Ek julus ke sath - sath - 2 in Hindi Moral Stories by Neela Prasad books and stories PDF | एक जुलूस के साथ – साथ - 2

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एक जुलूस के साथ – साथ - 2

एक जुलूस के साथ – साथ

नीला प्रसाद

(2)

लतादी कौन हैं? उनके पास इतनी ताकत कैसे है?? अगर वे जी.वी के विरोध में हैं तो फिर इस हॉस्टल से निकाल क्यों नहीं दी जातीं?, इन सारे सवालों के जवाब हमें हफ्ते भर के अंदर ही अंजलीदी की मार्फत मिल गए। ‘लतादी बर्निंग फायर आफ वीमेंस कालेज हैं ।’ उन्होंने हमें गर्व से बताया।‘वे एक बड़े पुलिस अधिकारी की बेटी हैं। उन्हें इस हॉस्टल से हटाया गया तो वे जी.वी के किस्से अखबारों में छपवा देंगी, क्योंकि उनके चाचा जर्नलिस्ट हैं। जी.वी उन्हें मजबूरी में इस हॉस्टल में रखे हुए हैं और दिन गिन रही हैं कि कब उनके क्लासेस खत्म हों और वे परीक्षा की तैयारी के लिए घर जायें! जी.वी दक्षिण भारतीय हैं, कुंवारी हैं और कच्ची- ताजी युवतियां प्रौढ़ों के पास पहुंचा, तगड़ा कमीशन कमाती हैं। वे इन पैसों का क्या करती हैं, यह किसी को नहीं मालूम!’

मैं तो लतादी की फैन हो गई। कितनी ताकतवर हैं वे कि जी.वी तक उनसे घबराती हैं! पुलिस अधिकारी और जर्नलिस्टों के परिवार से हैं- तभी! कभी हॉस्टल के लॉन में उन्हें टहल-टहलकर किताबें पढ़ते देखती तो मन होता दौड़कर उनके पास चली जाऊँ, पर हिम्मत नहीं पड़ती थी। एक बार जब आधी रात तक सोने की तमाम नाकाम कोशिशों के बाद, मैं और सुजाता कॉरीडोर में टहलने निकले, तो उन्होंने हमें पकड़ लिया। ‘क्या जी.वी ने कमरे में बुलाया था?’ ‘नहीं तो!’, हम चौंके। ‘सावधान रहना।’ वे पेन पकड़े-पकड़े वापस अपने कमरे में चली गईं।

हॉस्टल में अंदर-अंदर कुछ पक रहा था जैसे। धुंआ नहीं था पर कहीं कुछ जल रहा था जैसे। किसी शाम जैसे ही जी.वी किसी दूसरे हॉस्टल की वार्डन के पास चाय या गपशप के लिए चली जातीं, सारी लड़कियां लतादी के कमरे में इकट्ठा हो जातीं। धीमे स्वरों में की जा रही बातचीत में भी उत्तेजना झलकती। आधे- एक घंटे में जैसे ही वे वापस मैदान के छोर पर प्रकट होतीं, लड़कियां वापस अपने-अपने कमरों में! पर चुपके-चुपके एक-दूसरे के कमरे में चिटें पहुंचती रहतीं। हमें इन सब में शामिल नहीं किया जा रहा था इसीलिए हमारी उत्सुकता चरम पर पहुंचती जा रही थी।

