मैं वही हूँ!
(2)
उस तरफ देखते हुये मुझे तेज डर की अनुभूति हुई थी! शरीर में झुरझुरी फैल गई थी- यह कैसे संभव है! जिसे जीवन में कभी नहीं देखा उसे सपने में देखता हूँ और अब वह दिन के उजाले में आँखों के सामने है! इच्छा हुई थी, वहाँ से उसी क्षण लौट चलूँ मगर मोहाविष्ट-सा खड़ा रह गया था। प्रतीत हो रहा था, कुछ अदृश्य मुझे हाथ के इशारे से अपने पास बुला रहा है। अचानक चली तेज हवा में सघन पेड़ दुहरे हो गए थे। कोई जंगली बत्तख चीखते हुये सर के ऊपर से गुजरा था...मैंने एक बार फिर ध्यान से देखा था-नहीं! यह कोई सपना नहीं था!
इसके बाद बार-बार मैं वहाँ जाता रहा था, जाने किसके बुलावे पर! दफ्तर जॉइन कर मैंने इस इलाके के नक्शे में बहुत तलाशा था, मगर वह शहर कहीं दर्ज नहीं था। पूछताछ का भी वही शिफर नतीजा- किसी को इसके बारे में कोई जानकारी नहीं थी!मैं भीतर ही भीतर जितना डरा हुआ था, उतना ही रोमांचित भी। जो कुछ भी मेरे साथ घट रहा था वह सच नहीं हो सकता था। मगर सच था!मेरा सच! कोशिश कर के भी इस बारे में मैं किसी को कुछ बता नहीं पाया था। कौन मेरा यकीन करता! सब समझते मेरा दिमाग खराब हो गया है।
बरसाती जंगल के ठाठे मारते हुये हरे समुद्र के बीच पसरा वह परित्यक्त शहर दूर से भाद्र की तांबई धूप में किसी पंख झड़े राजहंस-सा दिखता था। गर्वीला मगर पराजित! उदास और अकेला भी! उसकी भग्नावशेष खंभे और अटारियाँ लंबी, सुडौल ग्रीवा की गर्वोन्नत खम की तरह विगत स्मृति-चिन्ह बन चमकती रहतीं। अंधड़ के दिनों में, जब गेरुआ धूल का चंदोबा-सा क्षितिज पर तन जाता और एक इस्पाती आभा जमीन से धीरे-धीरे घुमड़ती, लहराती उठती, लगता जैसे एकदम से किसीअदृश्य से जादू की तरह उसके पंख उतरेंगे और वह उन्हें दोनों दिशाओं में ओर-छोर पसार कर आकाश की नीली शून्यता में खो जाएगा।
मैं विस्मित सोचता, फिर सदियों से उस शहर की बूढ़ी देह के नीचे दबे उन अनगढ़ टीलों में क्या बचा रह जाएगा!शायद वही- अस्थियों की तरह बिखरी हुई कुछ स्मृतियाँ और धू-धू करता सन्नाटा! सन्नाटा जिनकी छाया बन ढलानों पर उतरते ही प्रतीत होता है, बोसीदा, काली कब्रों से आसेब की टोली दबे पाँव बाहर निकल आती होंगी और अपनी खोखली छातियों में लंबी सांस भर आँखों की मृत जुगनुओं की पथराई चमक से इस दुनिया को देखती होगी। दुनिया, जिसकी चाह आज भी उन्हें अनंत की निबिड़ निद्रा में लीन होने नहीं देती; खींच कर निकाल लाती है गाढ़ी तंद्रा के काले जल कुंड से। कुछ भी जो इतना सुंदर हो, इतना भयावह भी हो सकता है, इससे पहले मुझे विदित नहीं था। मैं एक अजीब डर मिश्रित रोमांच में रात-दिन जी रहा था।
एक गहरे नशे की-सी अवस्था में मेरी भूख-प्यास मिट गई थी। वक्त-वेवक्त पुरानी बावरी और उस उजड़े शहर की तरफ निकल पड़ता था, घंटों भटकता रहता था। कभी-कभी रात के समय भी। पूरे चाँद की रातों में धप-धप चाँदनी में स्तब्ध पड़ा वह चर्च दूर से कफन में लिपटे किसी शव-सा प्रतीत होता था।
शहर से बहुत बाहर उस निर्जन प्रांतर के बहुत बड़े क्षेत्रफल में फैले उस गोथिक चर्च की प्राचीन इमारत मुझे अपनी ओर लगातार खींचती थी। मध्य युग के मध्य और उत्तर काल में ‘रोमनेस्क्यू’ स्थापत्य कला से अपने अस्तित्व में आई तथा रेनेसां तक उत्तरोत्तर फलती-फूलती इस स्थापत्य कला का सौंदर्य और समृद्ध इतिहास हमेशा से मेरे अध्ययन और उत्सुकता के केंद्र में रहा है।
यूरोप प्रवास के दौरान मैंने इस सैली से निर्मित विश्व धरोहर में सम्मिलित ना जाने कितने चर्च, कथेड्रल और इमारतें देखी थी। खास कर फ़्रांस में बेनेडिक्टिनस चर्च। फिर ग्लासगोव कथेड्रल, पोलैंड का बसेलिका, इटली का द पलाज्जो पब्ब्लिको... ऊंचे,भाले-से नुकीले कंगूरे और कतारबद्ध खंभे, स्टेंड ग्लास के सतरंगी शीशों से घिरी लंबी गैलरी, रोशनदान और बारादरियाँ, रोज़ विंडोज...
