दरमियाना
भाग - २१
मैंने कहा था न!
सुनंदा बहुत कम बोलती, मगर उसकी आँखें बिना बोले रह ही नहीं सकती थीं। वह मुझसे भी ज्यादा कुछ नहीं बोलती थी। तार्इ अम्मा और सुलतान के साथ मेरे संबंधों की सहजता ने भी उसको मेरे प्रति सहज बनाये रखा था। मैं नहीं जानता कि स्वयं उसने मेरे प्रति क्या धारणा बनार्इ थी, मगर हाँ -– मुझे हमेशा ही उसने बहुत सम्मान की दृष्टि से देखा था। पता नहीं, इसके पीछे मेरा पेशा रहा हो, व्यक्तित्व, व्यवहार, शिक्षा, मेरी सहजता या मेरा शादीशुदा होना! उसकी दृष्टि से, खुद को समझना, मेरे लिए बहुत कठिन था। फिर भी कुछ ऐसा अवश्य था, जो उसे मेरे प्रति सहज बनाये रखता।
तार्इ अम्मा के आत्मीय सानिध्य ने मेरी मदद की थी। सच पूछें, तो -– उन्हीं के हाथों सुनंदा के भीतर की सीढ़ियाँ उतर जाता और उसके मन की सलवटों जैसी पगडंडियों पर दूर तक निकला जाता। यह भी सच है कि मैं उसे जितना भी जानता, उसके बिना बोले जानता।... और अब, इतना कुछ जानने के बाद तो मेरी निगाहों में सुनंदा का सम्मान बहुत बढ़ गया था। यह भी समझ गया था कि मुरादाबाद की नंदा, यहाँ दिल्ली आकर सुनंदा हो गर्इ थी।... और यह भी समझ गया था कि सुनंदा की विशालता को छू पाना मेरे लिए अब कठिन था। मैं कब धीरे-धीरे, मगर क्यों, इन सबके इतना करीब चला आया था, यह मेरे लिए भी समझ पाना कठिन हो गया था। हाँ, अलबत्ता तार्इ अम्मा, सुलतान और सुनंदा मुझे कहीं अपने से ज्यादा सहज लगने लगे थे।
माहे रमजान शुरू हो रहा था। मुझे तार्इ अम्मा के आग्रह पर सुनंदा ने बुला लिया था। मैंने भी सोचा था कि तार्इ अम्मा से रमजान के मायने समझने की कोशिश करूँगा। फिर जब पहले रोजे के रोज वहाँ पहुँचा तो पाया कि तार्इ अम्मा ने रोजा कुशार्इ की सब तैयारी कर ली थी। सुलतान 12 की उम्र तय कर चुका था और अब उस पर रोजा फर्ज हो गया था। मुरादाबाद न ही सही, दिल्ली ही सही -– तार्इ अम्मा और सुनंदा दोनों ही इस बात पर आमादा थीं कि सुलतान इस बार से रोजे रखेगा। इसलिए शुरुआती 10-12 दिन ही सही, वो जितना भी निभा सकता है, रोजे के हुकूक को बेहतर ढंग से समझ सकेगा। तार्इ अम्मा ने सुनंदा से पहले ही कह दिया था कि तू इससे रोजे रखवा तो रही है बेटा, पर ये सारे हुकूक उसी तरह से निभाएगा, जो बड़ों पर फर्ज हैं।... हालाँकि सुनंदा नहीं जानती थी, पर तार्इ अम्मा तो जानती थीं कि कुछ दिन सुलतान की निगरानी जरूर करनी पड़ेगी।
सो, ठीक उसी दिन जब सहरी के बाद सुलतान का पहला रोजा शुरु हो गया था, मैं भी शाम होने से पहले वहाँ जा पहुँचा था। जलसे जैसा माहौल था। जो रोजे से थे, वे खामोशी और सादगी से अपने कामों में लगे थे, जो नहीं थे -- वे चहक भी रहे थे और शाम की इफ्तार तैयार करने में भी जुटे थे।
इसके बाद तो रमजान के महीने में मेरा कर्इ बार जाना हुआ। मैंने इस्लाम को... और इस्लाम में रमजान को इतनी खूबसूरती से कभी नहीं जाना था। तार्इ अम्मा ने ही मुझे समझाया था कि रमजान का महीना बेहद पाक और मुकद्दस महीना होता है। रोजेदार दिन में रोजे रखते हैं और रात के वक्त तरावीह की खास नमाज पढ़ते हैं। अल्लाह त आला ने फरमाया है कि इस पाक महीने में रोजे रखने वालों का कयामत के दिन हिसाब-किताब माफ कर दिया जाता है। तार्इ अम्मा ने समाझाया था कि पहले रोजे के साथ ही मस्जिदों में रात की इशा की नमाज के बाद बीस रकात तरावीह पढ़ार्इ जानी शुरू हो जाती है। तरावीह के पूरे दौर में इबादतगुजारों को इमाम कुरान के सभी पारे सुनाते हैं। जिन मस्जिदों में पाँच पारे कि तरावीह है, वहाँ ये दौर छह दिन में ही मुकम्मल हो जाता है। वहीं, तीन पारे वाली तरावीह दस दिन, दो पारे वाली 15 दिन और डेढ़ व सवा पारे वाली तरावीह 20 से 25 दिनों में पूरी होती है।... इसी तरह वे जो कुछ भी समझातीं, मैं उन्हें आश्चर्य से देखता रह जाता।
