दोहराव
कैलाश बनवासी
हड्डियों का ढाँचा यानी बाप,इन दिनों फिर बेतरह बौखलाया हुआ रहता है. संकी तो वह पैदाइशी है.और आजकल बात-बेबात उसका गुस्सा सातवें आसमान की हद पार कर जाता है.बेवजह ही,साढ़े तीन फुटिया अपने घर की चौखट से सिर निकालकर,सामने की आधी कच्ची आधी पक्की ऊबड़-खाबड़ सड़क पर खेलती, धूल से अटे फ्राक और बिखरे भूरे बालों वाली आठ साल की मैली सी लड़की को तेज़ आवाज़ लगाता है. भारी सी धारदार आवाज़—‘अरेsss सुनीsssतेssss !!
लड़की सहमी सी दौड़कर आती है.
“कहाँ मरा रही थी अब तक? तुझे घर में कोई काम नहीं है क्या?...चल...अब खड़े-खड़े मेरा मुँह क्या ताकती ! चल...भीतर चल...!”
वह दुबली-पतली बच्ची एकदम घबरा गई है. डरते-डरते घर में घुसी. दुबली इसलिए है कि बेचारी के शरीर में रूखी रोटियों से बना खून है.यों अभी भी लड़की के भीतर चिड़िया फुदक रही है....अभी ‘रेस टीप’ में मीना से दाँव लेना है...सड़क पर लकीरें खींचकर ‘ठिप्पल’ खेलना है....पर चिड़िया बाप के बकरे की तरह बाहर को आती बड़ी-बड़ी आँखें देखकर दम तोड़ देती है.बाल-सुलभ चंचलता के जितने गुण होते हैं,इस लडकी में एक भी नहीं. उसे याद नहीं कि वह महीनों से नहीं हँसी.
हड्डियों के ढाँचे का दिमाग आजकल सही काम नही कर रहा. झोपड़ी के बाहर टूटी पुरानी रस्सियों वाली खाट पर पड़ा रहता है. बीड़ियाँ फूंकते हुए.जब पाए तब कुछ भी अंत-संत बकता-झकता रहता है.जिसमें अपनी पत्नी और बच्चों के लिए बेशुमार गालियाँ होती हैं.अट्ठावन पर करने वाला है...शायद इसी वजह से.
इस ढाँचे को कहो तो सारा दिन बड़े आराम से काट सकता है. ऐसे ही बीड़ियाँ पीते हुए.और उसका इस तरह बीड़ी फूंकना भी वाजिब है. पचास साल की पत्नी रणवीर बीड़ी कारख़ाने की बीड़ियाँ बनाती है. इसलिए ढाँचे ने बीडियों का हिसाब-किताब रखना छोड़ दिया है.और पड़ा-पड़ा घर में तमाम सदस्यों को लानत भेजता रहेगा.
यही पिता बौखलाया रहता है आजकल.
पत्नी का चेहरा सखी रोटी जैसा खिंचा-खिंचा रहता है.उसकी भी अजीब आदत है.बाप कहीं से शाम को टहल कर आता है, अपनी ढीली कमीज-फुलपेंट खूंटी पर टांगता है. फिर कई जगह से सिली गई लुंगी लपेटकर,बोरा बिछाकर खाने के लिए बैठता है. अभी आलू की बेस्वाद सब्जी के साथ कंट्रोल की गेहूँ वाली रोटी के बमुश्किल तीन-चार ग्रास तोड़ा होगा कि पत्नी शुरू हो जाएगी आदतन.ठीक उसके खाने के वक़्त पर वह दुनिया भर की खबर सुनाती रहती है. हड्डियों का ढाँचा बीच-बीच में मुंडी हिलाकर हाँ-हूँ करता रहता है.पत्नी के हाथ तेज़ी से आयताकार कटे बीड़ी पत्तों,धागे और तम्बाकू पर फिसलते रहते हैं और पोपले हो आए मुँह से ख़बरों का निकलना जारी रहता है---‘आज न शंकर नगर में माला के लड़की की सगाई है...कल रात बिचारे राजेश का बूढ़ा बाप मर गया...आज बीड़ी कारख़ाने के हरामी बाबू ने मेरा पत्ता कम कर दिया...’
