जी-मेल एक्सप्रेस
अलका सिन्हा
26. भरोसे की नींव पर खड़ा रिश्ता
मैं चुपचाप उनके सामने जाकर खड़ा हो गया।
“तुझे अपनी सफाई में क्या कहना है?”
“तू कौन-सा नया ज्ञान बघारेगा?”
“सीधे-सीधे काम की बात पर आ। तू तो डायरेक्ट पूर्णिमा को ही रिपोर्ट करता था न?”
एक-एक कर वे तीनों मुझ पर हावी होने लगे थे और उनकी चुप्पी अब रौद्र रूप लेने लगी थी। मैंने समझा था कि माहौल थोड़ा संवेदनशील हुआ है, मगर यह मेरी गलतफहमी निकली। वे उन लड़कों पर जो आजमाइश नहीं कर पाए थे, वह अब मुझ पर करने को बेताब थे। मैं कुछ भी कहता, वे मुझ पर टूट पड़ते।
वैसे मैं कहता भी क्या? मेरे पास अपनी सफाई में कहने को था ही क्या?
शायद मेरी उम्र का लिहाज करके अभी तक उन्होंने मुझ पर हाथ नहीं उठाया था वरना मेरी चुप्पी उन्हें बेहद नागवार थी। उनमें से एक ने आवेश में मुझे कंधे से पकड़कर झकझोर दिया। मैं अचानक हुए इस हमले से खुद को संभाल नहीं पाया और लड़खड़ाकर उनके पैरों पर जा गिरा।
‘‘लगता है, खातिर पूरी नहीं हुई तेरी...’’ कोई गाली देते-देते उसने जबान को रोक लिया।
‘‘इस पर थर्ड डिग्री लगानी पड़ेगी, राजी-खुशी बताने की मरजी ना है इसकी।’’ उसने घंटी बजाकर किसी कॉन्स्टेबल को बुलाया और मुझे ले जाने का इशारा किया।
‘थर्ड डिग्री टॉर्चर’ के बारे में मुझे थोड़ा-बहुत जो अंदाजा था, वह काफी भयानक था और मैं दहशत से भर उठा था। मुझे कुछ ख्याल नहीं कि गाड़ी में बिठा कर वह कॉन्स्टेबल मुझे अब कहां लिए जा रहा था।
गाड़ी की रफ्तार थोड़ी कम हुई और गाड़ी के पूरी तरह रुकने का इंतजार किए बिना ही उसने मुझे नीचे धकेल दिया। मैं सोच रहा था कि अब ये मुझे सड़क पर घसीटते हुए गाड़ी चलाएंगे। रगड़ से छिले हुए शरीर का दर्द मेरी आंखों में उतर आया था।
मगर मुझे धकेल कर जब गाड़ी आगे निकल गई तब मैंने अहसास किया कि मैं अपने ऑफिस के गेट के सामने खड़ा था।
मैं सही सलामत दफ्तर पहुंच गया था, यह देखकर मैंने अपनी खैर मनाई, मगर यह नहीं जानता था कि कब तक खैर मना सकता हूं। कल वे फिर आएंगे और तब मेरी खाल उधेड़ी जाएगी।
‘थर्ड डिग्री’, ‘थर्ड डिग्री’ मेरे कानों में गूंज रहा था। एक बार मन किया कि विनीता को फोन करूं, मगर कर नहीं पाया। हर बार लगता, जैसे कोई मुझे देख रहा है। मेरी हर हरकत पर निगाह रखी जा रही है। मैं जो भी करूंगा, उसका नोटिस लिया जाएगा, किसी से बात करूंगा, तो उसके अर्थ निकाले जाएंगे। मेरे संपर्कों को खंगाला जाएगा, फिर पता नहीं उनके साथ कैसा सलूक किया जाएगा। मेरे पूरे परिवार का भविष्य चौपट हो गया। मैं कभी खुद को उन तीनों से पिटते हुए देख रहा था तो कभी खुद को सलाखों के पीछे देख रहा था। सोच-सोचकर मेरा दिमाग पूरी तरह खाली हो चुका था।