हमारी टर्मिनल परीक्षाएं पास आ गईं। मैं पढ़ने में व्यस्त हो गई। हादसा जो गुजर गया था, मन को झकझोरता तो रहता था पर आगे डाक्टर बनने का लक्ष्य हासिल करना था, तो पीछे का बहुत कुछ भुला देना, छोड़ देना जरूरी था। सुजाता कोर्स बुक बहुत कम या नहीं पढ़ती। उपन्यासों की दुनिया में उसे ज्यादा मन लगता! शायद वर्तमान के हादसों को भुला देने में काल्पनिक दुनिया की सदस्यता ज्यादा मददगार होती हो! ‘मैंने मां को इशारों में सब बता दिया है। वे पापा से बात करके हॉस्टल बदलवा देंगी।’, एक दिन उपन्यासों की दुनिया से थोड़ी देर को बाहर आकर जैसे ही उसने यह बताया, मेरे होश उड़ गए। मेरे मनाने का उस पर कोई असर नहीं दीखा। ‘आखिर कब तक जी.वी से डरती हुई जिऊँगी?तू भी अपने पापा से कहकर किसी दूसरे हॉस्टल चली जा।’, उसने सलाह दी।... पर मैं और पापा से कहती! जो बातें मां से नहीं कह पाई, वह सब पापा से कहना अकल्पनीय था। हमारे घर में अपनी समस्याओं पर खुलकर बात करने का रिवाज ही नहीं था- न मां, न पापा से! मेरी तो रातों की नींद ही हराम हो गई। सुजाता चली जायेगी, लतादी भी चली जायेंगी- उसके बाद? उसके बाद मेरा क्या होगा... अब सोचती हूं कि मां-पापा से उस बात को छुपाकर भी हॉस्टल बदलवाने की बात की जा सकती थी, पर तब न उतनी अक्ल थी, न हिम्मत! मुझे बस एक ही तरफ ध्यान रखने का मंत्र दिया गया था- पढ़ाई। बाकी मामलों में मैं एकदम शून्य थी- अव्यावहारिक, डरपोक, दब्बू और आत्मविश्वासहीन! पर मुझे अच्छा लग रहा था कि जिंदगी में लतादी तो थीं- मुझसे बड़ी और जानकार। उन्हें पता होना चाहिए था कि मैं घरवालों को अपनी समस्या क्यों नहीं बता सकती! हमारे जैसे परिवार जो समाज के सामने झुके- झुके जीते थे और लड़कियों को नजरें झुकाए सड़क पर चलने का सुझाव देते थे, तब के समाज का सच थे। भनक लगते ही पिता कालेज छुड़वा देते और कस्बे में अटकलों का बाजार गर्म हो जाता।

..तो एक दिन हिम्मत करके मैं लतादी के पास जा पहुंची और उन्हें सब बता दिया- घर- परिवार से बात छुपाने की मजबूरी, मेरा अकेलापन, मेरी आशंकाएं, मेरे सपने .... और सुजाता के साथ की जरूरत! वे बिना कुछ बोले सुनती रहीं। नाटे कद की, सांवली, हल्की मोटी, साधारण नाक- नक्श की लतादी ने - जो मेरी भगवान बन सकती थीं या नहीं, पर उस वक्त जो भगवान ही थीं मेरी- मुझे अपने से सटा लिया और बोलीं ‘मैं तुम्हारी परिस्थिति समझ सकती हूं। जब तुम्हारा कौमार्य भंग नहीं हुआ तो तुम इस घटना को छुपा भी जा सकती हो- पर बताने की हिम्मत पैदा करो। माता-पिता को समझाओ कि वे तुम्हें मोरली सपोर्ट करें, कालेज से नाम नहीं कटाएं। यहीं इसी हॉस्टल में रहो और हमारी लड़ाई का हिस्सा बनो। अगले महीनों में इस हॉस्टल में बहुत कुछ होने वाला है। हम जी.वी के विरुद्ध सबूत इकट्ठा कर रहे हैं। फिर प्रिंसिपल मैम के पास मामला जायेगा- बात नहीं बनी तो धरना, स्ट्राइक.. यहां से जी.वी की विदाई अपनी आंखों नहीं देखना चाहोगी?’, वे हंसने लगीं। ‘तुम दोनों यही रहो और जी.वी के विरुद्ध हमारी गवाह बनो।’, मैंने मरे मन से हामी भर दी। यह तो मैं और भी फंसती जा रही थी। अब तो सारा कालेज, सारी टीचर्स जान जायेंगी कि मैं होटल भेजी गई। वहां मेरे साथ क्या हुआ, क्या नहीं, यह कोई थोड़े सोचेगा! उनके लिए तो मैं बस वो गंदी हो चुकी लड़की बन जाऊँगी जिसका रेप हुआ है। अब मैं तो बिल्कुल बेचैन हो गई। पर भगवान से कब तक छुपता? लतादी ने पकड़ लिया एक दिन। ‘तुम इन दिनों इतनी घबराई-सी क्यों रहती हो? कहीं चिंता तो नहीं कर रही कि गवाही दोगी तो बदनामी होगी वगैरह..’ ‘हां लतादी, मैं बहुत गरीब परिवार से हूं। बदनामी का मतलब है जिंदगी भर कुंवारी बैठे रहना।’ ‘इसका गरीबी से ज्यादा लेना-देना नहीं है। दूसरी लड़कियों की भी यही समस्या है.... पर तुम्हारे साथ कोई जबर्दस्ती थोड़े है। मत बनो गवाह। प्रिंसिपल मैम के पास जाने में देर इसीलिए तो हो रही है कि गवाह बनने को लड़कियां सामने नहीं आ रहीं। अब बिना विटनेस मैं बात कैसे आगे बढ़ाऊँ? सौ से ज्यादा विक्टिम इसी हॉस्टल में मौजूद हैं, विटनेस बनने को बीस भी तैयार नहीं। पर इस तरह मामला छोड़ देने से तो आगे भी चलता रहेगा यही सब- नहीं?’, मैंने हामी भर दी। ‘तुम इस बारे में सोचना।’ कहकर वे वापस टहल-टहलकर पढ़ने लगीं। मैं कमरे में चली आई। पीछे से जी.वी की आवाज आई, ‘लता रात हो गई है। कमरे में जाकर पढ़ो।’ ‘ओ.के, मैम।’ लतादी मुलायमियत से बोलीं और तुरंत मुड़ गईं।

