Hone se n hone tak - 5 in Hindi Moral Stories by Sumati Saxena Lal books and stories PDF | होने से न होने तक - 5

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होने से न होने तक - 5

होने से न होने तक

5.

बाबा दादी से कई बार पहले भी मिल चुकी हॅू मैं। कभी उनको देखा भर था और कभी उनके साथ एक दो दिन के लिए रहना हुआ था। उतना थोड़ा सा समय तो पहचान के लिए ही काफी नही होता फिर उसको जानना तो कहा ही नही जा सकता। अब की से पहली बार काफी दिनों के लिए एक साथ लग कर रहना हुआ है। दो हफ्ते से हैं वे लोग। दिन मेरा नीचे अपने ही कमरे मे उन लोगों के साथ ही बीतता है, फिर मेरे कपड़ों की अल्मारी,किताबें वगैरा सब इसी कमरे मे ही तो हैं। दादी मुझ से न जाने क्या क्या बातें करती रहती हैं। कुछ जग की, कुछ घर की, कुछ मन की भी। मेरी भी आजकल छुट्टियॉ हैं इसलिए सारा समय घर में ही रहती हूं मैं। मुझे उन दोनो के साथ बैठना और दादी से बात करना अच्छा लगता है। बाबा जब बोलते हैं तब उनके स्वर में फूफा और दिनेश चाचा के लिए, उनकी सफलता और उपलब्धियों के लिए गर्व झलकता रहता है। पर दादी की बातों से दोनो के लिए आक्रोश, उनकी हताशा और उनके व उनकी पत्नियों के लिए क्रोध भी साफ समझ में आने लगता है। क्या बुआ के प्रति मेरा अलगाव पढ़ पाती हैं वे जो मुझसे कुछ भी कह लेती हैं। पर दादी तो मुझसे ही क्या जाने अन्जाने अपने मन की पीड़ा दीना से भी बॉट लेती हैं। क्या किसी के भी सामने वह अपनी ज़िदगी की पराजय के बोझ को हल्का भर करना चाहती हैं। वैसे भी अपनी ही संतान के सामने हाथ फैलाए बैठी स्त्री क्यों तो संतान का सम्मान ढकेगी और क्या करके अपने मान की रक्षा करना चाहेंगी। पर बाबा कभी तो ऐसी कोई बात नही करते। शायद दादी से भी नहीं। जब भी वे कोई ऐसी बात कहती हैं तो वे उन दोनो का पक्ष ही लेते हैं। क्या वे अपने दो बड़े बेटों की सफलता में अपना गौरव ढूडते हैं ?

फूफा मेडिकल कालेज जाने से पहले बाबा को दवा के बारे में कुछ बताने को आए थे। जाते हुए फूफा को वह पीछे से देखती रही थीं जैसे कुछ सोच रही हों। वे बहुत फींका सा हॅसी थीं,‘‘पता ही नहीं चला कि कब हम बूढ़े हो गए और बच्चे जवान। जवान भी क्या वे भी तो अब पढ़ने लिखने वाले बच्चों के बाप बन गये।’’ फूफा की तरफ देखती उनकी उदास ऑखों में प्यार नही अलगाव है,‘‘लगता है जैसे कल की बात है जब यह बच्चे छोटे छोटे से थे। दोनो भाई...यह सुरेश और दिनेश एक साथ स्कूल जाते थे। बहुत प्यार था दोनो में। अपने लाला को भी बहुत प्यार करते थे। एकदम भगवान मानते थे उन्हें।’’ वे फींका सा हॅसी थीं, ‘‘ख़ैर प्यार तो तब हमे भी करते ही थे।’’ वे अचानक चुप हो गयी थीं और मुझे लगा था शायद उनकी ऑखों में नमीं है। थोड़ी देर बाद फिर बोली थीं तो उनकी आवाज़ से अकेलापन झॉकने लगा था,‘‘सो दोनो भाईयों में तो आज भी प्यार है ही। पता नही क्यो हम बूढ़े बुढ़िया और हमारा बेचारा किशन अकेले छूट गये।’’ वे बड़ी देर तक दूर ड्राईंग रूम में मैगज़ीन पलटते किशन चाचा की तरफ देखती रही थीं ‘‘किशन बेचारे की तो औकात ही क्या है। उससे तो यह लोग जब बोलते हैं तब टेढ़ा ही बोलते हैं। वे ही क्या उनकी बीवियॉ भी।’’

