jeevan me dastak deta cinema in Hindi Magazine by VIRENDER VEER MEHTA books and stories PDF | जीवन में दस्तक देता सिनेमा

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जीवन में दस्तक देता सिनेमा

जीवन में दस्तक देता सिनेमा

ये कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि सिनेमा मानव जीवन का, अपने प्रारंभिक (उद्भव) काल से ही एक हिस्सा रहा है। यह एक अलग बात है कि इससे जुड़ने वाले जनसाधारण का प्रतिशत कितना रहा है लेकिन यह एक निश्चित बात है कि सिनेमा मानव जीवन को सदैव किसी न किसी रूप में प्रभावित करता रहा है। हालांकि यह कितना और किस तरह किसी को प्रभावित करता है, इस प्रभाव को हर व्यक्ति के लिए भिन्न प्रकार से ही परिभाषित किया जा सकता है।
जहां तक मैं स्वयं अपने जीवन की बात करूं कि मेरे अपने जीवन में सिनेमा किस स्थान पर है, तो शायद मेरे लेखन की 'स्ट्रीम लाइफ' ही सिनेमा रहा है। मेरे लेखन की शुरुआत कल्पना (इमैजिनेशन) से हुई और कल्पना की शुरुआत फ़िल्म संसार से। और तत्पश्चात इसी काल्पनिक संसार ने मुझ से जीवन के ठोस धरातल का साक्षात्कार करवाया। वैसे मैं यह बात स्प्ष्ट कहूँगा कि सिनेमा ने मेरे जीवन में किसी तरह का कोई आदर्शवादी या क्रांतिकारी परिवर्तन नहीं किया है। लेकिन फिल्मों के कथ्य और उसमें समाहित जीवन मूल्यों का मैं शुरू से उन्माद की हद तक प्रशंसक रहा हूँ। और मेरा समाज को देखने का नजरिया समय-समय पर परिपक्व भी होता रहा है।

केवल 5 वर्ष की उम्र में 'ओपन स्क्रीन' पर देखी गई जीवन की पहली फ़िल्म दिल एक मंदिर (1963) अपने कथ्य के लिए आज भी याद आ जाने पर मेरे मन को भावुक कर देती है। तब से आज तक जाने कितनी फिल्में दिल के तारों को झनझनाती रही, दिशाहीन रास्तों को दिशा देती रही, और समाज के कई प्रश्नों पर विचार-मंथन करती रही।

भूली बिसरी फिल्मों में यदि जब जब फूल खिले जैसी प्रेम कथा की बात करूँ, तो इस फ़िल्म की प्रेम और संगीतमय खुशबू आज भी मन को महकाती है, और समाज के निम्न और उच्च वर्ग के बीच विभाजन रेखा पर हमेशा प्रश्न बनकर खड़ी नजर आती है।
फ़िल्म में एक अमीर लड़की रीता को कश्मीर की वादियों में एक गरीब 'हाउसबोट' चलाने वाले राजा से प्रेम हो जाता है। जबकि रीता के पिता उसकी शादी एक अमीर लड़के किशोर से कराना चाहते हैं और ऐसे में वे सब इन दोनों को अलग करने की साजिश करते हैं। लेकिन अंत में यह सच्चा प्रेम जीत जाता है। 1965 में प्रदर्शित इस फ़िल्म का गीत-संगीत और प्रेम कथ्य प्रेम सहज ही दिल को छू लेता है। ग़ौरतलब है कि इसी फिल्म की नकल को कुछ परिवर्तन के साथ एक बार फिर फ़िल्म "राजा हिंदुस्तानी" में भी दोहराया गया था।

