बिद्दा बुआ
(2)
और सच ही सुबह गोपाल बिलकुल चंगा था. बुखार गायब था. अब तो उनकी दवा के गुण गांव में घर-घर गाये जाने लगे. उस दिन से वे केवल गोपाल की ही बुआ नहीं, सारे गांव की बुआ हो गयीं थीं. पहले विद्या बुआ, क्योंकि यही उनका नाम था, बाद में वे विद्या बुआ से हो गयीं बिद्दा बुआ. छोटा-बड़ा, जवान-बूढ़ा उन्हें इसी नाम से पुकारने लगे.
जब भी किसीके घर कोई बीमार होता, बिद्दा बुआ को बुलाया जाता, दवा पूछी जाती. लेकिन वे दवा कभी बताती न थीं. कभी-कभी केवल इतना कहतीं--"दवा तो तुम्हारे गांव के आस-पास के जंगल-बगीचों और खेतों में चारों तरफ---- दवा ही दवा है. लेकिन तुम लोग पहचानते जो नहीं हो. अरे, कितने ही मर्जों की दवा धनीराम के बगीचे में छैली गुरुचि, भैरों बाबा जाने के रास्ते पर फैली है ----लटजीरा, भटकटैया के फल, घी-कुंवर, गोखरू, और भी न जाने कितनी चीजों के वे नाम गिना जातीं जिन्हें सुन लोग कहते, "हाय बुआ, हम तो जनतै न रहन कि ई भी कोई दवा है." बुआ हंस देतीं और अपने पास से कुटी-पिसी जड़ी-बूटियों की दवा देकर कहतीं, "दवा तो देना ही, लेकिन ईश्वर पर विश्वास भी रखना,दुआ भी करनी चाहिए----- दवा और दुआ का असर जरूर होता है." लोग वैसा ही करते और मरीज ठीक हो जाता.
अजीर्ण, खांसी और पेचिश जैसी बीमारियों से ग्रस्त कितने ही मरीज उनकी दवा से ठीक हो गये. लेकिन वे कभी किसी ऎसे मरीज को हाथ नहीं लगातीं जो उनकी समझ से बाहर हो. उसे शहर ले जाने की सिफारिश करती हैं. इस बात की शिक्षा उन्हें अपने मामा से मिली थी, जिनसे उन्होंने जड़ी-बूटियों का उपचार सीखा था. मामा से ही उन्होने कुछ पढ़ना-लिखना भी सीख लिया था, जो अब उनके काम आ रहा था.
तबसे गोपाल की देखभाल के साथ-साथ बुआ इस ओर भी ध्यान देने लगीं. वे प्रयः बगीचों-खेतों में खुरपी लिये घूमती नजर आतीं. जो दवा वहां न मिलती, उसे वे शहर से मंगा लेतीं. लेकिन उन्होंने कभी किसी से पैसे नहीं लिए. इस सब में उन्हें आत्मिक सुख मिलता. तभी तो वे आधी रात को भी बुलाए जाने पर दौड़ी चली जातीं. इसके लिए उनके मन में किसी प्रकार का भेदभाव नहीं रहा. वे दीनानाथ दुबे के घर जिस भाव से जातीं, उसी भाव से रहमान अली, बुधवा चमार,या बंसी पासी के यहां भी जातीं. प्रारंभ में बड़े मोहल्ले वालों ने दबी जुबान कहा भी, "बुआ, तुम नीच कौम के घर न जाया करो---- उन सबका रहन-सहन ठीक नहीं है." बुआ ने तुरन्त उत्तर दिया था, "व्यक्ति कौम से नीच नहीं, विचार और कर्म से होता है---- मुझे तो कुछ अटपटा नहीं लगता उनके यहां जाकर-----
उसके बाद किसी का साहस नहीं हुआ उनसे कुछ कहने का.
बुआ की सबसे बड़ी चिन्ता थी गोपाल को किसी योग्य बनाने की. वे उसे पढा-लिखाकर अफसर बनाना चाहती थीं. और एक दिन गोपाल ने उनकी यह इच्छा पूरी कर दी तो वे फूली न समायी थीं. गोपाल किसी प्रशासनिक पद पर जमशेदपुर चला गया था. गांव भर में बुआ ने प्रसाद बांटा था. रात में सोचती रहीं थीं, ’भौजाई अगर आज होती तो कितना खुश होती!’
उन्होंने भाई पर दबाव डालकर जल्दी ही गोपाल को सात फेरों में बंधवा दिया और भाई को भी खेती की जिम्मेदारियों से कुछ दिनों के लिए मुक्त कर बेटे के साथ जमशेदपुर भेज दिया, थोडे दोनों तक आराम करने के लिए. लेकिन सुखराम वहां जाते ही बीमार पड़ गये और बीमारी ऎसी कि जानलेवा सिद्ध हुई. खबर पाते ही बुआ दौड़ी गयीं,लेकिन तब तक सुखराम भी जा चुके थे. बुआ ने पहली बार अपने को हारी-थकी और टूटी महसूस किया. उन्हें लगा कि जैसे वे एकाएक बूढ़ी हो गयी हैं---- बेहद बूढ़ी. वे कुछ महीने गोपाल के पास रहीं, परंतु उनका मन वहां नहीं रमा. वापस रामगढ़ी लौट आयीं.