घर पहुंचा तो विनीता कोई न्यूज चैनल लगाए बैठी थी। आजकल विनीता भी सीरियल वगैरह छोड़कर न्यूज देखने लगी है। न्यूज भी क्या है, जिस्मफरोशी और जिगोलो कल्चर का रिऐलिटी शो चल रहा है। धुंधले चेहरे में दिखाई दे रहा, अधेड़ उम्र का एक व्यक्ति, चैनल पर अपनी कहानी बयान कर रहा है कि किस तरह एक चित्रकला प्रदर्शनी में उसकी मुलाकात अपने से आधी उम्र की एक लड़की से हुई और उन्होंने साथ-साथ चाय पी। कुछ ही दिनों बाद उस लड़की का फोन आया कि वह उन्हें अपने घर लंच पर बुलाना चाहती है। तय समय पर जब ये महाशय उस लड़की के घर पहुंचे तो पता चला कि उसके पति को अचानक ही किसी जरूरी काम से बाहर जाना पड़ गया है।
उनकी बयानबाजी को नजरअंदाज करता हुआ मैं ड्राइंग रूम पारकर बेडरूम में आ गया।
टीवी पर आपबीती सुना रहे उस व्यक्ति की आवाज इस कमरे तक भी साफ सुनाई दे रही थी। वह बता रहा था कि अपना घर दिखाने के बहाने वह महिला उसे अपने बेडरूम तक ले गई जहां पहुंचकर उसने अपनी मंशा जाहिर कर दी। वह कह रहा था कि जीवन में आए इस नए मोड़ से उसका यौवन वापस लौट आया है। वह नई ऊर्जा से भर गया है। उसने यह भी बताया कि उस लड़की के संपर्क में आने के बाद उसने और भी कई लड़कियों से संबंध बनाए और यह महसूस किया कि एक समय के बाद हम अपनी पत्नी की सुंदरता का नोटिस लेना बंद कर देते हैं जबकि कोई भी लड़की उन आत्मीय पलों में अपने हर अंग की तारीफ सुनना चाहती है...
नंगे जिस्मों की इस चर्चा से मैं दूर भाग जाना चाहता था। बाथरूम में जाकर मैं देर तक अपने हाथ-पैर रगड़ता रहा। चाहता था, पानी की तेज धार के साथ, अपने शरीर पर पड़ी उन जांच अधिकारियों की छुअन का अहसास भी बहा दूं। जब तक हाथ-मुंह धोकर बाहर आया, तब तक विनीता चाय रख गई थी। साथ वाले कमरे से आ रही टीवी की आवाज से मेरी झल्लाहट बढ़ती जा रही थी। सोचा, विनीता को आवाज दूं कि वह टीवी बंद क्यों नहीं कर देती। मगर कह नहीं पाया। चुपचाप आंखों पर तकिया ढककर लेट गया।
‘‘अरे, लेटे क्यों हो? सब ठीक तो है?’’ विनीता चाय का कप वापस ले जाने आई तो ठिठक गई।
‘‘काम बहुत बढ़ गया है आजकल।’’ थूक के साथ मैं बहुत कुछ निगल गया।
‘‘थोड़ा आराम कर लो।’’ वह कुछ पूछती मगर मेरी चुप्पी देख कर उसने इरादा बदल दिया और चुपचाप लौट गई।
टीवी की आवाज सुनाई देना बंद हो गया। शायद विनीता ने टीवी बंद कर दिया था। दिमाग को थोड़ी राहत महसूस हुई।
अभी नींद आई-आई ही थी कि आवाजें फिर से तेज हो गईं। लगता है, विनीता ने फिर टीवी चला दिया है। टीवी ऐंकर अपनी भरपूर ताकत के साथ चिल्ला-चिल्लाकर बता रही है कि ऊंचे पदों पर बैठी इन महिला अधिकारियों ने दफ्तर को अपनी अय्याशी का अड्डा बना रखा था। अच्छे घरों के लड़कों को नौकरी और अच्छी कमाई का झांसा देकर वे उन्हें अपने जाल में फांसती थीं और अपनी हवस पूरी करने का साधन बनाती थीं।
वह दिखा रही है कि कहां और कैसे मनाई जाती थीं रंगरेलियां।
मोबाइल पर रिकार्ड की गई वीडियो की धुंधली और हिलती तस्वीरें हैं, जैसी स्टिंग ऑपरेशन में दिखती हैं...