कुछ सोच नहीं पा रही थी। फिर भी सुजाता के माता-पिता को प्रिंसिपल मैम के कमरे की ओर जाते देखा तो लतादी को ढूँढने भागी। प्रिंसिपन मैम कमरे में नहीं थीं। लतादी ने उनसे आराम से बातें कीं। दसेक मिनट की बातचीत के बाद मैंने उन्हें कहते सुना, ‘आगे का जिम्मा मैं लेती हूं अंकल!’ सुजाता वहीं रहने को मान गई थी। मै सोचने लगी कि कुछेक महीनों के बाद ये चली जायेंगी तब क्या होगा, क्या हम फिर से असुरक्षित नहीं हो जायेंगे! शायद मैंने बेकार ही... पर सुजाता के हामी भर देने से तत्काल की समस्या हल हो गई थी। मैंने अपने अंदर किसी पुलक का अनुभव किया। सुजाता के पिताजी कह रहे थे ‘यू आर अ ब्रेव गर्ल लता! आई विल फील प्राउड इफ यू एंड सुजाता आर एबल टू फाइट दिस केस टुगेदर। बट टेक केयर- यू बोथ आर स्टिल वेरी यंग! डोंट मिस योर फ्यूचर एंड करियर।’ वे जाने लगे और सुजाता के साथ-साथ लतादी को भी उनके पांव छूते देखा तो मैं भी लपकी। ‘मधुमिता तुम भी शामिल हो जाओ इस लड़ाई में!’ उन्होंने आशिर्वाद देते हुए कहा तो मैं असमंजस में पड़ गई। मैं विटनेस बनूंगी.. खुलकर साथ दूंगी लतादी का। ‘तू रिप्रेंटेशन में साइन तो कर दे। भले हमारे साथ प्रिंसिपल मैम के यहां मत चलना।’ सुजाता कमरे में आकर बोली। मैं मान गई तो वह लपककर लतादी के पास से कागज ले आई। मैंने उनचासवें नंबर पर अपने हस्ताक्षर कर दिए। सुजाता कागज वापस देने गई, तो मेरे लिए बरफी का एक टुकड़ा लेती आई।

