Sawal lahrati balkhati dedh sayani munchh ka in Hindi Comedy stories by राजीव तनेजा books and stories PDF | सवाल लहराती बलखाती डेढ़ सयानी मूँछ का

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सवाल लहराती बलखाती डेढ़ सयानी मूँछ का

सवाल लहराती…बलखाती ढेढ सयानी मूंछ का

आज घड़ी-घड़ी रह-रह कर मेरे दिल में ये अजब-गजब सा सवाल उमड़ रहा है कि जो भी हुआ..जैसा भी हुआ...क्या वो सही हुआ? अगर सही नहीं हुआ तो फिर सही क्यों नहीँ हुआ या फिर अगर यही सही था तो फिर यही सही क्यों था?
उस ऊपर बैठे परम पिता परमात्मा से ऐसी कौन सी जन्मजात दुश्मनी थी मेरी जो मेरे साथ उसने ऐसा भेद भरा बरताव किया? मुझे लड़की बनाने के बजाय लड़का बना आख़िर किस जन्म का बदला ले रहा है वो नामुराद मुझसे? अगर लड़की बना, इस दीन-हीन दुनिया में वो मुझे मौज-मस्ती कर…रुलने-भटकने के लिए अकेला छोड़ देता क्या घिस जाता उसका?
उसके इस बेतुके एवं बेमतलब के फैसले से उसका तो कुछ बिगड़ा नहीं और मेरा कुछ रहा नहीं। तबाह करके रख दी मेरी पूरी ज़िन्दगी एक ही झटके में उसके इस लापरवाही भरे विवेकहीन फैसले ने। चलो!…भूले से ही सही, मान लिया कि शायद भूल हो गई होगी उससे फैसला लेते वक्त, दिमाग भरमा गया होगा उसका। मेनका एवं रंभा सरीखी बार बाला रुपी..बेलगाम अप्सराओं के मन को मोहने वाले मादक एवं भ्रामक नृत्यों से वशीभूत होकर अपने होशोहवास में नहीं रह पाया होगा वो लेकिन मैं पूछता हूँ कि इस दुनिया से अगर एक लड़का कम हो जाता या फिर एक लड़की ही कहीं गिनती में पहले से ज़्यादा हो जाती तो कौन सी आफ़त ज्वालामुखी बन समूची दुनिया पे कहर बरसाते हुए बेरहमी से टूट पड़ती या फिर कौन सा ‘सुनामी' टाईप ज़लज़ला ही सीना तान…मुसीबत बन हमारे मचलते हुए बेसिरपैर के अरमानों पे पानी फेरने को द्रुत गति से बिना आव-ताव देखे आ टपकता?
तंग आ चुका हूँ मैं इस लड़के रूपी लडखडाते हुए आवारागर्द ठप्पे से…ये भी क्या बात हुई कि…ना कोई आन-बान और शान…फिर भी.. ‘मेरा भारत महान? उसके इस पक्षपात से भरे हुए परिपूर्ण रवैये को देखकर तो लगता है कि तकदीर ही फूटी है मेरी। मेरी क्या?…हम सब लड़कों की जो हमारी किस्मत में दुःख ही दुःख लिख डाले हैं उस बेमुर्रव्वत ने अपनी लेखनी की दिव्यजोत कलम से।
हाँ!…तकदीर ही फूटी है अपुन भाई लोगों की जो भांग का गोला निगल हमारी किस्मत में काम ही काम और इन कम्भख्त मारियों कि किस्मत में...आराम ही आराम लिख डाला है उस परम पिता परमात्मा ने। खैर!…वो तो चलो हमारा अपना…खुद का निजी भगवान है। अपनी असीमित एवं अलौकिक शक्तियों के चलते नाजायज़ होते हुए भी सब कुछ जायज़ है उसके लिए। उसके अख्तियार में है कुछ भी उलटा-पुलटा कर डालना लेकिन इन स्साले…मेट्रो वालों का क्या करूँ मैं? कैसे इनकी बदकरनी को इतनी आसानी से भूल जाऊं मैं? दिमाग से पैदल हो गए हैं स्साले सब के सब। अक्ल घास चरने चली गई है इनकी। दिमाग खराब हो गया है इनका। बिना फेरों के ही बाप बनने चले हैं हमारे। पागल के बच्चों ने बिना कुछ सोचे समझे पूरा का पूरा कोच ही इन बावलियों के नाम दे मारा कि “लो!…मौज करो?”…
“हुंह!..मौज करो"…
