भीड़ में
(3)
’कभी उसने केवल ’गुडनाइट’ नहीं कहा. ’गुडनाइट बाबूजी’ ही कहता रहा है. लेकिन नौकरी के बाद मुझसे मिला ही कितनी बार---चार बार. और तब ऎसा अवसर भी नहीं आया. आज उसका बदला रुख देख आश्चर्य हो रहा है. क्या आई.ए.एस.—पी.सी.एस. बनने वाले सभी बच्चों की मूल प्रकृति में परिवर्तन हो जाता है. क्या मेरा यहां आना उसे अच्छा नहीं लगा, इसीलिए ’गुडनाइट’ कहकर---मेरे इतना सब कहे को एक शब्द में ध्वस्त कर वह चला गया.’ देर तक उन्हें नींद नहीं आई.
सुबह रमेन्द्र के उठने से पहले ही नहाकर तैयार हो अखबार देख रहे थे. सात बजा था. रमेन्द्र मुंह धोकर रात के कपड़ों में ही सामने सोफे पर आ बैठा. उन्हें लगा जैसे वह ठीक से सोया नहीं है. उन्हें आश्चर्य भी हुआ. उसने ’गुडमॉर्निंग’ नहीं की थी. उनका मन हुआ था कि ’बेटा संस्कारों को भूल रहा है तो क्यों न वे ही गुडमॉर्निंग बेटा’ कहकर उसकी गलती याद दिला दें. लेकिन तभी सोचा ’जान-बूझकर किए गए व्यवहार को टोककर नहीं सुधारा जा सकता. यदि उपेक्षा उसके स्वभाव में जमने लगी है तब कब-कब वे खुरचेंगे.’ वे चुप अखबार पढ़ते रहे.
वे सोचने लगे, बस स्टैंड पहुंचने में रिक्शा पन्द्रह मिनट लेगा. बस ठीक आठ बजे की है. दस बजे ऑफिस पहुंच जाऊंगा. साढ़े सात निकल लेना ठीक होगा. दस मिनट हैं. यह चुप है. शायद चाहता है मैं ही पूछूं. पूछना तो होगा ही.’ और चाय का घूंट भर उन्होंने पूछा, “लल्लू, मैं क्या जवाब दूं इंजीनियर साहब को.”
“इंकार कर दीजिए बाबूजी.” उनकी ओर देखे बिना रमेन्द्र बोला. उसकी आवाज भारी हो रही थी. उन्हें लगा जैसे उसे उत्तर देने में बहुत जोर लगाना पड़ा है.
“तुमने क्या सोचा है?”
“यहां एक लड़की को मैं वचन दे चुका हूं.”
“यह तुमने पहले ही क्यों नहीं बताया---इंजीनियर साहब---.”
“अभी बता रहा हूं---तो क्या हो गया?” उनकी बात बीच में ही काट रमेन्द्र बोला. उसका स्वर अपेक्षाकृत ऊंचा था.
उन्हें झटका लगा था. झटका इस बात से नहीं कि रमेन्द्र अपनी पसन्द की लड़की से शादी करना चाहता है,. बल्कि इससे कि उसमें उनका रोपा संस्कार का पौधा मुरझाने लगा है और वह बोलचाल-व्यवहार में रुक्ष होता जा रहा है.
“मुझे विश्वास है कि तुम्हारी पसन्द उत्तम होगी. मुझे कोई आपत्ति नहीं है और न ही तुम्हारी मां को होगी. अपने होने वाले श्वसुर से कहना कि मुझसे सम्पर्क करेंगे, जिससे जल्दी ही शादी की जा सके.” वे कह तो गए थे इतना सब एक ही सांस में, लेकिन अन्दर से विचलित थे. वे उठ खड़े हुए तो रमेन्द्र ने लपकर उनके पैर छुए. उसकी पीठ पर हाथ फेरते वे बुदबुदाए थे, ’खुश रहो.’ उनका स्वर भीगा हुआ था, लेकिन उन्होंने इसकी अनुभूति रमेन्द्र को नहीं होने दी थी.
नौकर रिक्शा ले आया था. रिक्शे पर बैठते हुए उन्होंने एक नजर रमेन्द्र पर डाली थी और ’चार बाग चलो’ कहकर सीधे होकर बैठ गए थे.