उसके बाद बुआ का जैसे दिल ही टूट गया. उनका मन अशांत-सा रहने लगा. गांव लौटते ही उन्होंने खेत बटाई पर दे दिए और दिन भर चारपाई पर लेटी आसमान की ओर शून्य में निहारती रहतीं, जहां उनके देखते ही-देखते कितने ही उनके अपनों की आत्माएं विलीन हो चुकी थीं. कभी मन हुआ तो किसी के चबूतरे पर जा बैठतीं या खेतों और बगीचों में भटकती रहतीं--- कभी किसी दवा की तलाश में और कभी निरुद्देश्य ही.
रमेश को जब पता चला तो वह एक दिन लिवाने आ पहुंचा. मन बदलने के लिए वे भोपाल चली गयीं. लेकिन वहां भी उनका मन नहीं रमा और चौथे महीने ही वापस लौट आयीं. फिर तीन साल तक कहीं नहीं गईं. गोपाल और रमेश ही कभी-कभी दो-चार दिन के लिए उनके पास आकर रह जाते. जाते समय वे साथ चलने का आग्रह करते तो वे कहतीं, "बुढ़ापा भी यहीं कट जाने दो, बबुआ. गांव से कटकर जीना मुश्किल हो जायेगा."
"बुढ़ापे में ही तो आपको किसी की सेवा की जरूरत है----- बीमारी में यहां कौन देखभाल करेगा आपकी?"
"अरे, ये गांववाले जो हैं---- सब अपने ही तो हैं." बुआ तपाक से कहतीं तो वे चुप हो जाते.
लेकिन न जाने की कसम उन्होंने नहीं खायी थी. रमेश की बहू के जब पैर भारी थे, वे कुछ दिनों के लिए फिर भोपाल गयी थीं और इस बार गोपाल की बहू की बीमारी की खबर पाकर वे जमशेदपुर दौड़ी चली गयीं और पूरे छः महीने रहीं. चलते समय वे गोपाल से बोली थीं, "बबुआ, अब शरीर साथ नहीं देता. दौड़-धूप नहीं हो पाती. तुम कुछ दिन की छुट्टी लेकर गांव आओ और खेतों का कुछ बन्दोबस्त कर जाओ."
"बुआ, नौकरी और गांव की जमीन एक साथ कैसे संभाल पाऊंगा---- बेच क्यों न दी जाय."
"पुरखन की निशानी है, बबुआ!" उदास नजरों से गोपाल की ओर देखते हुए उन्होंने कहा था, "फिर जैसी तुम्हारी मर्जी---- पर मेरे जीते-जी मत बेचना---- बाद में जो इच्छा हो---." बुआ की आंखें डबडबा आयी थीं और गोपाल नजरें झुकाए उनके खुरदरे पैरों की ओर देखता रह गया था.
रात भर की सर्दी के बाद दोपहर की कुनकुनी धूप कुछ भली लग रही थी. घर के सामने नीम के पेड़ से कुछ परे हटकर चारपाई डालकर बुआ लेटे धूप सेंक रही थीं और सोच रहीं थी गोपाल के बारे में. वे उसे तीन चिट्ठियां डाल चुकी थीं, लेकिन एक का भी उत्तर उन्हें नहीं मिला था. तीन महीने बीत चुके थे. "कहीं बहू की तबीयत फिर तो खराब नही हो गई? कहीं मेरे जीते-जी जमीन बेचने की बात कहने पर बबुआ नाराज तो नहीं हो गया? एक विचार की लहर उनके मन में उठती और समाधान न पा दूसरे विचार का रूप ले लेती. तभी उन्हें पगले की चीखने की आवाज सुनाई पड़ी. वे उठ बैठीं. देखा मोहल्ले के तीन लड़के उसे दौड़ाए ला रहे हैं. बुआ को देखते ही वे तीनों पेड़ के पीछे ठिठक गये. लड़कों से भयभीत पगला बुआ की चारपाई पर औंधा आ गिरा.
"क्यों सता रहे हो इसे तुम लोग----- इधर आओ कुन्नू, रम्मू---- बिज्जू----."
तीनों पेड़ की ओट में खड़े रहे.
"अगर नहीं आओगे तो मैं सबके घर शिकायत करूंगी."
तीनों कुछ कदम आगे बढ़े, लेकिन फिर वापस मुड़कर भाग खड़े हुए. बुआ पगले पर बिगड़ने लगीं, "कितनी बार कहा, उधर मत जाया कर, लेकिन तू है कि पिटने के लिए जायेगा जरूर. जब अकल नहीं तो क्यों मरता है जाकर उन सबके बीच!"
"क्यों डांट रही हैं बुआ?" गुरनाम अपनी बेटी को कन्धे से चिपकाए निकला.
"पिटता है, फिर भी लड़कों के बीच जा घुसता है." पगले की पीठ पर हल्की-सी चपत लगाते हुए वे बोलीं, "तुम कहां लिए जा रहे हो कमली को?"
