ऑपोज़िट कलर्स
"भैया कोई नई किताब आयी है क्या आर्ट में ?"
"हैं न ये देखिये ! भुवन पुरोहित जी की नयी सीरीज़ आयी है| जल-रंग, तैल-चित्र, एक्रिलिक, मिक्स मीडिया, टैम्परा, बास-रिलीफ, एनाटॉमी ...करीब-करीब हर माध्यम और विषय को कवर करती सोलह किताबों की सीरीज़ है |"
'अरे वाह सर की नई सीरीज़ !
"ये तो मेरे गुरु है, भैया !"
"अच्छा !"
दुकानदार की आँखों से झरते प्रशंसा मिश्रित आश्चर्य को समेटे बिना ही उसने जल्दी से किताबों के पन्ने पलटना शुरू कर दिया| कितना गर्व होता है, जब हम लोगों को बताते हैं कि हमारे गुरुजी की किताबें कालेज तक के पाठ्यक्रम में लगाई जाती हैं?'
पहली ही किताब पलटते उसके हाथ अचानक थम गए | ख़ुशी से उसका दिल बल्लियों उछलने लगा| किताब के पन्ने पलटना छोड़ वह यादों के पन्ने पलटने लगी "
"सर! ये देखिये! मैंने पूरी रात जागकर ये दो चित्र बनाये हैं, और ये देखिये सर! मिक्स मीडिया का काम ; बताइये तो, मैंने कौन-कौन से मीडियम यूज़ किये है ?"
"बढ़िया! बहुत ही बढ़िया! मैं तो हमेशा ही कहता हूँ; तुम्हारे जैसा हाथ हज़ारों में किसी एक का होता हैं | लेकिन एक-एक कर नहीं, इस तरह मैं तुम्हारे काम का ट्रैक नहीं रख पाउँगा ऐसा करो, तुम जो भी नया बनाती हो वो अलग-अलग कैटेगिरी वाइज प्रॉपर तरीके से इकट्ठा करती जाओ| फिर जब काफी हो जाएँ तो मुझे देना | मैं फ़ुरसत में ठीक से देखूंगा| ...मेरी किताबों की नई सीरीज़ भी आने वाली हैं,उसमें भी शामिल करूंगा|"
"सच्च! थैंक्यू सर !"
लगभग दो महीने बाद उसने अपनी तीस कृतियाँ एक साथ सर को थमा दीं| कुछ दिन बाद जब वह किसी प्रतियोगिता में भेजने के लिए, अपनी एक पेंटिंग लेने पहुँची तो, सर ने बहुत अफ़सोस के साथ बताया कि उसका सारा काम उनकी गलती से खो गया, और... वो बहुत शर्मिंदा हैं |" पहले तो उसे बहुत दुःख हुआ |कई दिन तक अपने चित्र और उनमे लगी मेहनत याद आते रहे| उसने कई चित्रों को दुबारा बनाने की भी कोशिश की लेकिन अवचेतन की गहराइयों में जो भाव या विचार किसी एक समय किसी एक मनस्थिति में जन्म लेते है, वो दुबारा उस तरह नहीं आ पाते और थोड़े बहुत आ भी जाये तो उस रूप में और ठीक वैसी ही परिणति तक नहीं पहुँच पाते | कुल मिलकर यह नुकसान कभी नहीं भरता | फिर भी धीरे धीरे उसने स्वयं को तसल्ली यह देनी शुरू की कि अभी तो वह सीख ही रही है| फिर इकठ्ठा हो जायेगा और हाँ आइंदा कभी किसी को इकट्ठा इतना सारा काम नहीं देगी|
भुवन सर अक्सर कहते, "तेरे पास अथाह प्रतिभा है शिप्रा| काश तू थोड़ा पहले आयी होती तो तू इतनी बड़ी आर्टिस्ट बनती कि दुनिया देखती |"
क्यों सर अभी क्या जिंदगी बीत गयी अभी बाइस की ही तो हूँ| रवुन्द्र्नाथ टैगोर ने तो सत्तर वर्ष की उम्र में पेटिंग शुरू की थी|"
