Zee-Mail Express - 27 in Hindi Fiction Stories by Alka Sinha books and stories PDF | जी-मेल एक्सप्रेस - 27

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जी-मेल एक्सप्रेस - 27

जी-मेल एक्सप्रेस

अलका सिन्हा

27. डर से पार जाने का अहसास

जैसाकि संभावित था, कुछ देर में फोन बजा और मैं आदेश मुताबिक बाहर चला आया। आज मैं काफी संयत था और अपनी पेशी के लिए मानसिक रूप से तैयार भी था। आज मुझे जिस जगह ले जाया गया था, वह एक बड़ा हॉल था जिसे फोल्डिंग पार्टीशन से कई भागों में बांट रखा गया था। पांच-छह मेजों पर कई तरह के काम हो रहे थे। कहीं कागजों को अलग-अलग फाइलों में रखा जा रहा था तो कहीं कंप्यूटर पर किसी व्यक्ति का स्केच तैयार किया जा रहा था। हर मेज पर कम-से-कम तीन-चार लोग काम कर रहे थे।

वह व्यक्ति हॉल पार करता हुआ मुझे दूसरे कमरे में ले जा रहा था कि मैंने देखा, दीवार पर कई सारे टीवी टंगे थे जो सीसीटीवी कैमरों से जुड़े थे और जिनकी मदद से हर किसी की गतिविधि को नोटिस किया जा रहा था। एक स्क्रीन पर मिसेज विश्वास की झलक दिखाई पड़ी। उसे कैमरे की गिरफ्त में पाकर मैं सन्न रह गया। तो इस तरह ये हम पर नजर रख रहे हैं। मैं कभी सोच भी नहीं सकता था कि टीवी पर चलने वाले ‘बिग बॉस’ जैसा रिऐलिटी शो सच के जीवन में भी हो सकता है। मैं अन्य स्क्रीनों पर निगाह नहीं डाल पाया, हम कमरा पारकर बरामदे में आ पहुंचे थे।

बरामदे की बाईं तरफ एक कमरा था जो किसी डॉक्टर के क्लीनिक का आभास दे रहा था। कमरे में तीन बाइ छः का एक दीवान बिछा था जिस पर बीस-इक्कीस साल का एक लड़का लेटा हुआ था। उसके सिर के ठीक ऊपर नीले रंग का बल्ब जल रहा था। चार लोग उसे घेरे हुए खड़े थे जिनमें से तीन तो वही थे जिन्हें मैं पिछले दो रोज से देख रहा हूं। हां, यह चौथा व्यक्ति पहली बार देखा है। सफेद कोट पहने उस व्यक्ति को बाकी तीनों ‘डॉक्टर’ कहकर संबोधित कर रहे थे। उन तीनों ने बिस्तर पर पड़े लड़के को इस डॉक्टर के हवाले कर दिया।

वह लड़का बताने लगा कि सिविल सर्विसेज की तैयारी करने वह गांव से दिल्ली आया था। किराए के लिए कमरे का विज्ञापन देखकर वह पूर्णिमा से मिला था। पूर्णिमा ने उसे एक पता दिया था जिसे अपने मकान के ऊपर की बरसाती किराए पर चढ़ानी थी।

“बरसाती मेरी जरूरत के मुताबिक ठीक-ठाक थी और उसका किराया भी बहुत नहीं था, मैंने उसे ले लिया।” उसने बताया कि उसकी मकान-मालकिन काफी रहमदिल थी और चाय-नाश्ते के अलावा कई बार वह उसे दोपहर के खाने पर भी नीचे बुला लिया करती।

डॉक्टर ने नीली रोशनी वाला बल्ब नीचे को खींच कर उसकी आंखों के ठीक सामने कर दिया। नीली रोशनी को देखते हुए, अभिमंत्रित-सा वह लड़का पिछली बातें दोहराने लगा।

“...वह कई बार मेरी बरसाती में आकर मेरी किताबें पलटने लगती और किसी-किसी विषय पर मुझसे बहस करती। भले ही वह एक हाउस वाइफ थी मगर सोच के स्तर पर वह बहुत परिपक्व और जागरूक महिला थी। उससे बात करना मुझे अच्छा लगता।”

नीले बल्ब पर टिकी उसकी आंखें जैसे बीते दिनों की वीडियो रील देख रही थीं...

