Nirvan - 3 - last part in Hindi Moral Stories by Jaishree Roy books and stories PDF | निर्वाण - 3 - अंतिम भाग

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निर्वाण - 3 - अंतिम भाग

निर्वाण

(3)

भगवान अफरोदित के प्राचीन मंदिर के गलियारे में यूलिया अपने सर पर तारों का मुकुट पहने सालों से बैठी है मगर अब तक उसे किसी पुरुष ने पैसे दे कर नहीं खरीदा है क्योंकि वह अन्य अभिजात महिलाओं की तरह गौर वर्ण और सुंदर नहीं है। संभ्रांत महिलाए अपने दास-दासियों के साथ रथ में सवार हो सुंदर परिधानों में आती हैं, आते ही उनके आसपास देह लोलुप पुरुषों की भीड़ लग जाती है। कोई बढ़ कर “मैं तुम्हें देवी मयलिटा के नाम से सहवास का निमंत्रण देता हूँ” कह कर उसकी गोद में कुछ सिक्के रख देता है और वह उठ कर ऊसके साथ किसी निर्जन स्थान की तरफ चल देती है। मूल्य चाहे कितना भी कम दिया गया हो, मूल्य चुकाने वाला पुरुष चाहे जो कोई भी हो, कुत्सित, बीमार, अधेड़- वह मना नहीं कर सकती। ऐसा करना अपने ईश्वर का अपमान करना होगा। बेबीलोनिया की हर स्त्री को अपने जीवन काल में एक बार वेश्या बन कर अपनी देह बेच कर भगवान के लिए पैसा कमाना पड़ता है। यह उनका धार्मिक कर्तव्य है।

यूलिया अपने घर लौटना चाहती है। उसे अपनी बेटी मेहान की याद आती है जिसे उसकी छोटी-सी उम्र में एक दिन छोड़ कर आना पड़ा था। और उसका पति... उसे तो शायद अब उसकी याद भी ना आती होगी। आत्मा की मुक्ति तो शायद मुमकिन हो, मगर इस स्त्री देह से मुक्ति कभी नहीं! बाजार में तो बिक ही रही है वह, अपने भगवान के मंदिर में भी युगों से गिरवी पड़ी है। रिवाजों के नाम पर।

मंदिर के लंबे गलियारे में हजारों औरतों के बीच बैठ चंद सिक्कों के बदले खुद को किसी के भी हाथों बेचने का इंतज़ार करती हुई यूलिया आँसू बहाती है मगर उसके निष्ठूर भगवान का हृदय नहीं पसीजता! उसके बगल में बैठी प्रौढ़ इभान उसकी दयनीयता पर निर्ममता से हँसती है- गुलामी से छुटना है तो अपनी स्त्री देह से मुक्त हो पहले... फिर अनायास रो पड़ती है- मृत्यु के सिवा और कोई दूसरी मुक्ति नहीं हमारे लिए लड़की...

इस दुनिया में आने के बाद वह हमेशा से अपनी देह, अपनी मिट्टी की कैद में है। अब जान गई है, जब तक इससे सांस बंधी है, दासता की साँकलों से भी बंधी है। नाम, रुतबा, देश कोई भी हो, यथार्थ में वह हमेशा से गुलाम है- सायप्रस की प्राचीन मंडियों में कभी थोक के भाव बेची गई तो कभी इराक के धर्मान्धों ने पिंजरे में जानवर की तरह कैद किया। प्राचीन सुमेर में देवी इश्तर के पवित्र मंदिर में ‘अकितु’ त्योहार के दौरान प्रधान पुजारिन की हैसियत से प्रेम की देवी इनन्ना को प्रसन्न करने के लिए राजा की अंकशायिनी बनना पड़ा। हिब्रू बाइबल में वेश्या की जगह ज़ोनाह, केदेशाह के नाम से जानी गई, भारत में देवदासी, नगर वधू! रोम, ग्रीस, चीन... हर देश, हर युग में... कहीं दुत्कार और जिल्लत मिली तो कहीं खूब सम्मान, दौलत! मगर रही वह वही- भोग्या, वेश्या, दासी... क्या घर-बाजार, क्या देवालय-दरबार!

इन दिनों बैंकॉक के देह बाज़ारों में घूमते हुये मुझे अक्सर भगवान अफरोदित के मंदिर में युगों से बैठी यूलिया की याद आती है। जाने उसकी देह का ऋण कब चुक पाएगा, जाने उसकी प्रतीक्षा कब खत्म होगी... युद्ध, गरीबी और पर्यटन का सीधा प्रभाव देह व्यापार पर ही पड़ता है तभी तो पूरी दुनिया एक बाज़ार में तब्दील होती जा रही है!