पर आज ख़बर दुनिया भर की न होकर घर के भीतर की थी.पत्नी का स्वर कुछ दबा-दबा है.लालटेन की मद्धिम रोशनी में फुसफुसा रही है...
“ये शीला हरामजादी ऐसे नहीं चेतेगी. आज दुफेर में नई बीड़ी कारखाने में संतोष की माई मिली थी.बोल रही थी कि इस रांड को उसने कल फिर परभात सिनेमा में देखा था उसी हरामजादे के साथ... बालकनी की सीढ़ी से दोनों उतर रहे थे...कह रही थी,दो चार बार और देख चुकी है दोनों को...”
“ऐसा ?” बाप खाते-खाते रुक गया.
“हाँ,बेशरम को लाज-लिहाज नहीं.कल को कुछ हो गया तो फिर...”
पत्नी शायद और भी कुछ कहती रही. पर इतना ही काफ़ी था बाप के गुस्सा होने के लिए. बदहवासी की हालत में आधा खाना छोड़. भन्नाता हुआ झोपड़ी की दूसरी खोली में पहुँचा.
शीला कोठरी में ही थी.शीला से छोटी लड़की पड़ोस की लडकियों से गप्प हांकने चली गई है,जिसमें कि फ़ैशन और फिल्मों को छोड़ दूसरी बात को ढूंढना मूर्खता होगी.
शीला पड़ोस से मांगकर लायी फ़िल्मी पत्रिका उलट रही थी.
“हरामजादी ! तू फिर घूमने लगी उस लौंडे के साथ ? बोल,हाँ? गूंगी हो गई है ? बोलती क्यों नहीं?” बाप बेतरह बौखलाया गरजने लगा. गुस्से से काँप रहा था मिर्गी के रोगी की तरह.बुरी से बुरी गालियाँ बकने लगा.मुँह से थूक के फुचके उड़ने लगे.
और लडकी जैसे वाकई गूंगी हो गई. बोलना तो दूर,बाप की बड़ी-बड़ी पीली आँखों का सामना करने की ताक़त नहीं रही. लड़की की मुंडी झुक गई. और बाप को समझते देर नहीं लगी कि मामला कैसा है.गुस्सा अपनी तमाम हदें तय कर गया. एकदम बदहवासी की हालत में बालों का झोंटा पकड़ा और खींचकर अपना ठूंठ सा सधा हाथ लहरा दिया—हरामजादी ! तड़ाक !
कोठरी में पड़े एल्युमिनियम के गिने-चुने बर्तन झनझना उठे एकबारगी. हड्डियों का ढाँचा जैसे पागल हो गया है. बुरी से बुरी गालियाँ बेहिचक बक रहा है—‘स्साली ! कम करने जाती है या अपनी माँ...! आगे से उस मादर...के साथ देखा तो वहींच पे टांग तोड़ दूंगा ! तू मेरे को समझती क्या है? हैंssss ?’
बाप आवेश से हांफने लगा.
चिल्लाहट सुनकर पड़ोस में श्रीदेवी की साडी की चर्चा करती लड़की भागकर आ गई. जो सबसे छोटी लड़की थी,फैली-फैली आँखों से सब देख रही थी.पूरा घर सनाते से भर गया. कमज़ोर दीवारों की कोठरी में केवल तपती रात की बेचैन उमस ठहर गई.
पत्नी की बड़बड़ाहट पुनः शुरू हो गई, ‘इत्ती बड़ी लडकी है घोड़ी के जैसे !समझा-समझा कर मैं तो थक गई ! पर ये समझती ही नहीं...!’
सत्रह साल का वह,साढ़े तीन फुटिया चौखट के दरवाज़े का कुंडा पकड़े खड़ा था. चुपचाप देखता रहा. अभी-अभी हुए तमाशे का कुछ अंश उसकी समझ में आ रहा है.पता नहीं कब, उसकी उंगलियाँ स्वतः कुंडे पर बेचैन होकर कस गईं. कुछ देर के लिए लगा,जिस्म की तमाम नसें एक साथ तन गई हों...लेकिन तनाव जैसे शुरू हुआ था,वैसे ही धीरे-धीरे शिथिल पड़ने लगा. बस साँसें कुछ तेज़ चल रही थीं. चपरासी की नौकरी से बर्खास्त बाप की पागल मानसिकता से वह अच्छी तरह परिचित है इतने दिनों में. और हमेशा ही खुद को बाप के दुःख के बेहद करीब पता है.इतना कि दुःख को लगभग आत्मसात कर चुका है.
