मैं वही हूँ!
(1)
मैं नया था यहाँ। नई-नई नौकरी ले कर आया था। इलाके की सभी पुरानी और ऐतिहासिक इमारतों की देख-रेख और मरम्मत की ज़िम्मेदारी थी मुझ पर। काम आसान तो नहीं था मगर मुझे पसंद था। बीत गया समय और उसकी स्मृति में बचे यह धरोहर अपनी जड़ों की ओर लौटने की पगंडडी जैसी थी और इन पर चल कर खुद तक या उससे भी आगे निकल जाना एक मात्र नशा था जो मैं वर्षों से करता रहा था। जिस उम्र में लोग पार्टी और सैर-सपाटे में समय गुजारते हैं, मैं वीरानियों में ईंट-पत्थर-गाढ़े के मलबों या भग्नावशेषों में दबे पड़े समय को ढूँढता फिरता था।
जो समय अनवरत बहता रहता है उसे यूं काई की तरह यहाँ-वहाँ जमे हुये पड़े पाना मुझे अनिर्वचनीय खुशी और रोमांच से भर देता है। हाथ की मुट्ठी में बंद गुजर गए समय का जीवित, स्पंदित एक टुकड़ा, उस काल खंड की तमाम उपलब्धियों और विफलता के साथ... उन्हें जीना, महसूसना... इस प्रामाणिकता के साथ! सच! विलक्षण होता था यह अनुभव! सीप में पनपे मोती की तरह इन्हें मैं खोजता-सहेजता रहा हूँ। वर्षों की मेहनत ‘गोथिक स्थापत्य कला’ पर किया गया मेरा शोध कार्य हाल ही में पुस्तक के रूप में छप कर आया था और उस पर एक प्रतिष्ठित पुरस्कार की घोषणा भी हुई थी।
एक बात जो कहते हुये मैं खुद असमंजस में हूँ-यहाँ आने के बाद कुछ अजीब-सा घट रहा था मेरे साथ। समझ नहीं आ रहा किस तरह बताऊँ! सुन कर शायद ही किसी को यकीन आए। बात इस तरह शुरू हुई कि जब मैं यहाँ आया, मुझे एक बहुत पुराना बंगला मिला रहने के लिए। काई चढ़ी ईंटों और लाल टाइल्सों वाला। बंगले के पिछ्बाड़े एक बहुत बड़ा कुआं और बरगद का पेड़ था जिसकी डाल और जटाएँ दूर-दूर तक फैली हुई थीं। बंगले का दाहिना हिस्सा बहुत पहले कभी आए भूकंप में पूरी तरह धंस चुका था। बाई तरफ के दो कमरे और एक लंबा बरामदा ही इस्तेमाल के लायक था। पास के गाँव का एक लड़का मंगल बंगले की देखभाल के लिए था। उसकी बूढ़ी और एक आँख से अंधी माँ मेरे लिए खाना बना दिया करती थी।
पहले दिन आया तो सारा दिन बिजली नहीं थी। बारिश लगातार हो रही थी। मंगल ने बताया था कहीं बहुत बड़ा पेड़ गिरा है और अगले दिन तक बिजली आने की कोई संभावना नहीं थी। सात बजे से पहले ही रसोई निबटा कर माँ-बेटा अपने गाँव चले गए थे। मैंने खाना ढँक कर रखने के लिए कह दिया था। इतनी जल्दी खाने की मेरी आदत नहीं थी।