प्रेम का ही एक और रूप मुझे भाता है फ़िल्म हम दिल दे चुके सनम में, जहां प्रेम का एक अलग ही अर्थ मुझे देखने के लिए मिला था।
फ़िल्म में युवा नंदनी को अपने संगीतज्ञ पिता के शिष्य समीर के प्रति प्रेम-आकर्षण हो जाता है। विवाह के पश्चात उसका पति वनराज यह बात जानने पर उन्हें मिलाने के विचार से उसे लंदन ले जाता है, जहां जीवन की वास्तविकताओं के बीच नंदनी को विवाह और सच्चे प्रेम का अर्थ समझ आता है। 1999 में प्रदर्शित इस फ़िल्म का संगीतपक्ष भी बहुत प्रसिद्ध हुआ था। फ़िल्म का एक संदेश 'प्यार अपनी खुशी का नहीं, दूसरे को खुशी देने का नाम ही प्यार होता है' पूरी फिल्म को सार्थक कर जाता है।

दुःख और सुख जीवन के दो पलड़े है, यदि सुख में हम जीवन को 'एन्जॉय' करते हैं तो दुःखों का सामना भी हमें खुले दिल से ही करना चाहिए। 1971 में प्रदर्शित फ़िल्म आनंद का आनंद 'लिम्फोसरकोमा ऑफ इंटेस्टाइन' (कैंसर) का मरीज है, लेकिन वह खुलकर जीना जानता है। वह केवल अपनी जिंदगी ही जी भरकर नहीं जीता, बल्कि हर किसी का जीवन खुशियों से भरता है। उसकी जीवन शैली न केवल उसके चिकित्सक भास्कर का जीवन के प्रति नजरिया बदल देती है, वरन उसे आनंद के जीवन पर किताब लिखने के लिए भी प्रेरणा देती है।
जीवन को जीने का ही एक अद्भुत नजरिया दिखाती है निस्वार्थ मानवीय प्रेम की भावना वाली फिल्म अमर प्रेम। 1972 में प्रदर्शित फ़िल्म जहां सौतेली माँ से त्रस्त एक मासूम बच्चे और एक वेश्यावृति के पेशे की नारी के बीच का आत्मिक प्रेम दिखाया है, वहीं फ़िल्म एक अद्वितीय पात्र आनंद के भौतिकता से मुक्त जीवन जीने के नजरिये को उम्दा ढंग से सामने रखती है। आनंद का 'आई हेट टीयर्स' कहकर दुखों को सम्भालने की सीख देना जीवन को नए अर्थ देने के लिए काफी है।

जीवन की निराशाओं में भी हँसते रहना हालांकि एक विसंगति हो सकता है लेकिन शायद यह जीवन का एक ऐसा सबक है जिसे स्वीकार कर लेना जीवन की सबसे बड़ी जीत है। 1970 में प्रदर्शित फ़िल्म। मेरा नाम जोकर का पात्र; एक जोकर पिता की संतान राजू बचपन से ही जीवन में कई बाधाओं में निराशा का सामना करता है। लेकिन सर्कस में एक जोकर के रूप में, वह अपने ही दु:ख की शर्तों पर दर्शकों में हंसी बांटता रहता है। मूल रूप से प्रेम आधारित यह कथा जीवन के कई रंगों को दिखाने का प्रयास भी करती है।

हालांकि भौतिक और आर्थिक स्थितियों के परिपेक्ष्य में देखा जाए तो समाज बहुत अधिक परिवर्तित हो गए हैं, लेकिन 1956 में आई फ़िल्म जागते रहो समाज में फैली महानगरीय बुराइयों को जिस तरह सामने रखती है, वैसा पिछले छः दशकों में शायद ही किसी फिल्म में दिखाया गया हो। फ़िल्म का मुख्य पात्र राजू एक गरीब ग्रामीण, नौकरी की तलाश में शहर आता है। और एक दिन जब वह अपनी प्यास से त्रस्त हो कर महानगर में अपनी प्यास बुझाने के लिए बाहर निकलता है, तो अपनी प्यास बुझाने के दौरान उसे जाने कितनी बाधाओं का सामना करना पड़ता है, और ऊंचे समाज की जानें कितनी सच्चाइयां उसके सामने आती है। समाज के कड़वे धरातल से परिचय करवाती कथा के बीच एक निश्चल मन की व्यथा भी इस फ़िल्म का सार है।

