Hone se n hone tak - 3 in Hindi Moral Stories by Sumati Saxena Lal books and stories PDF | होने से न होने तक - 3

Featured Books
Categories
Share

होने से न होने तक - 3

होने से न होने तक

3.

दूसरे दिन मैं सारे सर्टिफिकेट्स की प्रतिलिपि लेकर डिपार्टमैंण्ट गई थी। उन पत्रों पर सरसरी निगाह डाल कर हैड आफ द डिपार्टमैण्ट डाक्टर अवस्थी ने उन पर दस्तख़त कर दिए थे।

‘‘थैंक्यू सर’’ कह कर मैं पलटने लगी थी कि उन्होंने सिर ऊपर उठाया था, ‘‘आगे क्या इरादा है अम्बिका?’’

मैं रुक गई थी,‘‘जी नौकरी ढॅूड रही हूं।’’

उन्होने भृकुटी समेटी थी,‘‘क्यो रिसर्च नहीं करना चाहतीं?’’

‘‘जी। जी करना चाहती हॅू।’’ मैं हकला गई थी ‘‘पर..पर सर नौकरी तो मुझे करनी है।’’ मैं चुप हो गई थी। आगे उन्होने फिर सवाल किया तो क्या बताऊॅगी। अपनी व्यक्तिगत ज़िदगी पर उनसे बात नहीं की जा सकती। डिपार्टमैंट में दो साल रह कर भी डा.अवस्थी से सीधे बात करने का मौका तो कभी आया ही नही था। मैं चुपचाप खड़ी रही थी। डा. अवस्थी भी काफी देर से चुप थे जैसे कुछ सोच रहे हों। मैं समझ नही पा रही थी कि रुकूं या चली जाऊॅ, तभी उन्हांने मेरी तरफ देखा था,‘‘नहीं अच्छा है अगर रिसर्च से पहले एक दो साल टीचिंग कर लो। पढ़ाने से सब्जैक्ट के कान्सैप्ट अपने आप साफ होने लगते हैं। बहुत सी चीज़े अपने आप समझ आने लगती हैं। फिर रिसर्च करना बेहतर रहता है। आसान भी।’’ वे चुप हो गए थे।

‘‘जी।’’

‘‘हो जाना चाहिए तुम्हारा ’’उन्होने सोचते हुए गर्दन हिलायी थी ‘‘तुम्हारे पास तो फोर फर्स्ट हैं। आल थ्रू फर्स्ट क्लास हो न तुम।’’

‘‘जी ’’ डा.अवस्थी मेरे बारे में इतना जानते हैं। मुझे अच्छा लगा था।

‘‘कहीं एप्लाई किया है ?’’ उन्होंने पूछा था।

‘‘जी दो तीन नए खुले कालेजों मे अपना रिस्यूमें दे आई हॅू। बाकी अब बाहर एप्लाई करूगी।’’

‘‘देखो शहर में ढॅूडो। बाहर की यूनिवर्सिटी में उनके अपने स्टूडैन्ट होते हैं। टीचर्स का उनके लिए साफ्ट कार्नर होता है।’’

‘‘जी ’’

‘‘वैसे तुम्हारा रिकर्ड अच्छा है, पर फिर भी हो तो तुम सिम्पिल एम.ए. ही न।’’

‘‘जी ’’

अचानक जैसे उन्हे कुछ याद आया था,‘‘ओ हॉ!चन्द्रा सहाय डिग्री कालेज की नुज़हत फातमा रिज़वी चार महीने की छुट्टी जा रही हैं। है तो लीव वैकेन्सी ही पर तब तक ठीक है। मैं भी बात कर लूॅगा। हो सकता है वह पोस्ट रैगुलराइज़ हो जाए। यूनिवर्सिटी मे एक पोस्ट निकली है, तीन महीने बाद ख़ाली हो रही है। डाक्टर मिस रिज़वी ने भी उसमें एप्लाई किया है। इर्न्टव्यू हो चुका है। हो सकता है उनका यहॉ हो जाए। वैसे तो अनआफिशियल है यह बात...फिर भी। कालेज वालों को पोस्ट लीव वैकेन्सी की तरह ही देनी होगी इसलिए पोस्ट को लेकर वे बहुत फस नही करेंगे। वैसे भी लीव वैकेन्सी के नाम पर एक्सपीरियेन्स्ड कोई एप्लाई भी नहीं करेगा। केवल फ्रैशर्स ही एप्लाई करेंगे। वे सब तुम्हारे जैसे ही होंगे।’’

