Darmiyana - 22 in Hindi Moral Stories by Subhash Akhil books and stories PDF | दरमियाना - 22

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दरमियाना - 22

दरमियाना

भाग - २२

कातिल अदाओं का कत्ल

शायद मैं यह कभी जान नहीं पाता कि आखिर उस दिन तार्इ अम्मा ने मुझे वहाँ से क्यों लौटा दिया था, यदि एक दिन यूँ ही मुझे नगमा न टकरा गर्इ होती। वह किन्हीं दो अन्य दरमियानों के साथ थी और उसने मुझे सरोजनी नगर मार्केट से गुजरते हुए पहचान लिया था। उसके एकटक मुझे देखने से, सोच तो मैं भी रहा था कि 'इसे कहीं देखा है!' मगर टोकना कुछ उचित नहीं लगा था।

तभी उसने मेरे निकट आकर दोनों हाथ जोड़ दिए, "सर जी, नमस्ते!"

"नमस्ते," तभी मैंने भी पहचाना, "नगमा ?... नगमा हो न तुम?"

"हाँ, सर जी!... कैसे हैं आप?" उसने संवाद जोड़ा!

"मैं ठीक हूँ!... तुम सुनाओ -- तार्इ अम्मा, सुनंदा और सुलतान... सब कैसे हैं?"

"सब ठीक हैं सर जी। आपको सब बहुत याद करते हैं।"

"मुझे?" आश्चर्य हुआ था, "मुझे क्यों याद करेंगे वे लोग?... मेरी वजह से तो उस दिन र्इद पर अच्छा-खासा फसाद हो गया था।"

"ऐसी बात नहीं है सर जी..." नगमा मुझे समझाने लगी, "आपकी वजह से नहीं हुआ था... "

"यदि मेरी वजह से नहीं हुआ था, तो उसके बाद तार्इ अम्मा ने मुझे वहाँ आने से मना क्यों कर दिया था?"

"आपकी भलार्इ की वजह से !..."

"मेरी भलार्इ?" नगमा के जवाब ने मुझे झकझोर दिया था।

"हाँ सर जी... दरअसल उस दिन के बाद से सुनंदा ने भी सुधाकर से संबंध तोड़ लिए थे।... यूँ भी वह कोर्इ भला इंसान नहीं था।... एक दिन सुनंदा के पीछे से आकर वह तार्इ अम्मा को धमकी दे गया था कि आपको मरवा देगा!... बस, तभी सब लोग सहम गये थे।"

"मुझे मरवा देगा?... मगर क्यों?... मैंने उसका क्या बिगाड़ा था?" मैं विचलित हो गया था।

नगमा फिर बोली, "वो समझता था कि आपके और सुनंदा के बीच कुछ है!... मैंने और सबने उसे समझाने की कोशिश की थी, मगर वो अपनी ही जिद पर अड़ा था।... शायद आपको उस घर में इतना मान मिलता था, इसी लिए वो आपसे जलता भी था।"

"मगर यह बात तो मैं भी उसे समझा सकता था कि ऐसा कुछ भी नहीं है!" मैंने सफार्इ देना चाहा।

"यह बात तो सभी जानते थे। फिर भी उसने आपको मरवाने की धमकी दी थी।... इसी लिए तार्इ अम्मा ने आपको वहाँ आने से मना कर दिया था।... मगर आज भी सब लोग आपको बहुत मानते है!" नगमा का गला रुंध आया था।

"अच्छा, तो ये हैं वो सर जी! पत्रकार सा'ब!" उसके साथ के एक दरमियाने ने अब मुझे गौर से देखा था। मैं समझ गया कि इसे भी शायद मेरे बारे में कोर्इ जानकारी तो अवश्य है। नहीं जानता था कि नगमा ने इसे क्या बताया या फिर... शायद सुनंदा ने ही इसे मेरे बारे में कुछ बताया हो! मगर इसकी संभावना कम थी। मैं जितना सुनंदा को जानता हूँ -- लगता तो नहीं कि उसने कुछ बताया होगा।

तभी नगमा बोल उठी, "सर जी यह रेखा है!... मेरी सहेली।... मंडी हाउस के पास सांगली मैस की है। क्नॉट प्लेस इसी के गुरु का इलाका है!... एक बार सुधाकर की कुछ बात चली थी, तभी मैंने इसे आपके बारे में बताया था!"

मैंने नमस्कार में हाथ जोड़ दिये।

"बड़ी तारीफ सुनी है आपकी!" अब रेखा ने भी नमस्कार की मुद्रा में हाथ जोड़ दिये थे और कनखियों से देखकर मुस्करार्इ थी।

इस बार मैंने भी उसे ध्यान से देखा -- गौर वर्ण, अच्छी कदकाठी, तीखे नाक-नक्श, नाक पर लश्कार मारती लौंग और कानों में लम्बे लटकते झुमके। सिल्क के सूट में लिपटी वह काफी आकर्षक लग रही थी।

"मैं नहीं जानता, आपने क्या सुना है? मैं तो बस यूँ ही..." बात को अधूरा छोड़ दिया था मैंने।

तभी नगमा ने अन्य तीसरे की तरफ इशारा किया था, "ये इसकी चेली है -- गुलाबो!" उसने भी मेरी ओर हाथ जोड़ दिये।

"कभी आना सर जी, फिर बताऊगी -- मैंने क्या-क्या तारीफें सुनी हैं आपकी!" रेखा मुस्करा दी थी, "मंडी हाउस के पास किसी से भी पूछ लेना 'सांगली मैस' भगवान दास रोड़ से लगी हुर्इ है उसकी गली।... और सांगली मैस में तो मेरा नाम ही काफी है!"

