Hone se n hone tak - 4 in Hindi Moral Stories by Sumati Saxena Lal books and stories PDF | होने से न होने तक - 4

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होने से न होने तक - 4

होने से न होने तक

4.

देहरादून में मेरा जल्दी ही मन लग गया था। यश दून स्कूल में पढ़ रहे थे। उसकी कज़िन मेधा मेरे साथ मेरे ही क्लास और सैक्शन में वैल्हम में। हम तीनों के एक ही लोकल गार्जियन। वीक एण्ड पर अक्सर मिलना होता। मॉ के रहते यश को जानती भर थी पर अब वह मेरा बहुत ख़्याल रखते। वह घर से दूर एक ही शहर और पुराने परिचित होने की निकटता तो थी ही पर साथ ही मुझे लगता मॉ के न रहने के कारण यश मेरे प्रति कुछ अधिक ही संवेदनशील हो गए थे। वह हर समय जैसे मेरा अकेलापन बॉटना चाहते। मॉ जब बहुत प्यार जतातीं तो मुझे अम्बि नाम से पुकारतीं थीं। यश ने कभी मॉ के मुह से वह नाम सुना होगा। कभी कभी अन्जाने ही यश मुझे इस नाम से बुलाते-हर बार ही अपनेपन का सूत्र बनने लगता-और हर बार ही यश और भी अपने से लगने लगते। यश मेरे लिए देहरादून का ही नही पूरी ज़िदगी का सहारा बन गए थे जैसे-इतने अंतरंग और इतने चुपचाप की आण्टी तक को उस बात का एहसास नही हो पाया था।

तब से लेकर अब तक हॉस्टल में रहती रही हूं। एक हॉस्टल से दूसरा। छुट्टियों में कभी बुआ के घर, कभी एक दो दिन को आण्टी के घर। रमेश चाचा का दुबई जाना नही हुआ है। कभी कभी चाची भी बुला लेती हैं। बहुत छोटा सा घर है उनका, घर में कोई सुविधा भी नहीं है। पर वे बहुत प्यार देती हैं। उनके साथ मुझे अच्छा लगता है फिर भी लगने लगता है कि मेरे रहने से उनका ख़र्चा और झंझट दोनो ही बढ़ रहे हैं। इतना समझ पाने लायक बुद्धि उस छोटी उम्र में भी थी मेरे पास भले ही चाची भरसक उस बात का एहसास नहीं होने देतीं। हॉस्टल में साथ के सब बच्चे बेसब्री से छुट्टियों का इंतज़ार करते। एक महीने पहले समय का काउॅट डाउन शुरू हो जाता और मेरा मन खिन्न होने लगता। लगता कि अब आने वालें ढाई तीन महीने में इधर से उधर लुढ़कती रहूंगी-एक घर से दूसरे घर, बेमतलब। कही कहीं तो अनचाहे जाऊॅगी, अनचाहे आने के लिए कही जाऊॅगी। फूफा लखनऊ मेडिकल कालेज मे सीनियर डाक्टरं हैं। वे शहर के नामी गिरामी हार्ट स्पेशलिस्ट हैं। फूफा के इण्डिया लौटने के बाद से मेरी अधिकांश छुट्टियॉ बुआ के घर पर बीतती हैं। पर मैं थोड़े दिनों में ही ऊबने लगती हूं। शायद बुआ को भी मेरा इतना लंबा रहना उबाता ही होगा। वैसे सच क्या है सो कौन जाने। हो सकता है वह मेरा भ्रम ही हो। थोड़े दिन में ही लगने लगता जैसे मैं कोई बोझ हॅू जो बुआ के घर के फर्श पर चल रही हूं -उनके लॉन की कुर्सियों पर बैठी हूं-उनकी मेज़ पर बैठ कर उनके साथ खाना खा रही हूं। ऐसे में अपमान का एक अमूर्त सा एहसास मेरे पूरे वजूद पर हावी होने लगता है।