“उस रोज दोपहर का खाना हम साथ खा रहे थे। नक्सलवाद पर हमारी चर्चा हो रही थी। मैं अपनी प्लेट उठाकर रखने लगा मगर प्लेट चिकनी थी और मेरे हाथ से छूट कर टूट गई। मैं हड़बड़ा कर उसके टुकड़े समेटने लगा कि कोई टुकड़ा मेरी उंगली में चुभ गया और खून बहने लगा। मैम ने मेरा हाथ खींच कर बहते पानी की धार के नीचे रख दिया। कुछ देर में खून निकलना बंद हो गया मगर आज उन्होंने मुझे ऊपर नहीं जाने दिया और अपने कमरे में ही लेटने का आग्रह किया। अगले हफ्ते ही मेरा इम्तहान था, वह इस बात को लेकर बहुत फिक्रमंद थीं कि मैं अपना पर्चा ठीक से दे भी पाऊंगा या नहीं। भावुकता में वह बार-बार मेरी उंगलियों को सहलातीं और मेरा हाथ अपने कलेजे से लगा लेतीं। मेरा हाथ बार-बार मकान-मालकिन की गदराई छातियों से छू रहा था। किसी औरत के साथ इस तरह की नजदीकी से मेरे भीतर अजीब-सी उत्तेजना उमड़ आई थी। मैम के भीतर भी वैसी ही उत्तेजना उमड़ रही थी और कुछ ही देर में हम दोनों एक दूसरे में समा गए थे...’’ वह खामोश हो गया।

“क्या तुम्हें पता है, पूर्णिमा ने उस औरत के हाथों तुम्हारा सौदा किया? किराए का मकान तो बहाना था, दरअसल उसने तुम्हें उस औरत को बेचा।”

डॉक्टर की बात से उस लड़के की सोच पर कोई फर्क नहीं पड़ा। वह कह रहा था, “जब मैं गांव से यहां आया, तो किसी संबंधी, किसी परिचित ने मेरा साथ नहीं दिया। रहने को जगह, खाने को रोटी—किसी ने नहीं पूछी। यह औरत जिसे आप सौदागर कह रहे हैं, अगर मुझे नहीं मिलती तो मैं टूटकर वापस लौट जाता।” उसकी आवाज भर्रा रही थी मगर जल्दी ही उसने खुद को संयत कर लिया, “हम सभी को एक-दूसरे की जरूरत है। ऐसा न होता तो यह समाज न बनता मगर गाड़ी में बैठा इन्सान पैदल चलने वाले वक्त को भूल जाता है। मैं अपना मुकाम हासिल कर लेने के बाद भी इन दिनों के संघर्ष को नहीं भूलूंगा।” वह अपने आप से कोई वादा कर रहा था, “मैं मानता हूं कि इस औरत को भी मेरी जरूरत है। तो हर्ज ही क्या है, दोनों ही एक-दूसरे की जरूरत पूरी कर रहे हैं। हां, आप मेरे लक्ष्य को दिवास्वप्न और इस औरत की जरूरत को हवस कह सकते हैं।”

“तुम इस औरत की जरूरत को किस तरह देखते हो?” डॉक्टर की आंखें लड़के के चेहरे पर जा टिकी थीं।

“फ्रेंच लेखक गुस्ताव फ्लॉबर्ट का चर्चित उपन्यास ‘मैडम बोवेरी’ पढ़ा है आपने? यह भी वैसी ही एक औरत है जिसकी इच्छाओं को ऊंचे ओहदे वाला उसका पति कभी पहचान ही नहीं पाया। यह औरत उसके साथ बड़ी-बड़ी पार्टियों में शिरकत करती रही जबकि इसका पति इसकी छोटी-छोटी खुशियों में भी कभी शामिल नहीं हुआ। यह औरत तरसती रही कि कभी पति के साथ चाय की चुस्कियों के बीच देश-दुनिया में हो रही घटनाओं के बारे में वह भी अपनी राय रखती और अपने होने को महसूस करती। जनाब, औरत कोई रिकार्ड प्लेयर नहीं है कि किसी के इशारे पर गाए या चुप हो जाए, वह अपनी मर्जी पर गाना चाहती है, हंसना और रोना चाहती है।”