अरे, ये तो साउथ एक्सटेंशन वाला वही पार्लर है जहां मैं उस रोज जीएम से फाइल पर साइन कराने गया था... दीवारों पर लगे शीशे... ऊंची कुरसियां... लॉबी से सटे कमरे से आती आवाजें... मैं सिहर उठा। जहन में उस रोज के अहसासात ताजा हो गए ...गर्म सांसों का उफान... अजब-सी कसमसाहट... अतृप्त आत्माओं की आंख-मिचौनी... वहशी दीवारें... सभी कुछ बेपर्दा होता जा रहा है...
अरे, यह क्या? यह तो मेरी तस्वीर है... हां, यह तो मैं ही हूं... बगल में फाइल दबाए, दीवार में धंसे दरवाजे की तरफ बढ़ता हुआ... यानी मैं भी कैमरे की गिरफ्त में आ ही गया। मगर ये आगे का दृश्य क्यों नहीं दिखाते कि मैं फाइल वहीं रखकर चला आया था। चैनल ने इसके आगे का दृश्य भी दिखाया, मगर वह नहीं जिसमें मैं दरबान से फाइल पर दस्तखत करा लाने की गुहार लगा रहा था, बल्कि वह दिखाया जिसमें मैं और मैडम आमने-सामने खड़े थे और मैडम कह रही थीं कि उन्हें मेरे आने का पता ही नहीं चला वरना वह मुझे अंदर ही बुला लेतीं।
ओह, ये लोग किस तरह खबरों को तोड़-मरोड़कर पेश करते हैं। जब इतनी रिकॉर्डिंग इनके पास है तो वह सब भी तो होगा ही जो असल कहानी है, मगर इन्हें सही-गलत से कोई मतलब नहीं, ये तो बस सनसनी फैलाना जानते हैं। उनकी नजर में मैं भी उन्हीं रंगीनियों का एक हिस्सा था...
यानी मीडिया ने मुझे भी जिगोलो की श्रेणी में खड़ा कर दिया है, कल मैं दुनिया को क्या मुंह दिखाऊंगा...
...और यह क्या? सबके चेहरे तो धुंधले हैं, मगर मेरा चेहरा कितना साफ दिखाई दे रहा है... कोई भी मुझे पहचान लेगा। ओह, मैं विनीता को क्या मुंह दिखाऊंगा, बच्चों का सामना कैसे करूंगा, सगे-संबंधियों, जानकारों से कैसे नजर मिलाऊंगा...
अब मैं क्या करूं? इस शर्मिंदगी से तो मौत बेहतर है...
अपनी पूरी ताकत के साथ मैं अपना गला दबाने लगा कि अजब-सी घुटन के साथ मेरी नींद खुल गई।
मैं एक झटके से उठ बैठा। मेरा पूरा शरीर चिपचिपा हो आया था, सांस धौंकनी की तरह चल रही थी।
‘‘क्या हुआ देवेन? कोई बुरा सपना देखा क्या?’’ विनीता ने मुझे झकझोरते हुए पूछा तो मैं फफक पड़ा।
‘‘क्या तुम भी मुझे ऐसा ही समझती हो विनीता?’’
‘‘कैसा?’’ विनीता पूरी तरह जाग चुकी थी और मेरे कुछ कहे बिना ही बहुत कुछ समझ गई थी।
‘‘देखो, तुम्हारे दफ्तर की कहानी में कितना सच है, कितना झूठ, मुझे नहीं पता, लेकिन हां, तुम पर मुझे पूरा भरोसा है ...’’ कहते हुए उसने मुझे अपनी बांहों में छुपा लिया।
एक पल को लगा, उसने मेरी खो चुकी जिंदगी वापस दे दी है।
‘‘इस भरोसे की क्या वजह है तुम्हारे पास?’’ मैं पूरी तसल्ली कर लेना चाहता था।
‘‘वजह और सबूत शक करने के लिए चाहिए, विश्वास करने के लिए नहीं।’’ हलके हाथ से वह मेरा माथा सहला रही थी।
‘‘...क्या हुआ?’’ उसने इतमीनान से पूछा।
‘‘ये जो पूर्णिमा सूद आजकल चर्चा में है न, वह मेरी इमिडिएट बॉस थी, मैं उसी को रिपोर्ट करता था...’’