मेरे हाई स्कूल में आते तक यश देहरादून से चले गए थे। फिर भी हम दोनो के बीच निरंतर चिट्ठियॉ आती जाती रहतीं। तब छुट्टियों में यश से मिलने का इंतज़ार रहता। लखनऊ में यश की उपस्थिति का एहसास मन को एक अजब सा सुकून देता भले ही कभी कभी कई दिन तक मिलना नही हो पाता तब भी मन में यश के कही आस पास होने की तसल्ली रहती। आंखों के सामने न होते हुए भी शहर की हवाओं में यश के होने की गंध, जैसे जब चाहूंगी तब यश को देख सकती हूं मैं।

अब अचानक लगने लगा है कि यूं इधर उधर दिन काटते थकने लगी हूं। मन करता है कि नौकरी लग जाए तो अपने घर का एक हिस्सा ख़ाली करा कर उसमें रहूं । कभी कभी बहुत बेचैनी होती है। अपने घर की इच्छा होती है।

जब से बुआ के घर बाबा जी और दादी जी आए हैं तब से मेरा मन यहॉ से एकदम उचाट हो गया है। लगता है कहीं चली जाऊॅ। पर कहॉ और कैसे। बुआ फूफा दोनो ही मुझे कभी सहृदय नहीं लगते, पर कोई अपने माता पिता के साथ ऐसा कैसे हो सकता है ?क्या फूफा को कभी अपने माता पिता और भाई के लिए मन में प्यार नहीं आता। क्या बुआ की आत्मा कभी उनको नहीं कचोटती। कभी नहीं लगता बुआ को कि जिनका दिया वैभव वह भोग रही हैं उनको इन्हीं दोनों ने जन्म दिया था? सारे समय मुझे बुआ फूफा पर गुस्सा आता रहता है। कैसे इंसान हैं यह दोनों? रिश्ते का लिहाज़ नही। फिर यह तो समझें कि वे बूढ़े लोग हैं-बीमार हैं-थोड़े से दिनों के लिए मेहमान की तरह आए हैं। उनका पूरा समय अव्यवस्थित बीत रहा है। इतने बड़े घर में उनके लिए एक कमरा भी नहीं। बुआ का डुप्ले घर है। ऊपर बहुत बड़े तीन बैड रूम, अटैच्ड टायलैट और ड्रैसर के साथ। तीनों कमरों के साथ खुली हुयी बाल्कनी और सामने के बराम्दे के आगे एक बहुत बड़ा टैरेस अलग से। नीचे बीस फीट चौड़ा और चौबीस फीट लंबा एक बड़ा सा ड्राईंग रूम, किचन और एक बैडरूम जिसमें आजकल मैं रह रही हूं। उन लोगों के आने पर मैंने बहुत कहा था कि मैं ड्राईग रूम में सो जाऊॅगी। वे तीनों लोग आराम से मेरे कमरे में रहें। पर बुआ नहीं मानी थीं। आखें तरेर कर उन्होने उस विकल्प को ही एकदम ठुकरा दिया था,’’अरे बिना दरवाज़ों के एकदम खुला हुआ ड्राईंग रूम बना हैं। अंदर से बंद करने की कोई व्यवस्था नहीं। तुम अकेले कैसे सो सकती हो।’’

मैंने उन्हें समझाना चाहा था कि ‘‘उससे फर्क ही क्या पड़ता है बाहर से तो घर बन्द होता ही है।’’ पर बुआ ने मेरी एक नहीं चलने दी थी और फूफा तमाशबीन की तरह चुपचाप बैठे रहे थे जैसे पूरी वार्ता से उनका कोई लेना देना ही न हो। बुआ से मेरा यह कहने का भी साहस नही हुआ था कि मैं ऊपर आकर भी लेट सकती हूं। मैं यह भी नही समझ सकी थी कि बुआ मेरा ख़्याल कर रही हैं या कि उन लोगों को अधिक सुविधा देने से कतरा रही हैं। बुआ ने बाबू जी के लिए ड्राईंग रूम में एक फोल्डिंग कॉट डलवा दी थी और दादी और किशन चाचा के लिए फर्श पर गद्दे। फिर उन्होंने ऊॅची आवाज़ में दीना को पुकारा था,‘‘लाला अम्मा के लिए पानी रख दो’’ एक बार उन्होंने सब की तरफ देखा था फिर पलट कर दुबारा दीना की तरफ देखा था,‘‘दोनो के लिए अलग अलग रखना’’ वे जैसे उसे डॉट रही हों,‘‘कुछ अकल में घुस रहा है या नहीं। नही तो अम्मा को दिक्कत होगी।’’