युवासक के साथ घूमते हुये बैंकॉक के रेड लाइट डिस्ट्रिक ‘कोई समोई’ के एक ‘गो-गो’ बार में एक दिन मुझे अचानक से माया मिल गई थी। उसी दिन जाना था, वह देह का धंधा करती है। सीधी-सादी-सी माया को तंग, छोटे कपड़ों और गहरे रंग-रोगन से पुते देख कर अजीब लगा था। भीतर कुछ अनायास दरक-सा गया था। जिसे मैं जाने किस-किस जगह ढूँढता फिर रहा था, वह मुझे बीच बाजार मिल गई गई थी। मेरा दुर्लभ आकाश-कुसुम दरअसल देह-मंडी में चंद ‘बहत’ के बदले रोज-रोज बिकने वाला एक सामान मात्र था! बहुत तकलीफ हुई थी, उस सारी रात जाने कैसी-कैसी अनुभूतियों से गुजरा था, कभी तपती रेत, कभी नागफनी का जंगल, कभी खारा पानी का दरिया... लगा था, किसी ने जान की नस काट कर छोड़ दिया है। गले से भल-भल बहता रक्त और सांस की खिंचती-टूटती डोर... जाने किससे बेहद नाराज था, जाने किसने छला था मुझे! मगर आखिर तक बची रह गई थी मेरे भीतर दो उदास, खूबसूरत आँखें- माया की आँखें! उस दिन जाना था, प्रेम धुर मरुभूमि के आकाश का कोई उजला सितारा जैसा होता है, रेत की अंधी करती सूखी, भूरी बारिश में हाथ पकड़ कर घर तक ले आता है! खोने नहीं देता उसके तिलस्मी ढूहों के घने जंगल में...

मुझे माया को-खुद को-अपने प्रेम को एक अवसर देना ही था! जुर्म जाने बिना कोई सजा ना मैं माया के लिए तय कर सकता था, ना खुद के लिए! तो गया था उसके पास, बेहद बोझिल कदमों से, इस उम्मीद और प्रार्थना के साथ कि बैरंग लौटना ना पड़े।

उस दिन माया की आँखें नम हो आई थी कहते हुये- मुझे तुम्हारी आँखों में प्रेम दिखा था आकाश, मेरे भीतर दाने बांधते किसी वर्जित फल की तरह ही! इसलिए डर गई थी... हमारे रिश्ते का कोई भविष्य नहीं हो सकता था! मन की अमूर्त यातनाओं के घनीभूत होने से पहले ही भाग छुटी थी, शायद खुद से ही! मगर दूर तक दौड़ते चले जाने के बाद समझ आया, खुद से रिहाई संभव नहीं! उस दिन हम साथ रोये थे, पराजित-से होकर। लगा था, इस हार में ही हमारी जीत छिपी है कहीं...

माया ने बताया था, यहाँ की अधिकतर वेश्याओं की तरह उस पर भी उसके पूरे परिवार की ज़िम्मेदारी थी। यह सब करने के लिए वह विवश थी।

आगे चल कर माया की विवशता मेरे भी जीवन की सबसे बड़ी विवशता बन गई थी। तकलीफ भी। वह मेरे सामने अपने ग्राहकों के साथ जाती, मैं दूर से देखता रहता। अपने परिवार की देख-भाल के लिए उसे जितने पैसों की जरूरत थी, उसे देने के लिए मेरे पास उतने पैसे नहीं थे। उसने कहा था, अगर मैं उसकी आर्थिक मदद करूँ, वह यह काम खुशी-खुशी छोड़ देगी। मैंने घर से कुछ पैसे मंगाए थे, अपने उपन्यास के लिए मिली पेशगी भी उसे दे दिया था। मगर उसकी जरूरतें बहुत ज्यादा थी। दस मुंह खाने के लिए उसके सामने दिन-रात खुले रहते थे। पहली बार जाना था, पैसा इतना जरूरी होता है! सिक्के खुशी पर भारी पड़ते हैं।

उन क्षणों की यंत्रणा शब्दों में व्यक्त नहीं हो सकती जब आप जानते होते हैं कि जिससे आप प्यार करते हैं, वह किसी के साथ आपकी आँखों के सामने कमरे में बंद है! प्रेम कितना विवश, कितना बलनरेबल कर देता है इंसान को! किस तरह के सौदे-समझौते करवा लेता है उससे... सिर्फ बल ही नहीं देता, इसके ठीक उलट बलहीन भी कर देता है।

