Ichcha - 7 in Hindi Fiction Stories by Ruchi Dixit books and stories PDF | इच्छा - 7

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इच्छा - 7

इच्छा की कम्पनी मे ही एक रमेश जी थे ,जो सुपरवाइजर के पद पर कार्यरत थे. वैसे इच्छा की उनसे कभी कोई बात नही हुई .हाँ यदा-कदा आते -जाते "मैडम जी नमस्ते कैसे हैं."का संवाद हो जाता था . इच्छा उनके बारे मे ज्यादा जानकारी नही रखती थी. लेकिन एक दिन कुछ ऐसा हुआ जिसने इच्छा को हिलाकर रख दिया . वैसे तो रमेश जी कम्पनी मे एक सज्जन स्वभाव वाले व्यक्ति थे .लेकिन उनकी एक बुरी आदत थी, वह यह कि उन्हे शराब की बुरी लत लगी थी .आफिस से घर पहुँचते ही वे रोज इसका सेवन करते थे . लगभग एक महीने से लगातार उनके साथ कोई न कोई दुर्घटना घट ही रही थी ,कभी बाईक का दुर्घटनाग्रस्त हो जाना ,कभी हाथ मे चोट तो ,कभी पैर मे. एक दिन तो पैर मे इतनी चोट आई कि, प्लास्टर बाँध पन्द्रह दिन घर पर ही बिताने को मजबूर हो गये . डॉक्टर ने तीन माह का बेड रेस्ट बोला था ,लेकिन घर के एक अकेले जिम्मेदार व्यक्ति होने की वजह ,से उन्होने पन्द्रह दिन बाद ही ऑफिस ज्वाइन कर लिया . वह हाथ मे बैसाखी के सहारे पैरो को जमीन मे घसीटते हुए, बड़े कठिनाई से धीरे -धीरे ही चल पाते थे. उनकी ऐसी दयनीय अवस्था को देख इच्छा का मन भर आता था. एक दिन लगभग साढे ग्यारह बजे की बात होगी ,जयशंकर एक सूचना लेकर आता है ."मैम जी आपको पता है कल क्या हुआ" क्या हुआ? इच्छा ने पूँछा पहले बोलिये "आप किसी को बतायेंगी तो नही""अरे! मैं किसको बताऊंगी भैय्या ,मै इधर की उधर करती हूँ क्या?" बाऊजी ने मना किया है न , नही तो कम्पनी मे सबको छुट्टी देनी पड़ेगी यह सुन इच्छा के मन मे उत्सुकता बढ़ गई . "बात तो बताईये भैय्या, आखिर क्या है" जयशंकर "मैडम आप यहाँ से उठकर पेनट्री की तरफ आईये " इच्छा को थोड़ा अटपटा सा लगा ,किन्तु मन की उत्सुकता ने जयशंकर प्रशाद का कहना मान लिया. "मैडमजी, हमारे रमेश जी है न कल उनके घर मे आग लग गई . उनके चार बच्चो को छोड़कर माता -पिता ,पत्नि और वे खुद बुरी तरह जल गये. डॉक्टर ने भी जबाव दे दिया .बाऊ जी को कोई बता रहा था तब मै वहीं पर था . बाऊजी ने मुझे किसी को भी बताने से मना किया था . यह बात सुन मानो इच्छा के पैरो तले, जमीन ही खींच ली हो किसी ने . अभी कल भी तो कम्पनी आये थे वे.विश्वास नही हो पा रहा था उसे, फिर आपने मुझे क्यो बताया इच्छा ने कहा . मुझे पता है मैडमजी ,आप किसी को नही बताओगी .और ऐसे स्वार्थी लोगो के साथ इमानदार बनने से क्या फायदा . यह सब सुन इच्छा के अन्दर मानो बिजली सी कौंध गई , भावनाओं के पुल एक एक करके धराशायी होने लगे. जिन बाऊ जी के विचारो से वह इतना प्रभावित थी .जिन्होने उसे खुद के होने का आभास कराया. इच्छा के जीवन का वो आदर्श ही थे. उसकी इस भावना पर मानो किसी ने ऑरी चला दी हो, वह बाऊजी के इस रूप को सहन नही कर पा रही थी. करती भी कैसे वह उनका इतना आदर जो करती थी. आज उसे इस बात का आभस हुआ , कि किसी भी व्यक्ति के व्यक्तित्व को समझपाना आसान नही. हम किसी व्यक्ति के स्वभाव के कुछ पक्ष जो प्रकट होते हैं .उसमे अपनी वैचारिक कल्पनाए भरकर एक व्यक्तित्व का निर्माण कर देते है . और उसे उसी अवस्था मे पूजने लगते है. किन्तु जब उसका दूसरा पक्ष सामने आता है, तो जहाँ एक ओर संशय टूटता है वही दूसरा तैयार हो जाता है.