"डॉक्टर बाबू के पास."
"डॉक्टर----?" बुआ चौंकी.
"हां, बुआ ! कस्बे के एक डॉक्टर बाबू आ गए हैं गांव मा. पन्द्रह दिन ते ऊपर हुई गए. परधान के बैठका में खोला है उन्होंने अपना दवाखाना. पराईवेट है इलाज पर चारज ठीक-ठाक ही करत हैं----- बड़ी अच्छी दवा देत हैं."
"ओह!" बुआ ने निश्वास छोड़ी और फिर लेट गयीं.
गुरनाम चला गया तो वे सोचने लगीं उस डॉक्टर के बारे में और गांव के बारे में. पगला उनके सिरहाने बैठकर उंगलियों से उनके बाल सहलाने लगा.उन्हें नींद आ गई. वे स्वप्न देखने लगीं. स्वप्न में कोई उन्हें पुकार रहा है. आवाज पहचानी-सी लग रही है. वे आवाज का पीछा करते-करते शून्य में उड़ने लगीं. जैसे-जैसे वे आवाज के निकट पहुंचने की कोशिश करती हैं, वह दूर और दूर होती जाती है. वे अचम्भित हैं कि जानी-पहचानी होते हुए भी वे उसे पहचान क्यों नहीं पा रहीं----- और तभी उन्हें लगा कि यह तो सुखराम की आवाज है----- नहीं, यह भौजी------ नहीं, मां नहीं, पिता की आवाज है. लेकिन तभी डाकिए की आवाज से उनकी नींद खुल गयी. वे उठ बैठीं. उनका दिल धड़क रहा था.
डाकिए ने उन्हें पत्र थमा दिया. गोपाल का है.
"तुम्हीं पढ़ दो, डाकिया बाबू." वे अभी भी प्रकृतिस्थ न हो पायी हैं.
डाकिए ने पत्र पढ़कर सुना दिया. गोपाल कल शाम की गाड़ी से आ रहा है, सुनकर उनका मन कुछ शांत हुआ.डाकिया चला गया. धूप भी सिमटकर नीम की शाखाओं पर चढ़ गई थी. उन्होंने पगले से चारपाई उठवाई और अन्दर चली गईं. सर्दी फिर बढ़ने लगी है. धीरे-धीरे सांझ मुंडेर से नीचे उतरने लगी तो उन्होंने बरौसी में कुछ लड़कियां और कंडे डाल दिए और पगले को तापने के लिए बैठाकर खुद भी तापने लगीं.
रात में सर्दी का आलम कुछ विचित्र ही रहा. शायद ही कभी ऎसी गजब की सर्दी पड़ी हो. रात भर बर्फीली हवा दरवाजे से सिर टकराती रही किसी उन्मत्त हाथी की तरह. पगला रात भर तख्त पर रजाई में उकड़ूं हुआ कांपता रहा और सोचता रहा, कब सबेरा हो और कब बुआ बरौसी गर्माएं--- चाय बनाएं. वह जागता रहा और कुड़कुड़ाता रहा. और यों ही रात बिता दी. कौओं का झुण्ड कांव-कांव करता हुआ आंगन के ऊपर से गुजरा तो उसने सोचा, ’शायद सबेरा हो गया है. लेकिन बुआ अभी तक क्यों नहीं जागी?’ ठण्ड के कारण उसकी हिम्मत उठने की नहीं हुई, अतः वह लेटा ही रहा.
थोड़ी देर बाद गली से कुछ लोगों के आने-जाने की आहट उसे मिली. उसने रजाई से सिर बाहर निकाला तो देखा उजाला चारों ओर फैला हुआ है. बुआ की चारपाई पर नजर डाली, वे अभी भी सिर ढंके गुड़ी-मुड़ी हुई लेटी हैं.पगला परेशान हुआ. वह उनकी चारपाई के पास गया और कुछ देर तक खड़ा देखता रहा. फिर उसने उनके सिर पर से रजाई हटा दी. बुआ के शरीर ने तब भी कोई हरकत नहीं की. उसने उनके माथे और बालों पर हाथ फेरा, लेकिन बुआ का शरीर निस्पन्द रहा. अब वह विचलित हो उठा.उसने उनके ऊपर रजाई डाल दी और दरवाजा खोलकर बाहर निकल आया. वह दौड़ने लगा और चीखते हुए कहने लगा, "गांववालों ----- बुआ हमें छोड़ गयीं----- देखो बुआ चली गयीं----- बिद्दा हुआ मर गयीं----- सब कुछ खतम हुई गवा."
वह पूरे गांव में दरवाजे-दरवाजे दौड़ता-चीखता फिरा, लेकिन किसी ने भी उसे रोककर कुछ नहीं पूछा. अपने-अपने काम में मशगूल सबने केवल इतना ही कहा, "स्साले पर फिर पगलाहट सवार हो गई है."
गांव में चक्कर लगाकर हांफता हुआ वह बुआ के पैताने आकर जमीन पर घुटने टेककर बैठ गया और उनके पैर पकड़कर फूट-फूटकर रोने लगा.
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