मैंने रेखा के यहाँ आने का वायदा किया और फिर नगमा से कहा, "अच्छा नगमा! तार्इ अम्मा और सुनंदा को मेरा नमस्कार कहना!... कहना कि मैं भी उन्हें बहुत याद करता हूँ। वे नहीं चाहेंगी, तो मैं वहाँ नहीं जाऊँगा।... मगर हाँ, तुमने एक बोझ मेरे मन से उतार दिया है। दरअसल, न जाने क्यों उस फसाद के लिए मैं खुद को जिम्मेदार मान रहा था।... या सोच रहा था कि मेरे कारण ही उन्हें वह सब झेलना पड़ा, तभी उन्होंने मेरे वहाँ आने को मना कर दिया!"

"नहीं सर जी, आपकी उसमें कोर्इ गलती नहीं थी। सारा फसाद तो उस हरामजादे सुधाकर ने ही खड़ा किया था... और वह भी र्इद के दिन! बाद में, सुनंदा ने भी उसे भगा दिया और फिर कभी नहीं आने दिया।" नगमा ने एक गहरी साँस ली और फिर बोली, "मगर हाँ, वो आपको जान से मारने की धमकी दे गया था, इसीलिए डरे हुए थे सब। वो है भी कुछ इसी तरह का कमीना आदमी। तभी तो आपसे जलता भी था।"

कुछ इसी तरह की बातों ने मेरे मन को तसल्ली दी थी। अपराधबोध कम हो गया था। फिर एक-दूसरे का अभिवादन कर हम अलग हो गये थे। रेखा ने एक बार पुनः मुझे घर आने का निमंत्रण दिया था। मैंने भी अपना आश्वासन दोहरा दिया था।

मैं वहाँ से चल तो दिया था, मगर देर तक मेरे मन में पिछले बहुत-से दृश्य फ्लैश-बैक की तरह से सामने आ रहे थे!... सुनंदा के साथ पहले परिचय से लेकर -- आखिरी दृश्य तक, सभी कुछ कौंध गया था।... और तार्इ अम्मा! उनके सानिध्य और ममत्व को भला कैसे भुला सकता हूँ? कुछ ही महीनों में सब कुछ अपना-अपना-सा लगने लगा था!... पर क्या वास्तव में मेरा वहाँ कुछ था?... मैं अभी तक इतने प्रिय और इतने कटु --दोनों ही तरह के अनुभवों से नहीं गुजरा था।... सोच रहा था कि क्या कुछ जरायमपेशा लोग भी इनके आसपास जगह बनाने लगे हैं?... शायद इन्हें परित्यक्त या त्याज्य समझ कर वे लोग इनके बीच चले आते हों!... हो सकता है -- मुझसे पूर्व ही सुनंदा के जीवन में सुधाकर कोर्इ अहमियत रखता हो!.. और मेरे चले आने से वाकर्इ उसका महत्व कुछ कम हुआ हो! किन्तु मेरे और उसके बीच तो ऐसा कुछ था भी नहीं -- फिर?... हो सकता है 'संध्या का गिरिया' होने का कल्पित तर्क, अब मेरे और इसके बीच कुछ अर्थ तलाश रहा हो!

किन्तु यदि वह मुझसे इस बारे में कोर्इ बात करता, तो मैं वस्तुस्थिति स्पष्ट कर देता!... मगर शक और वहम, तर्कों से कहाँ तुष्ट होते हैं?

खैर, मैंने विचारों को झटका और अपनी राह हो लिया।

***

कुछ महीने यूँ ही गुजर गये।

मैं अपने ही कुछ कामों में व्यस्त हो गया था। अखबार के एक सप्लीमेंट की जिम्मेदारी मुझे मिल गर्इ थी। इसके लिए कुछ फीचर तैयार करने थे। उसी के सिलसिले में एक छायाकार मित्र के साथ मंडी हाउस आना हुआ। अपना काम निपटा लेने के बाद एन.एस.डी. (नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा) के नुक्कड़ पर टी-स्टॉल पर चाय पीते-पीते अचानक रेखा की याद हो आर्इ। यह एन.एस.डी. भी भगवान दास रोड पर ही है। सो, चाय वाले से ही पूछ लिया, "यह साँगली मैस कहाँ है भार्इ साहब?"

"थोड़ा आगे जाकर, सीधे हाथ पर एक गली जा रही है। बस, वहीं से अंदर चले जाइए!" उसने बताया।

"चल यार, तुझे किसी से मिलवाता हूँ।" मैंने छायाकार मित्र मुकेस से कहा।

"कौन है?" उसे जिज्ञासा हुर्इ।

"मिलकर जानियो!" मैंने कहा।

*****