मेरे जीवन की ना जाने कितनी सुबह और शांत दुपहरियां इन ईमारतों में बीती हैं। मैं अक्सर हैरान होता था, फूल के पराग की तरह दुनिया की विभिन्न संस्कृतियाँ किस तरह एक देश से दूसरे देश तक फैलती है!
मैं सुनहरे, भारी नक्काशीदार ऐसेल्स, कॉएर, भित्ति चित्र छू-छू कर देखता। मेरी उँगलियों के पोर धडक-से उठते! नींद में मग्न समय एकदम से जग उठा हो जैसे। इनके चप्पे-चप्पे में इतिहास का कोई क्षण, कोई निर्णायक मोड़, घटना, उथल-पुथल अंकित है, उसांसें ले रहा है! समय यहाँ बंधा हुआ है, फ्रेम में जड़ा स्तब्ध खड़ा है अपने युग की समस्त त्रासद, मधुर स्मृतियों के साथ...
उन दिनों आसमान अक्सर जंजीर-सी चमकती छोटी-छोटी जंगली पगडंडियों पर उतर कर चहलकदमी करते नज़र आ जाता था। मई का महीना था- अर्थात अँग्रेजी में ‘मैरी मंथ’! छोटी, मीठी, त्वरित बारिशों का मौसम! ऐसा मौसम जब जमीन तक घिर आए नीले बादल के फूल गुलमोहर की नग्न डालियों पर पांत की पांत खिल जाय और कभी-कभार बरस कर आकाश सेमल के फाहे-सा हल्का हो उड़ता फिरे...
मेरे कार्यभार सम्हालने के कुछ ही दिन बाद शहर के दक्षिण में बहुत बड़े पैमाने पर खुदाई का काम शुरू हो गया था। इन दिनों बारिश के बाद मिट्टी कई-कई पर्तों तक नर्म रहती है जिससे खुदाई में सुविधा होती है। मगर दो-चार दिन के खनन के बाद सतह पर पत्थर निकल आया था। इससे काम रोक देना पड़ा था। पता चला था,इस इलाके का बहुत बड़ा हिस्सा पथरीला है। अनुमान के अनुसार एक विशाल शीला खंड दो किलोमीटर के क्षेत्रफल में फैला हुआ था।
देख-सुन कर मुझे कर्नाटक के हम्पी का ख्याल आया था। आस्था के अनुसार हनुमान की जन्मस्थली किष्किंधा से सटी राजा कृष्णदेव राय की नगरी! चारों तरफ छोटे और विशाल पत्थरों के स्तूप! बकौल धार्मिक मान्यता के, नटखट बानरों के द्वारा फैले-बिखराए हुये! वहाँ भी एक अकेला शीला खंड आकार में डेढ़ किलोमीटर लंबा-चौड़ा था। सालों से वहाँ खनन का काम चल रहा है। धरती के नीचे दबा तराशे पत्थरों से बना एक पूरा नगर अब तक बरामद किया जा चुका है। मंदिर, महल, स्नानागार, बाजार...
नौकरी के शुरू के दिनों में मैं वहाँ लगभग एक साल था। उस प्राचीन शहर की भव्यता देख जहां चमत्कृत होना पड़ता था वही अतीत में हुये उसका नृशंस विध्वंस मन को विषाद से भर देता था। विदेशी आक्रांताओं ने इस समृद्ध नगरी को ध्वस्त कर के रख दिया था। उनकी असहिष्णुता के चिन्ह हर तरफ फैले हुये थे। पूरा नगर एक खंडहर में तब्दील हुआ पड़ा था- टूटे मंदिर कलश,खंडित देव मूर्तियाँ, ईमारतें...
