हिन्द के निवासी अति वीर तनु धारी, धीर,ज्ञानी,बलिदानी अरु परउपकारी हैं!! तप, शोध, साधना से लोक कल्याण हेतु, त्याग के शरीर निज अस्थियां भी वारी हैं!! साहस में सिंह सम शौर्य साध शत्रुओं के , शीश को झुकाय सारी विपदायें टारी हैं जीव रक्षा हेतु जहाँ नृप देह दान करें, ऐसे त्यागियों से भरी धरती हमारी है। यही है वो देश जहाँ राम- कृष्ण जन्म लिए, जहाँ बुद्ध , महावीर जैसे वृतधारी हैं ! बार- बार जन्म मिले ऎसी वसुधा पे हमे , मात्र यही ईश्वर से प्रार्थना हमारी है !! द्वितीय। निज संस्कृति का दीप जलाकर अखिल विश्व का हर लें तम, आओ मिलकर राष्ट्रभक्ति की ऐसी ज्योति जलाये हम !! वैर भाव माध लोभ त्यागकर, प्रेम भावना दृढ़ कर लें, सुख पाना है ध्येय सभी का , हम सब मिलकर दुख हर लें , हम सब मिलकर दुख हर लें , जिस पथ का अनुगामी इस धरती का हर एक मानव हो , प्रेम भरी पावन मिट्टी का ऐसा मार्ग बनाये हम !! जैसे धरती हृदय चीरकर हमको पोषण देती है, और सूर्य की स्वर्ण रश्मियां नव प्रकाश भर देती हैं, नव प्रकाश भर देती हैं, जैसे मेघ गगन में उड़ कर जल निधि सब पर बरसाते, वैसे अपनी प्रेम सुधा हर मानव पर बरसाएं हम!! तृतीय क्या चरम सुख है? क्या चरम सुख है मनुज कब जान पाया, सृष्टि के इस प्रश्न का हल कौन अब तक खोज पाया? प्राप्त सुख में चरम सुख को खोजकर, मन भ्रमित होता सदा यह सोच कर, कब , किसे, कैसे भला यह भान होगा, या स्वयं अनुभूत इसका भी कोई उपमान होगा ? माँ के आँचल में छुपा था , या पिता की गोद मे, या अभावों से व्यथित पाया विषय के भोग में? भूख से व्याकुल मनुज को भोज के भंडार में, या तृषित को मधुर जल की प्राप्य अविरल धार में? दींन दुखियों को मिला आदर भरे व्यवहार में , या क्षणिक स्पर्श में था या प्रणय बौछार में? या कि जीवन मे मिला अंतिम सफलतम क्षणो में, या विजय में वीर को ही देशहित के रणो में? चरम सुख की चाह में जीवन जिया संघर्ष में , अंत मे पहुंचा मेरा मन मात्र इस निष्कर्ष में, सुख तो मन की भावना है अंत इसका है नही , भोग लिप्सा भरे जीवन मे चरम कुछ भी नही!! चतुर्थ हमारे धर्म और संस्कृति सदा हमको ये समझाएं चलें हम सत्य पथ पर ही, अनेकों कष्ट जब आएं!! अडिग होकर बनाये हम सदा जीवन सदाचारी, रहें हम दूर उनसे जो हैं पापी और अनाचारी, रहें हम दूर उनसे जो हैं पापी और अनाचारी, है पाया भाग्य से यह तन सफल जीवन ये कर जाएं!! वरण कर लें सभी के दुख सदा यह भाव मेंन में हो, प्रकट मुख से न हो पीड़ा अनेकों घाव तन में हों, प्रकट मुख से न हो पीड़ा अनेकों घाव तन में हों, न विचलित हम कभी हों और किंचित हम न घबरायें!! करें हम राष्ट्र की सेवा यही तो धर्म कहता है, लहू तो मातृभू का ही हमारे तन में बहता है, लहू तो मातृभू का ही हमारे तन में बहता है, मिलेगा यश उन्हें जो प्राण इसके नाम कर जाएं!!