दीना ने हुकारी भरी थी,‘‘जी मेम साहब।’’

फूफा कुछ देर तक सोफे पर चुपचाप बैठे रहने के बाद उठ खड़े हुए थे,‘‘अच्छा अम्मा चलता हॅू सोने।’’

दादी के चेहरे पर खिसियाहट है और ऑखों में अकेलापन,‘‘अच्छा बेटा’’ वे धीमे से बुदबुदायी थीं। उनके स्वर में अलगाव है। लगा था बेटा शब्द एक आदत की तरह निकला हो उनके मुह से।

मैं सारे समय अपराधी महसूस करती रही थी। अपना कमरे में आकर लेटना गुनाह लगता रहा था। यह भी लगता रहा था कि जब फूफा के घर वाले होते हुए उनके लिए घर में कोई जगह नही तो फिर मैं किस नाते आती हूं इस घर मे, और किस नाते इतने दिन से यहॉ रह रही हूं। सुबह उनके पास गयी थी तो देखा किशन चाचा दादी को सहारा देकर उठा रहे हैं। वे फर्श पर से स्वयं नहीं उठ पा रही थीं। मैं क्षण भर अपराधी जैसी खड़ी रही थी फिर मैं दादी जी की दूसरी बगल के नीचे हाथ डाल कर उन्हें उठने में मदद करने लगी थी। सुबह सुबह उन लोगों ने अपने कपड़े बिस्तर समेटना शुरू कर दिए थे। जैसे पराए घर में अपने आने के अपराध एवं शर्म को समेट रहे हों। ड्रॅाइगरूम को किशन चाचा यथावत् साफ करने लगे थे। नीचे के घर में नौकर, महरी,जमादार सबकी आवा जाही शुरू हो गयी थी। मैं उन लोगों के पास जा कर खड़ी हो गयी थी,‘‘दादी अब आप लोग उस कमरे में आ जाईए। बब्बा जी का आराम करना ज़रूरी है।’’ और मैंने उनका गद्दा उठा लिया था। काफी न नुकुर के बाद वे लोग मेरे कमरे में आए थे। बहुत कहने पर भी वे लेटे नहीं थे-पलंग के एक किनारे बैठे रहे थे जैसे कुछ सोच रहे हों, जैसे डर रहे हों।...किससे? पता नहीं। मुझे लगा था कितने अभागे हैं बब्बा दादी। इतने अभावों के बीच एक बेटे को डाक्टर और एक को इन्जीनीयर बना दिया और स्वयं एकदम ख़ाली हाथ। किशन चाचा भी कितने पराजित,खिसियाये हुए लगते हैं-अपमानित से। लगता ही नहीं कि यह फूफा का परिवार है। उन सब के चेहरों पर कोई अधिकार नहीं और फूफा की निगाहों मे कोई अपनापन एवं सम्मान नहीं।

रात को बुआ कहीं डिनर पर गयी हुयी थीं। दीना बिस्तर लगाने लगे थे तो मैंने ज़िद्द करके उन दोनों का बिस्तरा अपने कमरे में अपने पलंग पर लगवा कर अपने लेटने के लिए उसी कमरे में फर्श पर गद्दा डाल लिया था। मैं जानती थी कि बुआ को यह व्यवस्था पसंद नही आएगी पर उस समय मैंने उस विषय मे अधिक कुछ सोचा ही नहीं था। जो मुझे सही लगा वह ही मैंने किया था। मेरे कमरे में उनका बिस्तर लगाते समय दीना के चेहरे पर डर और ख़ुशी दोनो ही थी।