नौ बजे के आसपास खाना खा कर मैं मोमबत्ती की रोशनी में देर तक पढ़ता रहा था, एक भयंकर ज्वालामुखी की कहानी ‘दी लास्ट डेज ऑफ पोमपेई’जिसने एक पूरी सभ्यता को कभी जला कर राख कर दिया था! पढ़ते हुये ना जाने कब मेरी आँख लग गई थी। उस सारी रात मैं अजीबोगरीब सपने देखता रहा। सपने में एक लगभग पूरा टूट चुका पुराना चर्च मुझे दिखता रहा। गोथिक शैली का। सपना इतना जीवंत था कि उसका प्रभाव मुझ पर दूसरे दिन भी बना रहा। लगा वह वास्तव में कहीं होगा। सुबह मंगल से पूछा तो वह कुछ ठीक से बता नहीं पाया। बस इतना ही कहा कि आगे जंगल में एक पुराना काली मंदिर है जहां तांत्रिकों का आना-जाना लगा रहता है। मैंने खुद पता लगाने का सोचा और निकल पड़ा।
बिजली तब तक नहीं आई थी और बारिश रूक-रूक कर हो रही थी। उस दिन दोपहर तक मैं यहाँ-वहाँ भटकता रहा था और फिर चलते-चलते एक ऐसी जगह जा पहुंचा था जहां तक आ कर जंगल की संकरी पगडंडी अचानक खत्म हो गई थी। यहाँ से जमीन ढलवा थी और ऊपर की ओर एक पहाड़ी में तब्दील हो गई थी। जमे हुये लावे की स्याह, बेडौल पहाड़ी! उस पर उगे हुये बरसाती जंगलात का कच्चा हरा रंग अजीब कंट्रास्ट पैदा कर रहा था जो सुंदर होने के साथ रहस्यमय भी प्रतीत हो रहा था।उसकी ओर देखते हुये मेरी देह पर अनायास कांटे उग आए थे।
मैंने घड़ी देखी थी। शाम के चार बजने को थे। सुबह बाद छितरा चुके मटमैले बादल एक बार फिर पहाड़ी के माथे पर विशाल जुड़े की तरह इकट्ठा होने लगे थे। सूरज पश्चिम की ओर पहाड़ी के पीछे कहींउतर गया था। एक लंबी छाया घेरदार स्कर्ट की तरह सामने दूर तक तेजी से फैल आई थी। मुझे लगा था, अब लौटना चाहिए। नई जगह है। शाम भी तेजी से गिर रही। उसकी लाली घुले अंधकार में घनी झाड़ियों के बीच जुगनू के सुनहले सितारे रह-रह कर टीमकनेलगे थे।
बंगले में लौट कर देखा था, मंगल गेट पर मेरे इंतज़ार में परेशान-सा खड़ा है। मेरे हाथ से रेनकोट लेते हुये बोला था- मुझे तो बड़ी चिंता हो रही थी साहब! इतनी देर कहाँ रह गए! माँ कह रही थी आपको देख आऊँ। मैं निकलने ही वाला था। मंगल की माँ बरामदे में बैठी लानटेन की काँच साफ कर रही थी। अभी तक बिजली नहीं आई थी। मुझे देख मेरे लिए चाय बना लाई थी- मुझे तो डर था कि कहीं आप पुरानी बावरी की ओर तो नहीं निकल गए। अभी-अभी आए हैं इधर, फिर आज अमावस्या भी है...
“पुरानी बावरी! यह कहाँ है?” मैंने चाय की प्याली ले कर चुस्की भरी थी- अमावश्या है तो क्या हुआ? मेरे सवाल पर मंगल की माँ ने मंगल की ओर देखा था और मंगल ने उसे आँखों ही आँखों में चुप रहने का इशारा किया था। इसके बाद मैंने उन्हें और अधिक नहीं कुरेदा था। अंधेरा उतरने से पहले माँ-बेटा घर के लिए निकलने लगे तो ऐन वक्त बारिश शुरू हो गई। मैंने आग्रह कर मंगल को अपना रेनकोट पकड़ा दिया। उनके पास एक ही छतरी थी जिसकी कमान टूटी हुई थी। दोनों उस में आधा-आधा भीगते हुये जा रहे थे।
उनके जाने के बाद बारिश और तेज हो गई थी। साथ में हवा। पीछे कुएं की तरफ टीन की छत पर तरातर पड़ती पानी की बूंदों से अजीब शोर उठ रहा था। बंगले के अहाते में खड़े बीजू आम के टीकोरे टूट-टूट कर गिर रहे थे। कुछ देर बादओले भी गिरने शुरू हो गए थे। देखते ही देखते बगीचे की जमीन सफ़ेद हो गयी थी।