आज इच्छा के साथ भी ऐसे ही हो रहा था. एक तरफ जहाँ वह बाऊजी के बदले स्वभाव को स्वीकार नही कर पा रही थी. वहीं रमेश के घर, परिवार जीवन की यह दुर्घटना ने उसे मायूसी के सागर मे डुबो रख्खा था .आज वह दोपहर लंच के लिए भी नही गई. आज उस कम्पनी मे पहली बार घुटन का अहसास हुआ . घर पर भी इच्छा देर रात तक यही. सब सोचती रही. दूसरे दिन सुबह एक भारी थकान का अहसास हुआ. यह थकान विचारो मे चल रहे युद्ध का था, न केवल अल्पनिद्रा का. आज रोज की तरह कम्पनी जाने मे वह उत्साह नही था. हर जगह की नीरसता मानो उसके प्राणो को खींचे ले रही थी. इच्छा को रमेश जी के बच्चो के बारे मे जानने की बहुत उत्सुकता था .जो कोई आता उससे उनके बारे मे पूँछती . कम्पनी के मालिको ने मानो अपने कान बन्द कर रख्खे हो ,कहीं उन्हे मुआवजा न देना पड़ जाये. स्थिति यहाँ तक पहुँची की रमेश के बारे मे कोई बात करते भी डरने लगे.आखिर सबको अपनी नौकरी प्यारी है. इच्छा की सैलरी बहुत अधिक नही थी ,खर्च की अपेक्षा .किन्तु मानवीय गुणो के कारण उसके मन मे एक विचार आया, कि अपनी सैलरी मे से कुछ अंश वह रमेश के बच्चो को दे पर यह पर्याप्त न होगा इसलिए उसने कम्पनी के और लोगो से आग्रह किया . सबकी उदासीनता ने उसके मनोबल को भी गिरा दिया .आखिर वह करती भी तो क्या सामार्थ्य की पूँजी कमजोर ,और आवश्यकताए बलवती थी. इच्छा के मन मे जो मालिको के प्रति सम्मान की भावना थी ,वह विपरीत परिस्थितियो मे सहानुभूति मे परिवर्तित हो ईश्वर के समक्ष प्रार्थना मे तब्दील हो जाती थी. वहीं आज उनकी संवेदन हीनता ने सब खत्म सा कर दिया. वैसे इच्छा के प्रति मालिको के व्यवहार मे कोई परिवर्तन नही आया था. बाऊजी आज भी इच्छा को उतना ही अपनापन देते थे. पर मानवीय गुणो का आभाव मानव को कहाँ भाता है. यहाँ मानव का अर्थ मनुष्यता से है. इच्छा ने कभी नही सोचा था, कि वह इस कम्पनी से कभी जायेगी परन्तु इस घटना से ही उसमे ये बीज पड़ गये. वह गोपनीय रूप से इसके लिए प्रयास भी कर रही थी . किन्तु यह प्रयास वैचारिक अधिक था वास्तविक धरातल पर यह धीमी गति से चल ही रहा था कि एक घटना ने इसे तीव्र कर दिया था. हुआ यह कि कम्पनी की हालत खराब पहले से ही चल रही थी . एक दिन एक पार्टी आई जिसने कम्पनी को माल दे रख्खा था ,उसके बहुत दिनो के पैसे कम्पनी पर बकाया थे. कई बार कम्पनी के चक्कर लगाने के बाद भी पैसे नही मिले थे. आज वह गुस्से मे था. कम्पनी के मैनेजिंग डायरेक्टर के आने के दस मिनट के पश्चात वह आ गया . वैसे तो रोज किसी न किसी पार्टी से झूट बोलने के लिए इच्छा को हिदायत मिलती थी . मालको की अनुपस्थिति बताकर इच्छा उन्हे वापस भेज दिया करती थी. किन्तु यह इतना अचानक हुआ की उसे समझ नही आ रहा था कि वह क्या करे . पार्टी भी समझ गई की मालिक अन्दर ही बैठा है . वह बेधड़क अन्दर घुस गया. उसका यह व्यवहार मालिको को पसन्द नही आया. काफी तू ,तू मैं ,मैं के बाद वह चला गया,किन्तु बाहर निकलते ही वह इच्छा पर बरस पड़े. वह तो पहले से ही यहाँ से जाना चाहती थी. आज की घटना से यह और भी तीव्र हो गई . वह बिना दूसरी नौकरी मिले इस नौकरी को नही त्याग सकती थी . क्योंकि घर और बच्चो की जिम्मेदारी इसी नौकरी ने सम्भाल रख्खी थी . इच्छा रिसेप्शन पर काम करती थी ,इसलिए उसे बहुत सारी पार्टियाँ जानती थी . बहुत से लोगो ने उसे ज्यादा सेलरी का ऑफर भी दिया था. इस कम्पनी से वह भावनात्मक रूप से जुड़ी थी .