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‘कृषि विकास बोड’ के निदेशक थे गोपाल प्रसाद सिंह, ऑफीसर्स क्लब में रमेन्द्र से भेंट हुई थी उनकी. तेज तर्रार गोपाल प्रसाद को एक नजर में ही रमेन्द्र जंच गया था. सीधा, सरल, सहज और सुन्दर उस जैसा कहां मिलेगा विनीता को!’ सोचा था गोपाल प्रसाद ने. दो-चार बार घर बुलाया, विनीता से मिलने की छूट दी तो कॉलेज जीवन तक लड़कियों से बिदकने वाले रमेन्द्र के अन्दर छुपी भावना जाग्रत हो उठी. ऑफिस के बाद उसका अधिकांश समय विनीता के साथ बीतने लगा. पढ़ने में सामान्य विनीता उसकी अपेक्षा अधिक व्यवहारिक थी. उसने मिलने-जुलने से आगे नहीं बढ़ने दिया रमेन्द्र को. तब भी नहीं जब उसने घोषणा कर दी कि वह उसी से शादी करेगा.
“मेरी बेटी से शादी करके तुम्हें जो उपलब्धियां होंगी वह कानपुर के किसी इंजीनियर की बेटी से करने से नहीं मिलेंगीं---“ गोपाल प्रसाद ने सीधे अपने पद की प्रतिष्ठा निरूपित करते हुए कहा था, “यू नो, मुख्यमंत्री सीधे बुलाते हैं. सरकार का पूरा ध्यान कृषि विकास पर केन्द्रित है. तुम्हारी पोस्टिंग लखनऊ से बाहर न होने दूंगा. मन चाहा विभाग दिलवा दूंगा---ऎश करोगे---.”
रमेन्द्र ने गणित लगाया था. इंजीनियर की अधिक पढ़ी-लिखी बेटी से अधिक उपयुक्त उसने विनीता को पाया था. अधिक पढ़ी का करना भी क्या? नौकरी करवानी नहीं. और दो महीने की कशमकश के बाद स्वयं दौड़कर आए पिता को उसने निर्णय सुना दिया था.
राहत की सांस ली थी रमेन्द्र ने जब बाबूजी ने कहा था, “तुम्हारी खुशी में ही मेरी खुशी है.”
पिता को रिक्शा में जाते वह सड़क के मोड़ तक देखता रहा था.
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बाबू रघुनाथ सिंह ने दोनों बेटों के विवाह में विलम्ब नहीं किया. मई के अन्तिम सप्ताह में दोनों की तिथि निर्धारित कर शादी कर दी. दोनों के विवाह में मात्र तीन दिन का अन्तर. एक बार घर आए मेहमानों ने भी उनके विवेक की प्रशंसा की थी. दो बार घर आने-जाने के ज़हमत से बच गए थे लोग और ’बाबू जी ने भी खर्च में बचत कर ली है.’ कुछ लोगों ने कहा था.
जैसा कि उन्होंने सोचा था, विवाह के बाद रमेन्द्र घर से दूर होता गया था. दो-तीन महीने में घर के चक्कर लगा जाने वाला वह दफ्तर की व्यस्तता बता छः –सात महीने में घंटा-दो घंटे के लिए आता. लेकिन धीरेन्द्र ने शादी के बाद तीन महीने तक पत्नी को मां के पास रहने दिया था. बाद में, “तुम्हें खाने-पीने की असुविधा होती होगी बेटा—बहू को साथ ले जाओ.” सावित्री ने कहा तो धीरेन्द्र ने भी धीमे स्वर में कहा था, “असुविधा की बात नहीं मां---नंदिता बी.एड. करना चाह रही थी---.”
“यह मेरे दिमाग से निकल ही गया था बेटा---अब तो एडमिशन का समय भी निकल गया होगा.” बाबू रघुनाथ सिंह के स्वर में अपराधबोध स्पष्ट था.
“मैंने फार्म भरवा दिया था बाबूजी---समय है अभी.”
’एक अपराध होते-होते बचा’ सोचा था बाबूजी ने.