बहुत अपमानजनक था यह सब। मैं माया से दूर नहीं जा सकता था मगर यहाँ एक-एक पल काटना मेरे लिए कठिन हो गया था। अक्सर यह होता कि सारी रात ग्राहकों के साथ बीता कर माया निढाल-सी बिस्तर पर पड़ी रहती और मैं उसके बाल सहलाते हुये उसके सरहाने निःशब्द बैठा रहता। मैं चाहता था, माया को ले कर इस बाजार की गंदी दुनिया से कहीं दूर चला जाऊँ, उसे हर तकलीफ, आघात से बचाऊँ। मगर मैं उसके साथ इस नरक में जीने के लिए अभिशप्त था। मेरी एकमात्र हासिल माया की वो दो आँखें थीं जिनमें मेरे लिए ढेर-सा प्यार और यकीन हुआ करता था। उसने कहा था एक बार मुझे, मैं उस दिन भीतर से औरत बनूँगी जिस दिन तुम मुझे अपनाओगे... तुम्हारे स्पर्श से एकदम नई-कोरी हो जाऊँगी! मुझे भी उस दिन का इंतज़ार था जब मैं उसे यहाँ से ले जा सकूँगा, सिर्फ अपनी बना कर!

एक कॉल गर्ल हो कर भी उसका मेरे साथ बेहद संकोची होना अब कुछ-कुछ समझ आने लगा था मुझे। कई बार कहा भी था, अपने भगवान को बासी फूल नहीं चढ़ाता कोई। एकदम जूठी, गंदी हूँ मैं! मैं इस तरह से नहीं सोच सकता था उसके लिए। मगर देह के इस बाजार में मेरा भी मन देह से विरक्त रहता था। किसी दिन इन सब से परे उसे ले जाने के इंतजार में था मैं।

मगर फिर एक दिन अचानक मैं ही माया को छोड़ देश लौट आया था। उसके आंसू, मिन्नतों का कोई असर नहीं हुआ था मुझ पर। मैं जैसे अपने आप में नहीं था। घटनाओं की आक्सिमिकता ने सोचने-समझने की शक्ति एकदम शून्य-सा कर दिया था।

क्रिस्मस के अवसर पर दो दिन की छुट्टी ले कर हम मेकोंग नदी से होते हुये सामुई समुद्र तट गए थे। वहाँ भीड़ भरे बाजार और शोर-गुल से दूर प्रकृति की गोद में निश्चिंतता का कुछ समय हमें एक-दूसरे के बहुत करीब ले आया था और उन्हीं आंतरिक पलों में मुझे पता चला था, माया दरअसल एक ‘लेडी बॉय’ अर्थात स्त्री के भेष में पुरुष है! यह शॉक मेरे लिए असहनीय थी। माया रोती रही थी कि वह मन से स्त्री है और मुझसे सच्चे हृदय से प्यार करती है मगर यह सब सुनने-समझने की स्थिति में मैं नहीं था। दूसरे ही दिन प्लेन पकड़ कर भारत लौट आया था। मगर लौटने से ही क्या लौटना होता है!

खुद को माया के पास हमेशा के लिए रख कर मैं अपना शरीर एक सामान की तरह यहाँ ढोता फिरा था एक लंबे अरसे तक। कुछ जैविक क्रियाओं के सिवा अब जैसे मुझ में और कुछ नहीं रह गया था। मैं भी नहीं! मेरे दुख, हताशा, माया के प्रति एक प्रछन्न गुस्सा मेरे प्रेम को हर क्षण जीलाए हुये था, उस में ईधन का काम कर रहा था। मेरा उसे भुलाना दरअसल उसे याद करना ही था, बहुत जल्द मैं इस बात को समझ गया था।

मुंबई में कुछ महीने इधर-उधर निरुद्देश्य भटकने के बाद मैं बौद्ध गया चला गया था। मुझे शांति चाहिए थी। अपने भीतर रात-दिन जलने वाली आग के भीषण ताप को सहन करना अब मेरे वश में नहीं रह गया था। लगता था, एक धू-धू जलती चिता हूँ!