बुआ देर रात गये लौटी थीं। मेरे कमरे में बाबा दादी को लेटे देख कर और ड्राईंगरूम में अकेले चाचा को लेटा देख कर बुआ कुछ क्षण को खड़ी रही थीं। दादी जी सकपका सा गयी थीं। बुआ कुछ कहतीं या पूछती उससे पहले ही मैं उनके पास जा कर खड़ी हो गयी थी,‘‘बुआ दादी जी मान नही रही थीं पर मैंने ज़बरदस्ती इन दोनो का बिस्तरा अपने पलंग पर लगा दिया है।’’ मैने भी जैसे सफाई सी दी थी, ‘‘सुबह दादी ज़मीन से उठ नहीं पा रही थीं। वैसे भी मैं तो दुपहर में सोती नही हॅू। बाबा दादी दुपहर में भी लेट सकते हैं। फिर सुबह बिस्तरा समेटने की भी कोई जल्दी नही रहेगी।’’ मैंने बिना किसी को भी बात करने का मौका दिए हुए एक ही सॉस में अपनी बात कह दी थी जैसे उन लोगों के अपने कमरे में आ कर लेटने की पैरवी कर रही हूं।

बुआ के चेहरे पर खीज है, ‘‘और तुम ?’’उन्होंने पूछा था। उन्होंने अपना स्वर भरसक शॉत रखा था।

‘‘आप नही चाहती थीं कि मैं ड्राईंग रूम में लेटूॅ सो इसी कमरे में मैने अपना बिस्तर फर्श पर लगा लिया है।’’

‘‘और किशन?’’ उनके स्वर में दबी छिपी तेज़ी है।

‘‘चाचा ड्राईंग रूम मे लेट रहे हैं।’’ मैंने जवाब दिया था। बाबा दादी अभी तक सकपकाए हुए और एकदम चुप है। किशन चाचा बाहर के बराम्दे में टहलते हुए दिख रहे हैं।

‘‘लाला को रात में किशन की ज़रूरत हुयी तो ?’’

‘‘बगल में ही तो कमरा है तब उनको बुला लेंगे बुआ।’’मैंने बहुत ही शॉत स्वर मे जवाब दिया था।

‘‘वैसे रात में हमे ज़रुरत होती नही है।’’ बाबा ने जैसे सफाई सी दी थी।

‘‘तब भी लाला’’ बुआ ने अधिकार से कहा था और शीघ्र ही पूरा सूत्र अपने हाथों में ले लिया था,‘‘ऐसा करो अम्बिका तुम ऊपर के कमरे मे सो जाओ। यहॉ किशन सो जाऐंगे।’’ फिर उन्होनें बहुत ही नाटकीय अपनेपन से दादी की तरफ देखा था, ‘‘अरे अम्मा आपने हमको बताया क्यों नहीं था कि आपको फर्श पर दिक्कत होती है। कल हम आपके लिए भी चारपायी लगवा देते।’’ बुआ के स्वर में हल्का सा व्यंग है,‘‘हमने तो न जाने कितनी बार आपको बड़े आराम से नीचे सोते देखा है।’’ उन्होने जैसे अविश्वास से दादी की तरफ देखा था।

वे अभी भी चुप ही रही थीं। जवाब बाबा ने दिया था। वे सफाई देती मुद्रा में हॅसे थे,‘‘असल में तुम्हारी अम्मा अब बूढ़ी हुयी न, सो अक्सर फर्श से उठ नही पाती।’’

’’आपने हमे बताया तो होता।’’ बुआ ने मेरी तरफ देखा था,‘‘नही अम्बिका तुम ऊपर चलो। यहॉ इन सब को आराम से सोने दो।’’ मुझे हाथ से उठने का इशारा करते हुए उन्होने उन सब के प्रति बड़ी आत्मीय चिंता जतायी थी।

Sumati Saxena Lal

Sumati1944@gmail.com