वह लड़का पूरी विनम्रता के साथ कह रहा था, “यह तो सच है कि हमारे बीच एक तरह की सौदेबाजी है मगर यह भी सच है कि बौद्धिक स्तर पर हम एक-दूसरे के काफी निकट हैं। फिर भी, इस निकटता को भावात्मक लगाव समझने की भूल न की जाए, मीलॉर्ड!” लड़का व्यंग्य से मुस्कराया।

उसकी दलील थी कि किसी इन्सान के लिए बौद्धिक खुराक भी उतनी ही जरूरी है जितनी और चीजें। उसका तो यहां तक मानना था कि उस औरत को उससे शारीरिक सुख भी इसलिए हासिल होता है कि वह उसके मानसिक स्तर को संतुष्ट कर पाता है।

“अगर ऐसा ही है तो बौद्धिक खुराक के लिए शारीरिक संबंध बनाने की क्या जरूरत है?” डॉक्टर ने उसकी आंखों पर चमकती बत्ती हटा ली थी।

“भीतर के अभाव को पहचानना इतना आसान होता है क्या? आधी बीमारी तो तभी खत्म हो जाती है जब सही रोग पकड़ में आ जाता है।” आंखों को हलके हाथों से मलते हुए उसने डॉक्टर की तरफ देखा, “हो सकता है, वह अपने अभाव को इसी रूप में पहचानती हो। क्या पता, उसे इसका अहसास ही न हो कि यह जरूरत तो उसका पति भी पूरी कर देता है मगर जो अभाव फिर भी बना रहता है वह तो मानसिक है... मैं भावात्मक लगाव की नहीं, इन्टिलेक्ट हंगर की बात कर रहा हूं।” उसके स्वर में कुछ व्यंग्य, कुछ उपेक्षा आ मिली थी मगर डॉक्टर उसके क्षोभ से प्रभावित हुए बिना, बहुत ध्यान से सारी बात सुन रहा था।

मैंने पाया कि इस डॉक्टर की मानसिकता अन्य जांच अधिकारियों के विपरीत बहुत अलग थी। उसका मानवीय पक्ष बहुत प्रबल था और वह मुजरिम पर धावा बोलने से अधिक जुर्म को पकड़ने की कोशिश में था। बेहद आत्मीयता के साथ उसने उस लड़के की बात पर गौर करने का आश्वासन देकर उसे बाहर भेज दिया।

उसे भेजने के बाद वे तीनों मुझे घेरकर खड़े हो गए, डॉक्टर कमरे से बाहर निकलने लगा। मैंने चाहा कि आवाज देकर उसे रोक लूं, हलकी-सी आवाज भी निकली, मगर तब तक डॉक्टर बाहर निकल चुका था और मैं तीनों के शिकंजे में छटपटाने को मजबूर था।

‘‘सीधे रास्ते बात बताने का इरादा बना क्या?’’

‘‘अगर तू अपने साथियों के बारे में सही-सही बता दे तो सख्ती के बिना भी काम चल सकता है...’’

‘‘तू सोच भी नहीं सकता, हमारी सख्ती किस तरह की होती है...’’

मुझे कुछ कहने का मौका दिए बगैर वे एक के बाद एक, लगातार बोले जा रहे थे। आखिर मैंने हाथ उठाकर बोलने की इजाजत मांगी। वे तीनों चुप हो गए।

‘‘जी... मेरा कोई साथी नहीं है... न ही मैं किसी गैंग से जुड़ा हूं। पूर्णिमा मेरी बॉस थी और मैं उसे रिपोर्ट करता था। इससे अधिक मैं कुछ नहीं जानता।’’

‘‘तो फिर इस डायरी में एबीसीडी में क्या लिखा है?’’