मैंने उसे बताया कि एक रोज पूर्णिमा के कहने पर मैं जिस जगह जीएम से फाइल साइन कराने गया था, वह भी दरअसल उनका एक ठिकाना था। मैंने उसे यह भी बताया कि आजकल मुझे भी जांच-पड़ताल के लिए बुलाया जा रहा है।
मेरा गला भर्रा आया था और आवाज टूटने लगी थी।
‘‘वे अपना काम कर रहे हैं देवेन, तहकीकात किए बिना वे सही-गलत का कैसे पता लगा पाएंगे?’’ विनीता ने मुझे तसल्ली दी। उसका मानना था कि हम जांच अधिकारियों का सहयोग नहीं करेंगे तो हकीकत का पता कैसे चलेगा?
उसने बताया कि उसके दफ्तर का भी ऐसा ही हाल है। वहां भी ऊंचे पदों पर ऐसी कई महिलाएं मिल जाएंगी जो योग्यता के बल पर नहीं बल्कि दूसरे रास्तों से वहां तक पहुंची हैं। पद को पाने के लिए उन्होंने पहले खुद समझौते किए, अब लड़कों से करवा रही हैं। लड़के भी महिला बॉस को खुश करने के चक्कर में लगे रहते हैं।
“हां, फर्क बस इतना है कि हमारे यहां उन्हें इस काम के लिए पैसे न देकर सुविधाएं दी जाती हैं, फायदेमंद पोस्टिंग, ओवरटाइम और अहम सीटों पर तैनाती...”
विनीता का मानना था कि जिस तरह उन्हीं औरतों के बीच होकर भी वह उन जैसी नहीं, वैसे ही मैं भी उन जैसा नहीं हूं। रही बात फाइल पर साइन कराने या किसी असाइन्मेंट के तहत मुझे कहीं भेजे जाने की, तो मुझे जाना तो होगा ही। वह मुझे नादान बच्चे की तरह समझा रही थी।
‘‘मान लिया कि उस दिन की रिकॉर्डिंग हो ही गई और तोड़-मरोड़कर दिखा भी दी गई, तो भी, कभी आत्महत्या जैसी हरकत करने की न सोचना क्योंकि आत्महत्या का मतलब तो पश्चाताप है, यानी गुनाह मान लेना है। हम तो लड़ेंगे इसके खिलाफ और सच को सामने लाएंगे...’’
विनीता के ‘हम’ ने मुझमें ताकत भर दी, जीने का उत्साह जगा दिया, मेरे होने को विस्तार दे दिया। मैं अचानक बहुत कुछ हो गया। वह मुझे जाने क्या-क्या समझाती रही और मैं सोचता रहा कि विनीता जैसी पत्नी ने मेरी जिंदगी कितनी आसान कर दी है। क्या सचमुच औरतें अपने पति पर इतना भरोसा करती हैं? उनका इसी तरह साथ देती हैं? फिल्मों और धारावाहिकों में दिखाई जाने वाली औरतें किसी और दुनिया की होती होंगी... मैं सोच रहा था।
सुबह आंख खुली तो लगा, जैसे एक लंबी और भरपूर नींद से जागा हूं, जैसे जिंदगी में नई ताजगी आ गई हो। रात विनीता के साथ हुई बात ने मुझे तनकर खड़े होने की ताकत दे दी थी। अपने भीतर गजब का आत्मविश्वास महसूस कर रहा हूं। मैं पाक-साफ हूं, ऐसा मैं जानता हूं और विनीता भी मानती है। बस, मुझे अब किसी का कोई डर नहीं। मैं सधी चाल से दफ्तर पहुंच गया।
(अगले अंक में जारी....)