रमजान के पूरे महीने में तो मैं कर्इ बार वहां गया, मगर उस 'आगंतुक' को इस बीच सुनंदा के घर आया नहीं देखा था। तार्इ अम्मा से ही पता चल गया था कि उसका नाम सुधाकर है। सुधाकर से सुनंदा का क्या रिश्ता है, यह न तो सुनंदा ने ही मुझे बताया और न ही तार्इ अम्मा ने बताना जरूरी समझा। शायद वे दोनों ही जान रही थीं कि मैं क्यूंकि तारा मां या संध्या के संपर्क में था, इसलिए खुद ही समझ सकता हूं। तार्इ अम्मा तो नहीं जानती थीं, मगर सुनंदा को तो मैंने स्वयं ही बताया था।रमजान-भर तो कोर्इ समस्या नहीं हुर्इ। शायद माहे-पाक समझ कर ही सुनंदा ने उसे वहां न आने दिया हो!... किन्तु र्इद वाले दिन फिर उसका मेरा आमना-सामना हो गया। उसने नीचे चौक में ही मुझे देख लिया था। मैं सुलतान के साथ खटिया पर बैठा था। सुनंदा ऊपर अपने कमरे में थी। नगमा और उसके दूसरे साथी भी आये हुए थे। तार्इ अम्मा रसोर्इ घर में थीं। सुधाकर बड़ी हिकारत और नफरत से मुझे घूरता हुआ सीढ़ियां चढ़ गया था।
कुछ ही देर में ऊपर से चीखन-चिल्लाने और झगड़े की आवाजें आने लगीं थीं। फसाद मेरी मौजूदगी को लेकर ही था शायद। ऐसा मैं अनुमान लगा रहा था। हालाँकि सारी बातें मेरी भी समझ में नहीं आ रहीं थीं। तभी ऊपर से जैसे हाथापार्इ की आवाजें आने लगी थीं। सुधाकर लड़खड़ता हुआ सीड़ियों से नीचे आ गया था। उसके पीछे सुनंदा और नगमा भी नीचे चली आर्इं थीं। गुस्से में उसके नथुने फूले हुए थे और आँखों में आग उतर आर्इं थी। तभी सुनंदा ने सुधाकर के कॉलर को पीछे से पकड़ा और एक जोरदार तमाचा उसे रसीद कर दिया। वह गुस्से में बड़बड़ाए जा रही थी, "साला... भड़ुआ कहीं का!..." तार्इ अम्मा ने उसे रोकना चाहा, तो उसने उनका हाथ भी हटा दिया, "हराम का जना मेरे संबंध जोड़ता है इनके साथ!..." उसका इशारा सीधे तौर पर मेरी तरफ था।
र्इद का सारा माहौल ही बिगड़ गया था। मै, तार्इ अम्मा और सुलतान सहमे-से खड़े रह गये। तभी वह फिर गुर्रार्इ, "निकल, छिनाल कि औलाद यहाँ से...तेरी रखैल नहीं हूँ मैं..."
सुधाकर गालियाँ बकता हुआ तेजी से बाहर निकल गया था। नगमा सुनंदा को ऊपर लिवा ले गर्इ थी। वह सीढ़ियाँ चढ़ते-चढ़ते भी सुधाकर को गालियाँ बक रही थी। मुझसे उसने कुछ नहीं कहा था। तार्इ अम्मा ने बहुत मायूस-से चेहरे के साथ मेरी तरफ देखा था। मैंने उनकी निगाहों के संकेत को समझा, तो सुलतान के सिर पर हाथ फेरते हुए तार्इ अम्मा से बोला, "जी अभी चलता हूँ। कुछ काम याद आ गया। फिर कभी आऊँगा!"
उन्होंने मुझे रुकने के लिए नहीं कहा। मैं अपनी डबडबार्इ आँखें लिए बाहर गली में चला आया था।... कुछ महीने बाद, एक बार फिर, दिन के समय मैं सुनंदा के घर गया था। दरवाजा सुलतान ने ही खोला था। मुझे देखते ही उसका रंग उतर गया था। वह दरवाजे से पीछ भी नहीं हटा था। वहीं से उसने तार्इ अम्मा को पुकारा था, "अम्मी!..."
तार्इ अम्मा सहज रूप से चली आर्इ थीं। मगर मुझे देखते ही उन्होंने अपने टुपट्टे से मुँह पर हाथ रख लिया था। उनकी अपलक खुली आँखें भीग उठी थीं। कुछ क्षण वे मुझे यूँ ही देखती रहीं। फिर बोलीं, "बेटा, तुम यहाँ मत आया करो!"
कहकर उन्होंने किवाड़ भिड़ा दिये।... मगर उसके बाद एक अरसे तक मै यह नहीं जान पाया कि कुछ महीने मेरे वहाँ न जाने के दौरान आखिर ऐसा क्या हुआ कि तार्इ अम्मा ने मुझे लौट जाने को कह दिया। मैंने भी खुद को समझा लिया था कि यदि इसी में उन सबकी भलार्इ है, तो फिर – ऐसा ही सही|
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