हिन्दू टूटी प्रतिमाओं की पूजा नहीं करते। सूने, उदास मंदिरों को देख कर महसूस हुआ था, भक्त के बिना भगवान भी कितने अकेले हो जाते हैं! अंग-भंग का अभिशाप ले कर युगों से इन खंडहरों में उपेक्षित पडे हैं...
ऐसे में तीन फुट पानी में डूबे हुये उस विशाल शिवलिंग के माथे पर रखा गुड़हल का लाल फूल टूटे मंदिर शिखर से छन कर आती दोपहर की धूप में विलक्षण प्रतीत हुआ था। किसी ने बताया था, मूर्ति भंजक आक्रांताओं ने शिवलिंग को एक ढांचा मात्र समझ कर साबुत छोड़ दिया था। इसलिए यहाँ स्थानीय बाशिंदा पूजा करने आते हैं।
उस एकसाल की अवधि में जितना देखा था उतना हैरान होता गया था। कितना समृद्ध था हमारा अतीत और किस तरह की बर्बरता का शिकार हुआ! सिर्फ इसलिए कि उसे रचना, सिरजना तो आता था, प्रतिरक्षा में खड़ा होना नहीं आता था। कैसी विडम्बना थी, संगठित हुये बिना महान शक्तियां भी कुछ इसी तरह कातर और पराजित रहती हैं।
केले और नारियल के घने जंगलों के बीच फैला वह हजारों मंदिरों का प्राचीन शहर अब भी मेरी स्मृतियों में किसी सपने की तरह बसा हुआ था। खास कर वह मंदिर जिसके खंभों को बजाने से विभिन्न वाद्यों की ध्वनि निकलती थी।
कुछ दिनों के गहन अध्ययन और विचार-विमर्श के बाद दूसरी तरफ से, जिधर मिट्टी रेतीली थी, खुदाई का काम फिर से शुरू की गई थी और इस बार जल्द ही हमें एक मूँदे हुये मुहाने वाली सुरंग का पता चला था। यह सुरंग एक पुराने किले के पीछे, नाले में तब्दील हो गई एक नदी के बगल से हो कर दक्षिण की ओर आगे बढ़ी थी।
यह किला एक मराठा सरदार का था और कहा जाता था, मुगलों से युद्ध के समय शिवाजी महाराज के खजाने का एक बड़ा हिस्सा इस सरदार को किसी सुरक्षित स्थान पर छिपाने के लिए सौंपा गया था। बहुतों का अनुमान था, यह खजाना इसी इलाके में कहीं छिपाया गया था। अंग्रेज कालीन कई दस्ताबेजों में इसके संकेत मिले थे। खास कर सर एडमंड लुईस की किताब में। इस किताब के अनुसार मराठा सरदार भीमाजी राव ने अरबों के हीरे-जवाहरात अपने किले के आसपास के जंगलों में कहीं दफन किए थे। उनके मुगलों के हाथों पकड़े और मारे जाने के साथ ही खजाने का यह राज हमेशा-हमेशा के लिए राज बन कर रह गया था।
इस सुरंग के मिलते ही चारों तरफ सनसनी फैल गई थी। खजाने की कहानी फिर से तूल पकड़ने लगी थी। पहले भी यहाँ खजाने के संधान में लोग चोरी-छुपे जगह-जगह खुदाई करते रहे हैं। कई मंदिरों में तोड़-फोड़ की गई थी। अपने काम के सिलसिले में अक्सर हमें ऐसी वारदातों का सामना करता रहनापड़ा है।
जहां मैं रह रहा था वहाँ से खुदाई की यह जगह काफी दूर थी। आने-जाने में ही अच्छा-खासा समय निकल जाता था। तो कुछ दिन के लिए मैं यहाँ लगे अस्थाई कैंप में रहने चला आया था। इस कैंप के पास ही मजदूरों के रहने के लिए टीन और कैनवास की लगभग पचास झोपड़ियाँ बनाई गई थी। इन्हीं में से कोई ना कोई मजदूर परिवार मेरे लिए खाना बना दिया करता था।
इन दिनों धूप बहुत तेज हो रही थी। पूरा पथरीला इलाका दिन भर दहकता रहता। हवा में धूल के भंवर उठ कर दूर तक लट्टू की तरह नाचते जाते। सूरज ढलने के बाद ही तापमान कुछ गिरता था। शाम के बाद पूरा इलाका सुनसान हो जाता था। मजदूरों की छावनी से कुछ देर धुआँ उठता, चहल-पहल रहती और फिर सब शांत हो जाता। दिन-भर के थके-हारे लोग बहुत जल्दी सो जाते थे।पौ फटने से बहुत पहले उनका दिन शुरू होता था।