महीना गुजर गया। टर्मिनल्स खत्म हो गए। कहीं कुछ होता दीखता तो था नहीं। मैंने सोचा शायद सबकुछ ठंढा पड़ गया। हस्ताक्षर कर देने के द्वंद्व से मुक्ति मिली। पर मैं गलत थी। वह दिन आखिर आ ही गया, जब इतिहास लिखा जाना था। एक दोपहर पंद्रह-बीस लड़कियों के साथ हमारी नायिका प्रिंसिपल मैम के कमरे के बाहर खड़ी पाई गई। मैम बिजी थीं- ये सब इंतजार करती रहीं। मैम शायद थकी थीं तो अचानक से कमरे से निकलीं और चपरासी कमरे में ताला लगाता पाया गया। अब लतादी अब क्या करेंगी? मैं सोच ही रही थी कि देखा कि लतादी आगे बढ़ीं और मैम से खड़े-खड़े दो मिनट बात करके, पांच पृष्ठों का रिप्रेजेन्टेशन उन्हें थमा दिया। मैम ने उन पर एक सरसरी निगाह डाली और गुस्से से भर, सारे कागज हवा में लहरा दिए। लड़कियां खड़ी रहीं। मैम के मुड़ते ही चपरासी दौड़-दौड़कर, हवा में इधर-उधर उड़ गए कागजों को मैदान से चुनने लगा। लड़ाई का बिगुल बज चुका था। रात को जी.वी के हॉस्टल में, उन्हीं के विरुद्ध, रणनीति तय की गई। अगले दिन सुबह नौ बजे प्रिंसिपल मैम जैसे ही कमरे में बैठीं, लड़कियों का झुंड कमरे के बाहर धरना देकर बैठ गया। 1978 की जनवरी या फरवरी में अठारह लड़कियों को लेकर शुरु किया गया वह धरना, लड़कियों में इतना जोश भर देगा कि स्ट्राइक-जुलूस की शक्ल लेता हुआ, जी.वी की विदाई का कारण बन कर ही रहेगा- यह उस ठिठुरती सुबह मैं नहीं सोच पाई थी। इकतीस साल पहले जब उस शहर में न ही फोटो कॉपियर कॉमन थे, न ही इलेक्ट्रॉनिक टाइपराइटर, तब- हाथ से लिखे उस रिप्रेजेन्टेशन को टाइप करने में प्रिंसिपल मैम के उस सेक्रेटरी ने गुपचुप भूमिका निभाई थी, जो खास जी.वी के शहर से ताल्लुक रखता था। लतादी महीनों पहले से चुपके-चुपके कई स्तरों पर समर्थन जुटाती फिर रही थीं और इसीलिए उस दिन धरने पर बैठी लड़कियों को अनुशासनहीनता के आरोप में सस्पेंड करने के लेटर का डिक्टेशन लेकर भी उनका सेक्रेटरी उसे टाइप करने से मुकर गया। गुस्से से बौराई मैम ने हाथ से अपने सेक्रेटरी का सस्पेंशन लेटर बना कर ,उसकी कॉपी कालेज डीन को दे आने को चपरासी दौड़ा दिया। चपरासी डीन के आफिस दे आने से पहले, वह चिट्ठी लतादी को पढ़ा आया।

धरने पर बैठी सभी लड़कियां महीने भर के लिए सस्पेंड हो गईं। मैम को पता भी नहीं चला होगा कि ऐसा करके उन्होंने उन सभी के साथ कितना बड़ा फेवर किया था। सुजाता मुझे हर गतिविधि की जानकारी देती रहती। क्लास रूम में घुसना मना हो जाने से वे सब आराम से हॉस्टल में बैठकर आगे की रणनीति तय करती रहतीं। फंड इकट्ठा किए जाते। बाहर जाकर जरूरी कागजात टाइप करवाये जाते, बूथ से फोन किए जाते। दस दिनों के अंदर डीन और वी.सी के नाम अपील पर कई सौ लड़कियां साइन कर चुकी थीं। लतादी ऑनर्स के फाइनल एक्जाम ड्राप कर, हॉस्टल में और एक साल रहने का मन बना चुकी थीं। छह लड़कियों को धरने पर बैठने के लिए घर से फटकार मिल चुकी थी। तीन का सस्पेंशन उनके पेरेंट्स से बातचीत के बाद वापस कर लिया गया था। सुजाता भी लतादी की तरह ही सस्पेंड थी पर उसे कोई परवाह है, ऐसा कभी लगता नहीं था। वह खुशी- खुशी अपने सस्पेंड हो जाने का ऐलान इस तरह करती थी मानो सस्पेंड होकर उसने कोई किला फतह कर लिया हो। कॉलेज ग्राउंड में हर रोज खुलेआम मीटिंग की जा रही थी। लतादी ने प्रिंसिपल मैम से डीन के पास जाने से पहले नियमानुसार अनुमति मांगी। उन्होंने गुस्से में पेपर वेट दीवार पर दे मारा। उस आवाज से बाहर खड़ी लड़कियों को ऐसा लगा कि लतादी पर हाथ उठाया गया है और सारी -की-सारी लड़कियां उनके कमरे में घुस गईं। किसी ने कुर्सियां पटकीं, किसी ने कागज फाड़े तो किसी ने प्रिंसिपल मैम को ही धक्का दे दिया। वह एक बेकाबू भीड़ थी। मॉब- जिसकी साइकॉलजी सुनने की नहीं, तुरत-फुरत कुछ कर गुजरने की होती है, कैसे नियंत्रण में आती! लतादी और प्रभा मैम, दोनों हक्के-बक्के रह गए। भीड़ में चेहरे कौन पहचानता है! लतादी को लड़कियों को उकसाने और प्रिंसिपल मैम से हाथापाई करवाने का आरोपी पाया गया।