इसलिए कभी स्वीकार नही किया . किन्तु भावनाओं से सिर्फ भावनाए ही पोषित होती हैं. इच्छा को यह बात समझ मे आने लगी . कम्पनी की हालत खराब होने की वजह से किसी की सेलरी नही बढ़ाई गई ,और जो मिलती भी थी ,वह भी काफी लेट . इच्छा के घर के खर्चे भी बढ़ गये . स्कूल की फीस तो हर साल ही बढ़ जाया करती . उसके प्रयासो का नतीजा एक कम्पनी से इच्छा को ऑफर आया .यह कम्पनी कोई और नही इच्छा की वही पहली कम्पनी थी .जहाँ इन्टरव्युव से पहले उसे मना कर दिया गया था . हाफ लीव लेकर वह इन्टरव्युव के लिए जाती है .आज पहली बार इच्छा ने झूठ बोलकर लीव लगाई. या , ये कहना उचित होगा कि उसे कभी इसकी आवश्यकता ही न पड़ी थी .एक बार तो डेढ़ महीने की बी ए थर्ड इयर के एग्ज़ाम के लिए छुट्टी मंजूर की थी. इससे पहले वह हमेशा अपनी वास्तविक स्थिति को अवगत कराकर ही छुट्टी लेती. आज पुनः उस कम्पनी मे प्रवेश करते हुए एक खास प्रकार का अनुभव हो रहा था . आज वह पहले वाली इच्छा जिसने अपने भय को छुपाते हुए, आत्मविश्वास का आवरण ओढ़ इन्टरव्युव के लिए आई थी , वह नही थी. आज जो इच्छा इन्टरव्युव के लिए आई थी . वह आत्मविश्वास से लबरेज अन्दर बाहर समान अवस्था मे . हार और जीत की परिधि से बाहर थी.आज वह जिस नौकरी के लिए आई थी .वह रिशेप्शन की नही थी .करेसपॉन्डेन्स डिपार्टमेन्ट मे सहकर्मचारी की थी . उसे न जाने क्यो विश्वास था, कि यह नौकरी मुझे ही मिलेगी . यदि ऐसा न होता तो ईश्वर दुबारा से यहाँ न भेजता. ऐसे ही विचार उसके मन मे आ रहे थे. आज भी इन्टरव्युव के लिए इच्छा का नंबर सबसे लास्ट मे आया . किन्तु उसके मन का धैर्य स्थाई था. इस बार इन्टरव्युव वहाँ के सी ई ओ ही ले रहे थे. केबिन मे पहुँचते ही उसे बैठने का इशारा किया .वही प्यून द्वारा रख्खे पानी को सी ई ओ ने इच्छा को ऑफर किया. पहले परिचय पूँछा. फिर उसका वर्क प्रोफाइल और कार्यकाल ,आखिर मे उस कम्पनी को छोड़ने का कारण , जिसमे वर्तमान मे वह कार्य कर रही है .सब बातो का जवाब इच्छा ने बड़े ही आत्मविश्वास से दिया . इच्छा द्वारा दिये गये जवाब सी ई ओ के चेहरे पर संतुष्टी का आभास करा रहे थे . जहाँ पहली बार उसे जॉब पर रखने से पहले तीन दिन परखा गया था ,वहीं आज उससे एक्सपेक्टेड सेलरी पूछी जा रही है. आप "इस कम्पनी को कब से ज्वाइन करना चाहेंगे"सी ई ओ ने कहा."सर आफ्टर फिफ्टीन डेज़ "इच्छा ने कहा. ओके, "बट इफ यू डू नाट कम ऑफटर एट्टीन डेज़ देन देयर इज़ नो गॉरन्टी ऑफ दिस जॉब." "ओके सर" इच्छा ने फिर कहा. उसने पन्द्रह दिन की मोहलत इसलिए माँगी थी, कि उसकी तनख़्वाह अभी तक नही मिली थी .इस बार कुछ ज्यादा ही लेट हो रही थी . दूसरा महीना पूरा होने को था. खैर एक बात अच्छी हुई चार दिन के बाद उसे सैलरी मिल गई . वह कम्पनी छोड़कर जाने वाली है ,कम्पनी के कुछ लोगो को बता दिया, मालिको को न बताने की शर्त पर . इस पर उन लोगो ने इच्छा को राय भी दी मैडम आप बताकर जायें ,इतने दिन आपने इस कम्पनी मे काम किया है .