रात में डूब जाने से पहले की गहरी बैजनी रोशनी में उधर देखते हुये जाने क्यों मन अजीब-सा हो उठा था। लगा था, कितना अकेला हूँ। अनायास पंखुरी का चेहरा याद आया था। मलिन, रक्त शून्य... जैसे गभीर जल के तल से कुछ तैरता शनैः-शनैः ऊपर आया हो! जब भी मैं निश्चिंत-सा हो गया हूँ कि वह खत्म हो गई है मेरे भीतर से, कुछ इसी तरह अनायास मेरे सामने आ कर उसने मुझे हतप्रभ कर दिया है। नहीं जानता इससे आज खुश हुआ या दुखी। बस मन अवसन्न हो आया। लगा, कुछ चीजें शायद कभी नहीं खत्म होती, समय के चाक पर चढ़ कर और-और स्पष्ट आकार लेती जाती हैं।
जाने कितनी देर तक अंधेरे में चुपचाप बैठे रह कर मैं भीतर आ गया था। बरामदे के कोने में जलती लालटेन बहुत पहले बुझ गई थी। अंदर किचन में एक और लालटेन जल रही थी। उसी के पीले, क्षीण आलोक में खाया था और कपड़े बदल कर बिस्तर पर आ गया था। आज कुछ पढ़ने की इच्छा नहीं हुई थी। एक तो बिजली नहीं, ऊपर से दिन भर जंगलों में पैदल भटकने की थकान। परसों ऑफिस जॉइन करना था। उससे पहले थोड़ा व्यवस्थित होना जरूरी। सामान शायद कल तक पहुँच जाये। कल ट्रांसपोर्ट ऑफिस में एक बार पूछताछ करनी पड़ेगी... सोचते हुये जाने मैं कब सो गया था।
नींद में फिर वही कल का देखा सपना- टूटा हुआ गोथिक चर्च, उसके आसपास बिखरे हुये मलबे और घने जंगलात... रात भर नींद में बेचैन रहा। अलस्सुबह नींद टूटी तो देर तक बिस्तर पर लेटा चारों तरफ गूँजते पंछियों का कलरव सुनता रहा। शहरों में प्रकृति इतनी सजीव कहाँ होती है! मुंबई में सालों छींट भर हरियाली देखने को तरस गया था। सोचते हुये मुझे अचानक रात देखे सपने की याद हो आई थी और मैं झटपट तैयार हो घर से निकल पड़ा था। आज मुझे वह चर्च खोज निकालना ही है। वरना पागल हो जाऊंगा! ऐसा सोचते हुये एक बार भी मुझे यह ख्याल नहीं आया था कि सपने में देखे हुये को मैं वास्तविक जीवन में क्यों खोज रहा हूँ! इतना अनरीजनबल तो मैं पहले नहीं था!
रात भर की बारिश के बाद अब बादल छंट चुके थे और सुबह की मुलायम धूप में चमकते हुये पेड़-पौधों से अनवरत पानी की बूंदे टपक रही थीं। आकाश में जंगली तोते झुंड की झुंड पश्चिम की ओर उड़े जा रहे थे। जंगल की ओर जाती पगडंडी में उतर कर देखा था, हर तरफ झरे हुये पत्ते और गुलमोहर के फूल बिखरे पड़ेहैं। रात भर महके किसी जंगली फूल की बासी गंध से हवा अलस थी। सुबह-सुबह पेड़ से ताड़ी उतारते हुये ग्रामीणों ने मुझे कौतुक से देखा था। एक ने पूछा भी था- बाबू! पुरानी बावरी की ओर जा रहे हैं? मैं हंस कर टाल गया था- बस, इधर ही...