‘‘जी’’ मैं एकदम ख़ुश हो गयी थी। मैं समझ गई थी कि उनके इतना कहने का मतलब यही है कि डा. रिज़वी का चयन यहॉ हो चुका है। उन्होने नोट पैड सामने कर लिया था,‘‘तुम्हारा पूरा नाम अम्बिका सिन्हा ही है न ?’’

‘‘जी ’’मेरे स्वर में ख़ुशी और आभार छलकने लगा था।

पत्र लिख कर उन्होने वह कागज़ मेरे सामने बढ़ा दिया था ‘‘लिफाफे में रख लेना।’’

‘‘जी’’ मैंने प्रणाम में हाथ जोड़ दिए थे। अपना ‘‘थैंक्यू सर’’ बड़ा कमज़ोर सा उद्गार लगा था।

मैंने घर पहुच कर अपनी अर्ज़ी लिखी थी और अगले ही दिन मैं चन्द्रा सहाय डिग्री कालेज की प्राचार्या से जा कर मिल ली थी। उन्होने मेरे बायो डेटा और अर्जी पर सरसरी सी निगाह डाल कर उसे अपने पास रख लिया था। वे बहुत नानकमिटल सी लगीं थीं और मुझसे तीन दिन बाद साढ़े ग्यारह बजे आने के लिए कहा था। मुझे अजब तरह की बेचैनी होने लगी थी। एक अजब सी झुझंलाहट मन में भरने लगी थी। मुझे लगा था कि प्रिंसिपल ने तो मेरा बायोडेटा ठीक से देखा तक नहीं। मैं बड़ी उम्मीद ले कर आई थी। मैंने सोचा था कि वे डा.अवस्थी का पत्र देखते ही झट से मुझे नौकरी दे देंगी। पर मेरी सारी उम्मीदें तो जैसे अधर में लटकती रह गई थीं। एक तरह से मैं एकदम निराश महसूस करने लगी थी। संघर्ष की दुनिया में मैं नयी नयी बाहर निकली थी। शायद इसी लिए सत्य का कुछ पता ही नहीं था। यह तो बहुत साल बाद में समझ आया था कि मुझे तो नौकरी बहुत ही आसानी से मिल गयी थी। पर उस समय यही लगा था कि अभी तो न जाने कितने धक्के और खाने हैं। अपनी स्थितियों के कारण मैं तो एम.ए. करते ही नौकरी के लिए अधीर होने लगी थी।