सुरेश तो फिर भी कुछ कहो तो सुन लेते हैं। इलाज के लिए उनके पास ही भागे आते हैं। मास्टर जी कुछ मॉगे भी तो थोड़ा बहुत कर भी देते हैं। मीठा नहीं बोलते तो कड़वा भी नही बोलते। पर दिनेश? उससे जब भी मिलना होता है तो हम रोती ही रहती हैं बिटिया।’’ दादी की ऑखों से इस समय भी पानी तैरने लगा था और उनके चेहरे पर क्रोध दिखने लगा था।

बुआ ऊपर से पर्स लेकर उतरी थीं। वे शायद कहीं जा रही हैं। दादी की बगल में खड़े हो कर उन्होने पर्स खोला था उसमें से नोटों की एक गड्डी निकाली थी। उसे घुमा फिरा कर चारों तरफ से देखा था फिर दीना को पुकारा था और बंद गड्डी उसे पकड़ा दी थी,‘‘इसे खोल लाओ।’’ उसके लौट के आने तक वे वैसे ही चुपचाप खड़ी रही थीं। कुछ ही क्षणों मे दीना हाथ में नोटों को पकड़े हुए लौट आए थे। बुआ ने सौ सौ के कुछ नोट गिने थे और दादी की तरफ बढ़ाए थे,‘‘यह तीन हज़ार रूपये हैं। लाला ने इनसे गेहूं भरने के लिए मॉगे थे।’’ दादी ने हाथ बढ़ा कर नोट पकड़ लिए थे। वे नीचे की तरफ देख रही थीं। वैसे ही नीचे गर्दन डाले रही थीं। उदास चेहरे पर कोई भाव नहीं।

‘‘गिन लीजिए।’’ बुआ ने कहा था।

‘‘ठीक है।’’ दादी वैसे ही निश्चल बैठी रही थीं।

बुआ ने बाकी नोट पर्स में डाले थे। ड्राइवर को पुकारा था और बाहर चली गयी थीं।

वे कुछ क्षण जाती हुयी बुआ की तरफ देखती रही थीं फिर उन्होंने बाबा की तरफ देखा था। उनके चेहरे पर आहत भाव है,‘‘सुरेश से मॉगे थे तो अपने हाथों से दे कर नही जा सकते थे वे, जो बहू के हाथों से भीख दिलवाते हैं हमें।’’ उनके स्वर में क्रोध है।

बाबा ने सहलाती सी मुद्रा से उनकी तरफ देखा था,‘‘बेकार ही सोच कर कुढ़ती हो और अपने आप को दुखी करती हो। सभी घरों मे पैसे का हिसाब औरतें ही तो रखती हैं न। हमारे घर में तुम करती थीं।’’

‘‘हम ?’’दादी ने दुखी स्वर में पूछा था,‘‘हमने नोटों की ऐसी मोटी मोटी गड्डियॉ देखी भी थीं कभी।’’

बाबा के चेहरे पर खिसियाहट है। दादी की तरफ से करवट बदल कर वे पलंग पर सीधे हो गये थे। एकटक छत की तरफ देखते हुए। मुझे उन पर तरस आया था। लगा था दादी ने उनसे ऐसा न कहा होता। अपने ही बेटे से अपने अनाज के लिए पैसा मॉगने में उन्हें क्या कम तकलीफ हुयी होगी? पर दादी की पीड़ा भी समझ पा रही हॅू मैं। उन दोनो की तकलीफ महसूस करती हुयी चुप हॅू मैं। वैसे भी भला मैं कह ही क्या सकती हूं।

‘‘ख़ुश हो कर देता है सुरेश। आज तक उसने कभी मना नही किया।’’बाबा ने कॉपती हुयी अस्पष्ट आवाज़ में कहा था जैसे अम्मा को समझा,बहला रहे हों।

वे बैठी रही थीं पहले की ही तरह अपना चेहरा नीचे डाले हुए,‘‘ख़ुश हो कर देता होता तो मॉगने की ज़रूरत न पड़ती।’’

‘‘अरे बच्चे हैं ख़ुद ख़्याल नहीं आता। पर कभी मना भी तो नही करता। अपनी ही तो औलाद है उससे मॉगने में कैसी शरम?’’ बाबा की कॉपती हुयी बेहद कमज़ोर आवाज़।