बारिश के बाद उठी तेज धूप से ऊमस और गर्मी बहुत बढ़ गई थी। जमीन से जैसे भाप उड़ रहा हो। पूरा जंगल तरह-तरह के पंछियों के कलरव से गूंज रहा था। जाने मैं कितनी देर चला था जब मुझे दूर से वह बावरी दिखी थी। कंटीली झाड़ियों के बीच यहाँ-वहाँ से झाँकती ढहती दीवार की ईंटें और आसपास फैले मलबे की ढेर। पास जाते ही दो किशोर लड़के हड़बड़ा कर सीढ़ियाँ फाँदते हुये बाहर निकले थे और जंगल में अदृश्य हो गए थे। मैंने उन्हें पीछे से पुकारा था मगर वे रुके नहीं थे।
बावरी में झांक कर देखा था, बावरी सूखी हुई थी। नीचे तलछट में कीचड़-सी चमक रही थी। यहाँ-वहाँ से दीवार फोड़ कर पीपल निकल आया था।उनकी लाल, किरमीची पत्तियाँ नन्ही हथेलियों की तरह रह-रह कर आँखों में आईना चमका रही थीं। चारों तरफ सीढ़ियों पर बीयर की खाली, टूटी बोतलें, कैनस, सिगरेट, कंडोम के पैकेट्स, माचिस की जली तिलियाँ और रैपरस बिखरे पड़े थे। कबूतरों की झुंड आले और खोह में निश्चिंत बैठे गुटरगूँ कर रहे थे। मेरी आहट गूंजी तो घबरा कर सब के सब एक साथ उड़ने लगे थे। बावरी का भायं-भायं करता सन्नाटा एकाएक उनके फरफराते पंखों की ध्वनि-प्रतिध्वनि से गूंज उठा था।
इस उजाड़ के एकांत में मैं एक बार फिर निसंग हो आया था। प्राचीन मंदिर के गर्भ गृह में उमड़ती-गुमड़ती धूप की सुगंध की तरह किसी की अपने आसपास पल-प्रतिपल महसूस की जाती देहातीत उपस्थिति किस तरह हर जगह अकेला कर देती है... देर तक किसी शैतान बच्चे की तरह बावरी में पत्थर मार-मार कर वहाँ बसे कबूतरों, गिलहरियों की शांति भंग कर मैं निकल आया था।एक हिंसक संतोष के साथ भीतर उथल-पुथल भी थी,इस आवारगी का जाने कहाँजा कर अंत होगा...
घड़ी में समय देखा था, दस बजे थे। अभी आराम से तीन, चार घंटे घूमा जा सकता है। आकाश सफेद, मटमैले बादलों से भरा हुआ है। धूप बेहद तेज है। कहीं एक जंगली नाला कल रात भर हुई बारिश से उफन कर बेग से बह रहा है। उसकी अनवरत झर-झर हल्की गुनगुनाहट की तरह गूंज रही है। रह-रह कर टौकन बोल रहा है। किसी कठ फोड़वा की एकसार ठक-ठक निबिड़ जंगल के गूँजते सन्नाटे को और-और गहरा किए जा रही है। मकड़ी के जालों और मिट्टी की ढूहों से निकली चींटी की कतारों से बचते हुये मैं चलता रहा था। आगे चल कर बीर बहूटी के जत्थे मिले थे, लाल मखमल की नन्ही-नन्ही बूंदों की तरह यहाँ-वहाँ फैले हुये।
संकरी पगडंडी पर झुके जंगलात को हटाने के लिए मैंने एक छ्ड़ी ढूंढ ली थी। जूतों के नीचे चरमराते सूखे-गीले पत्तों की आवाज से चौंक कर एक जंगली सियार झाड़ियों से निकल कर हड़बड़ा कर भागा था। एक गिरगिट ने अपने सिंदूरी माथे पर उबली आँखों को गोल-गोल घूमा कर मुझे ध्यान से देखा था। माथे पर छाये शाल की टहनियों को झिंझोरते हुये एक बंदर के कूदते ही चारों तरफ ‘हूप-हूप’ का शोर जाग उठा था।
देर तक चलते हुये मैं खुले में आ गया था। एकदम से तेज धूप में आँखें चौधियाँ गई थीं। आँख मिचमिचाते हुये देखा था,सामने वही संकरी पगडंडी साँप की तरह टेढ़ी-तिरछी हो कर ढलान चढ़ रही थी। आज बिना कुछ सोचे मैं बढ़ता गया था। उस समय दोपहर के 12 बजे थे।
एक छोटे-से पहाड़ी बांक पर मुड़ते ही मुझे वह प्राचीन, लगभग जमीनदोज शहर दिखा था जिसके लगभग बीच में वह प्राचीन चर्च एक तरफ ढहता हुआ खड़ा था! देख कर मैं हैरान रह गया था! मेरा सपना यहाँ सम्पूर्ण आकार में मौजूद था! एकदम वास्तविक। ईंट-पत्थर से बना हुआ, ठोस, स्पष्ट!
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