ऐसी जाने कितनी फिल्में होंगी मेरे जहन में जो अपने कथानक से समाज को रु-ब-रु करवाती रही हैं, लेकिन मैं एक विशेष फ़िल्म बांटना चाहूँगा आज आप सभी से, जिसका नाम है, डॉ कोटनीस की अमर कहानी। यह फ़िल्म मैंने करीब 30 वर्ष पूर्व देखी थी। इस फ़िल्म ने मेरा नजरिया हर उस पेशे (प्रोफेशनल कैरियर) के प्रति बदल दिया था जो समाज के लिए अपनी सेवाएं देता है, चाहे वह एक चिकित्सक हो, या फिर एक सैनिक।

1946 में प्रदर्शित यह फ़िल्म दो भाषाओं में बनाई गई थी। फ़िल्म आज की भयावह स्थितियों से कोई बहुत अधिक अलग नहीं थी। हम सब जानते हैं कि वर्तमान में पूरा विश्व कोरोना (कोविड 19) की वजह से त्रस्त है। इस वायरस की वजह से लाखों लोग संक्रमण का शिकार हो चुके हैं। लेकिन ऐसा पहली बार नहीं है कि किसी बीमारी ने इतना आतंक फैलाया हो। इससे पहले भी 1938 में चीन में इसी तरह का एक वायरस फैला था, जब भारतीय डॉक्टर वहां गए थे और उनमें से एक डॉक्टर कोटनिस ने उस वक्त उस वायरस को अपने शरीर मे इंजेक्ट कर के उसकी दवा तैयार की थी। यह दवा बहुत ज्यादा कारगर साबित हुई थी। परंतु वह खुद अपने आप को नही बचा सके और 1942 में ही इस दुनिया को अलविदा कह गए थे। इसी त्याग और बलिदान को दुनिया के सामने लाने का जिम्मा मशहूर निर्देशक वी. शांताराम ने लिया था और 1946 में 'डॉक्टर कोटनिस की अमर कहानी' नाम से फिल्म बनाई थी। फ़िल्म मूल रूप से ख्वाजा अहमद अब्बास की कहानी पर आधारित थी, जिसका नाम था 'एंड वन डिड नॉट कम बैक'।
यह फ़िल्म हिंदी-उर्दू के साथ-साथ अंग्रेजी में भी निर्मित की गई थी। अंग्रेजी संस्करण का शीर्षक "द जर्नी ऑफ डॉ॰ कोटनीस" रखा गया था। फ़िल्म के दोनों ही संस्करणों में फ़िल्म के निर्देशक वी. शांताराम ने इसकी मुख्य भूमिका निभाई थी।
फ़िल्म कथा अनुसार मुख्य पात्र यानि डा. कोटनीस को द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान चीन के येनान प्रांत में जापानी आक्रमण के खिलाफ लड़ने वाले सैनिकों की चिकित्सा सहायता के मद्देनजर चीन भेजा जाता है। जहां वह फैली हुई बीमारी 'प्लेग' के वायरस का इलाज ढूंढने पर कार्य करते हैं। वहां रहने के दौरान ही उनकी मुलाकात एक चीनी लड़की 'चिंग लान से होती है, और वह दोनों इस मिशन के साथ जीवन के सफर पर भी चल पड़ते हैं। वह अपने इस मिशन में सफल होते हैं और प्लेग का इलाज ढूंढ निकालते हैं। यह उनके जीवन की श्रेष्ठ उपलब्धि होती है, लेकिन बाद में वे स्वयं इसका शिकार भी हो जाते हैं।
इसी संघर्ष के बीच वे जापानी पलटन द्वारा पकड़े भी जाते हैं लेकिन कुछ कोशिशों के बाद वहां से बच कर जाने में सफल हो जाते हैं। लेकिन दुर्भाग्यवश अंततः यह खतरनाक बीमारी उनकी जान ले लेती है।

मौलिक, स्वरचित
विरेंदर 'वीर' मेहता