मगर वहाँ जा कर कुछ दिन भटकने के बाद लगा था, शांति अगर अपने भीतर नहीं है तो कहीं नहीं है। यह भागते फिरना दरअसल एक कस्तूरी मृग के भटकाव की विडंवना-सी है।

और फिर एक दिन बौद्ध गया के महाबोधि मंदिर में घूमते हुये मेरी मुलाक़ात नकूल बोधिसत्व से हो गई थी! लगा था, यह कोई ईश्वरीय वरदान है। जीवन के दुखों और अपने भीतर के अंतहीन द्वंद्व और दुविधाओं से जब मैं त्रस्त भटकता फिर रहा था, बोध गया के इस पावन धरती पर जैसे किसी ईश्वरीय आदेश से ही नकूल बोधिसत्व मेरे सारे प्रश्न और शंकाओं के समाधान के लिए इस तरह आ खड़े हुये थे।

मार्च का वह एक बेहद गर्म, चमकीला दिन था। दोपहर की उष्ण हवा में सेमल के रेशमी फाहे उड़ते फिर रहे थे। जमीन झडे हुये पलाश से दूर-दूर तक लाल...

टहलते हुये हम महाबोधि मंदिर के पीछे 116 वर्ष पुराने 80 फीट ऊंचे विशाल बोधि वृक्ष के पास चले गए थे। पेड़ की फैली जटाओं की ओर देखते हुये नकूल बोधिसत्व बोलते रहे थे- राजकुमारी संघ मित्रा पुराने वृक्ष, जिसके तले 528 ईसा पूर्व बुद्ध को निर्वाण की प्राप्ति हुई थी, से एक पौधा निकाल कर श्री लंका ले गई थी। मौलिक वृक्ष के मर जाने के बाद फिर उसी पौधे से बने वृक्ष की एक डाल ला कर यहाँ लगाया गया जो आज इतना बड़ा, इतना सघन वृक्ष बन गया है- चेतना का अमर वृक्ष!

पेड़ की शाखाओं पर बंधी अनगिनत प्रार्थनाओं की पट्टियों की ओर देखते हुये मेरे भीतर भी जैसे अनायास एक छोटा-सा पौधा निकल आया था। जाने कैसी अनाम, अनचीन्ही उम्मीद से भरने लगा था मैं... नकूल बोधिसत्व बोलते रहे थे- यही, इसी पेड़ की छांव में उस जीवन से विरक्त राजकुमार को हजारों साल पहले माया से उनचास दिनों तक अथक लड़ाई लड़नी पड़ी थी, साथ ही कठोर तप, नौ वर्षों के लंबे उपवास के बाद...

सुनते हुये मेरी सांसें रुक-सी आई थीं। माया से मुक्ति! क्या मेरे भीतर का सारा संताप, सारे पलायन का अर्थ यही है- माया से मुक्ति... भीतर प्रतीकार में एक चीख उठ कर देर तक मंडराती रही थी। इस झूठ को उतार फेंकना है अपनी आत्मा से, और ढोया नहीं जाता!

मेरी सोच को सुनते हुये-से नकूल बोधिसत्व ने बहुत ठहरी आवाज में अचानक कहा था- तुम्हारी लड़ाई बहुत अलग है आकाश! माया तुम्हारा बंधन नहीं, तुम्हारी मुक्ति है! प्रेम से भागा नहीं जाता... मैं उस क्षण की अलौकिकता का बयान शब्दों में नहीं कर सकता। उनकी कही ये बात मेरा निर्वाण था, मेरा बोधिसत्व! भीतर तक थरथराते हुये मैं बस इतना ही कह पाया था- मगर वह... मेरी बात को काटते हुये वे उठ खड़े हुये थे- वह तुम्हारा प्रेम है बस इतना ही याद रखो! बाकी किसी बात का कोई अर्थ नहीं! झूठ हम दूसरों से बोलते हैं, खुद से नहीं!

528 ईसा पूर्व इस बोधि वृक्ष के नीचे निर्वाण प्राप्त कर गौतम बुद्ध को कैसा अनुभव हुआ होगा आज शायद मैं महसूस कर सकता था! वर्जनाओं की सारी सांकले एक झटके से टूट गई थीं जैसे। अब मैं माया को देख पा रहा हूँ, विशुद्ध प्रेम के रूप में! अब कोई शंका नहीं, दुविधा नहीं! मुझे उसके पास जाना है, अपनी मुक्ति, अपने गंतव्य के पास, हर रेखा, हर दीवार, सरहद को लांघ कर...

मैं भी एक झटके से उठ खड़ा हुआ था- मुंबई से थाईलैंड की फ्लाइट कितनी जल्दी मिल सकेगी, आज ही पता करना होगा मुझे!

जयश्री रॉय

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