स्थिति की यंत्रणा झेलता वह वहीं खड़ा रहा. इस छोटी उम्र में भी काफी समझदार मानता है खुद को.फिर भी एक एहसास कचोटता रहता है...हीन भावना से कुंठित. अपने साथियों के बीच स्वयं को बहुत पिछड़ा हुआ पाता है—एक बेकार सी चीज़ पाता है अपने को...इस तरह ढोर की जिन्दगी? चाहकर भी ऐसे सवालों से वह बच नहीं पाता.और प्रश्न हैं कि दिमाग में चढ़ जाते हैं और किसी चूहे की तरह कुतरते रहते हैं सारा दिन...
सारा दिन...
और वह चुप्पा बन जाता है.गुमसुम.
मिट्टी तेल की ढिबरी की धुआँई पीली रोशनी में वह सबका चेहरा ताकने लगता है.बाप,हड्डियों का ढाँचा...सर के,दाढ़ी के पके-अधपके खिचड़ी बाल.और चेहरा किसी मनोरोगी अथवा पागल का सा अहसास देते हुए.पागल....हाँ...बहुत ज्यादा दूर नहीं है उसका बाप इस स्थिति से....उसने सोचा.बड़ी बहन शीला अपराध भाव से सिर झुकाए बैठी है.दोनों छोटी बहनें डरी-डरी सी देखती हैं इधर-उधर...माँ बीड़ी बनाने में चुपचाप जुटी है...
खामोशी पसरी है.
“क्या है बे...? तू कब आया होटल से?” बाप पूछता है.स्वर में अभी भी तल्खी है.
“अभी.”
“खाना खा लिया?”
“हाँ.”
“कब खाया ? कहाँ?”
वहीं...सेठ के घर. आज जल्दी छुट्टी मिल गई. ...कोई त्योहार है उनका आज....”
“अच्छा !”
..............
“और खाना है तो खा ले...? आलू की साग है.”
“नहीं.पेट भरा है.”
“अब तेरी मरजी !”
बाप कुछ नरम पड़ा है अंत तक आते-आते.
वह कोठरी के बाहर अँधेरे में देखता है. पास की झोपड़ियों के बच्चे घर के दरवाज़े के बाहर जमा हो गए थे.कुछ सहमी सी उत्सुकता लिए.
“क्या हुआ मन्ना?” किसी ने पूछा.
“भागो बे यहाँ से !” बाप की फटकार वह बच्चों में बाँट देता है.पता है उसे. सब सेल जितने छोटे-छोटे लौंडे हैं मुहल्ले के,नंबर एक के जासूस. खबर मिलते ही बात को रेडियो की भांति मुहल्ले में प्रसारित कर देते हैं.
बाप बची हुई रोटियाँ तोड़ने में जुट गया है....
घंटे भर के बाद माँ उधर गली के नल पर जूठे बर्तन लेकर गई है. जहां कच्ची गंदी नाली बहती है.काले बदबूदार कीचड़ पर असंख्य मच्छर भिनभिनाते रहते हैं. यहीं इस मुहल्ले के बच्चे सरे आम टट्टी-पेशाब करते हैं. यह और बात है कि रात में चोरी-छुपे बड़े-बूढ़े भी हगते हैं अँधेरे का फायदा उठाकर. लेकिन सब जैसे इसके आदि हो चुके हैं. यही दुर्गन्ध नाक में रच-बस गई है. कभी-कभार कोई नाक में रूमाल दबाए गुजर जाता है तो पता चलता है,--अरे इतनी बदबू है !?
...दूर सड़क पर लाइट्स जल रही हैं...उजली...दुधिया रोशनी.आगे की ऊँची-ऊँची इमारतों में रंग-बिरंगी बत्तियाँ जगमगा रही हैं. इस ओर अँधेरा है घना. यहाँ का बिजली खम्भा बहुत दिनों से ऐसे ही खड़ा है—बिना बिजली के.