‘‘हमारी तो वही शरम है कि अपनी औलाद से भी मॉगना पड़ रहा है। दिखलायी नही पड़ता कि किस हाल में रह रहे हैं मॉ बाप?’’ दादी बड़बड़ायी थीं ‘‘पचास साल के हो गये। अभी बच्चे ही हैं।’’अंत तक आते उनकी आवाज़ रोने से भी अधिक करूण लगने लगी थी।

‘‘मत सोचा कर ज़्यादा।’’ बाबा ने धीरे से कहा था। दूर बैठे मुझे लगा था कि उनकी ऑख से पानी की एक धार नीचे की तरफ गिरने लगी थी। हो सकता है मुझे भ्रम ही हुआ हो। मुझे वहॉ बैठे रहना भारी लगने लगा था पर एकदम से उठते हुए भी अजीब लगा था सो बैठी रही थी। थोड़ी ही देर में बाबा के धीमे खर्राटों की आवाज़ आने लगी थी। वे ऐसे ही कभी भी किसी भी समय अचानक सो जाते हैं। शायद दवाओं के कारण या शायद बहुत अधिक कमज़ोरी के कारण।

दादी वैसी ही बैठी हैं, नोट हाथ मे लिए हुए। ‘‘कभी कभी दद्दा की बहुत याद आती है।’’ उन्होने पता नही किससे कहा था यह वाक्य। बाबा सो रहे हैं और मैं किताब पढ़ रही हॅू। मैंने चौंक कर उनकी तरफ देखा था। अचानक मेरी निगाह उनसे मिली थी। मुझे लगा था कि मेरा उनसे कुछ बोलना ज़रूरी है इसलिए पूछा था,‘‘दद्दा कौन हैं दादी?’’

‘‘हमारे बड़े भाई हैं बेटा।’’ उन्होंने मेरी तरफ देखा था और चुप हो गयी थीं जैसे कुछ सोंच रही हों। वे धीमें से मुस्कुरायी थीं बेहद खिसियाहट के साथ‘‘सालों पहले एक बार हमारे घर आए थे। मास्टर साहब स्कूल से आते ही उल्टा सीधा खाना खा कर ट्यूशन के लिए भागते और हम सारा सारा दिन अड़ोस पड़ोस के पेटीकोट ब्लाउज़ सिलती रहतीं। उन दिनां हम दोनो को किसी और चीज़ का होश ही कहॉ था बस एक नशा था बच्चों को डाक्टर इन्जीनीयर बनाने का। तब लगता अपनी सारी ज़िदगी के सपने बच्चे पूरे करेंगे। वे लोग दो तीन दिन तक हम दोनों की दौड़ भाग देखते रहे थे। जाने से एक दिन पहले तसल्ली से बैठे बातें करते रहे थे, कहने लगे ‘‘बच्चों के लिए तो सभी मॉ बाप करते हैं पर लली अपना बुढ़ापा बिगाड़ कर मत करो,अपनी तन्दुरूस्ती मत बिगाड़ो और पूरी तरह से जेब भी ख़ाली मत करो। ऐसा रहे कि बुढ़ापे में देने वाली स्थिति में रहो। कभी किसी के सामने हाथ न फैलाना पड़े। अपनी संतान से भी मॉगना पड़े तो इंसान हेठा हो जाता है, उसकी इज़्ज़त जाती है।’’

उनकी आवाज़ रोने से भी अधिक करूण लगने लगी थी,‘‘तब भाई की बात कहॉ सुनी थी हम दोनों ने। समझी भी नहीं थी। अपने को सही और उन को ग़लत समझती रही हम।’’ वे फिर ख्सियाया सा मुस्कुरायी थीं।