मेरा दिन तो काम की गहमागहमी में गुजर जाता था मगर शाम के बाद मेरे लिए समय काटना कठिन हो जाता था। उस परित्यक्त शहर के सपने भी इन दिनों अचानक से आने बंद हो गए थे। वहाँ ना जा पाने की बेचैनी भीतर बनी हुई थी। लालटेन की रोशनी में लिखना-पढ़ना संभव नहीं था। तो अक्सर नदी किनारे घूमने निकल जाता था।
कुहेली नाम की यह नदी अभी-अभी बीती बारिश के बाद पानी से भरी हुई थी। नदी के दूसरी तरफ लगभग पाँच सौ मीटर की दूरी से सिंगल गेज का रेल लाइन गुजराथा। देर रात जब कई मालगाड़ियाँ एक के बाद एक उस पर से गुजरती, पूरा इलाका उनकी धमक से भर जाता। दूर तक उनकी सीटी सुनाई पड़ती। धुयें के उछलते बगूलों से क्षितिज ढँक जाता।
ट्रेन अब भी मुझेदहशत और रोमांच से भर देती है। इसके साथ मेरे बचपन की ना जाने कितनी अच्छी, बुरी स्मृतियाँ जुड़ी हुई हैं। पिताजी रेलवे में थे। हमारी कॉलोनी स्टेशन के पास ही थी। बचपन में चलती ट्रेन के साथ-साथ हम दौड़ा करते थे, दरवाजे पर खड़े मुसाफिरों को हाथ हिलाते हुये। रातों को ट्रेन गुजरती तो अंधेरे में चमकदार खिड़कियाँ एक के पीछे एक कतार में भागती दिखतीं।
उन्हीं ट्रेन की पटरियों पर एक दिन एक वीभत्स लाश देखी थी। बुरी तरह से कुचली हुई। लोगों ने बताया था, वह मेरे पिता की लाश थी। अपनी हथेली की लकीरों की तरह जानी-पहचानी उन पटरियों पर एक दिन वे गलती से गुजरते रेल के आगे आ गए! सबने मान ली यह बात, पिताजी के दोस्त निहार बाबू के कहने पर माँ ने भी! मगर मैं आज तक नहीं मान पाया! उस हादसे ने मेरे और माँ के बीच जाने कितनी पटरियों का दुरूह संजाल बिछा दिया था जिनसे हो कर आज भी हररात एक हत्यारी ट्रेन चिंघारती हुई गुजरती है और मैं भीतर ही भीतर थरथरा उठता हूँ।
अभी-अभी गुजरी एक मालगाड़ी का आखिरी डिब्बा नदी की बांक पर ओझल हुआ है। पीछे रह गया है तेज शोर के बाद का सन्नाटा। हवा में गोल-गोल घूमते भयभीत पंक्षियों का झुंड धीरे-धीरे पेड़ों पर उतरा है। यह समय प्रकृति के लिए नींद और मौन का है।
कुछ ही दूरी पर खुदाई में निकली सुरंग का मुहाना लाल रिबन के घेरे के पीछे से झांक रहा है। भीतर घुप अंधेरा है। आज खुदाई के सातवें दिन एक बहुत बड़ी सफलता मिली थी हमारे दल को। सुरंग का मिट्टी से बंद पड़ा मुंह करीब हजार मीटर आगे जा कर खुल गया था। देर हो जाने की वजह से आज कामरोक दिया गया था। कल अलसुबह फिर से शुरू करने की योजना थी। कुछ ही दिन पहले एक मजदूर की सुरंग में जहरीली गैस से मौत हो जाने के बाद से हम ज्यादा सावधानी बरत रहे थे।
उस सुरंग की तरफ देखते हुये मुझे कुछ अजीब-सा महसूस हुआ था। उसका अंधकार में भायं-भायं करता मुंह जैसे किसी अजगर का था, सब कुछ निगलने के लिए खुला हुआ। सर झटकते हुये मैं अपने तम्बू में लौट आया था मगर मेरे दिमाग में अजगर-सा खुला हुआ सुरंग का वह मुंह ऑबशेसन बन कर छाया रहा था जिससे मैं किसी तरह खुद को मुक्त नहीं कर पाया था।
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