अरे!…मौज करना तो हम मर्दों का जन्मसिद्ध अधिकार है। इसमें आप लोग कहाँ से इंटरफियर करने को टपक गई? एक तो पहले से ही पिलपिले फुग्गे के माफिक हम जोशीले मर्द इनके नखरीले ज़ुल्म औ सितम से त्रस्त और पस्त हैं।ऊपर से इतनी दूरी और बना दी कि टच कर के भी अपने तड़पते दिल को सुकूं ना दे सकें। इसे कहते हैं छाछ के जले पे भुना हुआ सेंधा नमक तसल्लीबक्श ढंग से इस प्रकार छिड़कना कि ले बेट्टा...इब्नबतूता…पहन के जूता…हो जा यहाँ से फुर्र….फुर्र…फुर्र..फुर्र…फुर्र।
उफ़!…कैसी घटिया और वाहियात ज़िन्दगी जिए चले जा रहे हैं हम लोग? ये जीना भी कोई जीना है बिड्डू कि…जहाँ जाओ…स्साला…वहीँ ‘लेडीज़ फर्स्ट' का चमचमाता हुआ बोर्ड मुँह चिढ़ाने को आतुर दिखता है...बेताब दिखता है? उफ़्फ़...ये बिजली-पानी के दफ़्तरों की और सिनेमा हाल में टिकटों की लंबी-लंबी लाईनें। हर लाइन...हर पंक्ति पे बस अब तो तौबा करने को जी चाहता है।
मैं आपसे पूछता हूँ जनाब आपसे कि...हर जगह ये मुय्या ‘लेडीज़ फर्स्ट’ का ही बोर्ड क्यों टंगा नज़र आता है? क्यों नहीं इनसे पहले हमें हमारा काम करवाने को तरजीह मिलती? क्या ये लेडीज़ आसमान से टपकी हूरज़ादियाँ हैं और हम मरदूद गटर की पैदाईश?
“नहीं ना?”
“तो फिर हमसे ये भेदभाव भरा सौतेला व्यवहार क्यों?…किसलिए?”
यहाँ स्साला…बस में चढो तो लेडीज़ फर्स्ट। ट्रेन में सफ़र करो तो भी लेडीज़ फर्स्ट। आखिर!..होता क्या जा रहा है हमारी पूरी सोसाईटी...हमारे पूरे समाज को? जिसे देखो, वही तलवे चाटने को बेताब नज़र आता है। कोई इज्ज़त-विज्ज़त भी है कि नहीं? ऐसे मर-मर के…घुट-घुट के जीने से तो अच्छा है कि कहीं से शांत, सौम्य एवं शुद्ध टाइप का मिनरल वाटर मिल जाए बेशक बोतल दो बोतल ना सही...चुल्लू भर ही सही। तो उसी में टुब्बी मार....गंगा नहाते हुए मैं अपने जीवन की इहलीला समाप्त कर लूँ। लेकिन फिर ये सोच के मैं अपने इन दकियानूसी विचारों के बढ़ते कदमों को थाम लेता हूँ कि… “हे!…मूर्ख प्राणी, आज के इस पाल्यूटिड ज़माने में भी तू मिनरल वाटर की इच्छा कर रहा है? वो भी शांत…सौम्य एवं शुद्ध?”
“अरे!…इस निराशा और अवसाद भरे माहौल में औरों की तरह पगला तो नहीं गया है तू भी?
हाँ!...सच में, पगला ही तो गया हूँ मैं उन भ्रामक एवं आक्रामक नारों से कि…
“लड़के-लड़कियां सब बराबर हैं। कोई किसी से कम नहीं।“
अरे!...अगर कम नहीं हैं तो फिर ये एक्स्ट्रा फैसिलिटी किसलिए? हमारे साथ ये दोहरा मापदंड...ये सौतेला व्यवहार किसलिए?
समझ रहा हूँ..सब समझ रहा हूँ मैं इस घिनौने टाईप के शतरंजी षडयंत्र को…सब समझ रहा हूँ मैं। इस सब के पीछे हमारे अपने ही देश की अलगाववादी ताकतों का हाथ है ना? जो किसी भी कीमत पे ये नहीं चाहती कि यहाँ के औरत-मर्दों में एका हो और वो बड़े ही प्यार से आपस में बिना इक दूजे का भाव पूछे प्रेमालाप करते हुए मेलभाव से रहें।
लगता कि धारा 370 के तहत हुए कश्मीर के पिछले अलगाव से भी हमारे हुक्मुरानों ने कुछ नहीं सीखा जो बिना सोचे-समझे हम पर ये नया अलगाव थोप दिया? अच्छा भला दिखाई भी देता है कि इस अलगाव की वजह से आजतक वहाँ पर कोई उधोग, कोई धंधा नहीं पनप पाया और अब हमारे हुक्मुरान चाहते हैं कि इस मेट्रोतात्मक अलगाव की वजह से यहाँ दिल्ली के निवासियों में भी प्यार के नए पुष्प पल्लवित एवं विकसित नहीं हो पाएं। चलो!...माना कि धारा 370 वाले पंगे को चाहे डंडे के ज़ोर पर सुलझा लिया गया मगर इस..मेट्रो की मामले में कब अक्ल आएगी इन्हें? कहीं ये सब किसी विदेशी साजिश का नतीजा तो नहीं? अगर नहीं तो फिर ये बेकार का…निचले दर्जे का पक्षपात क्यों? हमारे साथ ये घिनौनी साजिश...ये ओछी विचारधारा क्यों? किसलिए?