...चार बरस हो गए इस नरक की यातना भुगतते हुए.पहले कहाँ था ऐसा? उसने सोचने की कोशिश की. बाप भी तब अच्छा था. चपरासी की नौकरी थी.घर का खर्च किसी तरह खींच-तानकर चल ही जाता था. पहली तारीख की शाम घर में मटन मार्केट के सरदारजी के यहाँ से मटन लाया जाता. बाप भी भट्टी से अद्धा लाकर पीता. महीने के आख़िरी दिनों में तंगी होती पर जम ही जाता था किसी प्रकार. सब ठीक था.बाप तब बावन- तिरेपन का था.दायें हाथ और पैर में लकवा मार गया. चलना फिरना बंद.
और यातनादायी दो बेहद लम्बे साल.
ठीक हुआ बाप. बस हड्डियों का ढाँचा भर रह गया.सूनी-सूनी आँखों से घर की छानी की खपच्चियों को ताकता रहता. दवाओं के सर्वथा अभाव में भी वह ठीक हो गया. अब तो वह काम करने से रहा. और लम्बी बीमारी के दौरान नौकरी भी जाती रही. इससे चिड़चिड़ा हो गया उसका बाप. अलबत्ता इतनी कमजोरी के बावजूद उसके आवाज़ की तेज़ी नहीं गयी. वही तीखी आवाज़ अब भी कान के परदे को चीरती जान पड़ती है--- मन्ना रेssss ए-ए !
उसकी माँ तब भी बीड़ी बनाती थी. बाप की बीमारी के वक़्त अधिक बीड़ी बनाने लगी थी.आधी-आधी रात तक वह बीड़ियाँ लपेटती जागती रहती और सुबह चार बजे उठकर फिर शुरू हो जाती थी.
तब वह छठवीं में पढ़ रहा था. बाप की नौकरी के साथ उसकी पढ़ाई भी छूट गयी.
उसका बड़ा भाई ,जो तरुण टाकीज में गेटकीपर था, बीवी के आते ही अलग रहने लगा.तब उसने महसूस था,रिश्ते-नाते की डोर बीड़ी में लपेटे जाने वाले धागे से भी कमज़ोर होती है...आजकल पावर हॉउस भिलाई में रहता है बड़ा भाई.घर से कोई मतलब नहीं.
उन्हीं दिनों उसकी बड़ी बहन एक ट्रक ड्राइवर के संग भाग गई थी...
उन दिनों भी कम चख-चख नहीं होती थी.बाप तब कुछ ठीक हो गया था. माँ-बाप दोनों लड़ा करते थे. बाप अकारण ही माँ को बेतहाशा पीटने लगता. गंदी-गंदी गालियाँ बकता.लात-धूंसोंकी धपधपाहट से खोली की कच्ची जमीन हिल उठती. माँ भी तब हुमककर आगे आती और गलियों का जवाब गालियों से देती. बाप माँ को क्यों पीटता था,उसे समझ नही आता था.बाप तब भी उसके बड़े भाई और बड़ी बहन को खूब कोसा करता. कुछ देर बाद सारा आवेश जाता रहता—दूध के उफान की तरह. अकेले ही देर तक बड़बड़ाता रहता....
इन तमाम स्थितियों की यंत्रणा झेलता वह अभी सत्रह का हुआ है.
बड़ी बहन के भाग जाने पर बहुत बदनामी हुई थी. समाज को किसी चरित्र में बाल बराबर भी दाग दिखाई दे,बदनाम करेगा ही. सब कुछ छाती पर पत्थर रखकर सहना पड़ता था.घृणा से घूरती आँखें...व्यंग्य से ऐंठती मुस्कानें...उपहास उडाती आँखें...फिकरे कसते मनचले—‘अरे मैं भी एक ट्रक लेकर आ रहा हूँ’...और उनकी हँसी...
कभी-कभी माँ बहुत तेज़ स्वर में रोने लगती थी... भागी हुई लड़की को गालियाँ बकती...
वह बाज़ार के गांधी चौक के एक होटल में नौकर हो गया.जूठी मेजों और बर्तनों के साथ-साथ कल्पनाओं की जूठन लगी जिंदगी को साफ़ करने लगा.