"पगली, वो उससे पहले एक लेखक के रूप में प्रसिद्ध हो चुके थे| उनके चित्रों को एक सेलेब्रिटी की ही हैसियत से देखा परखा गया था, मैं यह नहीं कह रहा कि उनके चित्र किसी से कम थे मगर वो प्रसिद्धि के उस शिखर पर थे जब आंख बंद करके कुछ रेखाएं भी खीँच देते तो वह कला का उत्कृष्ट नमूना समझे जाते | हर कलाकार की या कलाकृति की नियति यह नहीं होती | पूरा जीवन संघर्ष करते बीत जाता है |"
"कोई बात नहीं आप बस निर्देशित करिये , मैं खूब मेहनत करूंगी |"
"कितने दिन तक ? तू जिस परिवार से है, जल्दी ही तेरा विवाह हो जायेगा, और फिर वही होगा जो अक्सर होता है | सारी कलाकारी रोटियों को गोल करने और सलाद सजाने में ही निकला करेगी |"
"नहीं ऐसा नहीं होगा सर, मैं विवाह ही नहीं करूंगी, दिन रात चित्रकारी करूंगी|"
"काश तेरी लगन रंग लाये , काश मेरा कहा नहीं, तेरा विश्वास सच हो|"
"जरूर होगा सर | नाम न भी हो मैं बस सार्थक सृजन कर सकूं, फ़िलहाल तो यही इच्छा है|"
और शिप्रा दुगुने उत्साह से कला साधना में प्रवृत्त हो गयी|
अब वह आर्ट का सामान ही नहीं बल्कि उससे संबंधित नई नई किताबें भी खरीदने लगी| दुकानदार को भी यह पता चल गया था| वह कला की कोई भी नई किताब आते ही उसे बताता था| आज तो उसने शिल्पा के सामने खजाना ही रख दिया था | वैसे तो भुवन सर खुद भी उसे अपनी पुस्तकें भेंट करते रहते हैं लेकिन आज का यह खजाना विशिष्ट था क्योंकि इसमें उसके हाथ का बना चित्र भी मौजूद था| पहला चित्र देखते ही ख़ुशी के आवेग में उसने जल्दी जल्दी सीरीज़ की सारी किताबे खंगाल डालीं |
"तो सर नाटक कर रहे थे| दरअसल वो मुझे सरप्राइज़ देना चाहते थे | देखूँ किस-किस किताब में कौन-कौन-सा काम लगाया है सर ने |' वह एक-एक कर सारी किताबें उठाती और जल्दी-जल्दी पलटती जा रही थी | ये रही मेरी टेम्परा पेंटिंग और ये मिक्स मिडिया ,वाओ रिलीफ भी ! हर किताब में मेरी एक न एक कृति जरूर हैं, थैंक्यू सर! यू आर ग्रेट! उत्सुकता, ख़ुशी, कृतज्ञता-सारे रंगो की शीशियां खुलती जा रही थी, जिनमें गर्व के ब्रश को डुबो-डुबो कर उसने किताबों की सारी दुकान को रंग डाला |"
"देखो भैया! ये मेरी पेंटिंग, ये भी और देखो, इसमें भी |
"बधाई हो! आरती जी! आपको पहले नहीं पता था |"
"नहीं भैया ! सर ने सरप्राइज़ दिया हैं मुझे,.... बहुत बड़ा |
........ आरती ? आपने आरती क्यों कहा? मेरा नाम तो ..|" कहते-कहते शिप्रा ने सामने खुले हुए चित्र पर नज़र डाली, तो सन्न रह गयी| और फिर जैसे-जैसे वह उन चित्रों पर दुबारा नज़र डालती गयी, स्तब्धता की पैलेट में क्षोभ औरआक्रोश के रंग घुलते गए| पहले रंगे गए सारे रंगो पर अब यही दो रंग चढ़ गए थे | जब विपरीत रंग आपस में मिलते हैं तो बस एक ही रंग बनता हैं मटमैला यानि मिटटी का रंग| दुकान से लेकर शिप्रा के चेहरे तक, अब बस यही रंग था |
'सर की चित्रकार बेटी-आरती ?'
शिप्रा का उल्टा हाथ यकायक उसके दाहिने हाथ के अंगूठे को टटोलने लगा, वह जख्मी तो था मगर..........! उसने चैन की साँस ली और किताबें वहीं छोड़, पलट कर चल दी |