हम मर्दों के साथ ऐसा...निचले...दोयम दर्ज़े का पक्षपात पूर्ण रवैया देख कर एक तरफ तो दिल करता है कि अभी के अभी ख़ुदकुशी कर लूँ। क़ुतुब मीनार से कूद कर मर जाऊँ लेकिन फ़िर ख़याल आता है कि वही नासपीट्टी मेट्रो भी तो अब जाने लगी है वहाँ। चलो...तमाम तरह की नानुकुर के बाद भी अगर मैं किसी तरीके के वहाँ पहुँचने में कामयाब हो भी गया तो इस बात कि क्या गारैंटी है कि क़ुतुब मीनार से कूदने के लिए मुझे वहाँ लाइन में नहीं लगना पड़ेगा? और चलो अगर लग भी गया तो क्या गारैंटी है कि मेरा नंबर वहाँ ख़ुदकुशी करने वालों की लाइन में लगी सब औरतों के काम तमाम हो जाने से पहले ही आ जाएगा?
ना…बाबा ना…इतना सब्र नहीं है मुझमें कि मरने के लिए भी लाइन में लगूं और फिर इंतज़ार करूँ तमाम औरतों के तसल्लीबक्श ढंग से पूर्ण स्वाहा हो…निबट जाने का। उफ्फ!..कैसा बेदर्द ज़माना आ गया है? कोई यहाँ चैन से मरने भी नहीं देता।
एक मिनट…ओह!...एक मिनट,य्य्य..ये क्या होता जा रहा है मेरे दिमाग को? ये कैसी उलटी सोच सोचने लगा हूँ मैं?
जिस तरह हम लड़के सरेआम गुण्डागर्दी करते फिरते हैं । क्या वो सब लड़की बनने के बाद मैं कर पाऊँगी?

"नहीं!..."
जिस तरह किसी ज़माने में पति के मरने के बाद उसकी विधवा को जलती आग में झोंक सती कर दिया जाता था। क्या उसी तरह मैं खुद…अपने सती होने की कल्पना भी कर पाउंगी?
"नहीं!..."
हम तथाकथित मर्द लड़की के पैदा होने से पहले ही उसे पेट में ही खत्म कर डालते हैं। क्या वैसा मैं अपनी होने वाली औलाद के बारे में सोच भी पाऊँगी?
"नहीं!..."

हम में से बहुत से मर्द अपनी लड़कियों को पढ़ाने-लिखाने के बजाए,घर बिठा उनसे चूल्हा-चौका करवाने में राज़ी हैं। क्या वैसा मैं अपने या अपनी बच्ची के बारे में सोच भी पाऊँगी?

"नहीं!..."

क्या मैं सरेआम किसी लड़की का चलती ट्रेन या बस में बलात्कार कर पाऊँगी?
"नहीं!..."

राह चलते जिस बेशर्मी से मैं आज तक लड़कियों को छेड़ते आया हूँ,
ठीक उसी बेशर्मी के साथ क्या मैं किसी लड़के को छेड़ पाऊँगी?

"नहीं!..."
जिस तरह हम मर्द आज तक औरत पे हाथ उठाते आए हैं, क्या लड़की बनने के बाद मैं ऐसा मर्दों के साथ कर पाऊँगी?

"नहीं!..."


क्या मैं किसी मर्द को अपने पैरों की जूती बना पाऊँगी?

"नहीं!..."

मेरे हर सवाल का जवाब सिर्फ़ और सिर्फ़ 'ना' में था। आखिर!..ऐसी सोच मैं सोच भी कैसे सकता था? जानता जो था कि आज तक जो-जो होता आया है, सब ग़लत होता आया है लेकिन अपनी 'मूँछ' को बताओ कैसे मैं नीची हो जाने देता? मैं भी तो आखिर एक मर्द ही था ना?
इसलिए लड़की बनने का फितूर अब दिमाग़ से पूरी तरह उतर चुका है। उनको अलग कोच मिला है तो ये उनकी किस्मत। आगे...और भी अगर कुछ मिलता है तो बेशक मिलता रहे। मुझे टट्टू फर्क पड़ता है? क्योंकि जैसा कि आपने देखा कि इस सारी कशमकश के बीच मेरी लहराती…बलखाती डेढ़ सयानी मूंछ बीच में अपनी एंट्री जो मार चुकी है।
***राजीव तनेजा***