरा-सा छाया रहता। कुछ सोचने-समझने के काबिल नहीं था। उस रात सुरंग में जो कुछ भी घटा था वह सच था या कोई वहम,सोचने की कोशिश करता तो भीतर जैसे सब घुला उठता। इन दिनों नींद भी बेचैनी भरी आती थी। जरा पलक झपकते ही अजीबोगरीब सपने दिखते। सपने में फिर वही टूटा चर्च, वीरान शहर और अब-अंधा कुआं दिखने लगे थे।नींद का अंधकार सरगोशियों से भरा रहता। तंद्रा में लगता, कोई सरहाने बैठी सिसक-सिसक कर रो रही है।

कई दिन बाद कुछ स्वस्थ हुआ तो दफ्तर जाना शुरू किया। सोच रखा था अगले इतवार उस वीरान शहर में एक बार जाऊंगा।

इस बार जब मैं वहाँ गया, वह मुझे मिली थी। जैसे मेरे ही इंतजार में खड़ी हो! वह यानि... वह! मैं नहीं जानता था वह कौन है। मगर देखते ही पहचान गया था। बावरी के भीतर की वह तिलस्मी रात मुझसे भुली नहीं थी। उसके माथे के जिस हिस्से में चाँद चमका था वह मेरे भीतर हमेशा के लिए नत्थी हो कर रह गया था! मानवी के कलेवर में कोई पारदर्शी स्वप्न जैसी थी वह, जितनी मांसल उतनी अदेह! उस परित्यक्त नगरी की अकेली बाशिंदा! सपने में तो वह मुझे कभी नहीं मिली! फिर?

इसके बाद मैंने अपनी नौकरी से इस्तीफा दे दिया था। मुझसे यह ज़िम्मेदारी सम्हल नहीं रही थी। मेरे आए हुये कुछ महीने ही हुये थे यहाँ, मगर इसका आधा समय मैंने इन वीरानियों में भटकते हुये बीताई थी। विभाग में मेरी शिकायत हुई थी और कई बार बॉस के सामने हाजिर भी होना पड़ा था। उनके प्रश्नों का कोई जवाब नहीं था मेरे पास। अंततःमैंने नौकरी छोड़ देने का फैसला किया था।

यहाँ से कुछ दिनों बाद चले जाने से पहले मैं हर वक्त भटकने के लिए अब बिलकुल स्वतंत्र था। एक मन जहां सब कुछ झटक कर यहाँ से चले जाना चाहता था वही दूसरा मन इस जमीन पर अपना खेमा गाड़ हमेशा के लिए बस चुका था।

मैं खंडहर जाता और दूर से मंत्रमुग्ध-सा भर दुपहरी धूप-छाया की आँख मिचौली के बीच उसे एकटक देखता था-त्वचा पर सुनहली तितलियों का अनवरत काँपना-उड़ना… प्राचीन चर्च के बिखरे मलबों के मध्य, अदृश्य रस्सी के खिंचाब से रह-रह कर बज उठते घंटे की ध्वनि-प्रतिध्वनि से थरथराती बूढ़ी दीवारों पर भित्ति चित्र-सी अंकित! वो सचमुच कोई मनुष्य ही थी या मरू में लहराते जल का भ्रम... मैं अक्सर सोचता। वो ना देखती हुई देखती थी मुझे। दृष्टि मुझसे हो कर मुझसे परे- गर्विनी की उदास चावनी की ठौर धूप की आकाश चूमती ऊंची मीनारें ही हुआ करती थी। वहाँ से उतरती तो हर चीज से सरसरा कर गुजर जाती। जैसे मेरा होना, ना होना एक-सी बात हो!

मैं जब दिन ढले क्लांत लौटता वहाँ से, मेरे साथ होती उसकी स्मृति, वे दृश्यावलियां जो उसके होने मात्र से अर्थमय हो उठे थे- खुले केश में बुरांस का लाल टक-टक फूल, काजल अंजी आँखों की तरल, अनमन चावनी...

मुझे प्रतीत होता था, वह जिस पर हाथ रख देती है वह नीर्जिव वस्तु चहचहाती चिड़िया में तब्दील हो जाती है, प्रस्तर पाषाण सांस लेने लगता! कोई अदेह स्वप्न थी वह जो मानवी के आकार में इस निर्जन में आ उतरी थी। जीवित जादू की तरह। मैं देखता था, उसे और सोचता था, क्या वह सच हो सकती है!

एक दिन भर दुपहरी वह चर्च के अहाते में चुपचाप बैठी मिली थी। यह अहाता किसी युद्ध में मारे गए हजारों सैनिकों के कब्र से बना था। इस पर चलते हुये हर कदम पर महसूस होता था, पाँव के नीचे कोई दिल धडक रहा है। उसने होंठों पर उंगली रख कर मुझे चुप रहने का इशारा किया था- श्श्श... बहुत मुश्किल से नींद आई है इन्हें, टूट जाएगी! वह आवाज थी कि किसी जल पंछी का उदास क्रंदन!

बहुत देर चुप रहने के बाद कौतुहल के अतिरेक में मैंने अपने समस्त साहस का समन कर पूछ लिया था उससे- कौन है वह? उसने सहज जवाब दिया था- भूत! भूत है वह! मैं सकते की हालत में बस इतना ही कह पाया था- मगर तुम तो एक जीवित औरत हो! वह हंसी थी- हर औरत- जीवित या मृत, भूत ही होती है! अपनी अतृप्त इच्छाओं की भूत!

मैं फिर चुप रह गया था। कुछ कहना उन विलक्षण क्षणों को नष्ट कर देना होता जो उस के होने मात्र से निर्मित हुआ था। अद्भुत था वह अनुभव। बार-बार पूछने पर भी कभी उसने अपना नाम नहीं बताया था। कहा था अदृश्य का कोई नाम नहीं होता... मैं बस वही हूँ जो तुम्हें लगे... तो मैंने उसके कई नाम रखे, समय, मौके और मिजाज के हिसाब से। सुन कर वह बस मुस्करा देती।

वे दिन मेरे उदासी के दिन थे। मैं रात-रात भर सो नहीं पाता। खाना-पीना भी एक तरह से बंद हो चुका था। मंगल की माँ रोज खाना ढँक कर रख जाती और दूसरे दिन वह जस का तस रखा मिलता। जब भी मौका मिलता था,मैं भाग छुटता था उस बस्ती की ओर जिसका कोई अस्तित्व यहाँ के मानचित्र में नहीं था।

याद है, उस दिन सुबह से आकाश में कास के सफेद फूल की तरह ढेर के ढेर बादल जमा हो रहे थे। दिनों बाद दिखी थी वह और बहुत अनमनी लग रही थी। कारण पूछने पर अजनबी आवाज में बोली थी- यह प्रच्छन्न विषाद, मन-मस्तिष्क और देह पर अनवरत छाया हुआ, बिना किसी ज्ञात कारण के, हर समय... होगा ना पिछले किसी जन्म में मिले संत्रास का बोझ जो आत्मा से किसी तरह उतरता नहीं! हम ढोते जाते हैं अपने अचेतन में समूह मन की वेदना,दुख कीमलिन स्मृतियाँ, विश्वासघात के दंश... हम में जाने कौन-कौन होते हैं! किसकी वेदना, दुःस्वप्न, रुलाई से भरे हुये... अभिशप्त हैं हम इस तरह जीने के लिए दीपेन!

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