मैं अब जीवन में व्यवस्थित होना चाहती हूं। सारी ज़िदगी भटकते हुए बीत गई है-एक हास्टॅल से दूसरे हास्टॅल ल। हाई स्कूल तक देहरादून का वैल्हम, इन्टर दिल्ली के जीसस एण्ड मेरी से और बी.ए. दिल्ली के लेडी श्री राम से..और एम.ए. के लिए लखनऊ चली आई थी। जो सुनता है वह हॅसता है ‘‘लोग हायर एजुकेशन के लिए दिल्ली जाते हैं और तुम दिल्ली से लौट आई हो।’’ मेरी ज़िदगी में तो बहुत कुछ उल्टा पुल्टा ही होता रहा है। ग्रैजुएशन का इम्तहान दे कर लखनऊ आ रही थी कि रास्ते में ही बुख़ार आ गया था और तबियत बिगड़ती ही गयी थी। ठीक होते होते दो महीने निकल गए थे। फिर भी पूरी तरह से ठीक कहॉ हो पाई थी। तब तक दिल्ली में तो फार्म भरने का समय ही निकल चुका था। वैसे भी वहॉ दाख़िले के लिए इतनी ज़्यादा भाग दौड़ करनी होती है कि इस कमज़ोर शरीर को लेकर उतना दौड़ पाना मेरे लिए संभव ही नही था। सबकी यही राय हुयी थी कि पोस्ट ग्रैजुएशन लखनऊ से कर लो। कम से कम यहॉ तबियत बिगड़ी तो सब हैं तो। दिल्ली कौन दौड़ सकेगा भला। मैं नही समझ पाई थी कि वे सब मेरी बीमारी से चिन्तित थे या अपने झंझट से। जो भी हो सब मेरे बारे में सोंचते हैं यह कम है क्या। सबसे ज़्यादा तो यश। अपनी पढ़ाई पूरी करके यश लखनऊ लौट आए हैं और उन्होंने अभी अभी अपने परिवार के बिज़नैस को अपने पापा के साथ देखना शुरू किया है। मेरी तबियत से एकदम परेशान हो गए थे, ‘‘तुम्हारी पढ़ाई चाहे चले या छूटे, मैं ऐसे नहीं जाने दूगा।’’ और उसके बाद मैं ने कुछ सोचा ही नही था। चुपचाप यश के साथ यूनिवर्सिटी जा कर फार्म जमा कर आई थी। इतने सालो तक दिल्ली में रहने के बाद लखनऊ आती हूं तो पूरा शहर एकदम उदास और अंधेरा सा लगता है। धीमी गति से चलता हुआ। फिर भी यहॉ आ कर अच्छा लगता है। यही शहर अपना घर लगता है। वैसे भी कुछ घरों की दीवारें तो मिलती हैं-बुआ-चाचा और आण्टी का घर-भले ही इनमें कोई घर अपना न हो। सबसे अधिक तो अपने आस पास ही यश और उनके होने का एहसास।

तब मैं ग्यारह साल की थी जब मम्मी को कैंसर का पता चला था। उन के शरीर में वह जानलेवा बीमारी तीसरी स्टेज तक फैल चुकी थी। उनको जैसे अपने लिए सोचने का समय भी नही मिला था। बम्बई जाने से पहले का वह पूरा हफ्ता वे मकान,लॉकर और बैंक के रूपयों का हिसाब किताब करने में भागती रही थीं। बुआ फूफा उन दिनों अमरीका में थे। निकट संबधियों के नाम पर उन दिनो लखनऊ में पापा के कज़िन महेश चाचा और चाची भर ही रहते थे। चाची ने मॉ को समझाया था कि,‘‘इस मकान और पैसे की ज़िम्मेदारी हम लोगों को मत दीजिए जिज्जी। इनके मन में कोई बेईमानी नहीं पर यह हिसाब किताब में कच्चे हैं। वैसे भी व्यापार वाले इंसान-बाद में भर देंगे-दे देंगे सोच कर कहीं खर्चा कर दिया और नही दे पाए तो ठीक नही रहेगा। वैसे भी यह जल्दी ही दुबई शिफ्ट करने की सोच रहे हैं। मॉ उनकी बात झट से समझ गई थीं। मॉ को मामा के प्यार और ईमानदारी दोनो पर भरोसा था। पर वे अम्बिकापुर में थे और वे नहीं चाहती थीं कि मुझे लखनऊ से हटाया जाए। मॉ मुझे वहॉ नही भेजना चाहती थीं। छोटा शहर-वहॉ के पिछड़े स्कूल और मामा मामी की सौ साल पुरानी सोंच। मामी के लिए लड़कियों की एजूकेशन का कोई ख़ास महत्व नही है। जैसे भी उल्टा सीधा बी.ए.,एम.ए. कर लो,काफी है। आण्टी मॉ की बचपन की दोस्त थीं। मॉ ने सारे कागज़ो की दो प्रतियॉ करायी थीं। एक बैंक के लाकर में और एक आण्टी को सौंपकर उन्हें मॉ ने मेरा गार्जियन बना दिया था।