हिसाब ,तो लेकर जाइये. पर इच्छा इसके लिए नही तैयार हुई . कारण यह वही कम्पनी थी जिसने उसे मौका ही नही दिया बल्कि स्वंय से भी परिचित करवाया था. आज की जो इच्छा है वह इसी कम्पनी का परिणाम है . वह कैसे कह पाती कि बाऊजी मै आपकी कम्पनी छोड़ रही हूँ. और कारण बताना तो कम्पनी का अपमान करना जैसा लग रहा था . कम्पनी के प्रति इच्छा की भावना का मोल पैसो से नही लगाया जा सकता था. खैर , इच्छा की जिस दिन सैलरी मिली उसके दूसरे दिन से ही इच्छा ने ऑफिस जाना बन्द कर दिया . उसने अपना फोन भी स्विच ऑफ कर दिया. क्योकि ,यदि फोन आता तो उसे सच्चाई बतानी पड़ती ,वह झूठ नही बोल सकती थी जयशंकर और स्टाफ को तो सब पहले से ही पता था .पर किस कम्पनी को ज्वाइन किया है यह बात केवल चार लोगों को पता थी ,जिनके साथ इच्छा लंच करती थी . कम्पनी का आखिरी दिन उसने उन्हे कम्पनी मे ही पार्टी भी दी थी. कम्पनी छोड़ने के पश्चात इच्छा घर मे ही थी , क्योकि उसने पन्द्रह दिन का समय ले रख्खा था.इससे पहले जाना उसे उचित नही लग रहा था. आज वो दस दिन भी पूरे हुए इच्छा का नई कम्पनी मे पहला दिन . आज इच्छा को करेस्पॉन्डेन्स डिपार्टमेन्ट के मैनेजर देव दत्त शर्मा जी से मिलवाया गया. इच्छा को इन्ही के साथ काम करना है. डीडी शर्माजी लगभग अड़सठ साल ,मध्यम काठी ,और हाथ पीछे किये थोड़ा झुक कर चलते थे. वे इसी कम्पनी से रिटायर होकर अपना सारा हिसाब -किताब ले चुके थे .कम्पनी के मालिको ने अनुरोध कर दुबारा बुलाया. ये वही व्यक्ति थे जिन्होने यहाँ के मालिको को कम्पनी चलाना सिखाया था . हुआ यूँ कि इनके पिता अर्थात कम्पनी के सी ई ओ बहुत ही धार्मिक प्रवृति के सज्जन व्यक्ति थे .अपनी पत्नी के साथ गंगा स्नान के लिए गये थे , कि अचानक पैर फिसला और नदी में डूब गये .बहुत तलाशने पर भी उनके पिता की लाश ही हाथ लगी . वैसे इनके बड़े भाई ने बहुत दिनो तक कम्पनी चलाने मे बहुत सहयोग किया .किन्तु किशोरावस्था पार करते ही उन्हे लगा अब कम्पनी की जिम्मेदारी दोनो बच्चों को दे देनी चाहिए . उस समय कम्पनी के मैनेजरों जिनमे हमारे देवदत्त शर्मा जिन्हे डीडी शर्मा जी भी कहते थे. उन दोनो की काम सीखने मे मदद की .वहाँ के मालिक उन्हे हमेशा अंकल कह कर ही बुलाते. डी डी शर्मा जी एक बहुत ही जिन्दादिल व्यक्ति थे . वह हर समय हँसने का बहाना तलाश ही लेते थे. बस किसी व्यक्ति की कमजोरी उन्हे दिख भर जाये ,पूरे दिन हँसने का सामन बना लेते थे. उस कम्पनी मे वे एक अकेले व्यक्ति थे, जिन्होने पूरी कम्पनी का माहौल खुशनुमा बना रखा था. यह सब बाते इच्छा को तब पता चली थी. जब वह इन्टरव्युव के लिए आई थी प्योन अपने सहकर्मी को यह सब बता रहा था. पहली बार इच्छा को ऐसा माहौल मिला, जहाँ वह स्वयं को स्वतंत्र महसूस कर रही थी. वैसे तो वह पहले जिस कम्पनी मे थी वहाँ का माहौल भी उसके लिए अनुकूल था . लेकिन रिसेप्शनिस्ट होने का दंश उसे हमेशा सताता रहा था. आज उसे इस बात का अहसास हुआ कि वह कभी अकेली थी ही नही , कोई था जो उसे हमेशा सुनता था . क्योकि आज उसने अपनी प्रतिक्रिया दी है. वह जिस ईश्वर से बाते करती थी,जिसे उसने नौकरी न मिल पाने पर मन ही मन खूब भला बुरा सुनाया .आज उसने उसी कम्पनी मे पूरे आत्मविश्वास के साथ लाकर बैठा दिया . इसके साथ ही उस पराशक्ति पर उसका विश्वास और भी ,दृढ़ हो गया. क्रमशः...