मैं चुप हॅू। वैसे भी मैं कह ही क्या सकती हॅू। पर ध्यान आता है कि बुआ को न जाने कितनी बार बड़े अभिमान से कहते सुना है कि‘‘हमारे ये तो पूरी तरह से सैल्फ मेड हैं। लाला अम्मा को उनके लिए कभी कुछ करना थोड़ी पड़ा है। हमेशा स्कालरशिप मिलती रही है।’’ मुझे लगता है कि क्या फूफा ने बुआ को कभी नहीं बताया कि अम्मा ने पास पड़ोस की सिलाई कर के और लाला ने रात दिन ट्यूशन कर के फूफा के मेडिकल कालेज और दिनेश चाचा के इन्जीनीयरिंग कालेज का ख़र्चा पूरा किया था। कहीं स्कालरशिप से भी पढ़ाई के ख़र्च पूरे पड़ा करते हैं। पर बुआ ने तो उन दोनों को पला पलाया, बना बनाया ही देखा था सो उनके लिए तो वे सैल्फ मेड हैं हीं। और फूफा? कैसे इंसान हैं? क्या मन में भी उन दोनों के प्रति आभार महसूस नहीं कर सकते जो इस तरह से उन दोनों के प्यार और त्याग का अपमान करते हैं?

दादी के चेहरे पर पीड़ा थी। एक पराजित सा पस्त भाव। वे खिसियाया सा मुस्कुरायी थीं और धीरे से बोलीं थीं जैसे अपने आप से बातें कर रही हों,‘‘उन लोगो के जाने के बाद अजीब लगता रहा था। कैसे लोग हैं यह, अपना बुढ़ापा सुधार रहे हैं और नन्दन को बारहवीं पास करा कर क्लर्की करा दी। अच्छा भला पढ़ने में तेज़ बच्चा उसकी तरक्की ही रोक दी।’’ दादी काफी देर के लिए फिर से चुप हो गयी थीं। उन्होने उदास नज़रों से मेरी तरफ देखा था जैसे सफाई दे रही हों,‘‘भाई भौजाई आज भी ग़लत ही लगते हैं बिटिया। पर फिर भी अपने को ही सही कहॉ मान पाती हैं हम। सच ही तो कहा था उन्होंने अपनी ही संतान के सामने हाथ फैलाए बैठना अच्छा लगता है क्या। आज लगता है हाथ फैलाए बैठे हैं फिर भी ख़ाली हाथ। तब लगने लगता है कि शायद भाई भौजाई ही ज़्यादा समझदार थे। आज उनके अपने पास पैसा है। बच्चों को देने की ही स्थिति में हैं। कम से कम उनसे मॉगना तो नही पड़ता है। फिर बेटा क्लर्क है तो क्या, बेटा बहू मान सम्मान तो करते हैं। पूरा घर उनकी इच्छा आदेश से चलता है। बच्चे इतने ऊॅचे उठ जाए कि माता पिता को ही हिकारत से देखने लगें तब कोई क्या करें।’’ दादी ने धीमें से ऑखें पोंछी थीं,‘‘हम कहॉ ग़लत हो गईं समझ ही नहीं पातीं। वैसे भी इस उम्र में सही ग़लत का हिसाब लगा कर क्या करेंगी। बस किशन को देखती हैं तो कलेजा मुह को आने लगता है। तब सोचा था कि बड़े भाई लायक बन जाऐं तो छोटे के लिए ख़ुद ही रास्ता निकालेंगे। दो लायक बड़े भाइयों के बीच में एक भाई-उसे क्या कमी रहेगी भला। पर...’’ दादी सूखा सा मुस्कुरायी थीं,‘‘बेचारा किशन भाईयों के यहॉ आता है तो सारे समय खिसियाया सा इधर उधर करता रहता है। कोई उससे सीधे मुह बात भी तो नही करता।‘‘ दादी क्षण भर के लिये झिझकी थीं। उनकी आवाज़ भर्राने लगी थी। “आज बहुऐं कहती हैं कि किशन किसी लायक नहीं निकले। उसके पास समय पर देने को फीस, पढ़ने के लिए पूरी किताबें भी होती थीं कभी कि लायक ही निकल जाते। उसके समय तक मास्टर साहब बीमार हो गये-हमें ऑखों से कम दिखने लग गया।’’ उनकी आंखों में फिर से पानी भरने लगा था।

मेरे मन में न जाने कितना कुछ घुमड़ता रहता है। क्या दो लोगों के बीच हैसियतों में अन्तर आ जाने पर दिलों मे और रिश्तों मे अन्तर आ जाता है ? हैसियत कम हो जाने पर क्या अपने मॉ बाप भी दूर हो सकते हैं?

Sumati Saxena Lal.

Sumati1944@gmail.com