पूरे कालेज में बात फैल गई कि लतादी को कॉलेज से निकाला जा रहा है।

उसी शाम कालेज ग्राउंड में एक खास मीटिंग हुई। उतने विशाल ग्राउंड में तिल रखने की जगह नहीं थी। लगता था जैसे पूरा कालेज वहीं जमा हो गया है। लतादी का स्वागत किसी नायिका की तरह हुआ... और उस शाम की नायिका वे थीं भी! उनके भाषण को सबने ध्यान से सुना, जिसका सार था कि हिंसा करने और उत्तेजित होने से लड़ाई का मूल मुद्दा पीछे छूट जायेगा। जोरदार करतल ध्वनि के बीच अगले दिन से शांतिपूर्ण धरने का आयोजन करने का फैसला हुआ- कोई अभद्रता, कोई हिंसा, कोई नारेबाजी नहीं! मुद्दे दो रहेंगे- सबों का सस्पेंशन वापस लो और जी.वी को कालेज से हटाओ। ठीक है? उन्होंने पूछा। ‘ठीक है।’ सामूहिक स्वर लहराया और हजारों हाथ समर्थन तथा उत्तेजना में उठ गए। उत्तेजना की वह थरथराती लहर मैंने भी अपने अंदर फैली महसूस की। सुजाता धरने पर बैठने के उत्साह और खुशी के मारे रात-भर जागती रही, मैं अनिर्णय के तनाव के मारे।

अगली सुबह किसी उत्सव की सुबह थी। कैंटीन जाकर नाश्ता करने की किसे सुध थी! बस नहाओ और लतादी के कमरे के बाहर पहुंचो। बाहर इसीलिए कि अंदर पांव रखने की जगह थी ही नहीं। जी.वी के कमरे के बाहर रखा फोन लगातार बज रहा था और वे किसी को बात करने से रोक नहीं पा रहीं थीं। उनका चेहरा उतरा हुआ था और आंखों के सामने अपने विरुद्ध बनाये जा रहे पोस्टर शायद उन्हें अपने कफन की तरह लग रहे थे।

दस बजते ही लड़कियां धरने पर बैठ गई। जाड़े की उस ठिठुरती सुबह हाथों में तख्तियां लिए, रंग बिरंगे स्वेटरों से सजी, हरे-भरे ग्राउंड का बड़ा हिस्सा घेरती उन लड़कियों का वह झुंड, आज भी मेरी आंखों के सामने है। दाहिने हाथ से केमिस्ट्री की कापी अपनी छाती से सटाए, ऊँचे पेड़ से सटी खड़ी मैं, अंदर-अंदर बहुत अफसोस से भरी हुई थी कि मैं उस दृश्य का हिस्सा बनने की हिम्मत नहीं जुटा सकी थी... ‘जी.वी को सस्पेंड करो’, ‘पी. प्रभा होश में आओ’, ‘लड़कियों के भविष्य से खिलवाड़ बंद करो’, ‘छात्राओं का सस्पेंशन वापस लो’, ‘कालेज प्रशासन मुर्दाबाद’, ‘पी. प्रभा हाय-हाय’, ‘जी.वी वेश्या है’, ‘देह व्यापार की आयोजक को संरक्षण देना बंद करो’ ...जाने कितने पोस्टर और उन्हें पकड़े हुए जाने कितनी नाजुक कलाइयां..... उन दिलों में उठते जाने कितने अरमान और भय... अंदर लरजती जाने कितनी भावनाएं और उत्सुकताएं... मैं केमिस्ट्री की क्लास अटेंड करने चली गई। मां की अच्छी बेटी कहीं धरने- वरने में शामिल होती है! डॉक्टर बनना था- अर्जुन की आंख बस अपने लक्ष्य पर! रास्ते के फूल, पत्थर, झरने, घटनाएं-दुर्घटनाएं अगर दीखने, विचलित करने लगें, तब तो बन चुकी डॉक्टर!! पर क्लास में लड़कियां बहुत कम थीं और मैम का मन भी पढ़ाने में लग नहीं रहा था, तो क्लास नियत समय से पहले ही छोड़ दी गई। मैं वापस ग्राउंड में आकर खड़ी हो गई। चारों ओर पोशाकों के बिखरे पड़े रंग घास की हरियाली के बैकग्राउंड में सुखद नजारा पेश कर रहे थे, पर सबों के मन में जोश का लाल रंग भरा था और भरी हुई थी आक्रोश और दुःख की कालिमा!

क्रमश...