दूसरे नंबर की बहन शीला रेलवे स्टेशन के पास दस्ताने बनाने वाली फैक्टरी में काम करने लगी. आठवीं तक पढ़ पाई है वह.
सब मिलकर एक तरह से घर की चरमराती बैलगाड़ी को चलाने लगे.
शीला सुबह काम पर जाती,याँ शाम को वापस लौटती तो गली-मुहल्ले के लडकों से बचना मुश्किल हो जाता....शायद छाती में अतिरिक्त माँस चढ़ने लगा था. जब भी वह बहन के साथ चला है,अजीब आँखों से घूरते पाया है लड़कों को. ..इशारे...फब्तियां...जिन्हें अनदेखा या अनसुना करने की भरसक कोशिश करता वह... नुकीले दांतों का दबाव मुलायम निचले होंठ पर बढ़ जाता....किसी कोने से लहू छलछला आता...
कई बार मन हुआ, भाग जाए इस बदबूदार जिंदगी से.पर सब मन में ही भारी जिम्मेदारी के अहसास तले कुचल जाता...यह गलत होगा... और घर के प्रति एक मासूम सी भावुकता से भर उठता.
कुछ ही दिन पहले, शाम को सबसे छोटी लड़की एक लिफाफा लाई और बड़ी बहन को थमा दिया.—“एक लड़का साइकिल से आया था ...बोला,अपनी शीला दीदी को दे देना...”
अनगिनत सवाल हवा में तब एक साथ उग आए थे जैसे. वह घर पर ही था. टंगिए से लकड़ियाँ चीर रहा था.एक तेज़ प्रश्नभरी दृष्टि उसने बहन के चेहरे पर जमा दी थी.और बहन सकपकाकर इधर-उधर देखने लगी थी...भीतर उठते उमंगों को दबाने का पूरा प्रयास करती हुई.. चोरी पकड़ी गई !उसे समझते देर नहीं लगी कि इसमें क्या है. ...छुटपन में स्कूल जाते समय एक बार अप्सरा टाकीज के पास खड़े कुछ लड़कों ने उसे बुलाया था और एक रंगीन लिफाफा उसके हाथ में दिया था... पचास पैसे के साथ,एक गली की ओर इशारा कर के कहा,--‘उस घर के दरवाजे पर खड़ी लड़की को दे आ...’
उसे याद है,लिफाफा लेते वक़्त लड़की का चेहरा एक रोशनी से भर उठा था....शायद वही रोशनी बहन के चेहरे पर उभर आई थी...
उस रात बहुत उद्वेलित रहा था. भीतर कुछ लावा सा खुलता महसूस हो रहा था...कि अभी वह फट जाएगा...बिखर जाएगा...सिर अनायास ही बहुत भारी हो गया था. एक अंतहीन अव्यक्त बेचैनी से छटपटाने लगा था...
...इधर बात कुछ और आगे बढ़ चुकी है.
परसों उसने बाजार से आते वक़्त देखा था.घर से कुछ दूरी पर सरदारजी की ऊँची इमारत के पिछवाड़े की दीवार पर विज्ञापनों के बीच कोयले से लिखा था—शीला और रमेश. उसके नीचे एक भद्दी गाली चमक रही थी...
बिल्डिंग की दीवार से निकलकर शब्द जैसे उसकी पीठ में लिख गए हैं...उसे ऐसा ही लगने लगा. जिसे सब आरे-जाते लोग घूर-घूर कर पढ़ते हैं.कोठरी में देर रात तक गुदड़ी में पड़ा-पड़ा छानी की घुन लगी कड़ियों को ताकता रहा.एक घुटन का अहसास होता रहा.कभी कुछ दूर पर चैन से सोई बहन पर तीखी दृष्टि गड़ा देता...आँखें बहन के पेट के पास कुछ टटोलने लगीं...भीतर ढेर सारी शून्यता फ़ैल गई थी अनचाहे ही...
कभी-कभी जब वह बहुत घबरा जाता है और अक्सर स्टेडियम की ओर सिविल लाइन की सूनी सड़क पर निकल जाता है,यूँ ही सिगरेट फूंकते हुए...