रमेन्द्र की पत्नी एक सप्ताह बाद चली गयी और धीरेन्द्र की तीन महीने बाद. घर फिर सांय-सांय करने लगा था. सावित्री दिन भर घर में ऊपर-नीचे होती रहती. अड़ोस-पड़ोस में पंजाबी परिवार, जिनमें अधिकांश पार्टीशन के बाद आए लोग थे. सावित्री को न उनका रहन-सहन पसन्द था और न ही बोली-भाषा. दिन भर उनके पुरुष व्यवसाय के लिए दौड़ते और औरतें घरों के बाहर खटोलों पर बैठ पंजाबी में अपने बीते दिनों को याद करतीं. कभी-कभी सावित्री उनके साथ जा बैठती और आधी-अधूरी बात समझ उनके जीवन में घटित त्रासदी से पीड़ित हो दो-चार दिन उसी में ऊभ-चूभ होती रहती. दूसरों की पीड़ा से पीड़ित रहने वाली सावित्री को फिर भी उन सबकी जीवन शैली पसन्द न थी.
“दिन भर पैसों के लिए मार-धाड़---लड़ाई-झगड़े---तुमने कहां मकान बनवा लिया लल्लू के बाबू!”
“इतनी कट गयी---अब बची ही क्या है. आठ महीने बाद रिटायर हो रहा हूं. फिर निश्चिन्त होकर घर में कोई किराएदार रखकर देशाटन करेंगे. गर्मी में पहाड़ों पर तो सर्दी में दक्षिण या कहीं और---बरसात भर यहीं---.” फिर पत्नी के सफेद बालों को सहलाते वे कहते, “किस खूसट से तुम्हारी शादी हुई सावित्री कि जिन्दगी खपा दी तुमने घर-गृहस्थी में! कभी अपने लिए नहीं जी---लेकिन अब ऎसा न होगा!”
“अपने लिए ही तो जीती रही लल्लू के बाबू.” सावित्री उन्हें सदैव लल्लू के बाबू ही पुकारती रहीं. शादी के शुरुआती दिनों में ’ये-ओ’, फिर दफ्तर वालों से सुना, “बाबू जी” शब्द हाथ लगा तो ’बाबू’ और रमेन्द्र के जन्म के बाद ’लल्लू के बाबू’.
उन्हें सावित्री की याद सताने लगी तो वे उठ बैठे और कमरे में जा एक गिलास पानी पिया. धूप दीवार पर चढ़ नब्बे अंश के कोण पर आ गयी थी. पलंग पर रखा पुराना हाफ-स्वेटर पहना, जिसे स्टेशन रोड से तीन वर्ष पहले उन्होंने खरीदा था और फिर चारपाई पर आ लेटे.
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शाम होते ही सावित्री दरवाजे से आ टिकती थी और उसकी आंखें रास्ते पर ही टंगी रहती थीं. जैसे ही उनका रिक्शा देखती उसका चेहरा खिल उठता. हाथ में कोई सामान होता तो आगे बढ़ आती, “मुझे थमा दो.” थैला पकड़ लेती, “आराम से उतरो---जल्दी क्या है?” हिदायत देती और रिक्शा से उतरने तक खड़ी रहती.
लेकिन बेटों के विवाह के बाद अधिक दिनों वह साथ नहीं रही. धीरेन्द्र की बहू के ले जाने के एक माह बाद सावित्री के बायें अंग में पक्षाघात हुआ और वह शय्यासीन हो गयी.
सावित्री को उन्होंने मेडिकल कॉलेज से लेकर निजी डॉक्टरों तक को दिखाया. महीनों इलाज चला. इस दौरान वे नौकरी से सेवामुक्त हो गये. फंड आदि से मिला पैसा अधिक न था. जोड़ भी न पाए थे. बच्चों की पढ़ाई, शादी---सब नौकरी के बल पर ही तो हुआ था. पेंशन अवश्य थी, लेकिन उससे दो प्राणियों का खर्च ही ढंग से चल सकता था. पत्नी का इलाज फंड आदि का पैसा खाए जा रहा था. रमेन्द्र-धीरेन्द्र मां को देखने आए. एक दिन रमेन्द्र और दो दिन धीरेन्द्र रहे, लेकिन इलाज कहां हो रहा है? यह तो पूछा, ’कैसे हो रहा है?’ दोनों ने नहीं पूछा. दोनों की ही पत्नियां ’फेमिली वे’ में थीं, लाना कठिन था. कहकर वे चले गए थे. उनकी जुबान की नोंक पर आया भी था कि रमेन्द्र से कहें, “मां को लखनऊ में किसी अच्छे डॉक्टर को दिखा दो.” लेकिन वह नोंक से आगे नहीं बढ़ा.