‘‘मैंने पहले भी बताया था कि मैं इसे दरियागंज से उठाकर लाया था,’’ मैं फूट पड़ा,‘‘आपलोग जिस तरह की जानकारी चाहते हैं, मुझे उस बारे में कुछ भी नहीं पता। मैं एक इज्जतदार व्यक्ति हूं और मेरा इससे कोई संबंध नहीं है।’’ मेरा गला भर्रा आया था मगर मैंने स्पष्ट शब्दों में अपनी बात कही।

‘‘तो फिर डायरी के न मिलने पर इतना परेशान क्यों हो रहा था?’’ मेरे जवाब से तीसरा वाला भड़क गया।

‘‘तसल्ली से बैठ जाओ और इन कोड्स का खुलासा करो।’’ जाने कब वह डॉक्टर उनके बीच आ पहुंचा था और मुझसे मुखातिब था।

उन तीनों को चुप रहने का इशारा कर उसने डायरी मेरी ओर बढ़ा दी, ‘‘इस डायरी से तुम्हारा क्या रिश्ता है? अगर तुम इसे कहीं से उठाकर भी लाए थे तो क्यों?’’

‘‘क्या आप मेरी बात पर यकीन करेंगे, यह मेरी रचनात्मकता को संतुष्ट करने का एक माध्यम थी।’’

‘‘तुम रचनात्मक नजरिये से अपनी बात कहो।’’ डॉक्टर की आवाज में पूरा विश्वास था।

‘‘एक लड़की, नाम क्वीना...’’ मैंने अपनी कहानी सुनानी शुरू की, ‘‘कैपिटल अल्फाबेट्स उसके लड़के मित्रों के नाम का पहला अक्षर, जबकि स्मॉल अल्फाबेट्स उसकी सहेलियों के नाम का पहला अक्षर...’’

डॉक्टर गंभीरतापूर्वक मेरी बात सुन रहा था।

मैं डायरी के पन्ने पलटता जा रहा था और कोड्स के साथ घटनाओं को संबद्ध करता जा रहा था। क्वीना के स्कूल छोड़ने से कॉलेज जाने तक की घटनाओं का खुलासा तो मैं पहले ही कर चुका था। निकिता के साथ क्वीना का फेथ परिवार में जाना, फेथ परिवार के सदस्यों के लिए प्रार्थनाएं करना और धीरे-धीरे क्वीना के भटकाव का स्थिरता में बदल जाना, इस भाग की रचना मैंने तत्काल ही कर ली।

‘‘मैं घटनाओं को इस तरह से देखता हूं।’’ मैंने अपनी बात पूरी की और उम्मीद भरी नजरों से डॉक्टर को देखने लगा।

डॉक्टर शायद मेरी समीक्षा से संतुष्ट था, बल्कि कहना चाहिए, मेरी रचनाशीलता से प्रभावित भी लगा। वह मुझे छोड़ने दरवाजे तक आया। उसने बताया कि वे लोग बहुत महत्वपूर्ण प्रॉजेक्ट पर काम कर रहे हैं और इस सिलसिले में उन्हें इस डायरी से बहुत सहायता मिल सकती है। उसने मुझे अपना विजिटिंग कार्ड थमाया और इस संबंध में हर तरह की जानकारी शेयर करने के लिए प्रोत्साहित किया।

मेरी आज की पेशी काफी ठीक रही। आज तफतीश का हिस्सा बनते हुए मुझे अपमानित नहीं होना पड़ा। मानसिक संतुष्टि के अहसास के साथ मैं वापस ऑफिस लौट आया था। मन-ही-मन मैंने विनीता का आभार व्यक्त किया। मेरे भीतर अपनी बात कह सकने का हौसला तो विनीता की वजह से ही आया था। मेरे प्रति उसके विश्वास ने मुझे अपराध-बोध से मुक्ति दी थी और मैं संयत होकर आज अपनी बात कह पाया था। मैं अनुभव कर रहा था कि डर से पार जाने का अहसास कितना अद्भुत होता है!

(अगले अंक में जारी....)