वह लाख चाहे तब भी स्चने से बच नही पाता.हे वक़्त जैसे विचार उसे घेरे रहते हैं आक्रामक रूप से.अक्सर बड़ी खीझ होती है-वह इतना कमज़ोर क्यों पड़ जाता है परिस्थितियों के आगे ? मुहल्ले के हमउम्र लड़कों के साथ हँस बोल नही सकता. आज उसी के साथ काम करने वाला बल्ला बड़े गर्व से बता रहा था बीड़ी पीते हुए,कि कैसे कैसे खेलता रहा वह अपने पड़ोस की एक लड़की के अंगों से.
‘कस्सम से यार! ये बड़े-बड़े फुग्गे थे साली के !’
वह सिर्फ मुस्कुरा कर रह गया था.
पर यही बेचैनी देने वाला घर कभी-कभी एक अजीब किस्म की मुलामियत से भर देता है उसे.एक मीठी अनुभूति जगा देता है...धुंआई पीली रोशनी....कालिख लगी दीवारें...खिड़की से झांकता शाम का धुंधला आकाश...एक नितांत अपनेपन से भर देता है...कुछ वैसे ही जैसे भूखे शिशु को माँ का स्तन मिल गया हो...
अप्रैल का गर्म महिना. बाप झोपडी के बाहर पड़ी झंगली खात पर बैठा है.बीड़ी का सुट्टा मारते.इस खाट की ढीली रस्सियों की बाप लगभग रोज ही खिचाई करता है.और रस्सी दुसरे दिन जस की तस.बेशरम है गरीबी की तरह. बाप की फटी बनियान के ऊपर गले की हड्डियां उभरी हुई हैं...बाप इन दिनों कुछ अधिक ही खांसने लगा है...
हड्डियों का ढाँचा अपने को बेहद थका हुआ पाता है. दिनभर कमरतोड़ मेहनत करने के बाद वाली थकान महसूसता है. एकदम पस्त. और वैसे ही पस्त भाव से बुड्ढा भविष्य का गणित लगता है---‘इस लडकी का क्या होगा? जवाँ बेटी को डांटना बुरी बात है. बहुत बुरी बात. फिर कुछ सोचते-सोचते ढाँचा सिहर उठता है...कि अभी बिफर पड़ेगी लड़की शेरनी की तरह,--‘जब तुम मेरी शादी नही कर सकते थे तो पैदा क्यों किया ??मेरा जो जी चाहे करूंगी ! भाड़ में झोंक दूँ अपनी जवानी ??’
ढाँचे को अपने भीतर कुछ कसमसाता-सा लगा, ‘हाँ, उसकी उम्र की लडकियां तो आज दो-दो बच्चों की माँ हैं. पर वह...? करने दो जो करती है.जो करेगी अच्छा करेगी.’ एक लिजलिजा सा पश्चाताप बलगम भरे फेफड़ों के बीच फंस गया, ‘ बदनामी होगी...देख लेंगे साले को !’ अब ढाँचा मन की आँखों से बहुत सावधानी से लडकी के पेट के आसपास कुछ तलाश कर रहा था...
दूर राइस मिल के भोंपू ने सायरन दिया. दस बज गए. आसपास की झोपड़ियाँ अँधेरे और नींद में साथ-साथ डूबी हैं. वह चौखट से बाहर निकल आया. गले और माथे के पसीने की बदबू हवा में घुलने लगी है. वह आराम से चलने लगा.
...सरदारजी की बिल्डिंग के आगे ठिठक गया.
स्ट्रीट लाइट की तेज़ उजली रोशनी में दीवार में बने विज्ञापन चमक रहे थे....खासकर ‘शीला और रमेश’ ...अक्षरों की चमक आँखों में चुभने लगी.
एकाएक वह उन अक्षरों को हथेलियों से तेज़ी से मिटाने लगा.पर कोयले के गहरे रंग से लिखे कश्र मिटने का नाम नहीं ले रहे थे. खीझ कर उसने एक भद्दी गाली बकी...और बकता ही जा रहा है....
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कैलाश बनवासी,
41, मुखर्जी नगर,सिकोलाभाठा, दुर्ग,(छत्तीसगढ़)
मो. 9827993920