’क्या दोनों को नहीं सोचना चाहिए? आज तक मैंने किसी से कुछ नहीं मांगा. अब क्यों मांगू. जब तक पैसा है पास, खर्च करूंगा.’ मन को कुछ बल मिला था. ’मनुष्य युगों तक जीने के लिए नहीं पैदा हुआ. एक-न-एक दिन उसे जाना ही होता है.’ उन्हें गीता याद आई. ’कृष्ण ने ठीक ही कहा था---वासांसि जीर्णानि यथा विहाय---फिर मैं क्यों किसी के समक्ष, वह भी बेटों के समक्ष, याचना करूं---तुम्हारी मां है---तुम्हारे दायित्व हैं. उसकी देखभाल करो. दायित्वों का भान जब उन्हें नहीं तो दिलाकर भी कुछ होने वाला नहीं. आजादी के बाद नयी पीढ़ी का बहुत-सी बातों से मोह भंग हुआ है. मूल्य ध्वस्त हुए हैं. किस-किस को याद दिलाता फिरूं---’ और उन्होंने तय कर लिया था कि वे कभी भी बेटों को मां की बीमारी के विषय में नहीं बताएंगे.
दोनों बेटियां आयी थीं. “मां को मेरे साथ भेज दो बाबूजी---वहां अच्छा इलाज हो जाएगा.” बड़ी ने जिद की थी, लेकिन “यहां भी अच्छा इलाज हो रहा है बेटा. ठीक होना होगा तो यहीं हो जाऊंगी अब इस उम्र में तुम्हारे बाबू जी को छोड़कर कहीं न जाऊंगी. मरना है तो यहीं---इसी ड्योढ़ी में मरूंगी. बायां अंग ही प्रभावित है---दाहिने से बहुत कुछ कर लेती हूं. तुम सब चिन्ता न करो— कमाओ— खाओ— फलो- फूलो.” सावित्री के स्वर में आत्मविश्वास था.
सावित्री में जीवटपन की कमी न थी. दाहिने हाथ से वह धीरे-धीरे दाल-चावल बना लेती थी, वे रोकते---स्वयं करने की जिद करते तो कहती, ’सारी जिन्दगी कलम घिसने वाले हाथ यह सब न कर पाएंगे. पता चलेगा दाल में नमक अधिक है या चावल गीले हो गए.” मुंह का बांया भाग भी प्रभावित हुआ था, जिससे उसकी आवाज विकृत होकर निकलती थी. पक्षाघात के आक्रमण के चार महीने तक सावित्री ने उन्हें किसी काम में हाथ नहीं लगाने दिया. वे इतना ही करते कि अंगीठी सुलगा देते. वह एक हाथ से आटा गूंथती और उसी से चपाती सेंक देती. लेकिन उस सबमें वह थक जाती और शिथिल हो चारपाई पकड़ लेती. खाने की रुचि न बचती थी तब तक उसमें.
अन्ततः उन्होंने घर के काम के लिए एक लड़की रख ली. सुबह शाम आती. सावित्री के इलाज के अतिरिक्त यह एक अलग आर्थिक बोझ था. इलाज का कोई असर महीनों में नहीं दिखा तब डाक्टर ने कुछ और टेस्ट करवाए. ज्ञात हुआ सावित्री मधुमेह से ग्रस्त है. मधुमेह भी ऎसा कि रोंगटे खड़े कर देनेवाला. डॉक्टरों ने बताया कि पक्षाघात का कारण ही मधुमेह है और उन्होंने घोषणा कर दी कि उसके ठीक होने की सम्भावना न्यून है. वे घबड़ा उठे थे. अब पक्षाघात के साथ ही मधुमेह का इलाज भी प्रारंभ हो गया था. उसे नियंत्रण में आने से पूर्व ही उसने सावित्री की आंखों को प्रभावित किया था. रोशनी कम हो गयी थी. चश्मा चढ़ गया था. शरीर सूखने लगा था और मामूली-सी बात में ही वह चिड़चिड़ाने लगी थी. डॉक्टरों ने टहलने की सलाह दी थी. वह सुबह- शाम टहलती, लेकिन दस-पन्द्रह मिनट में ही इतना थक जाती कि चारपाई पर ढेर हो जाती.
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