मॉ इलाज के लिए बम्बई चली गयी थीं। उन्हें छोड़ने के लिए स्टेशन पर बहुत से लोग आए थे। आण्टी, पास पड़ोसी और शहर में रहने वाले रिश्तेदार भी। मेरे बहुत कहने पर भी वह मुझे अपने साथ बम्बई नहीं ले गई थीं,‘‘मुझे अस्पताल में ही रहना है बेटा। उससे पहले मीरा मौसी के घर उतरूॅगी। उनका छोटा सा घर है। कभी तो उनसे आना जाना रखा नहीं है। अब अपने मतलब से जा रहे हैं सो ऐसे पूरा कुनबा लेकर कैसे चले जाऐं। तुम्हारे मामा मामी भी पहुच रहे हैं। उनका आना ज़रूरी है। आप्रेशन के बाद मेरी पूरी देख भाल तो मामी को करनी है। एक एक जन से काम बढ़ता है और एक एक जन से ख़र्चा। आख़िर उन पर कितना बोझा डाल दें। फिर हम अस्पताल चले जाऐंगे तो तुम क्या करोगी उनके घर पर। परेशान ही होगी जा कर।

मैं आज इतने सालों बाद सोचती हूं कि वे किस तरह से अपने आप को उतना सहज रख सकी होंगी। जिस तरह से वे पूरा हिसाब किताब निबटा कर गयी थीं उससे अब समझ पाती हूं मैं कि वे यह बात अच्छी तरह से समझ गई थीं कि उनका लौटना नहीं होगा। फिर भी आंखों में कोई ऑसू नहीं-आवाज़ में कोई कंपन नहीं-कोई उतार चढ़ाव नहीं-मेरी तरफ भर ऑख देखा तक नहीं था। स्टेशन पर खड़ी मॉ कैसी वैरागिन जैसी लग रहीं थीं-कोई राग,ममता, व्यथा कुछ भी नहीं। पत्थर के बुत सा तराशा साफ सुन्दर चेहरा। क्या रहा होगा उनके मन में-सारे काम निपटा के ज़िदगी की यात्रा का अंत। सबसे बात करते उनकी निगाह एक दो बार मेरे ऊपर पड़ी थी-उस क्षणांश न जाने क्या कौंधा था उनकी ऑखों में-पर अगले ही पल शॉत। मैं इंतज़ार ही करती रही थी कि अब वे मुझे अपने सीने से लगाऐंगी पर वे तो मेरी तरफ बिना देखे डिब्बा चढ़ गयी थीं।...और मैं! मौके की भयावहता को समझ कर भी पूरी तरह से कहॉ महसूस कर पा रही थी। ऐसे ही गुम्म सी खड़ी रही थी। ट्रेन छूटने के बाद चाची बहुत रोयी थीं। उन्होंने मुझे अपने सीने से लगाया तब रोयी थी मैं और रात में उन्हीं के सीने से लग कर सो गयी थी।

मॉ नहीं लौटी थीं।

सबकी समवेत राय से घर को किराए पर उठा दिया गया था-ऊपर नीचे अलग किराएदार। अप्रैल में उन का निधन हुआ था और जुलाई में मुझे देहरादून के हॉस्टल भेज दिया गया था। मुझसे तीन साल बड़े यश दून स्कूल में पढ़ रहे थे और वैल्हम में आण्टी की भतीजी। आण्टी ने मुझे भी वहीं भेजने का निर्णय ले लिया था। मुझे ऐसा लगा था कि बहुत बड़ी दुनिया में मुझे बेसहारा और अकेला फेंका जा रहा हो जैसे। तब यश को भी बस जानती भर ही तो थी। कभी मॉ के साथ आण्टी के घर जाते थे तो उनसे मिलना भर ही तो होता था। उस पहचान में निकटता तो मैंने कभी भी महसूस नही की थी। मॉ दुनिया में नहीं रही थीं। मुझसे तो घर भी छिन गया था। विरोध करने की स्थिति में मैं नहीं थी। पर मैंने बेहद हताश महसूस किया था। शायद अपमानित भी। जैसे मेरे सब अपनों नें मुझे अपने घर का दरवाज़ा दिखा दिया था। मैं जाने से पहले कई दिन तक रोती रही थी। सहगल अंकल ने आण्टी को समझाया था,‘‘बच्ची अभी अपनी मॉ के शॉक में है। ऐसे में स्कूल का बदलना उसके लिए दूसरा शॉक होगा। मुझे लगता है अभी एक दो साल उसे लखनऊ में ही रहने दो।’’

पर आण्टी सब कुछ तय कर चुकी थीं।

Sumati Saxena Lal

Sumati1944@gmail.com